Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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ममैप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १ अ. १३ परक्रियानिषेधः ____९५५ परो वर्ण संवादिज्ज वा पलिमदिज्ज वा' तस्य-भावसाधोः स्यात्-कदाचित् परो गृहस्थः यदि शरीरे व्रणं संवाहयेद् वा-किश्चित् संवाहनं कुर्यात् , परिमर्दयेद् वा- परिमर्दनं वा कुर्यात् तर्हि 'नो तं सायए नो तं नियमे' नो तम्-वणं संवाहयन्तं गृहस्थम् आस्वाद येत्-हृदयेन वाछेत् , मनसा नाभिलषेदित्यर्थः, नो वा तम्-व्रण संवाहनं कुर्वन्तं गृहस्थं नियमयेत प्रेरयेत तन मन बचन से इसका समर्थन नहीं करे ।
फिर भी दूसरे तरीका से परक्रिया विशेष का निषेध करते हैं 'से सिया परो वर्ण' उस पूर्वोक्त जैन साधु के शरीरस्थ व्रण (घाव गुमरा फोरा वगैरह ) को यदि पर अर्थात् गृहस्थ श्रावक करसे संवाहन करें अर्थात् श्रद्धा दया भक्ति से उस 'वर्ण संवाहिज वा' व्रण को धीरे से दयावे या 'पलिमद्दिज वा परिमर्दन करे याने साधु को शान्ति के लिये गृहस्थ श्रावक यदि शरीर में व्रणादि का संवाह नादि करे तो उस व्रण संवाहनादि को 'नो तं सायए' साधु आस्शदन नहीं करें अर्थात् मन से उस शरीर ब्रमादि संवाहनादि की अभिलाषा नहीं करें और 'नो तं नियमे वचन काय से भी उस व्रणादि संवाहन के लिये गृहस्थ श्रावकों को प्रेरणा नहीं करें क्योंकि इस प्रकार के गृहस्थ श्रावक द्वारा किये जानेवाले व्रणादि का संवाहन परिमर्दन भी परक्रिया विशेष होने से कर्मबन्धों का कारण होता है इसलिये जन्ममरण परम्परओं के मूल कारणभूत कर्मबन्धनों को सर्वथा दूर करने लिये दीक्षा और प्रवज्या स्वीकार करनेवाले जैन मुनि महात्मा इस प्रकार के शरीरस्थ व्रणादि को संवाहनादि के लिये तन मन वचन से गृहस्थ श्रावक को प्रेरणा नहीं करें अन्यथा संयम की विराधना होगी अतः ऐसा नहीं करें
वे सन्त२थी या विशेष निषेध ४२ छे. “से सिया परो वणं संवाફિઝ વા' એ પૂર્વોક્ત સાધુના શરીરના ઘા ગુમડા વિગેરેને જે પર અર્થાત ગૃહસ્થ શ્રાવક હાથથી સંવાહન કરે અર્થાત્ શ્રદ્ધાભક્તિથી એ ત્રણ કે ઘાને ધીરેથી દબાવે કે 'पलिमदिज्ज वा' परिभईन ४२ अर्थात् साधुने शांति भाट ७२५ श्राप ने शरीरमा प्रवाहिन सवाईन ४रे तो मे सपानानु साधुसे 'नो तं सायए मापान १२ નહીં અર્થાત મનથી એ શરીરમાં થએલ તે ત્રાદિના સંવાહનાદિની ઈચ્છા કરવી नही. तथा 'नो तं नियमे' पयन भने यी ५ से हिना सवाईन माटे ગૃહસ્થ શ્રાવકેને પ્રેરણા કરવી નહીં. કેમ કે આ પ્રકારથી ગૃહરથ શ્રાવક દ્વારા કરવામાં આવતા ત્રણદિન સંવાહન પરિમર્દન પણ પરક્રિયા વિશેષ હોવાથી કર્મબંધનું કારણ થાય છે. તેથી જન્મમરણ પરંપરાઓના મૂળભૂત કર્મબંધનેને સર્વથા દૂર કરવા માટે દીક્ષાને સ્વીકાર કરવાવાળા મુનિએ આ પ્રકારના શરીરમાં થયેલ ત્રણાદિની સંવાહનાદિ કરવા માટે તન, મન, અને વચનથી શ્રાવકને પ્રેરણું કરવી નહી, પ્રેરણા કરવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી તેમ કરવું નહીં.
श्री सागसूत्र :४