Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आवारांगसूत्रे कम्-तथाविधम्-पापादियुक्तम् मनो नो प्राधारयेत्-न धारयेत् ‘गमणाए' गमनाय-गन्तुम्एतादृशं मनः प्रधारयन् यदि क्वचित् गच्छेत्तर्हि अनीर्यासमितत्वात् स नो निर्ग्रन्थः साधुः, किन्तु 'मणं परिजाणइ से निग्गंथे' यो मनः परिजानाति-प्राणातिपातक्रियातो निवर्तयति स एव साधुरिति 'दुच्चा भावणा २' द्वितीया भावना प्राणातिपातविरमणस्य प्रथममहाव्रतस्य अवगन्तव्या, सम्प्रति तृतीयां भावनां वचःशुद्धिरूपाम् प्ररूपयितुमाह-'अहावरा तच्चा भावणाअथ अपरा-अन्या तृतीया भावना प्ररूप्यते-'वई परिजाणइ से निग्गंथे' वाचं परिजानातिपापमयं वचनं यः परित्यजति स निग्रन्थः साधु: 'जा य वई पाविया सावज्जा सकिरिया' या च वाणीवाक् पापिका पापयुक्ता, सविद्या-न निरवधा-स गर्या, सक्रिया-हिंसादिक्रियाकारिणी इस प्रकार के मन को धारण नहीं करे साधु यदि 'गमणाए-कहीं गमन करेगा तो वह अनीयर्या समिति से युक्त होने से निर्ग्रन्थ नहीं हो सकता किन्तु-'मनं परिजाणेइ से निग्गंथे-जो साधु अपने मन को अच्छी तरह जानता है याने सर्व प्रकार की प्राणातिपात क्रिया से हटाता है वही सच्चा निग्रंथ है और-- 'जे य मणे अपावएत्ति' जिस साधु का मन पाप रहित है वही सच्चा साधु है'दुच्चा भावणा' यह दूसरी भावना हुई अर्थात् सर्व प्राणातिपात विरमण रूप प्रथम महाव्रत की यह दूसरी भावना समझनी चाहिये।
अब वचन शुद्धि रूप तीसरी भावना का निरूपण करते हैं-'अहावरा तच्चा भावणा'-अथ यह अपरा अन्या तीसरी भावना इस प्रकार समझनी चाहिये कि-'वई परिजाणइ से निग्गथे' जो साधु वाणी को अच्छी तरह जानता है अर्थात् जो साधु पापमय वचन को छोड़ देता है वही साधु सच्चा निग्रन्थ माना जाता है किन्तु-'जा य वई पाविया सावजा सकिरिया जिस साधु की वाणी पाप युक्त है एवं सावद्या याने निरवद्या नहीं है अर्थात् सगा है एवं सक्रिया रेतात अनार्यासमितिथी युत थनिय शता नथी. परतुर साधु 'मण વિજ્ઞાન પિતાના મનને સારી રીતે જાણે છે, અર્થાત્ સર્વ પ્રકારની પ્રણાતિપાતક્રિયાથી દૂર ४२ छ. मेरा साया नियन्य छ, तथा 'जे य मणे अपावएत्ति' २ सानु भन या५ विनानु छ. मे ४ साये। साधु छ. 'दुच्चा भावणा' शतनी भी माना ही છે. અર્થાત્ સર્વ પ્રાણાતિપાત વિરમણરૂપ પહેલા મહાવ્રતની આ બીજી ભાવના સમજવી.
वे यन शुद्धि३५ त्री मानानु नि३५५ १२ छ.-'अहावरा तच्चा भावणा' वे 20 की भावना २ रीत छ 'वई परिजाणइ' रे साधु वाणी सारी तणे छ. अर्थात् २ पापमय क्यन स्यारता नथी. 'से निग्गंथे' से साधु साया नियन्य अपाय 9. परंतु 'जा य वई पाविया' २ साधुनी व पाय युद्धत छ. तथा 'सावज्जा' સાવધા અર્થાત નિરવદ્ય નથી. એટલે સગર્યા છે, અને ‘ક્રિપિચ' સક્રિય હિંસાદિ ક્રિયા १२नारी. 'जाव भूओषधाइयां' यावत् रे साधुनी पाणी पिणी - आरी छे.
श्री सागसूत्र :४