Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे कर्मागमनद्वारम् एतत्-सागारिकोपाश्रयनिवासः, तदेवाह-भिक्खुस्स गाहावइकुलेन सद्धि' भिक्षुकस्य साधोः गृहपति कुलेन साद्धम् 'संवसमाणस्स' संवसतः निवासं कुर्वतः 'अलसगे वा' अलसकं वा हस्तपादादिस्वम्भरूपोरोगविशेषः, श्वयथुर्वा 'विसूइया वा छड्डी या' विसूचिका वा, छर्दिा विरेचनरूपा 'उवाहिज्जा' उद्बाधेरन्-पीडयेयुः, 'अण्णयरे वा से दुक्खेरोगायके समुपज्जिज्जा' अन्यतरद् वा अन्यत् यत् किमपि तस्य दुःखं रोगातको वा समु पद्येत, अथ च 'असंजए' असंयतो-गृहस्थः 'कलुणपडियाए' कारुण्यप्रतिज्ञया दयाभावेन 'तं भिक्खुस्स गायं तद भिक्षुकस्य ग्लानस्य रोगातङ्कितस्य गात्रम् शरीरम् 'तिल्लेण वा' आदान-कर्मागमन क द्वार माना जाता है अर्थात् कर्मबन्धन का कारण होता है। इसलिये इस तरह के सागारिक-सक्षुद्र सपशु भक्तपान वाले उपाश्रय में संयमशील साधु और साध्वी को नहीं रहना चाहिये इसी को उपपादन करके बतलाते हए कहते हैं 'भिक्खुस्स गाहायइकुलेन सद्धि संघसमाणस्स' गहपति गृहस्थ श्रावक के परिवार के साथ निवास करते हुए भिक्षुक-साधु को अलसगे या' अलसकहाथ पादादि का स्तम्भ रूप (अकड जाना) वात विशेष रोग कदाचित् हो जाय, या श्वयथु सूजन हो जाय अथवा 'विस्हया वा छड्डी वा छर्दा विरेचन-विसूचिका (अत्यधिक शौच टट्टी) होने लगे 'उव्याहिज्जा' उल्टी झाडा वगैरह होने लग जाय
और 'अण्णयरे वो से दुक्खे' इस प्रकार के अनेकों रोगों से साधु पीडित हो जाय अर्थात् साधु को अनेकों दुःख या 'रोगायंके समुपज्जिज्जा रोगों का आतङ्क त्रास उत्पन्न हो जाय और ऐसी साधुकी बिमारी अवस्था में 'असंजए' यदि असंयत-गृहस्थ श्रावक अर्थात् उसी उपाश्रय में रहने वाला सकुटुम्ब परिवार गृहस्थ 'कलुणपडियाए तंभिक्खुस्स गायं' दया भाव से रुग्ण साधु के गात्र शरीर को 'तिल्लेण वा घएण वा नयणीएण वा' तेल से या घृत से या नवनीत પ્રકારના સાગારિક નિવાસસ્થાનમાં રહેવું તે સાધુ સાધ્વીને માટે આદાન-કમગમનનું દ્વાર માનવામાં આવે છે. અર્થાત્ કર્મબંધનું કારણ ગણાય છે. તેથી આ પ્રકારના સાગરિકસક્ષુદ્ર, સપશુ તથા ભક્ત પાન વાળા ઉ mશ્રયમાં સંયમશીલ સાધુ કે સાધ્વીએ નિવાસ ४२३। नही त । पात उपस्थित ४शन वे सूत्र४२ मता छे. "भिक्खुस्स गाहावइकुटेन सद्धिं' पति २५ श्रावना परिवारनी साथे 'संवसमाणस्स' निपास ४२ना२। साधुने 'अलसगे वा' साथ पाना 43315014। ३५ पात विश्न शा हाय जय अथवा 'विसूइया वा' विसूयि। अर्थात् नि। श य य अथवा 'छड्डी वा' टी । विगैरे 'उव्याहिज्जा' पाउ! ४२ -424। 'अण्णयरे वा से दुक्खे' 141 १२॥ भने। गाथा साधु ने दुः॥ ४॥२४ 'रोगायके समुपज्जिज्जा' । ना त्रास 34रे अन । २नी साधुनी मानी ३१२थामा 'असंजए कलुणपडियाए' गृहस्थ श्रा५४ २ मे पाश्रयमा २९ना२ सहमपाणी ७१५ या लाथी 'तं भिक्खुस्स गायं तिल्लेण यो
श्री मायाग सूत्र :४