Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, असंजए भिक्खुपडियाए बहवे समणमाहण अतिहि किवणवणीमए पगणिय पणिय समुदिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताई समारब्भ समुहिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिज्जं अणिसटुं अभिहडं जाव चेएइ तहप्पगारे उस्लए अपुरिसंतरगडे बहिया अणीहडे जाव अणासेविए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडे बहिया नीहडे जाव आसेविए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता तओ संजयामेव ठाणं वा सेज्ज वा णिसीहियं वा चेतेजा ॥सू० ५॥
छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा स यदि पुनः उपाश्रयं जानीयात्-असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया बहून् श्रमणब्राह्मण अतिथिकृपण वनीपकान् प्रगण्य प्रगण्य समुद्दिश्य प्राणानि भूतानि जीवान् सत्वान् समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतम् प्रामित्यम् आच्छेद्यम् अनिसृष्टम् अभिहतम् यावत् चेतयेन् तथाप्रकारे उपाश्रये अपुरुषान्तरकृते बहिरनिहते यावत्-अनासेविते नो स्थानं वा शय्यां वा निषीधिकां वा चेत येत्, अथ पुनरेवं जानीयात्-पुरुषान्तरकृते बहिनिहते यावत्-आसेविते प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रमृज्य ततः संयतएव स्थानं वा शय्यां वा निषीधिकां वा चेतयेत्॥ ५॥
टीका-'पुनरपि क्षेत्रशय्यामेवाधिकृत्य विशेषं वक्तुमाह-'से भिखू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा मिक्षुकी वा 'से नं पुण उपस्सयं' स-संयमवान् मिक्षुः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या उपाश्रयं प्रतिश्रयं 'जाणिज्जा' जानीयात् तथाहि 'असंजए' असंयतः गृहस्थः 'भिक्खुपडि. याए' भिक्षुप्रतिज्ञया-साधूनां कृते 'बहवे' बहून् 'समणमाहण अतिहिकिवणवणीमए' शाक्य संधरा बिछाने के लिये या स्वाध्याय करने के लिये आवास नहीं करे, इस तरह यह अनेक साधर्मिक साध्वी विषयक यह चौथा आलापक समझ ना चाहिये ॥४॥
टीकार्थ-फिर भी क्षेत्रशय्या को ही लक्ष्यकर कुछ विशेषा बतलाते हैं -से भिक्खू या, भिक्खूणी वा, से जं पुण उवस्मयं जाणिजा' वह पूर्वोक्त मिक्षक-संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाणरूप से उपाश्रय को जान लेकि 'असंजए भिक्खुपडियाए' असंयत-गृहस्थ श्रावक भिक्षुकी प्रतिज्ञा से अर्थात् साधुओं के निमित्त बहुत से 'बहवे समण माहण'
ક્ષેત્રશસ્યાને જ ઉદ્દેશીને કંઈક વિશેષતા બતાવે છે –
22.14-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' से पूति मा साधु मने ला सकी 'से जं पुग उस्लय जाणिज्जा' यही 24१क्ष्यमा प्ररे पाय on , 'असंजए भिक्खु पडियाए' १९२५ श्रा५४ मिनुनी प्रतिज्ञाथी अर्थात् साधुन निभित्ते 'बहवे समणमाहण अतिहि' अभ-य२४ाय विशेष साधुमार तथा ब्राह्मयोग तथा मतियि मस्या
श्रीमायाग सूत्र:४