Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
५५२
आचारांगसूत्रे खेज्ज संथारं एसित्तए' अभिकाङ्क्षेत्-वान्छेत्-संस्तारकम् फलकादि शय्यारूपं संस्तरणं एषितम्-गवेषयितुम् अन्येष्टुम् यदि इच्छेत् तर्हि 'से जं पुण संथारयं जाणिज्जा' स यत् पुनः यदि तावत् वक्ष्यमाणरूपं संस्तारकम् फलकादिकं जानीयात् यत् 'सअंडं जाव ससंताणगे' साण्डम्-अण्डयुक्तम् यावत् सप्राणम् सवीजम सहरितम् सोदकम् सोतिङ्गपनकदकमृत्तिकामकेटससन्तानकम् लूतातन्तु जालसहितम् फलकादि संस्तारकं यदि पश्येत् तर्हि 'तहप्पगारं संथारगं' तथा प्रकारकम् अण्डादि लूतातन्तुजालसहितम् संस्तारकम् फलकादिसंस्तरणम् 'लाभे संते णो पडिगाहिज्जा' लाभे सति-लाभे सत्यपि नो प्रतिगृह्णीयात् अण्डजीवजन्तु लूतातन्तुजालसहितफलकादिसंस्तारकग्रहणे जीयहिंसासंभवेत् संयमविराधना स्यात् ।।सू. ४८॥ पूर्वोक्त भिक्षुक संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्धी यदि संस्तारक फलक पाट चोंकी वगैरह शय्या रूप संस्तरण-गवेषण अन्वेषण करना चाहे अर्थात् जैन साधु और जैन साध्वी यदि शयन करने के लिये पाट वगैरह संस्तरण को ढूंढने की आकांक्षा करने पर 'से जं पुण संथारयं जाणिज्जा' यह यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूपसे संस्तारक पाट चौकी वगैरह संस्तरण को जान ले या देखले कि यह 'सअंडं जाच ससंताणगं' संस्तारक पाट वगैरह संस्तरण अण्डों से भरा हुआ है यावत् प्राणियों से युक्त है तथा बीजों से युक्त है एवं हरित हरे भरे पत्ते घासों से भी भरें है तथा उदक कच्चा पानी से भी सम्बद्ध है तथा उत्ति छोटे छोटे जीव जन्तु और पनक एकेन्द्रिय तथा अत्यंत सूक्ष्म जीवों फनगों से व्याप्त है एवं मकडे का जाल परम्परा से भरा हुआ है तो 'तहप्पगारं संथरगं' इस प्रकार के संस्तारक फलक पाट वगैरह संस्तारक को देखकर साधु और साध्वी 'लाभे संते णो पडिगाहिजा' मिलने पर भी ग्रहण नही करे क्योंकि अण्डे जीव जंतुओं से तथा लुतातन्तु मकरें के जालों से भरे हुए फलकादि 'अभिकंखिज्जा संथारं एसित्तए' ने सस्ता२४ मेट पाट याही विगैरे शच्या ३५ સંસ્તરણનું ગષણ અને અવેષણ કરવા વિચારે અર્થાત જૈન સાધુ અને જૈન સાધ્વી
भुवा भाट पाट विगैरे सत२९ ने भेजा २छ। से जं पुण संथारयं जाणिज्जा' અને જે આ વક્ષ્યમાણ પ્રકારના પાટ વિગેરે સંસ્તારકને જાણે કે જેઈલે કે-આ સંસ્તા२४ पाट विगैरे 'सअंड' माथी मरेस छे. 'जाव ससंताणगं' यावत् प्राणियोथी युत છે, બીયાએથી યુક્ત છે તથા લીલેવરી પત્તા ઘાસથી પણ ભરેલ છે. તથા ઠંઠા પાણીથી પણ યુક્ત છે. તથા ઉસિંગ નાના નાના જીવજંતુઓ અને પનક એકેન્દ્રિય અને અત્યંત સુમ જીવે ફનગાએથી વ્યાપ્ત છે. તથા કરોળીયાની જાળ પરંપરાથી પણ યુક્ત છે. तो 'तहप्पगारगं संथारगं' मा ४२थी ४ा विगेरे युत सप्ता२४ ५४४, पाट, विगैरे सतरने RUR साधु मन साची 'लाभे संते णो पडिगाहिज्जा' भने त ५५ अY
श्री. ॥॥२॥ सूत्र:४