Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
__प्रहं 4877
श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । हिन्दी विवेचन भूषित स्यावादकल्पलताव्याख्यालंकृत तार्किकशेखर-सूरिपुरंदर श्री हरिभद्राचार्य विरचित 卐 शास्त्रवासिमुच्चय॥
स्तबक-४ [ बौद्धमत समीक्षा] हिन्दी विवेचन सहित
व्याख्याकार:नव्यन्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्याय यशोविजय गणि महाराज
POOTOEMSMOOOOOOOOOOOOOOYEENSASSOONEY
अभिवोक्षक :न्यायदर्शनतत्त्वज्ञ धर्मसंरक्षक जैनाचार्य श्रीमद्विजय
भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज
YOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO2)
हिन्दी विवेचक :-- पंडितराज पड्दर्शनविशारद न्यायाचार्य
श्री बदरीनाथ शुक्ल
भूतपूर्व कुलपति संपूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय, बनारस (यू. पी)
त
प्रकाशक :
दिव्य दर्शन ट्रस्ट ६८, गुलालबाड़ी, बम्बई-४००००४
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
"प्रारम्भिक"
शास्त्रवार्ता समुच्चय टीका स्याद्वादकल्पलता का हिन्दी विवेचन १-२.३-८ ये चार स्तबकों के प्रकाशन के बाद अब तो इस ग्रश की मोर विहवर्ग अन्ती दरद थाकष्ट हो चुका है और इस ग्रन्थ रत्न की गरिमा एवं ग्रन्थकार-व्याख्याकार की उज्ज्वल प्रतिभा से भली भांति माहीतगार हो गया है। अत: उस के लिये पुनरुक्ति करना व्यर्थ होगा ।
प्रथम तीन स्तबकों में नास्तिक आदि वार्तामों की समीक्षा के बाद ग्रन्थकार विस्तार से बौद्धमत की समीक्षा के लिये सज्ज बने हैं। ग्रन्धकार के काल में बौद्ध दर्शनों का अन्य दर्शनों के साथ व्यापक संघर्ष चल रहा था। खुद ग्रन्थकार के साथ भी वे टकरा गए थे और ग्रन्थकार के सामने उनको घोर पराजय बरदास्त करना पड़ा था। इतना होने पर भी मलकार श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने बौद्धमत की समीक्षा में न तो बौद्ध के प्रति कोई दुर्भाव का प्रदर्शन किया है, न अपने उत्कर्ष का । यही महापुरुषों के जीवन की महान् विशेषता है। अन्य मत के सिद्धान्तों की आलोचना और उन सिद्धान्तों में दृश्यमान त्रुटिओं के प्रति अंगुलीनिर्देश, त्रुटिओं का समार्जन यह तो प्रत्येक विद्वान के लिये सत्कार योग्य है ।
बौद्ध दर्शन में पदार्थमात्र को क्षणभंगुर माना जाता है, सामान्य अथवा अवयवी जैसी किसो भी चीज को ये नहीं मानते । प्रत्यक्ष और अनुमान केवल दो ही प्रमाणरूप में माना गया है । बौद्धों में चार प्रमुख सम्प्रदाय हैं-सौत्रान्तिका, वैभाषिक-योगाचार और माध्यमिक । सौत्रान्तिक और वैभाषिक में प्रधान मतभेद यह है कि पहला बारार्थ को प्रत्यक्ष मानते हैं, दूसरा उस को अनुमेय मानता है । योगाचार मत वाले बाह्यार्थ के अस्तित्व को मानते ही नहीं, उन का कहना है कि ज्ञान के साथ हो बाह्यार्थ का अनुभव होने से ज्ञान से अतिरिक्त बाह्याथं की सत्ता ही नहीं है। माध्यमिक संप्रदाय
दी है-उस के मत में सर्वाकार शन्य संवित से अतिरिक्त कछ भी सत्य नहीं है। नाश को बौद्धमत में निरन्वय यानी निर्हेतुक माना जाता है। निरन्वयनाश शब्द यद्यपि निरवशेष नाश जिसमें वस्तु नाश के बाद कुछ भी शेष बच नहीं पाता इस अर्थ में भी देखा गया है किंतु प्रस्तुत ग्रन्थ में यह अप्रस्तुत है।
बौद्धमतवार्ता के लिये मुल ग्रन्थकार ने ग्रन्थ में सब से अधिक कारिका बनायी हैं। चौथेपांचवे और छठे स्तबक में केवल बौद्ध मतवार्ता की ही चर्चा की गयी है । चौथे स्तबक के प्रारम्भ में बौद्धमतवार्ता के उपक्रम में क्षणिकवाद और विज्ञान वाद का उल्लेख किया है । दूसरी कारिका में क्षणिकत्व साधक बौद्धाभिमत चार हेतुओं का निर्देश किया गया है-व्याख्याकार ने चारों हेतुओं की सतर्क उपपत्ति बतायी है। नाश हेतु का अयोग, अर्थक्रिया सामर्थ्य, परिणाम और क्षयेक्षण [क्षय का दर्शन] इन चार हेतुओं से अभिप्रेत क्षणिकत्व की सिद्धि का निराकरण छ? स्तबक में, और विज्ञानवाद का प्रतिक्षेप पांचवे स्तबक में क्रमशः दीखाया जाने वाला है । चौथे स्तबक में केवल मणिकत्व सिद्धि में आने वाली महान् बाबायें ही उपस्थित की गयी है ।
