Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे ग्रामान्तरं गच्छन् 'नो मट्टियागरहिं पाएहि नो मृत्तिकागतैः मृत्तिकालिप्तः पादः 'हरि. पाणि डिदिय छिदिय' हरितानि छिया छित्वा 'विकुन्जिय विकुज्जिय' विकुब्ज्य विकुब्ज्य पुनःपुनः विकुमानि कृत्वा 'विकालिय विफालिय' विपाटय विपाटय पौनः पुन्येन विपाटनं कृत्या 'उम्मग्गेण हरियवधाय 'उन्मार्गेण-उत्पथेन हरितवर्णयनस्पतिकायजीववधाय 'गच्छि. जा' गच्छेत् 'जमेयं पाएहिं मट्टियं यदएनाम पादाभ्यां संसक्तां मृत्तिकां खिप्पामेव इरियाणि अवहरंतु' क्षिप्रमेव सत्वरमेव हरितानि हरितवर्णविशिष्टसचित्तद्रव्याणि अपहरन्तु दूरीकुर्वन्तु इत्येवं विचारेण हरितवर्णवनस्पतिमार्गेण गमने 'माइष्टाणं संफासे' मातृस्थानं
टीकार्थ-'से मिक्खू वा भिक्खुणी या गामाणुगामं दूइजमाणे' वह पूर्योक्त भिक्षु और भिक्षुकी एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हए 'णो महियागएहिं पाएहिं मट्टी से भरे हुए पैरों से 'हरीयाणि जिंदिय छिदिय बार वार हरेभरे तृण घास विगैरह का छेदनकर अर्थात् छिन्नभिन्न कर एवं 'विकुन्जिय विकुजिय' विकुब्ज टेढामेढा कर अर्थात् 'विफालिय विफालिय' अर्थात् गात मर्दनकर तथा बार बार उत्पाटन कर 'उम्मग्गेण' ऊन्मार्ग से याने उत्पल से अर्थात् कुमार्ग से 'हरियवहाए गच्छिन्जा' हरितवर्ण वनस्पतिकायिक जीवयध के लिये नहीं चले अर्थात् जो मार्ग प्रसिद्ध हो याने जिस मार्ग से लोग जाते आते हो उसी मार्ग से यतमा पूर्वक ही साधु और साध्वी को एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाना चाहिये जिस मार्ग से चलने पर वनस्पतिकायिक जीवकी हिंसा नहीं हो 'जमेयं पाएहिं महियं खिप्पामेव हरियाणि अवहरंतु' क्यों कि यदि इन दोनों पैरों में लगी हुई संसक्त मिट्टीको शीघ्र ही ये हरित वर्ण वाले वनस्पति दूर कर दे इस तात्पर्य से वह साधु हरित वर्ण वाले वनस्पति युक्त उन्मार्ग से चले तो 'माइट्ठाणं संफासे' आधाकर्मादि सोलह
___टा-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूछित सयभर साधु भने सानी 'गामाणुगामं दूइज्जमाणे' थे मथी भीर म गमन २२ता 'मट्टियागए हिं पाएहिं' भाटीथी १३८॥ ५ो हरियाणि छिंदिय छिंदिय' बी तुप घास विगैरेने पार पार छतीन अर्थात् छिन्न मिनीने तथा 'विकुज्जिय विकुन्जिय पां४ायु४४शन तथा 'विफालिय विफालिय' ५२३५२ म श 'उज्मग्गेण' माथी 'हरियवहाए गच्छिज्जा' લીલેરી વનસ્પતિકાયિક જીવોની હિંસા માટે જવું નહીં. અર્થાત જે માર્ગ પ્રસિદ્ધ હોય એટલે કે જે માર્ગેથી લોકોને અવરજવર હોય એજ રસ્તેથી યતના પૂર્વક જ સાધુ સાધ્વીએ એક ગામથી બીજે ગામ જવું. જે માર્ગેથી ચાલવાથી વનસ્પતિકાયિક
या सिन थाय ते। भागे गमन २. 'जमेयं पाएहिं मट्टिय' भ ने म गोमा सामेही ससत भाटीने 'खिप्पामेव हरियाणि अवहरंतु' resी Analal. નરી વનસ્પતિ દૂર કરશે એ હેતુથી તે સાધુ લીલેરી વનસ્પતિવાળા કુમાથી ચાલે તે
श्री मायारागसूत्र :४