Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे
णाण्डादियुक्तं जानीयात् तदाह-'सअंडं सपाणं जाव संताणयं' साण्डम् सप्राणम्-प्राणियुक्तम्, यावत्-सबीजम् सहरितं सोदकं सोत्तिङ्गपनकदकमृत्तिकालूतातन्तुजालसन्तानयुक्तं जानीयादिति पूर्वेणान्वयः तहि 'तहप्पगारंसि थंडिलंसि' तथाप्रकारे-अण्डादियुक्त स्थण्डिले 'नो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा' नो उच्चारप्रस्रवणम्-मलमूत्रत्यागं व्युत्सृजेत्-कुर्यात किन्तु 'से भिक्खू वा भिक्षुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षु की वा 'जं पुण यंडिलं जाणिज्जा' यत् पुनः को अर्थात् मूत्र पुरीषोत्सर्ग करने के प्रासुक स्थान को जानेगा या जानले कियह 'सअंडं सपाणं जाव संताणयं' स्थण्डिलभूमि अण्डों से युक्त है और प्राणियों से भी युक्त है एवं यावत् बीजों से युक्त है तथा हरित तृण घास वगैरह वनस्पतिकायिक जीवों से भी सम्बद्ध है एवं शीतोदक से भी सम्बद्ध है तथा उत्तिंग छोटे छोटे एकेन्द्रिय प्रणियों से भी संयुक्त है तथा पनक-फनगे कीडे मकोडे त्रस प्राणियों से भी युक्त है तथा शीतोदक मिश्रित गिली मिट्टी पृथिवीकायिक जीवों से भी सम्बद्ध है एवं मकडी के जाल तन्तु परम्परा से भी सम्बद्ध है ऐसा जानले या देखलेता तो 'तहप्पगारंसि थंडिलंसि' इस प्रकार के अण्डादि युक्त स्थण्डिल भूमि में 'नो उच्चारपासवणं वोसिरिजा' उच्चारप्रस्रवण अर्थात् मूत्र पुरीषोत्सर्ग नहीं करना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के अण्डादि से युक्त स्थण्डिल भूमि मे मूत्र पुरीषोत्सर्ग करने से जीवों की हिंसा होने से संयम की विराधना होगी इसलिये संयम पालन करने वाले साधु और साध्वी को इस प्रकार के अण्डादि युक्त स्थण्डिल भूमि में मूत्रपुरीषोत्सर्ग नहीं करना चाहिये क्योंकि संयम का पालन करना ही साधु और साध्वी का परम कर्तव्य समझा जाता है, सूभिने अर्थात् भूत्रपुरषोत्सा ४२वाना (ठेल्ला) स्थानने की है नुवे ३ मा ३२ डिस भूमि 'सअंडं' माथी युक्त छ, 'सपाणं' भने प्राणियोथी ५ युरत छ. 'जाव संताणगं' तथा यावत् मीयामाथी युत छ. तथा elan तृ पास वोरे वनस्पतिशायना જીવાથી પણ સંબંધિત છે. તથા શીતદકથી પણ યુક્ત છે. તથા ઉર્નિંગ નાના નાના એકેન્દ્રિય દ્વીન્દ્રિય પ્રાણિથી પણ સંયુક્ત છે. તથા પનક ફનગા કીડી મકોડી વિગેરે ત્રસ પ્રાણિથી પણ યુક્ત છે. તથા શીતેદક મિશ્રિત ભીની માટીના પૃથ્વીકાયિક જીવેથી પણ સંબંધિત છે. તથા કરોળીયાના જાલતંતુ પરંપરાથી પણ યુક્ત છે, આ રીતે જાણે કે है तो 'तहप्पगारंसि थंडिलंसि' ते १२ना विरोथी युक्त स्थवि भूमिमा 'नो उच्चारपासवण वोसिरिजा' या२ प्रल २मर्थात् भूत्रपुरीषोत्सग ४२३॥ नहीभ આવા પ્રકારના ઈંડા વિગેરેથી યુક્ત સ્પંડિત ભૂમિમાં મૂત્રપુરષોત્સર્ગ કરવાથી જીવની હિંસા થવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમનું પાલન કરવાવાળા સાધુ કે સાવીએ આવા પ્રકારના ઈડા વિગેરે વાળી સ્પંડિત ભૂમિમાં મૂત્રપુરષોત્સર્ગ કરવાં નહી. કેમકે સંયમનું પાલન કરવું એજ સાધુ અને સાર્વીનું પરમ કર્તવ્ય માનવામાં આવેલ છે.
श्री सागसूत्र :४