शुन्यबा
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
चौथी और पांचवी कारिका में क्षणिकत्व के वो बाधक स्मरणानुपपत्ति और प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति का निदर्शन है। अपि हि नमी ' इस प्रत्यभिज्ञा को बौद्ध प्रमाण नहीं मानते. किंतु व्याख्याकार ने उसके प्रामाण्य की विस्तार से उपपत्ति कर दी है। इष्ट विषय की प्राप्ति, उसके लिये प्रवृत्ति और प्राप्त होने पर इच्छा का विच्छेद तथा अपने से किये गये कर्म के उपभोग-इत्यादि की अनूपपत्ति को भी यहाँ क्षणिकवाद में बाधकरूप से दर्शाया है। बौद्ध संतानवाद का आश्रय लेकर
ओं को हटाना चाहता है-किन्त अन्धकार ने १०वीं कारिका में यह कह कर उसका प्रतिक्षेप किया है कि संतान कोई पूर्वापरक्षणों के कार्य-कारणभाष (परम्परा) से अन्य वस्तु नहीं है और बौद्ध असत्कार्यवादी होने से उसके क्षणिकबाद से कार्यकारणभाव की व्यवस्था दुष्कर है। कार्यकारणभाव की समीक्षा में ६५ वीं कारिका तक बौद्ध के संतानवाद पूर्व बीज से उत्तर बीज की उत्पत्ति ] की आलोचना के बाद ( का०६६ से ८६ तक ) बौद्ध के सामग्रीपक्ष ( यानी रूपादि से विशिष्ट बुद्धि की उत्पत्ति ) की विस्तार से आलोचना की गयो है। असत्कार्यवाद में दो मुख्य बाधायें का० ११ में बतायी है-(१) अभाव कभी भी भावरूपता का अंगीकार नहीं करता, और (२) भाव कभी अभावरूपता को नहीं स्वीकारता। का० १२ से ३८ तक द्वितीय बाधा का विस्तार से समर्थन किया गया है और का०३६ से ६५ तक प्रथम बाधा का समर्थन किया है ।
द्वितीयबाधा के समर्थन में धर्मकीत्ति के मत का भी निराकरण प्रस्तुत किया गया है। भाव के अभाव हो जाने को आपत्ति के प्रतिकार में का० ३२-३३ में धर्म कीति यह दलोल करते हैं कि 'भाव अभाव हो जाता है-इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वहाँ अभाव जैसा कुछ होता है, किन्तु यह मतलब है कि वहाँ कुछ भी नहीं होगा। शशसोंग अभाव होता है-इसका भी यही मतलब है कि वह भावरूप नहीं होता ।' धर्मकोत्ति के कथन विरुद्ध व्याख्याकार किसी तटस्थ को उपस्थित करते हैंउस तटस्थ का कहना है कि योग्यानुपलब्धि से शशसींग के अभाव का ग्रह शक्य होने से शशसींगाभाव में कालसम्बन्धस्वरूप भवन का विधान विरुद्ध नहीं है। इस कथन के समर्थन में तटस्थ की ओर से न्यायकुसुमाञ्जलि दूसरे स्तबक की तीसरी कारिका में प्रोक्त उदयनमत का भी खण्डन कर दिया है । एवं श्रीहर्षकृत खण्डन खण्डखाद्य प्रथम कारिका से अपने मत का समर्थन भी किया है । किन्तु धर्मकोत्ति ने इस तटस्थ कथन का खण्डन कर दिया है। ३५ और ३६ वी कारिका से प्रन्थकार ने धर्मकीत्ति के उक्त मत का खण्डन कैसे हो जाता है उसकी स्पष्टता में यह दोष बताया है कि नष्ट भाव के उन्मज्जन को आपत्ति यहाँ भी दुनिवार है। इसकी व्याख्या में व्याख्याकार ने 'भूतले घटो
'वाक्य के न्यायिकाभिप्रेत शाब्दबोष का विस्तार से निरूपण ओर खण्डन कर के मूलकार के इस कथन की उपपत्ति की है कि 'घटो नास्ति' इस वाक्य से घटास्तित्व का जैसे अभाव बोध होता है वैसे घटाभाव के अस्तित्व का भी बोध होता है ।
का० ३८ में व्याख्याकार ने नैयायिक के इस मत का कि-'अभाव सर्वथा भाव से भिन्न ही होता है' विस्तार से निरूपण और खण्डन किया है। एवं प्रभाकर के इस मत का कि-घटवाले भूतल की वृद्धि से भिन्न भूतल की बुद्धि ही घटाभाव है-विस्तार से निरूपण और खण्डन किया है।
का० ३४ से ६५ तक 'अभाव कभी भी भावरूपता को अंगीकार नहीं करता' इस प्रथम बाधक के समयन में, बीच में शान्तरक्षित नाम के बौद्ध पंडित के मत की आलोचना प्रस्तुत कर दी
