Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. १ सू० ८ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ३३९ धिकाम् वा-स्वाध्यायभूमि 'चेतेज्जा' चेतयेत्-कुर्यात् किन्तु 'अह पुण एवं जाणिज्जा' अथयदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरूपम् उपाश्रयं जानीयात् तथाहि 'पुरिसंतरकडे' पुरुषान्तरकृतम् दात भिन्नपुरुषनिर्मित 'बहिया णीहडे' बहिनिहतम्-बहिरानीतम् ‘णिसिट्टे' निसृष्टम् सर्वस्वाम्यनु. मतम् 'अतहिए' अतदर्थिकम् न तदर्थनिष्पादितम् 'जाव' यावत्-परिभुक्तम् 'आसेविए' आसेवितम्-उपभुक्तं वा उपाश्रयं जानीयाहि 'ठाणं वा सेज्नं वा निसीहियं वा' स्थानं वामिली है एवं यावत्-अनतदर्थिक है अर्थात् उसी साधु के निमित्त बनाया गया है एवं अपरिभुक्त है अर्थात जिस उपाश्रय को उपभोग में भी अभी तक नहीं लाया गया तथा जो कि 'अणासेचिए' अनासेवित है अभी तक किसी भी साधु ने उस उपाश्रय को इस्तेमाल भी नहीं किया है इस प्रकार के उपाश्रय में 'णो ठाणं वा ध्यान रूप कायोत्सर्ग के लिये स्थान ग्रहण नहीं करना चाहिये एवं 'सेज्जं वा'-संस्तारक-संथरा भी नहीं बिछाना चाहिये अर्थात् शयन करने के लिये भी आवास नहीं करना चाहिये तथा 'णिसीहियं चा चेतेन्जा' निषीधि का-स्वाध्याय करने के लिये भी भूमि-वास नहीं करना चाहिये क्यों कि उक्त रीति से कन्द मूल फल पुष्प हरित घास वगैरह को इधर उधर करने से जीव जन्तु की हिंसा होने की संभावना रहती है इसलिये अप्रासुक सचित्त तथा अपुरुषान्तरकृतादि होने से अनेषणीय आधाकर्मादि दोषों से युक्त होने के कारण संयम आत्म विराधना होगी अतः उपर्युक्त रूप उपाश्रय में संयमशील साधु और साध्वी को नहीं रहना चाहिये किन्तु 'अह पुण एवं जाणिज्जा'-अथ यदि लस उपाय को ऐसा वक्ष्यमाणरूप से जान लेकि-यह उपाश्रय 'पुरिसंतरकडे' पुरुषान्तरकृत है अर्थात् दाता से भिन्न पुरुष के द्वारा ही बनाया गया है एवं 'बहिया नीहडे' बहिनिहृतम् बाहर भी उपयोग में लाया गया है तथा 'निसिढे' અપરિભક્ત અર્થાત પહેલાં ઉપયોગમાં લેવાયેલ પણ ન હોય તથા જે અનાસેવિત છે. અર્થાત કેઈ સાધુએ આ પહેલાં ઉપયોગમાં લીધેલ ન હોય આવા પ્રકારના ઉપાશ્રયમાં 'णो ठाणं वा सेज या' यान३५ योत्सग भाटे स्थान ग्रह ४२७ नही तथा સસ્તારક-પાથરણું પણ પાથરવું નહીં. અર્થાત્ સુવા માટે પણ વાસ કરે નહીં તથા 'णिसीहियं वा चेइज्जा' स्वाध्याय ४२१॥ भाटे ५ त्यो पास ४२३। नही भ ये પ્રમાણેના કંદ મૂળાદિને આઘા પાછા કરવાથી જીવજંતુઓની હિંસા થવાને સંભવ રહે છે. તેથી સચિત્ત તથા અપુરૂષાન્તરકૃતાદિ હોવાથી આધાકર્માદિ દેવ યુક્ત હોવાથી સંયમ આત્મ વિરાધના થાય છે. તેથી ઉપરોક્ત પ્રકારના ઉપાશ્રયમાં સંયમશીલ સાધુ કે साध्वी पास ४२॥ नही ५२ तु 'अइ पुण एवं जाणिज्जा' ५२'तुत पाश्रय सेवा
ने यामां आये -'पुरिसंतरकडे' या उपाश्रय ५३१ान्तरकृत छे. अर्थात हाताथी ॥ ५३५ मना छ तथा 'बहिया णीहडे' महा२ पयोमा मा छ. तथा 'णिसटे
श्री सागसूत्र :४