Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
________________
मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १० सू० १०८ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् २७७ फलं' बहुवी जकं बहुकण्टकं फलं 'पडिगाहित्तए' प्रतिग्रहीतुम् इति, अपितु 'अभिकं खसिमे दाउं' यदि त्वम् मे मह्यम् दातुम् अभिकाङ्क्षसि वाञ्छसि तर्हि 'जावइयं तावइयं फलस्स. सारभायं पुग्गलं दलयाहि' यावन्मानं तावन्मात्रं फलस्य सारभार्ग पुद्गलं देहि 'मायबीयाणि' माच बीजानी-बीजानि न ददस्व से सेवं वयंतस्स' अथ तस्य भिक्षुकस्य एवम्उक्तरीत्या वदतः 'परो अभिहटु अंतो पडिग्गहंसि' परः गृहस्थः यदि अभिहृत्य आनीय अन्तः प्रतिग्रहे-'पात्राभ्यन्तरे 'बहुबीयगं' बहुबीयकं 'बहुकंटगं' बहुकण्टकं 'फलं' फलम् 'अपरिभाइत्ता' अपरिभाज्य-'विभागमकृत्वैव 'निहटूटु दलइज्जा' निहेल्य-आहृत्य दद्यात् तर्हि 'तहप्पगारं' तथाप्रकारम् तथाविधम् 'पडिग्गहं' प्रतिग्रहम्-प्रतिग्रहान्तः पातितम् पात्राभ्यन्तरस्थापितम् बहुबीज बहुकण्टकं फलम् 'परहत्थंसि वा' परहस्ते वा गृहस्थ धितकर के बोले कि-'णो खलु मे कप्पई' बहुत बीज वाला फल और से बहु कंटए बहबीयों फलं पडिगाहित्तए' बहुत कण्टकवाला फल को हम नहीं ग्रहण कर सकते क्योंकि इस प्रकार के बहुत बीज वाले फल को और बहुत कांटे चाले फल को लेने से संयम विराधना होगी, 'अभिकंखसि मे दाउं जावयतावश्य फलस्स सारभायं पुग्गलं दलयाहि माय बीआणि' यदि तुम मुझको भिक्षा देना चाहते हों तो जितना फल का सार भाग पुद्गल हो उतना ही दो, किन्तु बीज मत दो 'से सेवंचयं तस्स परो अभिहट्ट अंतो पडिग्गहंसि बहुबीयगें, बह कंटगं फलं अपरिभाइत्तो निहटूटु दलहज्जा' इस प्रकार उपर्यतरीति से बोलते हए संयमशोल साधु के मना करने पर भी यदि वह श्रावक तथा श्राविका लाकर पात्रके अन्दर बहुत बीज वाले तथा बहुत कण्टक वाले फल को विभाजन किये बिना ही दे देतो 'तहप्पगारं पडिग्गहं परहत्थंसिवा' इस प्रकार के बहुत बीज वाले फल को तथा बहुत कांटे वाले फल को चाहे साधु के पात्र के अन्दर डाल બહુ બીવાળા અને બહુ કાંટાવાળા ફળ લેવાને અમને કહપતા નથી એટલે તે અમો ગ્રહણ કરી શકતા નથી. કેમ કે આવા પ્રકારના બહુ બીવાળા અને બહુ કાંટાવાળા ફળોને લેવાથી संयमनी विराधना थाय छे. परंतु 'अभिकखसि मे दाउ' तमे भने से लक्षामा मा५१॥ ४२४ता डात 'जावइयं तावइयं फलस्स सारभाय' सानो सारमा डाय मेटस 'पुग्गलं' पुसला डाय 'दलयाहि' म माथी ५५ 'मा बीयाणि' मी आ५। नही से सेबंधयं तस्त' 20 शते मासता सेवा साधु भने सावीमे न san छतi 'परो अभिहटु अतो पडिग्गहंसि' ५ ते श्रा५४ ते जो लावीन पानी म२ 'बहुबीयगंबहुकंटगं फलं' म. मी मईयाणा ने 'अपरिभाइत्ता निहटु दलइज्जा' मान , ziटाने । ४ा ५२ ४ तेभने मापी हे तो 'तहप्पगारं पडिग्गह' मा ४२ मई બીવાળા કે બહુ કાંટાવાળા ફળને જે તે સાધુના પાત્રની અંદર નાખી દીધેલ હેય “રતत्थंसि वा' अथवा गृहस्थ श्रीयन मा य मया 'परपाय सि वा' श्रापना
श्री सागसूत्र :४