Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे यन्तं गृहस्थम् आस्वादयेत्-मनसा वान्छेत् नो वा तम्-उद्वर्तनादिकं कुर्वन्तम् , नियमयेत्प्रेरयेत्, कायेन वचसा वा नानुमोदनं कुर्यात् ‘से सिया परो कार्य तस्य-भावसाधोः स्यात्-कदाचित् परो-गृहस्थः कायम्-शरीरम् 'सीओदगवियटेण वा' शीतोदकविकटेन वा अत्यन्तशीतोदके नेत्यर्थः 'उसिणोदगवियडेण वा' उष्णोदकविकटेन वा-अत्यन्तोष्णोदके नेत्यर्थः 'उच्छोलिज्ज वा पहोलिज्ज वा' उत्क्षालयेद् वा-किश्चित् प्रक्षालनं कुर्यात्, प्रक्षालनादि की 'नो तं नियमे' अभिलाषा नहीं करें एवं वचन और काय से उस उद्ध. वर्तनादि का अनुमोदन या समर्थन नहीं करें अर्थात तन मन और वचन से उस उद्वर्तनादि रूप परक्रिया कि जो गृहस्थ श्रावक के द्वारा साधु के शरीर को किया जाता है, परक्रिया विशेष होने से कर्मबन्धन का कारण माना जाता है इसलिये बार बार जन्म मरण परम्परा का मूल कारणभूत कर्मबन्धनों से छुटकारा पाने के लिये दोक्षा या प्रव्रज्या ग्रहण करनेवाले जैन साधु मुनि महात्मा को इस प्रकार के गृहस्थ श्रावक के द्वारा किये जानेवाले शरीर के उद्वर्तनादि की अभिलाषा या इच्छा मन से नहीं करनी चाहिये और वचन से तथा काय से भी उस को करने के लिये प्रेरणा नहीं करनी चाहिये । क्योंकि इस से संयम की विराधना होगी इसलिये संयम पालनार्थ ऐसा नहीं करें।
फिर भी दूसरे ढंग से भी गृहस्थ श्रावक के द्वारा शीतोदकादि से जैन साधु के शरीर का मार्जन भी परक्रिया होने से नहीं करना चाहिये यह बतलाते हैं'से सिया परो कार्य सीओदगवियडेण वा' उल जैन साधु मुनि महात्मा के काय अर्थातू शरीर का यदि पर अर्थात् गृहस्थ श्रावक अत्यन्त शीतोदक से या 'उसिणोदगवियडेण वा' अत्यन्त उष्णोदक से 'उच्छोलिज वा पहोलिज्ज वा' અને કાયથી પણ એ ઉદ્વર્તાનાદિ ક્રિયાનું અનુદન કરવું નહીં. એટલે કે તન મન અને વચનથી એ ઉદ્ધતનાદિરૂપ કિયાનું જૈન મુનિએ સમર્થન કરવું નહીં. કેમકે–આ પ્રકારની ઉદ્વર્તનાદિ ક્રિયા કે જે ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા સાધુના શરીરે કરવામાં આવે છે. તે પરક્રિયા વિશેષ હોવાથી કર્મબંધનું કારણ માનવામાં આવે છે. તેથી જન્મમરણની પરંપરાના મૂળ કારણરૂપ કર્મબંધનથી છૂટવા માટે દીક્ષા ગ્રહણ કરવાવાળા મુનિએ આવા પ્રકારના શરીરની ઉદ્વર્તાનાદિની ઇચ્છા મનથી કરવી નહીં અને વચનથી તથા કાયથી પણ તેમ કરવા પ્રેરણા કરવી નહીં. કેમ કે એવી રીતની ઉદ્વર્તાનાદિ ક્રિયા કરવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે તેથી સંયમનું પાલન કરવા તેમ કરવું નહીં
હવે ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા ઠંડા પાણી વિગેરેથી સાધુના શરીરનું માર્જનાદિ ક્રિયાને निषध सूत्रा२ मताने छ-'से सिया परो काय सीओद्गवियडेण वा' से रैन मुनिना शरीर ५२ अर्थात् ५ श्रा१४ सेम. पाणीथी अथवा 'उसिणोदगवियडेण वा' अत्यात २ पाणीथी 'उच्छोलिज्ज वा, पहोलिज्ज वा' से वा२३ भनेवार प्रक्षासन
श्री मायारागसूत्र :४