Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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ममप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. १ अ. १३ परक्रियानिषेधः
९५७ 'से सिया परो कार्यसि वणं' तस्य-भावभिक्षुकस्य स्यात्-कदाचित् परो-गृहस्थः कायेशरीरे व्रणम् 'लुद्धण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा लोभ्रेण वा-लोघनामक द्रव्यविशेषेण (स्नो) चूर्णेन वा-गोधूमादि चूर्णद्रव्यविशेषेण, वर्णेन वा-वर्णविशेष कुङ्कुमादिना 'उल्लोढिज वा उव्वलिज्ज वा' उल्लोलयेद् वा-उद्वर्तयेत्, उद्वलयेद् वा-परिमर्दयेत् तहि 'नो तं से कर्मबन्धन का कारण माना जाता है, इसलिये इस संसार में अनादि काल से आती हुई जन्म मरण परम्परा का मूल कारणभूत कर्म बन्धों से छुटकारा पाने के लिये दीक्षा या प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले जैन मुनि महात्मा इस प्रकार के व्रणादिका तैलादि से गृहस्थ श्रावक द्वारा किये जाने वाले म्रक्षण और अभ्यजन के लिये मन से अभिलाषा नहीं करे और तन वचन से भी उस के लिये गृहस्थ श्रावकों को प्रेरणा नहीं करें क्योंकि इस प्रकार के गृहस्थ श्रावक द्वारा व्रणादि को तैलादि से म्रक्षणादि (मालीश) कराने से संयमकी विराधना होगी इसलिये संयमपालनार्थ साधु ऐसा नहीं करें।
अब फिर भी दूसरे प्रकार से जैन साधु को गृहस्थ श्रावक के द्वारा शरीर में व्रण घाव वगैरह को लोघ्रादि द्रव्यों से उद्वर्तनादि नहीं करवाना चाहिये यह बतलाते हैं क्यों कि उवर्तनादि भो परक्रिया विशेष माना जाता है-'से सिया परो कार्यसि वणं' यदि उस पूर्वोक्त-जैन साधु के शरीर में व्रण अर्थात् घाव याने गुमडा फोडा फुनसी वगैरह को पर-अर्थात् गृहस्थ श्रावक-'लुद्धण वा' लोध्र नामकें द्रव्य विशेष से अर्थातू पाउडर से 'कक्केण वा' कर्क अर्थात् स्नानीय स्निग्ध द्रव्य विशेष 'स्नो' या 'चुण्णेण वा' चूर्ण अर्थात् गोधूमादि चूर्ण द्रव्य विशेष से या 'वण्णेण वा' वर्ण अर्थात् कुङ्कमादि वर्ण विशेष से 'उल्लो. કારણ મનાય છે તેથી આ સંસારમાં અનાદિકાળથી આવતી જન્મ મરણ પરંપરાના મુળકારણભૂત કર્મબંધથી છૂટવા માટે દીક્ષા ગ્રહણ કરવાવાળા મુનિએ એ રીતે વણાદિનું તેલ વિગેરેથી ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા કરવામાં આવતા પ્રક્ષણ અને અભંજન માટે મનથી અભિલાષા કરવી નહીં અને તન કે વચનથી પણ તેને માટે શ્રાવકને પ્રેરણા કરવી નહીં કેમકે-આ રીતે ગ્રહસ્થ શ્રાવક દ્વારા ત્રણદિને તેલ વિગેરેથી સક્ષણાદિ કરાવવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી જૈન સાધુએ સંયમપાલન માટે તેમ કરવું નહીં.
હવે સાધુએ ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા શરીરના ત્રણ ઘા વિગેરેનું લેબ્રાદિ દ્રવ્યથી ઉદ્ધત ना २१वाना नियनु ४थन ४२ छ. 'से सिया परो कार्यसि वणं' से पूरित साधुना शरीरमा प्राय अर्थात् । शुभ विगैरेने ५२ यातू ७५ श्रा५४ 'लुद्धेण' यो. नामना द्र०य विशेषथी अर्थात् ॥१७२थी १५वा 'कक्केण वा' ४४ अर्थात भावाना ४ि२ वा द्रव्य विशेष रन' है यू अर्थात् बोट वगेरेथी ५१५५ 'चुण्णेण वा' औषधी. विशेषना यूथी अथवा 'वण्णेण वा' १५ अर्थात विगैरे व विशेषयी उल्लोढिज्ज
श्री सागसूत्र :४