Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे प्रतिज्ञया कटकितो बा, उत्कम्बितो वा, छादितो वा, लिप्तो वा, धृष्टो वा मृष्टो वा, संसृष्टो वा, संप्रधूपितो वा, तथाप्रकारे उपाश्रये अपुरुषान्तरकृते बहिरनिमूह ते अपरिमुक्ते यावत् अनासेविते नो स्थानं वा शय्यां वा निषीधिको वा चेतयेत, अथ पुनरेवं जानीयात्पुरुषान्तरकृतम् बहिनिहतम् परिभुक्तं यावत्-आसेवितम्, प्रतिलेह्य प्रमृज्य ततः संयत एव स्थानं वा शय्यां वा निषीधिको वा चेतयेत् ॥ सू०६॥ ___टीका-पुनरपि क्षेत्रशय्यामधिकृत्य विशेष वक्तुमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षर्या भिक्षुकी वा 'से जं पुण एवं उपस्सयं जाणिजा' स संयमवान् भिक्षु यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या उपाश्रयं जानीयात् तथाहि 'असंजए' असंयतः गृहस्थः 'भिक्खुपडियाए' भिक्षुप्रतिज्ञया साधुनिमित्तम् उपाश्रयं विदध्यात्, स च कीदृशः कृतः स्यादित्याह 'कडिए वा' कटकितो वा-काष्ठादिना कुडयभित्त्यादौ संस्कारितः, 'उकंबिए वा' उत्कम्बित:-वंशादीनां कम्बाभिः संबद्धः 'छन्ने वा' दर्भतृणास्तरणादिना छादितः 'लित्ते वा' गोमयादिना लिप्तो वा 'घट्टे वा' सुधादिखरपिण्डे न घृष्टो वा 'मढे वा' मृष्टो वा लेपनकादिभिः समीकृतो वा ___ अब दूसरे प्रकार से क्षेत्र शय्या को ही लक्ष्यकर विशेष वक्तव्यता का प्रतिपादन करते हैं
टीकार्थ-'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, से जं पुण उबस्सयं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त संयमशील भिक्षुक-साधु और भिक्षुकी-साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाणरूप से उपाश्रय को जान ले कि-इस उपाश्रय को 'असंजए भिक्खु पडियाए' असंयत-गृहस्थ श्रावकने भिक्षु की प्रतिज्ञा से अर्थात् साधु के लिये 'कडिए वा' कटकित-काष्ठ वगैरह से भीत्ति दीवाल वगैरह में संस्कारित किया है अर्थात् अलचारी वगैरह बनवाया है एवं 'उक्कंपिए धा' उक्कषित किया है अर्थात् वांस वगैरह के कैंची से सम्बद्ध किया है तथा 'छन्ने वा' छादित-दर्भ तृण सूखा घास के आस्तरण से ढाका है लिप्त लित्ते वा' गोबर मिट्टी वगैरह से लीपा है तथा 'घट्टे वा घृष्ट-चूना वगैरह खरतीक्ष्ण वस्तु से घीसा है अर्थात् चूना वगैरह से घीस कर चिकना किया है
હવે પ્રકારાન્તરથી ક્ષેત્રશાને જ ઉદ્દેશીને વિશેષ કથન કરે છે.
Atथ-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित साधु मने सादा से ज. पुण एवं उवस्सयं जाणिज्जा' ने सेवी शते उपाय आ से है-'असंजए भिक्खुपडियाए'
५ श्राप साधुमान भाट १ 'कडिए वा उकंबिए वा' ४८31 अर्थात् विस्थी ભીંત વિગેરેમાં દુરસ્તી કરાવેલ છે. અર્થાત્ છજુ વિગેરે બનાવેલ હોય તથા ઉત્કંબિત मटले, पांस विश्था मधेश छ अथवा 'छन्ने वा लित्ते वा' छति अर्थात् हाल घास तुन मास्तरथी dita . तया 'लित्ते वा घटे वा' ५१ भाटीया सीख जय मा
श्री सागसूत्र :४