Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
૪૮૮
आचारांगसूत्रे टीका-सम्प्रति शय्या नामक द्वितीया ध्ययनस्य तृतीयोदेश वक्तव्यता मुपसंहरन्नाह एस खलु तस्स मिक्खुस्स' एतत् खलु तृतीयोदेशोक्तं तस्य भिक्षुकस्य भावसाधोः, 'भिक्खुणीए वा' भिक्षुक्याः वा भावसाव्याः सामय्यम्-साधुत्व सामग्रीरूपं सामस्त्यम् वर्तते 'जं सव्वद्वेहिं सहिए' यम् साधुत्वसंयमनियमपालनं सर्वाथैः-सर्वधर्मार्थमोक्षरूप प्रयोजनैः सहितः सन् 'सया जएग्जा' सदा सर्वदा साधुः यतेत-यतना पूर्वक साधुत्वसंयमपालनं ग्लानि नहीं करे क्योंकि हरतरह की उपाधि को झेलते हुए साधु लोग संयम पालन में तत्पर रहते हैं ॥ ६६ ॥
अब शय्या नामक द्वितीय अध्ययन के तृतीय उद्देशक की वक्तव्यता का उपसंहार करते हुए कहते हैं
टीकार्थ- एस खलु तस्स मिक्खुस्स भिक्खुणीए या, सामग्गियं एतत् यह तृतीय उद्देशक को सहि वक्तव्यता का स्वरूप ही उस भिक्षुक संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी का सामाग्य साधुत्वकी सामग्री रूप समग्रता अर्थात् साधुकी तथा साध्वी की समाचारी है 'सबढेहिं सहिए' जो कि साधुत्व संयम नियम पालन करने के लिये सर्वार्थ धर्म अर्थकाम मोक्ष रूप प्रयोजनों के साथ यक्त होकर 'सया जयेजा तिबेमि' सदा सर्वदा हमेशां साधु और साध्यो यत्न करे अर्थात् यतना पूर्वक ही संयम नियम व्रतादि पालन करना चाहिये यह भगवान आदेश देते हैं ऐसा गणधर ने कहा है 'सेज्जाज्झयणस्स तइओसो समत्तो' यह शय्या अध्ययन का तीसरा उद्देशक समाप्त हो गया 'सेज्जा णाम સમભાવથી શયન કરવું તેમાં સંકોચ રાખવે નહીં, કેમ કે દરેક પ્રકારની ઉપાધીને સહન કરતાં કરતાં સાધુ બે સંયમ પાલનમાં દઢ રહે છે. એ સૂ ૬૬
હવે શમ્યા નામના બીજા અધ્યયનના ત્રીજા ઉદ્દેશાના કથનને ઉપસંહાર કરતાં સૂત્રકાર કહે છે.
थ-'एस खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा' मा श्री देशानी समययत. व्यतानु १३५ से संयमशी। साधु अने साथीनु 'सामग्गिय साधुपयानी समयता अर्थात् साधुनी तथा सापानी सभायारी छ. 'जं सव्वदेहिं सहिए सया जयेज्जा' रे સાધુત્વ સંયમ નિયમનું પાલન કરવા માટે સર્વાર્થ અર્થાત્ ધર્મ, અર્થ, કામ અને મોક્ષ રૂપ પ્રજનની સાથે યુક્ત થઈને સદા સાધુઓને સાધ્વીએ યત્ન કરે અર્થાત યતના पूर्व १ सयम नियम अने प्रतादिनुपासन ४२ 'त्तिबेमि' ॥ प्रमाणे लगवान् तीय ४२ ७५३० मा छे. सेभ गराये धुं छे. 'सेज्जाज्झयणस्स तइओदेसो समतो'
श्री मायारागसूत्र :४