Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे
सावज्जं वज्जिज्जा' सर्व चैतत् क्रोधादिवचनं सावधम्-अवधेन पापेन गहर्येण वा सह वर्तते इति साधम् समहम् वर्तते असस्तद् वर्जयेद् 'विवेकमायाए' विवेकमादाय - साधुभिर्विdefear सावद्यं क्रोधादिवचनं वर्जनीयमिति भावः, एवं केनचिद् जनेन सार्धं जल्पता साधुना सावधारणं वचनं नैव वक्तव्यमित्यभिप्रेत्याह- 'धुवं चेयं जाणिज्जा' ध्रुवं चैतत्निश्चितम् अवश्यमेव वृष्टयादिकं भविष्यतीत्यादिरीत्या ज्ञात्वा न ब्रूया दित्यर्थः, अथवा 'अधुवं चेयं जाणिज्जा' अध्रुवं चैतद् नैव वा वृष्टयादिकं भविष्यतीत्यादिरीत्या वा ज्ञात्वा अनिश्चितमपि संशयात्मकं वचनं न ब्रूयात्, साघुमिरेकान्तवचनं न वक्तव्यमित्यर्थः, ' एवं हैं और किसी के दोष को नहीं जानते हुए कठोर वचन बोलते हैं 'सव्वं चेयं सावज्जं वज्जिज्जा' यह सभी क्रोध मिथ्याभिमान लोभ मोहमाया प्रयुक्त बोले जानेवाले वचनों को सावद्य-गर्हित पाप युक्त समझकर छोड़ देना चाहिये इसलिये साधु और साध्वी को 'विवेक मायाए' विवेकशाली होकर ही सावच क्रोधादि वचनों को छोड़ देना चाहिये अर्थात् सावद्य क्रोधादि सूचक शब्दों का प्रयोग संयम पालन करनेवाले साधु और साध्वी को नहीं करना चाहिये क्योंकि क्रोधादि सूचक शब्दों का प्रयोग करने से संयम की विराधना होती है और साधु और साध्वी को संयम पालक करना ही मुख्य कर्तव्य है इसी प्रकार किसी भी मनुष्य के साथ बोलते हुए साधु को सावधारण वचन नहीं बोलना चाहिये अर्थात् 'धुवं चेयं जाणिज्जा' ध्रुव निश्चित ही वृष्टि आदि होगी ही ऐसा जानकर नहीं बोले क्योंकि कदाचित् संयोगवश वृष्टि वगैरह नहीं हो सके तो साधु को मिथ्या दुष्कृत पाप लगेगा इसलिये अवश्य ही यह होगा इत्यादि रीति से साधु को नहीं बोलना चाहिये, इस तरह 'अधुवं चेयं जाणि ज्जा' वृष्टि इत्यादि नहीं ही होगी इत्यादि रीति से भी जानकर नहीं बोलना चाहिये अर्थात् अनिश्चित भी संशयात्मक वाक्य नहीं बोलना चाहिये अर्थात्
'सव्वं चेयं सावज्जं वज्जिज्जा' मा शेष, मिथ्याभिमान, बोल, भोह भने भायाथी ખેલાયેલા વચનાને સાવઘ અને નિર્દિત તથા પાપકારી સમજીને છેડી દેવા જોઇએ તેથી साधु ने साध्वी 'विवेकमायाए' विवेशीव थर्धने सावधोधाहि वयनाने छोडी हेवा જોઇએ અર્થાત્ સાવદ્ય ક્રોધાદિ સૂચક શબ્દના પ્રયાગ કરવાથી સયમની વિરાધના થાય છે, અને સાધુ અને સાદેવીને સધમનું પાલન કરવુ એ જ પરમ કર્તવ્ય છે. એ જ પ્રમાણે !!ઇ પણ મનુષ્યની સાથે ખેલતી વખતે સાધુએ સાવધારણ નિશ્ચિત) વચન કહેવા न अर्थात् 'घुषं चेप' जाणिज्जा' नही परसाई थशेतेस नगीने नवु કેમ કે કદાચ સંવેગ વણાત્ વરસાદ ન થાય તે સાધુને મિથ્યા દુષ્કૃત પાપ લાગે તેથી अवश्य थशे से रीते साधुये मोसवु नहीं खेल प्रमाणे 'अधुवं चेयं' जाणिज्जा' વરસાદ વગેરે નહીં થાય એ રીતે પણ જાણવા છતાં ખેલવુ નહી. અર્થાત્ અનિશ્ચિત
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