Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. १ सू० १३ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ३५७ उक्कोसंतु' एते खलु गृहपत्यादयः सागारिकोपाश्रये अन्योन्यम्-परस्परम् उत्क्रोशन्तु वाआक्रोशं कुर्वन्तु, मा वा उत्क्रोशन्तु-आक्रोश मा कुर्वन्तु 'पचंतु वा मा वा पचतु' पचन्तु वा, पाकं कुर्वन्तु, मा वा पवन्तु-पाकं मा कुर्वन्तु 'जाव' यावत्-रुन्धन्तु वा मा वा रुन्धन्तु उद्द्रावयन्तु 'मा वा उद वितु' मा वा उद्दावयन्तु इत्येवं मनसि द्वैविध्यं विचिकित्सा वा स्यात् तथा च संयमात्मविराधना भवेदित्याशयेनाह-'अह भिक्खूणं पुयोवदिट्ठा एस पइपणा' अथ मिक्षूणां साधूनां कृते पूर्वोपदिष्टा-पूर्व तीर्थकृदुपदिष्टा एपा प्रतिज्ञा संयमपालननियमः 'एस हेऊ' एष हेतुः, 'एयं कारणे' एतत् कारणम् 'एस उवदेसे' एप उपदेशः भगवतस्तीर्थकृतः कीदृशः उपदेश इत्याह-'जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए' यत् तथाप्रकारे पूर्वोक्तरूपे सागारिके गृहस्थकुटुम्मपरिवारयुक्ते उपाश्रये 'णो ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा' नो स्थानं वा-कायोत्सर्गरूपम्, शय्यां वा संस्तारकम्, निषीधिको वा-स्वाध्यायभूमि 'चेइज्जा' चेतयेत्-कुर्यात् ॥ सू० १३ ॥ या करें इस तरह का अनेकों ऊंचानीचा विचार मन में होने लगेगा, इसी तात्पर्य से कहते हैं कि ये सभी गृहपति वगैरह इस सागारिक उपाश्रय में परस्पर में कलह करें या नकरें 'पचंतु मा वो पचंतु' पकावे या नहीं पकायें 'जावमा वा उद्दचिंतु' यावत-अवरोध करें या नहीं करें उपद्रव करके एक दूसरे को खदेरें या नहींखदेरे इस तरह मन में अनेक प्रकार का वैविध्य या विचि. कित्सा उत्पन्न होने से संयम आत्म विराधना होगी इस आशय से कहा है'अह भिक्खूणं पुचोवदिहा एसपइण्णा, एस हेऊ, एवं कारणे, एक उबदेसे' अथ किन्तु भिक्षुकों के लिये पूर्वोपदिष्ट-पहिले बतलायी गयी ऐसी प्रतिज्ञा-संयम पालन करने का नियम है यही संयम पालन करना हो साधु का मुख्य हेतु है या मुख्य कारण बतलाया गया है और भगवान् वीतराग श्रीमहावीर स्वामीने उप. देश दिया है कि-'जं तहप्पगारे सागारिए' इस प्रकार के सागारिक 'उवस्सए' उपाश्रय में 'णो ठाणं वा स्थान-ध्यान रूप कायोत्सर्ग के लिये तथा 'सेज्ज वा' शय्या-शयन संथरा करने के लिये तथा 'निसीहियं वा चेइज्जा' निषोधिकास्वाध्याय करने के लिये भी आवास नहीं करना चाहिये, क्यों कि सागारिक निवासस्थान में रहने से संयम आत्म विराधना होती है ॥१३॥ मे४ साधुन। मुख्य उतु छ. अथवा 'एस कारणे' मे भुभ्य ४।२९ ४९ छ. 'एस उवदेसे' तथा पीत मावान् श्रीमहावीर स्वामीये मे उपदेश माया छ है 'जं तह पगारे सागारिए उबस्सए' माया प्रा२ना सा२४ निवासस्थानमा ‘णो ठाण वा' स्थानध्यान३५ यो भाटे त५'सेज्ज वा' १८५० शयन सथा। ४२१॥ भाटे तथा 'निसीहिय वा चेइज्जा' निपी431 मात् स्वाध्याय ४२१॥ भाट ५४ पास ४२३। नही है सा. રિક ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી સંયમ આત્મ વિરાધના થાય છે. સૂ. ૫ ૧૩ છે
श्री माया
सूत्र : ४