Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1134
________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १० अ. १५ भावनाध्ययनम् ___ ११२३ तस्मात् 'हासे परियाणइ से निग्गथे' हासं परिजानाति-यो हासस्य कटुपरिणामं कलहादिक ज्ञप्रज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानप्रज्ञया प्रत्याख्यानं परित्यागं करोति स निग्रन्थः साधुरिति-भाव: अतएव साधुः 'नो हासणए सियत्ति पंचमी भावणा' नो हसन:-हासशीलः स्यात्-भवेदिति पञ्चमी भावना द्वितीयमहावतस्यावगन्तव्या । सम्प्रति द्वितीयमहाव्रतं मृषावादविरमणरूपं. समुपसंहरबाह - एतावता दोच्चे महव्यए' एतावता-उक्तप्रकारेण द्विनीयं महावतं-मृषावाद. विश्मणरूपं 'सम्म कारण फासिए जाव आणाए आराहिए, यावि भवइ' सम्यकतया कायेनशरीरेण स्पर्शितं यावत् पालितं तीर्णम् कीर्तितम् अबस्थितम् अवस्थापितम् आज्ञया-तीर्थ'तम्हा हास परिजाणई से निग्गंथे' जो साधु हास को अच्छी तरह जानता है याने हास करने के कटु परिणाम (कलहादि) को जानता है वही सच्चा निग्रंन्ध जैन साधु माना जाता है, एतावता हसी मखौल दिल्लगी को करने का कलहादि कटु परिणाम को ज्ञप्रज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से प्रत्याख्यान करता है अर्थात् हसीमखौल दिल्लगो का परित्याग करता है वही सच्चा निर्ग्रन्थ साधु समझा जासकता है, इसलिये जैन साधु को 'नो हासणए सियत्ति' हासशील नहीं होना चाहिये इस प्रकार उक्त रीति से यह द्वितीय मृषावाद विरमण रूप महावत की पञ्चमी भावना समझनी चाहिये, __ अब इस द्वितीय मृषाबाद विरमण रूप महाव्रत का उपसंहार करते हुए कहते हैं-'एयाचया दोच्चे महत्वए' एतावता उत्तरीति से द्वितीय महावत मृषा. वाद विरमण रूप अत्यन्त समीचीनतथा अच्छी तरह से संयम नियम यतना पूर्वक 'सम्मं कारणं फासिए' काय से याने शरीर से स्पर्शित एवं 'जाव आणाए आराहिए यावि भवई' यावत् परिपालित तीर्ण कीर्तित और अवस्थापित होकर तीर्थकृत् भगवान् श्री महावीर स्वामी की आज्ञा से आराधित भी होता 'तम्हा हासे पस्चिाणइ से निगथे' तथा रे साधु भरी सरी रीत समरे छे. सर्वात હાંસી મશ્કરીને કટુ પરિણામને જાણે છે એજ નિગ્રન્થ સાચા સાધુ છે. એટલે કે હાંસી મશ્કરી કરવાના કડવા પરિણામને જ્ઞપ્રજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પ્રજ્ઞાથી પ્રત્યાખ્યાન કરે છે. અર્થાત્ હાંસી મશ્કરીને ત્યાગ કરે છે. એજ સાચા નિગ્રંથ સાધુ કહેવાય છે. તેથી - भुनी से 'णो हासणए सिया पंचमी भावणा' सी भ१९२१ ४२वी नहीं मा प्रभारी ઉક્ત પ્રકારથી આ બીજા મૃષાવાદ વિરમણરૂપ મહાવ્રતની પાંચમી ભાવના સમજવી. व ॥ मी भूषापा विरभ३५ महावत। स इ२ ४२i छ -'एया वया दोच्चे महव्वए सम्मं कारणं फासिए' मत प्राRथी मी01 भाद्रत भूषापा विरभक्ष्य રૂપ ભાવનાને અત્યંત સારી રીતે સંયમ નિયમ અને યતના પૂર્વક કાય અર્થાત્ શરીરથી २५शित 'जाव आणाए आराहिए यावि भवई' तथा यावत् परियालित Als तित, भने અવસ્થાપિત થઈને ભગવાન્ શ્રી મહાવીર સ્વામીની આજ્ઞાથી આરાધિત થાય છે. એ પ્રમાણે श्री सागसूत्र :४

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