Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे प्ररूपयितुमाह-'अहावरा दुच्चा भावणा'-अथ-प्रथमभावनाप्ररूपणानन्तरम् अपरा-अन्या द्वितीया भावना प्ररूप्यते-'अणुनविय पाणमोयणभोई से निग्गंथे' यः अनुज्ञाप्य गुर्वाधाज्ञा गृहीत्वा पानभोजनभोजी-माहारपान मोक्ता भवति स निर्ग्रन्थः साधुरुच्यते 'नो अणणुन. वित्र पाणभोयणभोई 'नो अननुज्ञाप्य -गुर्वाधाज्ञाम् अगृहीत्वैव पानभोजनभोजी-आहारपान कर्ता साधुः संभवतीति भावः, तत्र हेतुमाद-'केवलीबूया-आयाणमेयं' केवली-केवलज्ञानी भगवान् जिनेन्द्रः ब्रूयात्-आह, आदानम् -कर्मबन्धहेतुः एतत्-गुर्वाधाज्ञां विनैव भोजनपानग्रहणम् कर्मबन्धकारणं भावतीति भावः, तत्र युक्तिमाह-'अणणुन्नविय पाणभोयणभोई से निग्गंथे अदिन्नं झुनिज्जा' अननुज्ञाप्य-गुर्वाधाज्ञाय इणं विनैव पानभोजनभोजी स निर्ग्रन्थः
अब अदत्तादानविरमण रूप तृतीय महाव्रत की दूसरी भावना का निरूपण करते हैं-'अहावरा दुच्चा भावणा' अथ अदत्तादान विरमण रूप तृतीय महाव्रत की प्रथम भावना के निरूपण करने के बाद अब अपरा अन्या अर्थात् द्वितीय भावना वक्ष्यमाणरूप से जाननी चाहिये-जो साधु 'अणुण्णविय पाणभोयण भोई से निग्गंथे' अनुज्ञापन करके अर्थातू गुरु आचार्य वगैरह बडों की आज्ञा लेकर आहार पान करता हैं वही वास्तव में निर्ग्रन्थ जैन साधु हो सकता है किन्तु 'नो अणुन्नविअपाणभोयणभोई' जो साधु गुरु आचार्य वगैरह की आज्ञा नहीं लेकर ही पानी भोजन करता है वह निर्ग्रन्थ सच्चा जैन साधु नहीं हो सकता क्योंकि केवलीबूया' केवलज्ञानी वीतराग भगवान् श्री महावीरस्वामी ने कहा है कि-'आयाणमेयं' यह गुरु आचार्य वगैरह की आज्ञा नहीं लेकर ही पान भोजन ग्रहण करना आदान याने कर्मबन्ध का कारण माना जाता है, क्योंकि 'अणुण्णविय पाणभोयण भोई से निग्गंथे' गुरु वगैरह की आज्ञा ग्रहण किये बिना ही पान भोजन करने वाला साधु 'अदिन्नं भुंजिजा' अदत्त का पान
- હવે અદત્તાદાન વિરમણરૂપ ત્રીજા મહાવ્રતની બીજી ભાવનાનું નિરૂપણ કરવામાં भावे छ.-'अहावरा दुच्चा भाषणा' महत्तान (१२७३५ श्री माननी पडसी ભાવનાનું નિરૂપણ કર્યા પછી હવે અન્ય અર્થાતુ બીજી ભાવના વયમાણ રીતે સમજવી. 'अणुण्णपिय पाणभोयणभोइ से निग्गंथे' रे साधु मनुज्ञापन ४शत अर्थात् २३ माया વિગેરેની આજ્ઞા લઈને આહાર પાન કરે છે. એ જ વાસ્તવિક રીતે નિગ્રંથ મુનિ કહેવાય छ. परंतु 'णो अणणुन्नविय पाणभोयणभोइ' रे सधु मायाय विरेनी आज्ञा सीधा विना पान न छ. से साया नियन्य सैन साधु ४ाता नथी. भ3-केवलीया आयाणमेयं ज्ञानी पीत। भगवान् श्रीमहावीर स्वामी ४थु छ -मा अर्थात् ગુરૂ આચાર્ય વિગેરેની આજ્ઞા લીધા વિના જ પન ભોજન ગ્રહણ કરવું તે આદાન અર્થાત્
धनु ४२६ भानामा मावे छ. म , 'अणणुन्नविय पाणभोयणभोइ' शु३ विगैरेनी भासा त या विना आहार पान ४२नार, 'से निगंथे अदिन्न भुजिज्जा' साधु मुनि
श्री माया
सूत्र:४