Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1151
________________ ११४० आचारांगसूत्रे यावत्-शान्तितः केवलज्ञानि प्रतिपादिताद् धर्मात्-जैनधर्माद् भ्रश्येत्-भ्रष्टो भवेत, तस्माद् 'नो निग्गंथे इत्थीणं मणोहराई मणोहराई इंदियाई' नो निर्ग्रन्थः-साधुः स्त्रीणां मनोहराणि मनोहराणि-अत्यन्तरमणीयानि इन्द्रियाणि-मुखनयनप्रभृत्यवयवानि 'आलोइत्तए निज्झाइत्तए' सियत्ति' आलोकयिता-अवलोकनकर्ता, निाता-ध्यानस्मरणकर्ता वा स्यात्-नो भवेदिति 'दुच्चा भावणा' द्वितीया भावना अवगन्तव्या सम्प्रति तस्यैव चतुर्थ महावतस्य तृतीयां भावनां प्ररूपयितुमाह-'अहावरा तच्चा भावणा' अथ-द्वितीय भावना प्ररूपणानन्तरम् तृतीया भावना प्ररूप्यते-'नो निग्गंथे इत्थीणं पुव्वरयाई पुनकिलियाई सुमरित्तए सिया' नो निर्ग्रन्थः साधुः तीर्थकर जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित जैनधर्म से भी भ्रष्ट हो सकता है अर्थात् निर्ग्रन्थ जैन साधु यदि युवती स्त्रीजाति के अत्यन्त रमणीय मुखनयन स्तनादि इन्द्रियों का कामवासना से अवलोकन ध्यान मनन या स्मरण करेगा तो केवल. ज्ञानी जिनेन्द्र भगवान् तीर्थकर के द्वारा शान्ति के लिये प्रतिपादित जैनधर्म से भी विचलित हो जायगा इसलिये 'नो निग्गंथेणं इत्थीणं मणोहराई मणोहराई' निर्गन्ध जैन साधु को स्त्रियों के अत्यन्त रमणीय 'इंदियाई' मुखनयनादि इन्द्रियों का 'आलोइत्तए' अवलोकन नहीं करना चाहिये एवं 'निज्झाइत्तए' युवती स्त्रियों के मुखनयनादि रमणीय अंगों का ध्यान मनन चिन्तन भी नहीं करना चाहिये एवं स्त्रियों के मुखनयनादि इन्द्रियों का कामभावना से स्मरण भी नहीं करना चाहिये, इस प्रकार मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महावत की 'दुच्चा भावणा' यह दूसरी भावना समझनी चाहिये ।। ____अब उसी सर्वविध मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महाव्रत की तृतीय भावना का निरूपण करते हैं-'अहावरा तच्चा भावणा' अथ उसी चतुर्थ महावत अर्थात् ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ પ્રતિપાદન કરેલ જૈન ધર્મથી પણ ભ્રષ્ટ થાય છે. જૈનમુનિ જે યુવતી સ્ત્રીના અત્યંત મહત્પાદક મુખનયનાદિ અવયને કામભાવથી અવલેકિન ધ્યાન કે મનન અને સ્મરણ કરે તે કેવળજ્ઞાની જીનેન્દ્ર ભગવાન તીર્થકરે શાંતિ भाटे प्रतिपान ४२० नयम था पतित थाय छ. तथा 'नो निग्गथे इत्थीण मणोहराई मणोहराइं इंदियाई अलोइत्तए' निन्थ भूनिये सियाना अत्यंत रमणीय भुम नयनाle धन्द्रियानु अqali ४२ नही, 'निज्झाइत्तए सियत्ति दुच्चा भावणा' तथा युक्तानियोना મુખ નયનાદિ રમણીય અંગોનું ધ્યાન મનન કે ચિંતન કરવું નહીં તથા સિના મુખ નયનાદિ અધ્યનું કામ ભાવનાથી સ્મરણ પણ કરવું નહીં. એ પ્રમાણે મૈથુન વિરમણ રૂ૫ ચોથા મહાવ્રતની આ બીજી ભાવના સમજવી. હવે એ સર્વવિધ મૈથુન વિરમણરૂપ ચોથા મહાવતની ત્રીજી ભાવનાનું નિરૂપણ ४२वामां आवे छ-'अहावरा तच्चा भावणो' से. याथा भाबत सविध भैथुन વિરમણરૂપ ચેથા મહાવ્રતની બીજી ભાવનાનું નિરૂપણ કરીને હવે ત્રીજી ભાવનાનું નિરૂપણ श्री सागसूत्र :४

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