Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे 'पविढे समाणे' प्रविष्टः सन् 'पुन्यामेव पेहाए पडिग्गहगं' पूर्वमेव-भिक्षाग्रहणात् प्रागेव, प्रेक्ष्य पतद् अहम् पात्रम् निरीक्ष्य प्रतिलिख्येत्यर्थः 'अवह टूटु पाणे' आहृत्य प्राणान्-प्रा णिनः कृमिकोटादीन् अपहृत्य पात्रतो निःसार्येत्यर्थः ‘पमज्जिय रयं' रजः-धूलिकणान प्रमृज्य रजोहरणादिना प्रमार्जनं कृत्वेत्यर्थः 'तओ संजयामेव' तत:-तदनन्तरम् रजः प्रमार्जनानन्तरम् संयतमेव-यतनापूर्वकमेव 'गाहावइकुलं' गृहपतिकुलम् 'निक्खमिज वा पविसिज्ज वा' निष्कामेद वा-भिक्षाग्रहणार्थम् उपाश्रयाद् निर्गच्छेद् गृहस्थगृह प्रविशेद वा, अन्यथा पात्रस्य प्रतिलेखनं प्रमार्जनं च विनैव भिक्षाग्रहणे दोषमाह-'केवली बूया-आयाणमेयं' केवली-वीतरागः केवलज्ञानी भगवान् तीर्थकृद् ब्रूयात्-ब्रवीति उपदिशतीत्यर्थः किमित्याह-आदानम्कर्मबन्धकारणम् एतत-पात्रालेखनप्रमार्जनमन्तरा भिक्षाग्रहणम् कर्मबन्धकारणं भवतीति समाणे पुण्यामेव' प्रविष्ट होकर भिक्षा ग्रहण करने से पहले ही 'पेहाए पडिग्गहं' पात्र को अच्छी तरह प्रतिलेखन करके 'अवहटु पाणे' ऊन पात्रों से कीडे मकोडे वगैरह जीव जन्तुओं को हटा कर और 'पमन्जियरयं' उन पात्रों से रज:कण धूलियों को भी रजोहरणादि से प्रमार्जनकर 'तओ संजयामेव गाहावइ. कुलं' उस के बाद अर्थात् प्रमार्जन वगैरह करने के अनन्तर यतना पूर्वक ही गृहपति गृहस्थ श्रावक के घर में 'पिंडवायपडियाए' पिण्डपात की प्रतिज्ञा से भिक्षा लेने की इच्छा से 'णिक्वमिज्ज वा पविसिज्ज वा' उपाश्रय से निकले और प्रवेश करे, अर्थात् पात्रादि को अच्छी तरह रजो हरणादि से साफ सुथरा करने के बाद ही भिक्षाग्रहण करने की आशा से उपाश्रय से निकल कर गृहस्थ श्रावक प्रमुख के घर में प्रवेश करे, अन्यथा पात्रका प्रतिलेखन और प्रमार्जन करने के बिना ही भिक्षा ग्रहण करने से दोष होता है क्योंकि 'केवली बृया आयाणमेयं' केवली केवलज्ञानी वीतराग भगवान महावीर स्वामी उपदेश देते हैं कि-पात्रों का प्रतिलेखन और प्रमार्जन करने के विना ही भिक्षा ग्रहण करना साधु और साध्वी को कर्मबन्ध का कारण होता है इसलिये वीतराग भगवान o 'पडिग्गह अबहटु पाणे' पात्रामा सारी प्रतिमना ४शन के पात्रोमांधी हीडी भी विगेरे तुमओ ६२ शैने तथा 'पमज्जिय रय' पात्रोमाथी धून विगेरेना २०४:४ाने २३२५६थी प्रमान 3री 'तओ संजयामेव गाहावइकुलं' ते पछी यतना ५' ४ ५६५ति २५ श्रा१ना ५२मा 'पिंडवायपडियाए णिक्खमिज्ज वा, पविसिज्ज જા' ભિક્ષા લેવાની ઈચ્છાથી ઉપાશ્રયમાંથી નીકળવું અને પ્રવેશ કર. અર્થાત પાત્રાદિને સારી રીતે રજોહરણાદિથી સાફસુફ કર્યા પછી જ ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાથી સંયમની વિરાपनाना पाये छ. म है 'केवलीबूया आयाणमेय' ३१ ज्ञानी वीdil भगवान् મહાવીર સ્વામીને ઉપદેશ છે કે-પાત્રોનું પ્રતિલેખન અને પ્રમાર્જન કર્યા વિના જ ભિક્ષા ગ્રહણ કરવી તે સાધુ સાધીને કર્મબંધનું કારણ થાય છે. એ માટે મહાવીર સ્વામીને
श्री सागसूत्र :४