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं । शान्त रक्षित कहता है कि असत् पदार्थ भावोत्पादक नहीं होता और सद्रपापन्न असदवस्था से आकीर्ण भी नहीं होता। इसके प्रतिकार में ग्रन्थकार का कहना है कि जब तक घट हेतुभूत मिट्टी आदि का ही घटरूप से जन्म न माना जाय तब तक शान्तरक्षित का कथन व्यर्थ है अर्थात् असत् से सदुत्पत्ति आदि दोष का निराकरण शान्तरक्षित के कपनमाष से नहीं हो सकता ।
का० ६५ में प्रथम बाधक के समर्थन के उपसंहार में व्याख्याकार ने समवायवादो नैयायिक को सकंजे में ले लिया है। 'गुणक्रिया जातिविशिष्ट बुद्धियाँ विशिष्टबुद्धिरूप होने से विशेषणसम्बन्ध (समवाय सम्बन्ध) विषयक होती है' यह नैयायिक का समवायसाधक प्रमुख अनुमान है जिसका विस्तार से पूर्वपक्ष करके पू. यशोविजय महाराज ने उसका नव्य न्याय की ही शलो में निराकरण कर दिया है।
- का०६६ से ८६ तक सामग्नीपक्ष वाले कार्यकारणभाव की समीक्षा की गयी है । यहाँ ग्रन्थकार का पानसूर यह किसान मनात रूप आलोक आदि से यदि एक रूपादिबुद्धि रूप कार्य की उत्पत्ति मानी जायेगी तो फिर कार्य वैजात्य नहीं होगा अर्थात् अलग-अलग रूपादिकार्यविशेष की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी क्योंकि कारण अनक्य का कार्य-एकत्व के साथ स्तुल्ला विरोध है । का०८६ तक इसका सुन्दर समर्थन किया गया है ।
का०६ में बोद्ध मे जो कर्मवासना के आधार पर हेतुफल भाव का उपपादन किया था उसकी समालोचना में ८७ से ६२ कारिकाओं में वास्य-यामक भाव की अयुक्तता दीखायी गयी है । तदनन्तर हेतु-फल भाव की विचारणा में अवशिष्ट बौद्ध अभिप्रायों का निराकरण किया गया है । इसमें का० ११२ में बोषान्वय की चर्चा तथा का० ११३ की व्याख्या में-सविकल्प ज्ञान के प्रामाण्य का विस्तार से उपपादन विशेषत: मननाय है। सविकल्पज्ञान को प्रमाण न मानने पर निर्विकल्पक अध्यक्ष तथा अनुमान का प्रामाण्य ही दुरुपपाद्य है इस विषय पर उच्च कक्षा की चर्चा की गयी है । का० ११६ में निष्कर्ष रूप में दिखाया है कि कुछ विकल्प को प्रमाण मानना अनिवार्य होने से बोधान्वय की सिद्धि निर्बाध होती है एवं मनित्यत्व को सिद्धि दूर रह जाती है । का० ११७ में कहा गया है कि अनित्यत्व का निश्चय अप्रामाण्य ज्ञान से आस्कन्दित=ग्नस्त हो जाने से संदिग्ध हो जाता है । इस विषय के ऊपर पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष कर के विस्तृत चर्चा की गयी है। का० ११८ में बताया है कि-'मृदादि घटजननस्वभाव है। इस वाक्य के अर्थ का पर्यालोचन करने पर भी अन्वय को सिद्धि हो जाती है। का० १२१ में, कारण के अन्बय को न मानने से कार्य वैलक्षण्य की अनुपपत्ति दोखायी गयी है । का. १२३ से, अनित्यत्व में बौद्धागम का विरोध दोखाया गया है। बौदागम में एक स्थान में बुद्ध स्वयं कह रहे हैं कि उसके पश्चानुपूर्वी से ६१ कल्प में उन्होंने जो पुरुष हत्या को थी उस दुष्कृत्य के फलस्वरूप बत्तमान भव में उसको पैर में कांटा लग गया। और भी एक जगह कहा है कि यह पृथ्वी कल्पपर्यन्त स्थायी है। अन्यत्र कहा है-रूपादि पाँच स्कन्ध ज्ञानद्वय का विषय है, वस्तु को स्थिर न मानने पर इन वचनों का विरोध अवश्य है। का० १३६ की व्याख्या में द्विविज्ञेयता [=ज्ञानदय विषयता प्रतिपादक वचन की क्षणिकवाद में उपपत्ति करने के लिये बौद्ध 'घट-पटयोः रूपम' इस नैयायिक प्रयोग को उपपत्ति का सहारा लेने गया तब व्याख्याकार ने कुशलता से उस नैयायिक के प्रयोग की कटु आलोचना करके स्पष्ट कह दिया है कि वस्तु को सामान्य-विशेष उभवात्मक माने
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
--
