Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे 'अहपुण एवं जाणिज्जा' अथ-यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या उपाश्रयं जानीयात् कीदृशः उपाश्रयो गृहस्थेन कृतोऽस्ति इत्याह-'पुरिसंतरकडे' पुरुषान्तरकृतः दातृभिन्न पुरुषनिर्मितः एवं 'बहिया नोहडे' बहिनिहतो वर्तते तथा परिभुत्ते' परिभुक्तः साध्वादिभिरूपभुक्तो वर्तते 'जाव' यावत 'आसेविए' आसेवितो वर्तते तर्हि 'पडिले हित्ता' प्रति लेह्य प्रतिलेहनं कृत्वा इस तरह के उपाश्रय को अप्रासुक सचित्त होने से और आधाकर्मादि दोषों से युक्त होने से साधु और साध्वी को संयम आत्मविराधना होगी, क्योंकि उक्त रीति से सजाये गये उपाश्रय में अनेक जीव जन्तु की संभावना रहती है और असंयत से उसी साधु या साध्वी के लिये बनाये हुए होने से अधाकर्मादि दोष की भी संभावना रहती है अनएच इस तरह के बिलकुल नये रूप से बनाये गये और उसी साधु के लिये सजधज कर तैयार किये गये उपाश्रय में संयम. वान् साधु और साध्वी को ध्यान-शयन-स्वाध्याय के लिये नहीं रहना चाहिये किन्तु 'अह पुण एवं जाणिजा' अथ-यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से उपाश्रय को जान ले कि 'पुरिसंतरकडे' यह उपाश्रय पुरुषान्तरकृत है अर्थात् दाता असंयत गृहस्थ श्रावक से भिन्न ही पुरुष से बनाया गया है, और 'बहिया नीहडे' बाहर वाले से भी उपयोग में लाया गया है तथा परिभुत्ते जाव आसेचिए' परिभुक्त भी है अर्थात् दूसरे साधु वगैरह से भी उपभोग में लाया गया है एवं यावत्अतदर्थिक भी है अर्थात् केवल उसी साधु के लिये ही बनाया गया है तथा आसेवित भी है याने दूसरे साधु यहाँ रहकर ध्यानादि भी कर चुके हैं इस लिये इस तरह के उपाश्रय में 'पडिलेहित्ता' प्रतिलेहन करके और 'पमज्जित्ता'
આ રીતને ઉપાશ્રય અપ્રાસુક-સચિત્ત હોવાથી તથા આધાકર્માદિ દેથી યુક્ત હોવાથી સાધુ અને સાધ્વી ને સંયમ આત્મ વિરાધના થાય છે. કેમ કે ઉકત પ્રકારે સજાવેલ ઉપાશ્રયમાં અનેક પ્રકારના જીવજંતુની હિંસાને સંભવ રહે છે. અને ગૃહાથે એ જ સાધુ સાધ્વીને ઉદ્દેશીને બનાવેલ હોવાથી આધાકર્માદિ દેષને પણ સંભવ છે. તેથી આ પ્રમાણેના એકદમ નવા જેવા બનાવેલ તથા એજ સાધુ સાધ્વી માટે સજાવીને તૈયાર કરાવેલ ઉપાશ્રયમાં સંયમશીલ સાધુ અને સાધ્વીએ ધ્યાન, શયન, સ્વાધ્યાય માટે નિવાસ કરે न ये ५२'तु 'अह पुण एवं जाणिज्जा' ने Gायने । यक्ष्यमा रीते MYपामा
भाव है 'पुरिसंतरकडे' २५। 8५ ता ९२५ श्रापथी अन्य ७ मनात छे. 'बहिया नीहडे' मारनामा ७५योगमा सीधे डाय 'परिभुत्त' तथा परिसरात ५४ ४२८ डाय अर्थात् भी साधु विगेरे थे ५५ उपाय ४२८ लाय 'जाव आसेविए' थे' यावत् અતદર્થિક–અર્થાત્ કેવળ એજ સાધુ માટે બનાવેલ ન હોય તથા બીજા સાધુએ ત્યાં रहीन ध्यान मा शन मासेवित ५५ ४२ डाय तो मा २ उपाश्रयमा 'पडिलेहित्ता' प्रतिमान शन तथा 'पमज्जित्ता' साधायी प्रभा ना हीन 'ठाणं वा सेज्जं वा'
श्री सागसूत्र :४