Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे भिक्षुकी वा दुरभिगन्धं मे वस्त्रम् इति कृत्वा नो बहुदेश्येन स्नानेन वा कर्केण वा यावत् तथैव बहुशीतोदकविकटेन वा बहुउष्णोदकविकटेन वा नो प्रक्षालयेद् आलापकः सू०७॥
टीका-'पुनः प्रकारान्तरेण वस्त्रैषणाविधि प्ररूपयितुमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'से जं पुण एवं जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनरेव-वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात् 'सअंडं जाव ससंताणगं' साण्डम्-पिपीलिकादीनामण्डसहितम् यावत्-सप्राणम् सबीजम् सहरितम् सौषम् सोदकम् सोत्तिङ्गपनकमृत्तिकालूतातन्तु जालसन्तानपरम्परासहितं वस्त्रं यदि जानीयादिति पूर्वेणान्वयः तहि तहप्पगारं पत्थं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव नो पडिगाहिज्जा' तथाप्रकारम्-तथाविधम् अण्डकादिसहितं वस्त्रम् अप्रासुकम्-सचित्तम्, अनेषणीयम्-आधाकर्मादिदोषसहितं यावद् मन्यमानो नो प्रतिगृह्नोयात्, पुनरपि किश्चिद्
फिर भी दूसरे प्रकार से भी वस्त्रैषणा विधि का प्रतिपादन करते हैं. 'से मिक्खू वा, भिक्खुणी वा'-वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से वस्त्र को जान ले कि यह वस्त्र 'सअंडे जाव ससंताणगं' बहुत ही अण्डों से युक्त है अर्थात् बहुत पिपीलिकादि के अण्डों से व्याप्त है एवं बहुत ही प्राणीयों से तथा बहुत ही अंकुर उत्पादक बीजों से एवं बहुत ही हरे भरे तृण घासों से तथा बहुत ही ओषकणों से तथा बहुत ही उदक से एवं बहुत ही उत्तिङ्ग पनक-फनगे वगैरह छोटे छोटे प्राणी से तथा जल मिश्रित मिट्टी से तथा मकरे के जाल सन्तान परम्परा से भी भरा हुआ यह वस्त्र है ऐसा जान लेनो 'तहप्पगारं वत्थं' इस प्रकार के बहुत अण्डा वगैरह से युक्त वस्त्र को 'अफासुयं अणेसणिजं' अप्रासुक सचित्त एवं अनेषणीय आधाकर्मादि दोषों से युक्त 'जाब नो पडिगाहिज्जा' समझते हुए नहीं लेना चाहिये क्योंकि अण्डे वगैरह से युक्त वस्त्र को ग्रहण करने से जीवों की हिंसा की संभावना से संयम की विराधना होगी इसलिये संयम पालन करने वाले
હવે પ્રકારાન્તરથી જ વઐષણ વિધિનું પ્રતિપાદન કરે છે
साथ-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते परत सयमशीस साधु सने सावी से जं पुण एवं जाणिजा' से ! १क्ष्यमा शत पखने ooltaहै 'सअंडं जाव स संताणगं' ते पाथी युद्धत छ. तथा यात 300 विगेरेना थी व्याप्त छ. તથા પ્રાણિયોથી તથા ઘણું અંકુર ઉત્પાદક બીયાથી અને ઘણું લીલા ઘાસથી તથા ઘણું ઝાકળના કણેથી તથા ઘણું પાણીથી યુક્ત છે. ઘણા ઉસિંગ પક પતંગિયા વિગેરે નાના નાના પ્રાણિયોથી યુક્ત છે. તથા પાણી વાળી માટિથી મકડાની પરંપરાથી પણ ल२० २ १ छ सेम anganwi मावे तो 'तहप्पगार वत्थं अप्पासुयं' मा प्रानु पख मासु४-सयित्त 'अणेसणिज्जं जाव' म मनेाणीय- 24148माह होषोथी युत समलने 'नो पडिगाहिज्जा' त सेवा नही. भ डा विश्थी युत पसने अडाय કરવાથી હિંસાની સંભાવનાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમ પાલન કરવા
श्री सागसूत्र :४