विना 'घट पटयोः रूपम्' इस प्रयोग की कथमपि उपपत्ति शक्य नहीं है। संग्रह नय के सहारे यह प्रयोग घट सकता है किन्तु व्यवहार नय में ऐसा प्रयोग नहीं घट सकता । जिन लोगों ने उसको घटाने का प्रयास किया है उनका खण्डन किया गया है । अन्त में बौद्ध और नैयायिक दोनों का सभ्य उपहास के साथ व्याख्याकार ने चौथे स्तबक की व्याख्या को समाप्त कर दिया है ।
प्रस्तुत विभाग के सम्पादन में प० पू० सिद्धान्तमहोदधि स्व० आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज एवं उनके पट्टालंकार न्यायविशारद प० पू० आचार्यदेव श्री विजय भुवनभानुसुरीश्वरजी महाराज तथा उनके प्रशिष्य गीतार्थ रत्न प० पू० पंन्यासजी श्रीमद् जयघोष विजयजी गणिवर्य की महती कृपा साद्यन्त अनुवर्तमान रहो है - जिनके प्रभाव से यह चौथा स्तबक सम्पादित हो कर अधिकृत मुमुक्षुवर्ग के करकमल में सुशोभित हो रहा है- आशा है इस स्तबक के अध्ययन से एकान्तवाद का परित्याग कर अनेकान्तवाद की उपासना से हम सब मुक्तिपथ पर शीघ्र प्रयाण करें ।
संवत्सरी पर्व - वि.सं. २०३८
जैन धर्मोस्तु मंगलम्
— मुनि जयसुन्दर विजय पालनपुर ( बनासकांठा )
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
* चतुर्थ स्तबक विषयमाला *
卐
विषय:
व्याख्याकार का मंगलाचरण
भूमि समवसरण की महीमा सौत्रान्तिक- योगाचार बौद्धमत वार्त्ता भाव की क्षणिकता में हेतु चतुष्क माश हेतु अयोग- प्रथम हेतु अर्थक्रियासमर्थत्व-द्वितोय हेतु परिणाम तीसरा हेतु अन्ततः क्षयदर्शन- चौथा हेतु ज्ञानमात्रास्तित्ववादी योगाचार मत बाह्यार्थ के अबाधितानुभव से बौद्ध मत की अयुक्तता - उत्तर पक्ष ज्ञान भिन्न वस्तु असत् नहीं है पूर्वानुभूत का स्मरण क्षणिकता में बाधक 'सोऽयं' प्रत्यभिज्ञा क्षणिकता में बाधक 'सोय' प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य की उपपत्ति प्रत्यभिज्ञा प्रामाण्य में विरोध की आशंका अनेक दि० संबंध में विरोध की प्रत्यापत्ति १४ क्षणिकत्वानुमान से प्रत्यभिज्ञा का बाध नहीं १४ प्रत्याभिज्ञा की भ्रान्तता का निराकरण उद्वेग प्रवृत्ति प्राप्ति की क्षणिकवाद में अनुपपत्ति १६ क्षणिकत्व पक्ष में प्रवृत्ति का उच्छेद क्षण भंग पक्ष में भोग की अनुपपत्ति हेतुहेतुमद्भाव के सन्तान सामग्री पक्षद्वय सन्तान पक्ष में हेतुहेतुमद्भाव की उपपत्ति क्षणिकवाद में पारलौकिक फल की उपपत्ति १८ संतान पूर्वापरभावापन क्षणों से भिन्न नहीं समृति - प्रत्यभिज्ञा की नये ढंग से उपपत्ति भाव और अभाव का अन्योन्य परिवर्तन संभव नहीं है २०
१५
१६ १७
१७
१८
१९
१ε
....
....
M-1
पृष्ठ
२
४
ሂ
६
૭
८
ह
१०
११
११
१२
१३
१३
१४
विषय
'भावो नाभावमेतीह' इसकी विस्तार से उपपत्ति का आरंभ
भावनाया की क्षणिकता में बौद्धों का तर्क अविद्धकर्ण उद्योतकर मत की समीक्षा क्षणस्थितिधर्मकत्व की क्षणिकता व्यावहारिकनिवृत्ति रूप अस्थिति की कल्पना निरर्थक
सत्त्व का न होना यही असत्त्व भाव का अभाव तुच्छ नहीं है असत्व कदाचित्क होने से उत्पत्तिशील तुच्छ की निवृत्ति हेतु से उत्पत्तिविरह
➖➖➖➖
स्वतः तुच्छ की निवृत्ति निष्प्रयोजन- बौद्ध असत् सत् नहीं होता तो सत् भी असत्
पृष्ठ
२१
२२
२३
२४
की शंका २८
२८
२४
२५.
२६ २७
*FIN
नहीं होता स्वभाव हेतुता में तुल्यता की आपत्ति तुच्छ का कोई स्वभाव नहीं होता बौद्ध भाव और असत्त्व में हेतु-फल भाव भाव का अभाव में परिवर्तन शक्य ! असत्व में सद्भवन स्वभावता और ज्ञेयत्व की सिद्धि सत्त्वनिवृत्ति को प्रत्यक्षमिद्धि नहीं है समारोप के कारण सत्त्वनिवृत्तिग्रह न होना अयुक्त है ३३ निर्विकल्प से त्रैलोक्यग्रह की प्रसक्ति स्वलक्षण में निर्धर्मकत्व का मतिप्रसङ्ग पटुता और अपटुता का निरश में असंभव ३७ तुच्छता के अग्रह से क्षणिकत्वनिश्चय का
३४ ३५
प्रसव का दर्शन नहीं होता
२६
३०
३०
३०
३१
३२
३३
असंभव ३८ ३६
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
!
