Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1172
________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतरकंध १ सू० १० अ० १५ भावनाध्ययनम् ११६१ - हेतुर्भवतीति भावः तथाहि 'निगंथे णं मणुन्नामणुन्नेहिं फासेहिं' निर्ग्रन्थः खलु साधुः, मनोज्ञामनोज्ञैः प्रियाप्रियैः स्पर्शे:- मृदुकठोरप्रभृतिस्पर्शेषु 'सज्नमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे' सज्जमानः आसक्तो भवन् यावत्- रज्यन्-अनुरक्तो भवन् गृध्यन् ग कुर्वन् मुहान्मोहं प्राप्नुवन विनिर्घातम् - विनाशम् आपद्यमानः सन् 'संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवली पद्मत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा' शान्तिभेदकः - चारित्र समाधिरूपशान्तिभेदनकर्ता - शान्तिविभञ्जक :- ब्रह्मचर्यरूपशान्ति विभङ्गकारकः शान्ति के लिप्रज्ञताद् धर्मात् - केवल ज्ञानि तीर्थकृत्प्रतिपादिताद् जिनधर्माद् भ्रश्येत् - भ्रष्टो भवेत्, अथ च 'न सक्का फासमवेएउं, फासबिसयमागयं' न शक्यम् स्पर्शम् अस्प्रष्टुम् स्पर्शविषयमागतम् - स्पर्शेन्द्रियरूपत्वगिन्द्रियगोचरीभूतं मृदुकठोरादिस्पर्शम् अस्प्रष्टुमशक्यम्, अवश्यमेव त्वगिन्द्रियविषयभूतः स्पर्शः स्पर्शग्राह्यो क्योंकि 'निरगंथे णं मणुण्णामगुण्णेहिं फासेहिं सज्जमाणे' निर्ग्रन्थ जैन साधु मनोज्ञामनोज्ञ प्रिय अप्रिय कोमल मृदु कठिनादि स्पर्शो में आसक्त होता हुआ 'जाव विणिधाय मावज्जमाणे' यावत् एवं मृदु कठिनादि स्पर्शो में अनुरक्त होता हुआ तथा प्रिय अप्रिय मृदु कठिनादि स्पर्शो के लिये गर्भा अर्थात् लोभ करता हुआ एवं मृदु कठिनादि स्पर्शो के लिये मोह करता हुआ प्रिय अप्रिय मृदु कठिनादि स्पर्शो के लिये विनिर्घात अर्थात् विनाश को प्राप्त करता हुआ निर्ग्रन्थ जैन साधु 'संति भेया' शान्ति भेदक होता है याने चारित्र समाधि रूप शान्ति का भंग करनेवाला होता है तथा 'संति विभंगा' ब्रह्मचर्य रूप शान्ति का विभंग करनेवाला भी समझा जाता है एवं 'संति केवली पन्नत्ताओ धम्माओ सज्जा' शान्ति के लिये केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी से प्रतिपादित जैन धर्म से भो भ्रष्ट हो जाता है और 'न सक्का फासमवेए उं फास. विस माग' स्पर्शेन्द्रिय रूप त्वगिन्द्रिय को विषयीभूत मृदु कठिनादि स्पर्शो को अनिवार्य रूप से स्पर्श करना परमावश्यक माना जाता है इसलिये 'रागआवे छे. 'निग्गंथेणं मणुष्णामणुष्णेहिं फासेहिं' निर्भय भुनियो मनोज्ञामनोज्ञ प्रिय प्रिय अभा भृहु ४४ विगेरे शब्दोमा 'सज्जमाणे जाव विणिधाय मावज्जमा અંતિમય આસક્ત થનાર યાવત મૃદુ કઠિનાદિ સ્પર્ધામાં અનુરક્ત થનાર તથા પ્રિયઅપ્રિય શબ્દેમાં ગધ્યું અર્થાત્ લેાલ કરનારા તેમજ મૃદુ કનિાદિ સ્પર્શી માટે મેહ કરનારા તથા પ્રિયઅપ્રિય મૃદુ કઠિનદિ શબ્દે માટે વનિર્ભ્રાત અર્થાત્ વિનાશ પ્રાપ્ત કરનારા નિન્ય સુનિ શાંતિભેદક થાય છે. અર્થાત્ ચારિત્ર સમાધિરૂપ શાંતિના ભંગ કરનાર थाय छे. 'संति विभंगा संति केवलि पण्णत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा' तथा ब्रह्मर्य३५ शांतिना लग કરનારા પણ કહેવાય છે. તથા શાંતિમાટે કેવળજ્ઞાની વીતરાગ ભગવાન શ્રીમાવીર સ્વામીએ પ્રતિપાદન કરેલ જૈન ધમ થી પણ भ्रष्ट थाय छे भने 'न सक्का फासमवेएउ फासविसायमागयं' स्पर्शेन्द्रिय३५ वन्द्रियना विषयीभूतभृद्ध उडिनाहि स्पर्शनि आ० १४६ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪

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