Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1164
________________ प्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. १० अ. १५ भावनाध्ययनम् ११५३ विनिर्घातमापद्यमान: - राग द्वेषवशी भूतः सन् विनाशं प्रतिपद्यमानः 'संति भेया जाव भंसिज्जा' शान्तिभेदकः - चारित्र समाधिरूपशान्तिभेदनकर्ता यावत् - शान्तिविभंजक:- ब्रह्मचर्य रूपशान्ति विभङ्गकारकः, शान्तितः केवलज्ञानि तीर्थकृत् प्रतिपादितात् धर्माद् जैनधर्माद् भ्रश्येत् - भ्रष्टो भवेदिति भावः अथ च 'न सक्का रूवमद्ददतु, चक्खु बिसयमा गयं' न शक्यं रूपम् अद्रष्टुम चक्षुविषयमागतम् नयनगोचरीभूतं रूपम् अद्रष्टुम् - अनवलोकयितुं न शक्यमित्यर्थः एतावता चक्षुर्विषयभूतं रूपम् अवश्यमेव दृश्यते नतु दर्शनानर्ह कथमपि संभवतीति फलितम् किन्तु 'रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए' रागद्वेषौ तु यौ तत्र - रूपविषये उत्पद्येते, तौरागद्वेषौ भिक्षुः- साधुः परिवर्जयेत् परित्यजेदिति भावः, यतः 'चक्खूओ जीवो मणुन्नाहोकर विनाश को भी प्राप्त करता हुआ 'संतिभेया जाव भंसिज्जा' शान्ति का भेदक हो जाता है याने चारित्र समाधि रूप शान्ति का भेदन करनेवाला हो जाता है एवं यावत् शान्ति विभंजक अर्थात् शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का विभंग कारक भी हो जाता है और शान्ति के लिये केवलज्ञानी तीर्थकर जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म से भी भ्रष्ट हो जायगा, और 'न सक्का रूवमद्द चक्खुविसायमागयं' आंख का विषय होकर याने नयन गोचरीभूत उस रूप को नहीं देख सकते ऐसा भी नहीं हो सकता, एतावता नयन गोचरीभूत रूप अव श्य ही दृष्टिगोचर होता है याने किसी भी तरह दर्शन का अविषय नहीं हो सकता, इसलिये 'राग दोसा उ जे तत्थ' अनिवार्य रूप से नयन गोचरीभूत उन रूपों के विषय में जो रागद्वेष उत्पन्न होगा, 'ते भिक्खू परिवज्जए' उसको जैन साधु मुनि महात्मा छोड दे क्योंकि 'चक्खुओ जीवा मणुण्णामणुष्णाई रुवाई पास' एक आंख से या दोनों आंखों से जीव मनोज्ञामनोज्ञ रूपों को देखता है इसलिये निर्ग्रन्थ जैन साधु भी जीव के नाते प्रिय अप्रिय रूपों को अवश्य પણ પ્રાપ્ત કરીને શતિના ભંગ કરવાવાળા બને છે. અર્થાત્ ચારિત્ર સમાધિ રૂપ શાંતિને ભગ કરનાર અની જાય છે. અને યાવત્ શાંતિ વિભજક અર્થાત્ શાંતિરૂપ બ્રહ્મચર્યના ભંગ કરનાર પણું અને છે અને શાંતિ માટે કેવળ જ્ઞાની તીર્થંકર જીનેન્દ્ર ભગવાને પ્રતિપાદન કરેલ જૈન ધથી પણ ભ્રષ્ટ थाय छे. 'न सक्का रूत्रमद्ददतु चक्खुविसयमा गयं' અને આંખને વિષય હાવાથી અર્થાત્ નયનના દૃષ્ટિભૂત એ રૂપને જોઇએ નહી' એવું પણુ ખનતુ' નથી એટલે કે નયન પથ આવેલ રૂપ અવશ્ય દષ્ટિગેાચર થાય છે. અર્થાત્ होई पशु प्रहारथी हर्शनना अविषय मनतु' नथी. तेथी 'राग दोसाउ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए' अनिवार्य ३५थी नयनगोयरी लूत मे ३पना संबंधमां ने रागद्वेष उत्पन्न याय छे से रागद्वेषने निर्ग्रन्थ मुनि छोडी ठेवा. भ है - 'चक्खुओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई रुवाई पासइ दुच्चा भावणा' से मांगी मने माने आपोथी व मनेाज्ञामनोज्ञ इयाने वे છે. તેમ જ નિન્થ મુનિ પણ પ્રિય અપ્રિય રૂપાને અવશ્ય જુવે પરતુ એ જોયેલ રૂપા आ० १४५ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪


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