विषय
व्याप्ति बिना असत्व के ज्ञान का असंभव कपाल में घटाभाव तादात्म्य मानने में क्षणिकत्वभंग
....
४३ ४४
घटका असत्व भाव से विपरीत है। उत्पत्ति-नाश के कारण सत्र असत्व में ऐक्य प्रसंग नहीं है ४२ पंडितमान धर्मकीति मत का उपक्रम विकल्प प्रयोग अवस्तु में नहीं हो सकता धर्मकीति का विस्तृत पूर्वपक्ष योग्यानुपलब्धि का निर्वचन उदयन प्रोक्त योग्यता का निराकरण असत् पदार्थ का भी शाब्दिक भान धर्मकीति का प्रत्युत्तर नष्टभावपुरुद्गमापत्ति का प्रतीकार धर्मकीति मत का प्रतिक्षेप प्रारंभ अभाव में विकरूपासंभवोक्ति का विरोध कुछ नैयायिक सम्मत सप्तम्यर्थं निरूपितत्वपूर्वपक्ष ५१
५२ ५३
सप्तम्यर्थ सम्बन्धी नैयायिकमत प्रतिक्षेप जाति में समवाय से सत्ता शंसय तदवस्थ सप्तम्यर्थ निरूपितत्व- समवेतत्व नव्यपरिष्कार ५३ ५५
....
www.
नव्यमत में नवीन अनुपपत्तियां भाव का अभवन अभाव भवन के ऐक्य में शंका
बोद्धपक्ष में विरोध का उद्भावन द्रव्यात्मक रूप से वस्तुस्थैर्यसिद्धि प्रभाव-भाव भिन्नतावादी नैयायिक का
VIR
पृष्ठ
४०
www
४१
४२
४५
४५
४६
४८
૪૬
४९
५०
५०
५६ ५.७
५९
पूर्वपक्ष ६० अभावव्यवहार में प्रतियोगिज्ञान अनपेक्षित ६१ अधिकरण-अभाव अभेदपक्ष में गौरव अनुगत व्यवहार भेद पक्ष में अघटित भेद पक्ष में संबंध की उपपत्ति प्रत्यक्ष योग्य अभाव का स्वरूप संबंध योग्यतावच्छेदकावच्छिन्नस्वरूप की
संसर्गता - नैयायिक ६५ ।
६३
६३
६४
६५
विषय
पृष्ठ
६७
६८
६८
मत्वर्थ संबंध के बारे में शंका का निवारण ६६ प्रमा-भ्रम का वास्तव भेद निरूपण प्रभाव अधिकरण भेद-उत्तरपक्ष अभेद में बाधकतत्त्व का निरसन घटाभावभावत्व को घटत्वादिरूप मानने में अनुपपत्ति ६९ अभाव के अभाव को प्रतियोगिभिन्न मानने में गौरव ७०
अभाव का स्वतन्त्र बोध न होने में तर्कपूर्व पक्ष ७१
....
नैयायिक के कार्यकारणभाव में आपत्ति धारा ७१ अभावाधिकरण भेदपक्ष में कल्पना गौरव ७३ अभेद पक्ष में कल्पना लाघव
७३ ७४
૪
आधार - आवेय भाव को उपपत्ति कसा अधिकरण घटाभाव ? द्रव्य और पर्याय का भेदाभेद सम्मत अभावाधिकरणाभेद पक्ष में मोक्षपुरुषार्थं की उपपत्ति ७५
७५
७६
W4+N
www.
