Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे योजनतः परं न गन्तव्यमिति भावः, 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'से जं पुण जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात् 'असंजए अस्सिपडियाए' असंयतः गृहस्थः अस्वप्रतिज्ञया-साध्वर्थम् ‘एगं साहम्मियं समुहिस्स' एकम् सार्मिकम्-साधुम् समुद्दिश्य एकभिक्षुकोद्देशेन पात्रदानार्थम् 'पाणाई भूयाइं जीवाइं सत्ताई' प्राणान्-प्राणिनः, भूतानि, जीवान् सत्यान् समारभ्य समुद्दिश्य पात्रं क्रीतं प्रामित्यम आच्छेद्यम् अनिसृष्टम् अभिहतम् आहृत्य चेतयते ददाति तथाप्रकारं पात्रम् पुरुषान्तरस्वीकृतम् यावद् अप्रासुकम् अनेषणीयं मन्यमानो नो प्रतिगृह्णीयात् इत्याशयेनाह-'जहा-पिंडेसणाए चत्तारि आलावगा' यथा पिण्डैषमायाम् चत्वारः आलापकाः उक्ताः तथा अत्रापि दर में पात्र की याचना के लिये नहीं जाना चाहिये 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा'-वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाणरूप से जान ले कि 'असंजए अस्मि पडियाए' असंयत-गृहस्थ श्रावक अपने लिये नहीं अपितु साधु के लिये 'एगं साहम्मियं समुद्दिस्स' एक साधर्मिक साधु को लक्ष्यकर अर्थात् एक साधु को पात्र देने की इच्छा से 'पाणाई भूयाई जीवाइं सत्ताई' यदि प्राणी को भृतों को जीचों को और सत्वों को समारम्भ कर अर्थात् सता कर पात्र को खरीदता हैं या उधार पैसा के रूप में लेता हैं या किसी से छीन ले अथवा उस पात्र के स्वामी की अनुमति के बिना ही ले और कहीं से लाकर दे और वह पात्र पुरुषान्तर से स्वीकृत भी हो तो यावत् अप्रासुक सचित्त एवम् अनेषणीय आधाकर्मादि दोषों से दूषित समझ कर साधु और साध्वी को नहीं लेना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के पात्र को लेने पर संयम की विराधना होगी इसलिये संयम पालनार्थ उपर्युक्त रीति से गृहस्थ श्रावक के द्वारा दिये जाने पर भी उस पात्र को नहीं लेना सापाये ४ तनाथी धारे ६२ पानी यायना भाटे नही. 'से भिकावू वा भिक्खु वा' ते साधु भने सानी से जं पुण एवं जाणिज्जा' ले 21 १६यमा शत तमाम - 'असंजए अस्सि पडियाए' मसयत २५ श्रा१४ पोताना भाटे नही ५९ साधुना भाटे 1 'एगं साहम्मिय समुहिस्स' मे साधा साधुने देशीन अर्थात से साधुने पात्र मा५. पानी २छायी 'पागाई भूयाई जीवाई सत्ताई' प्रालियोन भूतानां योनी अने सत्वाना સમારંભ કરે અર્થાત્ તેમને પીડા કરીને પાત્ર ખરીદે અથવા ઉધાર લે. અથવા કેઈની પાસેથી ઝુંટવી લે અથવા એ પાત્રના સ્વામીની સન્મતિ વિના જ લે અને કયાંકથી લાવીને આપે અને તે પાત્ર પુરૂષાન્તરથી સ્વીકૃત પણ ન હોય તે યાવત્ અપ્રાસુક અચિત્ત અને અષણીય આધાકર્માદિ દેથી દૂષિત સમજીને સાધુ અને સાઠવીએ લેવું નહીં કેમ કે આવા પ્રકારના પાત્રને લેવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમનું પાલન કરવા માટે ઉપરોક્ત પ્રકારથી ગૃહસ્થ શ્રાવક આપે તે પણ એ પાત્ર લેવા નહીં એ હેતુથી सारे ४थु छ , 'जहा पिंडेसणाए चत्तारि आलावगा' अर्थात् रे प्रमाणे पिना
श्री मायारागसूत्र :४