Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
________________
११७०
आचारांगसूत्रे
टीका - पर्वताधिकारवक्तव्यताशेषमुपसंहरन्नाह - 'तहप्पगारेहि जणेहिं हीलिए' तथाप्रकारैः - द्वितीय कारिकोक्तदुष्टानार्यरूपैः जनैः - पुरुषैः हीलितः - तर्जितः ताडितश्च, एवं 'स सदफ साफसा उईरिया' सशब्दस्पर्शैः परुषैः - कठोरैः मर्मस्थल वेधकैः असभ्यालीलशब्दस्पर्शसहितैः तीक्ष्णवचनैरित्यर्थः उदीरितः कथितः अत्यन्त तीव्रकठोराक्रोशवचनैः कदर्थितः अपमानितो भूत्वापि भावसाधुः तितिक्खए नाणि अदुवेयसा' तितिक्षते तान - परिषहान् सहते ज्ञानी - पूर्णविज्ञः स भावमुनिः अदुष्टचेतसा - कालुष्यरहितमनसा युक्तत्वात् ममैव जन्मान्तरकृतदुष्कर्मफलमेतदिति बुद्धया विमृश्य मयैवैतद् भोक्तव्यमिति जानन् अनार्य पुरुष द्वारा कृतोपद्रवैः प्रकम्पितो न भवति इति दृष्टान्तद्वारा प्ररूपयन्नाह - 'गिरिव्व वारण न संपवेयर' गिरिरिव पर्वत इव वातेन वायुना-झंझावावेनापि इत्यर्थः यथा न संप्रवेपतेकम्पितो न भवति तथैव संयमनिष्ठो मात्र साधुरपि उक्तपरीषहोपसर्गैः अनार्यदुष्टजनोपद्रवैः विचलितो न भवतीति भावः ॥ ३ ॥
अब पर्वताधिकार की अवशिष्ट वक्तव्यता का उपसंहार करते हैं'तहपगारेहि जणेहिं हीलिए ||३|| तथाप्रकारैः याने उपर्युक्त द्वितीय कारिका में कहे गये अनार्य दुष्ट रूप पुरुषों से होलित याने तर्जित और ताडित होकर और 'ससह फासा फरुसा उईरिया' अत्यन्त कठोर मर्मस्थल वेधक अस भ्य अश्लील शब्द स्पर्श सहित तीखे वचनों से घायल होकर अर्थात् अत्यन्त तीव्र कठोर आक्रोश वचनों से कदर्थित याने अपमानित होकर भी भावसाधु 'नितिक्खए' तितिक्षा करते हैं याने उन परीषहों को सहते हैं 'नाणी अदुट्ठचेयसा' एतावता ज्ञानी अर्थात् पूर्ण विज्ञ वह भावसाधु अदुष्ट चित्त से याने कालुष्य रहित मन से युक्त होकर मेरे ही जन्मान्तर में किये हुए बुरे कर्मों का यह फल है इसलिये मुझे ही इसका फल भोगना चाहिये ऐसा विचार कर अनार्य 'दुष्ट पुरुष द्वारा किये गये उपद्रवों से घबडाते नहीं है इसी को दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं - जिस प्रकार 'गिरिव्व वाएग न सपवेइए' झंझावात से भी पर्वत कम्पित नहीं होता है वैसे ही संयमनिष्ठ निर्ग्रन्थ जैन साधु भी उपर्युक्त परीषहोहवे पर्वताधिारना जीना अपना उपसंहार ४२तां हे छे- 'तहप्पगारेहिं जणेहिं દોહિ” એ ઉપરોક્ત બીજી ગાથામાં કહેવામાં આવેલ અનાય દુષ્ટ પુરૂષાથી તિરસ્કૃત मने ताडित थाने 'ससहफासा फरुसा उईरिया' अत्यत होर निंदा वयनाथी अपमानित थाने पाशु आत्मार्थी साधु तितिक्षा रे छे. अर्थात् से परीषहोने सहन १रे छे. 'तिति• क्ख नाणि अदुटुचेयसा' ज्ञानी अर्थात् पूर्ण विज्ञ से आत्मार्थी साधु महुष्ट चित्तथी अर्थात् નિ`લ મનથી યુક્ત થઈને મે' જ જન્માન્તરમાં કરેલા ખુરા ક્રમેŕનું આ ફળ છે. તેથી તે મારે જ ભેગવવું જોઇએ એમ વિચારીને અનાય દુષ્ટ પુરૂષોએ કરેલા ઉપદ્રવેાથી ગલराता नथी ये बात दृष्टान्त द्वारा मतावतां हे छे - 'गिरिव्व वाएण न संपवेयए' लेभ
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