नैयायिक मत में गौरव दोष आधारता का अभाव अप्रामाण्यरक्षक नहीं
होगा ७६ प्रागभाव - ध्वंस दोनों की अनुपपत्ति की आशंका ७७
७७ ७८
अभाव द्रव्य पर्याय उभयस्वरूप है आत्माश्रय दोष का परिहार पूर्वोत्तरक्षणात्मक प्रागभाव ध्वंस - ऋजुसूत्र ७८ स्वतन्त्रनाशप्रतीति की शंका का विलय विभक्त कपालखंड ही घटनाश है..... शून्य अधिकरणबुद्धि हो अभाव है - प्रभाकर ८१ घट की विद्यमानता में अभाव की आपत्ति
७९
८०
4445
नहीं है ५१ घटवत्ता का ज्ञान होने पर भी अभाव व्यवहार की आपत्ति की शंका ८१ घट-घटाभाव के व्यवहार में विरोध भंग
की आपत्ति ८२
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
प्रतियोगिमद्ज्ञानभिन्न अधिकरणज्ञानरूप
पृष्ठ
अभाव ८३
आरोप्य संबंध में उभयाभावघटित अभावव्याख्या ८३
८५
प्रभाकरमत में दूषण परंपरा उत्पत्ति के पूर्व वस्तु सर्वथा असत् नहीं होती ८५ नियतकार्योलादन शक्तिरूप से कार्यसत्ता कार्यरूप शक्ति का अभाव असत्कार्यवाद का समर्थक नहीं है ८६ असत् वस्तु उत्पादन की शक्ति का असंभव ८६ पूर्वावधि - उत्तरावधि की कल्पना व्यथं असत् के लिये कारण व्यापार असंगत बौद्ध के द्वारा 'सत्व अर्थात् सत्तासंबंध इस अर्थ का खंडन ८८ वस्तुस्वरूप से ही सद्रूप नहीं ८९ सत्त्व का स्वरूप अर्थ क्रियाकारित्व कैसे ? - बौद्ध ६
८७ ८८
९०
९१
तत्कार्यार्थी को तत्कारणनिष्ठ कारणता का ज्ञान अपेक्षित नहीं प विशेष कार्यकारण भाव मानना जरुरी संबंध बिना कार्योत्पत्ति का असंभव विपयता ज्ञानस्वरूप है- पूर्वपक्ष शका सम्बन्धमाद्वयसापेक्ष-उत्तरपक्ष .... असत्कार्यवाद में सर्वकार्योत्पत्ति को आपत्ति ६३ विशेष कार्यकारणभाव असत्कार्यवाद में
९२
९२
असंगत ९३ ६ ४
क्षणिकवाद में कारणता अनुपपन्न क्षणिकवाद अव्यवहित उत्तरकाल के नियम की असंगति ९४ उत्पत्ति-नाश कार्य-कारण से भिन्न या
अभिन्न ? नाश और कारण का धर्म-धर्मिभाव कल्पित है - पूर्वपक्ष कल्पित धर्म - धर्मिभाव से कारणत्व की अनुपपत्ति-उत्तर पक्ष
६५
९६
२७
१०
विषय
पृष्ठ
धर्मी अकल्पित, धर्म-धर्मिभाव कल्पित बौद्ध ६७ कारणपरिणति विना कार्य का असंभव ६८ कारणक्षण के आश्रयण से कार्योत्पत्तिकथन को असंगति ९८ कारण की सत्ता फलपरिणामस्वरूप कार्य के रूप में अभंग ९९ का० ५६ के अवतरण में पक्षद्वयी..... १०० मिट्टी में पटकुरूपत्व क्यों नहीं हो
सकता ? निश्चित कारण से नियतकार्योत्पत्ति क्षणिकवाद में असंभव १०२ बौद्धमत में कारपदेश में ही कार्योत्पत्ति का असंभव समानदेशत्व का अभाव वाघक नहीं बौद्ध स्वभाव से ही देशविशेष का नियम संभव - बौद्ध समानदेशता का नियम अभंग- जैन शान्तरक्षित के 'असत् पदार्थ वस्तुजनक
नहीं होता' कथन को व्यर्थता १०५ कारण के बाद कार्यसत्ता - भावोत्पत्ति
१०१
१०२
१०३
१०४ १०४
और भाव सन एकरूप है १०६ असत् की नहीं प्रागसत् की उत्पत्ति और सत्ता मान्य है १०७ शान्तरक्षित मत की असारता हेतु-फल का ऐक्य १०७ असत् पदार्थ अकस्मात् या सत्त्वलाभ करके उत्पन्न नहीं हो सकता १०८ प्रागसत्त्व होने से असद् उत्पत्ति होने का पक्ष असार है १०९ प्रागसत्र की तुच्छता से प्राक् सत्व को आपत्ति नहीं है- बोद्ध १०९ बौद्ध पक्ष में असत् के सत्व की आपत्ति ११० अभाव का भाव संभव नहीं है- उपसंहार १११ समवायिकारणोपादानतावादी नैयायिक
का पूर्वपक्ष १११
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
समवायसिद्धि के लिये विशिष्टबुद्धि में संसर्गविषयता का अनुमान ११३ अनन्त स्वरूप की संसर्गता में गौरव और
एक समयाय में लाघव असंगत ११३ संबंध के एकस्व - अनेकत्व में लाघव
