Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1136
________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १० अ. १५ भावनाध्ययनम् ___ ११२५ मंतं वा' चितवद् वा-सचित्तं वा, अप्रासुकम् अचित्तवद् वा-अचित्तं वा मासुकं 'नेव सयं अदिन्न गिहिज्जा' नैव स्वयम् अदत्तं गृह्णीयात् 'नेवन्नेहिं अदिन्नं गिहाविजा' नैव अन्यैः जनैः अदत्तं ग्राहयेत-अद वस्तु ग्रहीतुं नैवान्यं प्रेरयेदित्यर्थः 'प्रदिन्नं अन्नपि गिण्हंतं न समणुजाणिज्जा' अदत्तम् वस्तु गृहन्तम् अन्यमपि जनं न समनुजानीयात्-नानुमन्येत्, नानुमोदगेदित्यर्थः तथा च साधुः अदत्तं पदार्थ स्यं न गृह याद, नान्यमपि तद् ग्रहीतुं प्रेरयेद् न वा अदत्तं गृह्णन्तम् अन्यम् अनुमोदयेत् इति भावः 'जावज्जीवाए जाव वोसिरामि' यावद् जीवम्-जीवनपर्यन्तम् यावत्-त्रिविघम् करणं कारणम् अनुमोदनश्च त्रिविधेन योगेन मनसा वचसा कायेन वा तस्य अदत्तादानस्य-तस्माद् अदत्तादानात् प्रतिक्रामामि-पृथग् भवामि निन्दामि-आत्मन: साक्षितया अदत्तादानस्य निन्दा करोमि, गर्डे-गुरोः साक्षितया तस्य हो 'नेव सयं अदिन्नं गिहिज्जा' स्वयं अदत्त नहीं ग्रहण करें अर्थात् निर्ग्रन्ध जैन साधु किसी भी श्रावक वगेरह के द्वारा नहीं दिए हुए वस्तु को स्वयं भी नहीं ग्रहण करें और 'नेवन्नेहिं अदिन्नं गिहाविज्जा' दूसरे भी पुरुष को नहीं दिए हुए वस्तु को लेलेने के लिये प्रेरणा भी नहीं करें और 'अदिन्नं अन्नंपि गिण्हतं न समणुजाणिज्जा' अदत्त वस्तु को ग्रहण करते हुए पुरुष को अनुमोदन भी नहीं करें एतावता साधु निर्ग्रन्थ अदत्त पदार्थ को स्वयं नहीं ग्रहण करें और अदत्तवस्तु को लेने के लिये दूसरे व्यक्ति को प्रेरणा भी नहीं करें एवं अदत्तवस्तु ग्रहण करते हुए दूसरे पुरुष को प्रोत्साहित भी नहीं करें और मैं भी अदत्तवस्तु को ग्रहण नहीं करूंगा और 'जावज्जीवाए जाव वोसिरामि' जीवन पर्यन्त यावतू उस त्रिविध करण, कारण, अनुमोदन को अर्थात् स्वयं करना और दूसरे से कराना और करानेवाले का समर्थन करना इस प्रकार के त्रिविध करण कारण समर्थन को विविध योग से याने मन वचन और काय से छोडता हूं और उस अदत्तादान से पृथक होता हूं और आत्मा की साक्षिता में उस वा' सयित्त डेय , अयित्त डाय 'नेवसयं अदिण्णं गिहिज्जा' पाते महत्तन नहीं अर्थात् निन्य साधुणे ४१४ माया पानी परतु २५य aa नही 'नेवण्णेहिं अदिण्हं गिहाविज्जा' तथा महत परतुवा माटे अन्य बनने प्रे२१॥ ३२वी नहीं है 'अदिण्हं अन्न पि गिण्हतं न समणुज्जाणिज्जा' महत्त वस्तु खेनार अन्य ५३५२ उत्तेन । આપવું નહીં. તથા અદત્ત વસ્તુ લેનાર માટે બીજી વ્યક્તિને પ્રેરણા પણ કરવી નહીં. तथा महत्त वस्तु घड ४२ना२। अन्य पु३५२ उत्तेन ५ मा५यु नहीं 'जावज्जीवाए जाव वोसिरामि' भने ७१ ५य-त यावत् से त्राणे २॥ ४२६१, ४२, अने अनुभीદનને અર્થાત્ પિતે કરવું, કે બીજા પાસે કરાવવું કે કરનારનું સમર્થન કરવું. આ પ્રકારના ત્રિવિધને ત્રણ પ્રકારના રોગથી અર્થાત મન, વચન, અને કાયથી ત્યાગ કરૂં છું અને એ અદત્તાદાનથી અલગ થાઉ છું. અને ગુરૂજનની સાક્ષિપણામાં એ અદત્તાદાનની ગહીં કરૂં श्री. साय॥॥ सूत्र :४

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