Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० २ अ. १३ परक्रियानिषेधः
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सप्तैककाध्ययनं समुपसंहरन्नाह - 'एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं' एतत् खलु परक्रियाप्रतिषेधरूपं संयमानुष्ठानं तस्य भिक्षुकस्य भावसाधोः, भिक्षुक्याश्च - भावसाध्याश्च सामग्र्यम् - समग्रता, सम्पूर्णः आचारः 'जं सव्वद्वेहिं समिए सहिए सयाजए' यत्सामग्र्यं सर्वार्थ: - सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रः समितिभिः पञ्चभिः, तिसृभिश्च गुप्तिभिः सहितः सदा यतेत, 'सेयमणं मन्निजासि' श्रेयः कल्याणम् इदम् - संयमानुष्ठानं मन्येत 'त्तिबेमि' इत्यहं ब्रवीमि । 'छट्टओ सत्तिक्क भो समत्तो' पष्ठी सप्तिका समाप्ता ॥ १३ ॥ ०२ ॥
इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाष / कलित-ललितकला पालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थ निर्मापक-वादिमानमर्दक- श्री शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनशास्त्राचार्य' - पदविभूषित - कोल्हापुर राजगुरु - बालब्रह्मचारी जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर - पूज्यश्री घासीलाल - व्रतिविरचितायां श्री आचारांगसूत्रस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य मर्मप्रकाशिका - ख्यायां व्याख्यायां पञ्चमी सप्तिका नाम त्रयोदशमध्ययनम् समाप्तम् ॥२- १३॥
के विना पूर्व जन्मोपार्जित कर्मों का नाश नहीं होता है इसलिये जो जो अच्छा या बुरा जो कुछ भी आता है उस को एक साथ गिनकर सहन करना चाहिये क्योंकि मनुष्य जन्म के अलावा दूसरे किसी भी जन्म में फिर अच्छा या बुरा कर्म का ज्ञान नहीं होगा इसलिये मनुष्य जन्म पाकर सभी प्रकार के कर्मों के फलों को भोगलेना चाहिये कहा भी है- 'ना भुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटि शतैरपि, प्रारब्धकर्मणां भोगादेवक्षयः' इत्यादि ! अर्थात् सौ करोड जन्मों में भी प्रारब्ध कर्मों का भोग सेही नाश होता है, और प्रारब्ध कर्मों का भोगसे ही क्षय होता है इसलिये दुष्कर्मों के दुःख रूप फलों को सहन करना चाहिये ।
अब त्रयोदश सप्तकैकक अध्ययन का अन्त में उपसंहार करते हुए कहते हैं कि 'एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं' यह पूर्वोक्त परा
સારૂં કે ખુરૂ જે કંઇ આવે તેને એક સાથે જ સહન કરી લેવુ જોઈએ. કહ્યું પણ છે. 'ना भुक्तं क्षीयते कर्म' इत्यादि अर्थात् ४ उपायथी पशु प्रारब्ध ४ लोगव्या विना નાશ પામતા નથી. તથા કરેડા જન્મમાં પ્રારબ્ધ કર્મોના ભાગથી જ ક્ષય થાય છે. તેથી દુષ્કર્મોના દુઃખ રૂપ ળાને સહન કરવા જોઈએ.
हवे आ तेरमा सप्त४ अध्ययनतो उपसंहार उरतां उड़े छे. 'एयं खलु तस्स भिक्खुस्स' या पूर्वेति परडियाना निषेध ३५ सयभनु अनुष्ठान को साधु ने 'भिक्खु
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