अवतार पूर्वपक्ष ११६ लाघव कल्पना में द्रव्यद्वय के समवाय की आपत्ति विषयभेद को सिद्धि में लाघव - अप्रजोजक विशिष्टबुद्धि में सम्बन्धाविषयकता की
आपत्ति ११५
'विशेष्य- विशेषण संबंध निमित्तकत्व -
पृष्ठ
११६ ११७
साध्य नैयायिक परिष्कार ११८ साध्य में संबंचजन्यत्व का परिष्कार
असंगत १२० तद्व्यक्तित्वरूप से समवायकारणता का समर्थन - नैयायिक १२१ गुणत्वादिरूप से गुणादि की कारणता का औचित्य - जैन १२२ किया में गुणवैशिष्टय बुद्धि की आपत्ति
नैयायिक १२२
बुद्धि का वैलक्षण्य जातिरूप या विषयतारूप ? - जैन सम्बन्धांश में.... इत्यादि परिष्कार व्यर्थ भासमानसंबंध प्रतियोगित्वरूप प्रकारता
में अतिप्रसंग १२४ स्वरूपतः भासमान सम्बन्धप्रतियोगित्व में भी अनिष्ट १२४ स्वरूपसंबंध समवाय का उपजीवक नहीं है १२५ समवाय पक्ष में लाघव की बात असार १२६ विनिगमनाविरह से समवायसिद्धि अशक्य १२७ रूप-अरूपी व्यवस्था की समवायवाद
१२२
१२३
में अनुपपत्ति १२८ सम्बन्ध होने पर अधिकरणता का
नियम नहीं है १२८
११
विषय
१२६
तद्वृत्तिता नियामकत्व का अर्थ है तद्विशिष्ट वृद्धि का जनकत्व वायु में वह रूपं बुद्धि के प्रामाण्य की उपपत्ति १२९ निरवच्छिन्नसम्बन्ध अधिकरणता का नियामक नहीं हो सकता अनेक समयायवादी का पूर्वपक्ष अनेक सममायवादी पक्ष में अति गौरव दोष - उत्तरपक्ष १३१
अनुगत सम्बन्धप्रतीति के बल से समवायसिद्धि अशक्य १३२ वैशिष्टसम्बन्ध में पटाभाव प्रत्यक्ष
पृष्ठ
१३० १३०
की आपत्ति नैयायिक १३२ कपिसंयोग के दृष्टान्त से उक्त आपत्ति
का परिहार जैन १३३ नाश की व्यवस्था में समवाय जरूरी
नैयायिक १३४ स्वप्रतियोगिवृत्तित्व विशिष्ट सत्तावत्त्वरूप से कारणता का आपादन द्रव्य-जातिभिन्न के चाक्षुष की प्रति
१३५
बन्धकता से समवाय सिद्धि ? प्रतिबन्धकता में समवेत पद की
१३६
अनावश्यकता १३६ [का० ६६ ] सामग्रीपक्ष की कल्पना प्रयोजनशून्य है १३७ बुद्धि विजातीय कार्यों की उत्पत्ति असंभव १३७ सामग्री और उसके घटक से विभिन्न
कार्यों का असंभव १३८ कारणगत सामर्थ्य में स्वभावभेद
१४२
कल्पना अयुक्त १४० सम्मिलित कारणों के सामर्थ्य से कार्योत्पत्ति असंगत प्रत्येक जन्यत्वस्वभावपक्ष में अन्य दोष एक व्यक्ति में अनेक सामथ्यं का असंभव १४४ अनेक सामग्री से अनेक कार्योत्पत्ति असंगत १४५
१४३
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
नास
१५१
विषय
विषब
पृष्ठ उपादान और निमित्तकारणता एकरूप
नालिकेरदिपवासीका समनन्तर प्रत्यय __ से या भिन्नरूप से ? १४६
भी अन्य के समान नहीं है १६२ एक का अनेकशक्तितादात्म्य अनेकान्त
बौद्धमत में परिणामवाद की आपत्ति १६३
वाद में १ अग्निज्ञान के अभाव में धूमज्ञानोद्भव तुल्य १६३ व्यावृत्तिभेद से भिन्न कार्य जनकता की अग्निज्ञान कुर्वद्रूपत्व पिशाच में शक्य १६४
अनूपपत्ति १४८ धूमनिष्ठ अग्निजन्यता के निश्चय में एकान्ततः एकस्वभावता में विरोध
केवल घूमज्ञानहेतुता असंगत १६५ अरूपजनकच्यावृत्ति आदि रूप से
कारणतानाहक प्रत्यक्षानुपलम्भ की । कारणता का असंभव १५०
अनुपपत्ति १६६ चक्षु आदि में भिन्नकार्य जननस्वभाव पूर्वोत्तर ग्रहण का असंभव होने में आपत्ति
अन्वय के अभाव में विकल्प को अनुपपत्ति १६८ सामग्रीपक्ष की सर्वथा अयुक्तता १५१ बोधान्बय के अभाव में जन्य-जनकभावाविशेषरूप से कार्य-कारण भाववादी
नुपपत्ति १६६ बौद्धमत में दोष १५२ नीलज्ञान-पीतज्ञान के ऐक्य की आशंका १७० वास्य-वासक भाव में विकल्पों की
नीलज्ञान-पीतज्ञान के ऐक्य की आपत्ति अनुपपत्ति १५३
का परिहार १७० वासक से वासना भिन्न होने पर दोष १५४ भिन्नकालीन आवार बस्तु के भेदक । वासक-वासना अभेदपक्ष में द्रव्य की
