Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे ष्टवस्त्राणि 'कोयवाणि वा' कोयवदेशनिमितानि विशिष्टवस्त्राणि कोयवानि 'कंचलगाणि वा' कम्बलकानि वा कम्बलरूपाणि वस्त्राणीत्यर्थः 'पावराणि वा' प्रावरणानि वा आच्छादनवस्त्राणि 'अन्नयराणि वा तहप्पगाराइं वत्थाई' अन्यतराणि वा तदन्यानि वा तथाप्रकाराणि वस्त्राणि 'महद्धणमुल्लाई' महाधनमूल्यानि महार्याणि बहुमूल्यानीति कृत्वा साधूनाम् साध्वीनाश्च अत्यन्ताल्पपरिग्रहतया बहुमूल्यकवस्त्रादिग्रहणे ऐहिकामुष्मिकापायजनकतया 'लाभे संते नो पडिगाहिज्जा' लाभे सत्यपि तानि वस्त्राणि नो प्रतिगृह्णीयात् , एवम् साधूनां साध्वीनाञ्च पुनरपि बहुमूल्यकविशिष्टवस्त्रग्रहणनिषेधमधिकृत्याह-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षु भिक्षुकी वा 'से जाई आइण्णपाउरणाणि वत्थाणि जाणिज्जा' स संयमवान् साधुः साध्वी वा यानि पुनः आजिनप्रावरणीयानि-अजिनचर्मनिर्मितानि प्रावरण. देशमें उत्पन्न होने से फालिकवस्त्र कहलाते हैं तथा जो वस्त्र 'कोयवाणि वा' कोयव देशमें निर्मित होनेसे कोयव नामके विशिष्ट वस्त्र कहलाते हैं एवं जो वस्त्र 'कंवलगाणि वा' ऊनके जो वस्त्र बने हों वह कंबल कहलाते हैं। एव जो वस्त्र 'पावराणि वा प्रावरण रूप होनेसे अर्थात् शरीरका आच्छादनरूप होने से प्राव. रण वस्त्र कहलाते हैं 'अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि वत्थाई' इस प्रकार के दूसरे भी वस्त्रों को अत्यंत अधिक मूल्य वाले होनेसे साधु और साध्वी को नहीं ग्रहण करना चाहिये क्योंकि उस को अत्यंत थोडे ही परिग्रह वाला होना उचित है इलिये अधिक कीमतवाला वस्त्र धारण करने से इसलोक तथा परलोकमें अपाय जनक होने से 'लाभे संते नो पडिगाहिजा मिलने पर भी इस प्रकार के बहु मूल्यक वस्त्रों को नहीं ग्रहण करना चाहिये इसी तरह साधु और साध्वी को फिर भी बहु मूल्यक विशिष्ट वनों को नहीं ग्रहण करने के तात्पर्य से कहते हैं
वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि 'से जाइं आइ. पण पाउरणाणि वत्थाणि जाणिज्जा' अजिन चर्मनिर्मित प्रावरण योग्य वस्त्रों को मन य त य१ नाममा विशेष प्र४२ना पत्र पाय छे. तया 'कंबलगाणि वा २ पत्र Satt ने उसय ते ४५५ ४२वाय छे तथा 'पावरराणि वारे १२ प्रा१२९५ ३५ पायी मर्यात शरीफ्ना मा२७६ ३५ पाथी प्रा१२ १से पाय छे. तया 'अन्नयराणि वा' तहप्पगाराणि वत्थाई' मावा प्राना मीत श्रीमती पर। , २ 'महघणमुल्लाणि' અત્યંત વધારે કીમતી હોવાથી સાધુ કે સાળી અત્યંત અલ્પ પરિગ્રહવાળા હોવાથી વધારે કીમત વાળા વ ધારણ કરવાથી આ લેક અને પરલેકમાં બાધારૂપ હોવાથી 'लाभेसंते नो पडिगाहिज्जा' प्रारत याय त ५ मावा पधारे डीमती पत्र ड ३२१॥ નહીં એજ પ્રમાણે સાધુ અને સાવીને બહુમૂલ્ય વસ્ત્ર ન ગ્રહણ કરવાને હેતુ બતાવતા सूत्रा२ ४ छे. 'से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते प्रति संयमशील साधु मने साली 'से जाई आइण्णपाउरणाणि वत्थाणि जाणिज्जा' ने मन भृशयमयी मनास प्रा२९५ याय परेने मेवी रीते Mणे 'तं जहा' रेम-'उहाणि वा' म पक्ष छे अर्थात्
श्री मायारागसूत्र :४