Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारागसूत्रे
च्छिन्नम् अव्यवच्छिन्नम् - अखण्डम् वर्तते तर्हि 'अफासुर्य जाव नो पडिगाहिज्जा' अप्रासुकम् - सचित्तम् यावद्-अनेषणीयं मन्यमानो नो प्रतिगृह्णीयात् 'से जं पुण अंवं जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनः अ म्रम् आम्रफलम् जानीयात्- 'अप्पडं वा जाव अप्पसंताणागं' अल्पाण्डम् - अण्डरहितं यावत् - अबीजम् लूतातन्तुजालरहितं 'तिरिच्छ छिन्नं बुच्छिानं' तिरथोनच्छिन्नम् - तिर्यछिन्नम् व्यवच्छिन्नं सखण्डम् 'फासूयं जाव पडिगाढिजा' प्रासु कम् - चित्त यावद् - एप 'अतिरिच्छछिन्नं' तिर्यक् च्छिन्न नहीं है अर्थात् टेढा करके चाकू वगैरह से काटा हुआ नहीं है और 'अवोच्छिन्नं' अव्यवच्छिन्न अर्थात् अखण्ड ही खण्ड खण्ड करके काटा हुआ भी नहीं है, ऐसा समझ कर 'अष्फासुयं जाव नो पडि गाहिज्जा' अप्रासुक सचित्त होने से उस अखण्ड आनफल को अनेषणीय समझ कर नहीं ग्रहण करना चाहिये क्योंकि अण्डादि से रहित होने पर भी सखण्ड नहीं होने से अप्रासुक सचित्त होने के कारण एवं अनेषणीय-आधा कर्मादि दोषों से युक्त होने से साधु और साध्वी को नहीं ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा संयम की विराधना होगी और आत्मा की भी विराधना मानी जायगी, इसलिये नहीं ग्रहण करना चाहिये ।
अब जैन साधु के ग्रहण करने योग्य आम्रफल का निरूपण करते हैं'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा, से जं पुण अंयं जाणिजा वह पूर्वोक्त भिक्षुसंयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से आम्रकल को जानले कि यह आम्रफल 'अप्पंडं वा जाव अपसंताणगं' अल्प ण्ड है अर्थात् अल्प शब्द का ईषद् अर्थ होने से अण्ड रहित है यावत्- अबोज-बीज रहित है एवं हरित तृण घास रूप वनस्पतिकाय के सम्पर्क रहित है तथा शीतोदक से भी रहित है और उत्तिङ्ग पनकादि सम्पर्क रहित भी है एवं लूता मकरातन्तुजात्र नो पडिगाहिज्जा' अप्रासुर-सचित्त होव थी मे वगर उपायस मेरीने मनेषणीय સમજીને ગ્રડુણુ કરવી નહી', કેમ કે-અ'ડાર્ત્તિથી રહિત હોવા છતાં પણ કકડા કરેલ ન હાવાથી તે અપ્રાસુકસચિત્ત હવાના કારણથી તથા અનેષણીય એટલે કે આધાકર્માદિ ષે થી યુક્ત હવાથી સાધુ કે સાધ્વીએ ગ્રહણ કરવી નહીં. ગ્રહણ કરવાથી સંયમતી વિરાધના થાય છે, અને આત્મ વિરાધના પણ માનવામાં આવશે. તેથી તેવા પ્રકારની કરી ગ્રડણુ કરવી નહીં.
हुवे साधुने श्रद्धषु ४२वा योग्य रीतु निइया ४रे छे. 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोक्त संयमयी साधु ने साध्वी 'से जं पुग अंबे जाणिज्जा' ले भ वक्ष्य भाग रीते मेरीने लगे उ-मारी 'अप्पंड वा जाब असंता गगं' स्यांड छे. अर्थात् અલ્પેશના ઇષત્ અથ હાવાથી અડ વિનાની છે. યાવત્ ખીજ વિનાની છે. તથા લીલેતરી તૃણુઘાસ વિગેરે વનસ્પતિકાયના સપ વિનાની છે. તથા શીતે.કથી પણ રહિત છે. તથા ઉત્તિ'ગ પનક વિગેરેના સપથી પણ રહિત છે, તથા ભૂતા કરેળીયાના તુ તુજાળ
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