नहीं हे १७१ सिद्धि १५४
दीर्घाध्यवसाय को धारावाहिक ज्ञान संक्रमण के विना वासनापरम्परा असंभव १५५
मानने में नैयायिक को आपत्ति १७१ परम्परा के आधार पर वास्यवासक
'एक साथ दो उपयोग नहीं होते बचन भावानुपपत्ति १५५
के व्याघात की आशंका १७२ स्वभाव से ही घट-मिट्टी के जन्य-जनक विभुपदार्थ के विशेषगुणों में क्षणिकता माव की असिद्धि १५६
के नियम का विसंवाद १७३ एक और दो का ग्राह्य-ग्राहक भाव
अंगभेद होने पर भी अंगी का अभेद १७४ असम्भव १५७
एक प्रमाता को सदैव एक ही उपयोग । कारण और उसका स्वभाव अभिन्न रूप से
स्वीकार्य १७५ गृहीत होगा-बौद्ध १५८
निविकल्पाध्यक्ष प्रमाण होने से प्रमाणादि धमिग्राहक से धर्मग्रह होने में क्षणिकत्व
विभाग उच्छेद का दोष नहीं है प्रत्यक्ष की आपत्ति १५८
–विस्तृत पूर्वपक्ष बौद्ध १७६ नालिकेरद्वीपवासी को धूप से अग्नि के
शब्दसंबद्ध अर्थबोधवादी शब्दशास्त्री मत १७६ ज्ञान की आपत्ति १५९ शब्दसंबद्ध अर्थबोधवादी का निरसन १७७ समनन्तरवैकल्य का उत्तर अयुक्त है १६० सविकल्प की शब्दानुविद्ध अर्थग्राहकता समनन्तर प्रत्यय होने पर भी एक
की आपत्ति १७८ कारण, दूसरा नहीं १६१ । निर्विकल्प प्रत्यक्ष से जाति सिद्धि की शंका १७६
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ ।
पृष्ठ
विषय
विषय जाति विना तुल्याकार प्रतीति न होने
अरिसंवादाभिमानी को चन्द्रद्वय दर्शन की शंका १८०
चन्द्रांश में प्रमाण है १९४ जाति विना बीजादि अवस्था में 'तरु:'
चन्द्रद्वय दृष्टा को कल्पित चन्द्र का भान प्रतीति होने की साशंका १८१
बौद्ध १६५ व्यक्तियों का प्रतिनियम जातिनिर्भर
मणिप्रभामणिदर्शन में प्रामाण्य क्यों
नहीं? १६५ स्थूलादि का ज्ञान निर्विकल्प न होने पर
आरोपित प्रामाण्य-अप्रामाण्यरूपद्वय का भी प्रमाणभूत अध्यक्ष है-उत्तरपक्ष १८२
कथन अनुचित १९६ निर्विकल्प से सविकल्प ज्ञान का उदय
तद्ग्राहकत्व में तत्प्रभवत्व प्रयोजक नहीं १९६
असंभव १८२ ज्ञान में जड़-चेतन उभयरूपता आपत्ति १९७ सविकल्पबुद्धि विशदाकार न होने की शंका १८२ यदाकार यदुत्पन्न यदर्थ निश्चयजनक ऐक्याध्यवसाय में विकल्पानुपपत्ति ५८३
ज्ञान प्रमाण-यह असंगत १९७ वैशद्य सविकल्पक में भी सिद्ध है १८४ उर्वतासामान्य न मानने पर तिर्यक्विषयवन्द में सांशता आपत्ति ....
सामान्य के अपलाप की आपत्ति १६८ विकल्प में वैशद्य स्वभाव विरुद्ध होने
प्रतीति के बल पर लोकसिद्ध पदार्थों । की आशंका १८६
के स्वीकार की आपत्ति १६६ विकल्पावस्था निवृत्ति में निजिकल्प का स्वभावभेद बिना अत्यन्तायोग अनुपपत्ति १९९
उदय-बौद्ध १७ वासना प्रबोधक दर्शन या इन्द्रिय संबंध? २०० विकल्पावस्था निवृत्ति में सबिकल्प का वासनाजन्यत्वमात्र से विकल्प अप्रमाण . उदय भी सिद्ध है १८७
नहीं हो जाता २०० सविकल्पज्ञान में शब्द संसर्ग भान न होने गृहीतग्राही होने से विकल्प अप्रमाण नहीं का कथन मिथ्या १८
हो जाता २०१ अर्थ निर्णायक न होने पर निर्विकल्प
ज्ञानान्तरसंवाद की अपेक्षा नियत नहीं है २०२ प्रत्यक्ष की असिद्धि १८८ नियतधर्म से विशिष्ट रूप वस्तु का ग्रहण प्रत्यक्ष से क्षणिकत्व निर्णय की आपत्ति १५८
___ अशक्य १०३ शब्दयोजनाहीन भी अध्यक्ष अर्थ का
सविकल्प प्रत्यक्ष मानस ज्ञानरूप नहीं है २०४ ___ निर्णायक है १८६ वे ही विशेष परस्पर कुछ समान क्षणिकत्वस्मरणापत्ति का विरोध-बौद्ध १६०
परिणति वाले भी हैं २०४ पद-वर्ण की अस्मृति से दर्शनांश के अनु
प्राप्ति आदि ज्ञानों में विकल्प का भव का समर्थन अशक्य ११०
अन्वय अवश्य मान्य २०५ सहकारी सांनिध्य-असांनिध्य कथन व्यर्थ १९१ क्षणिकत्व का आनुमानिक निश्चय भ्रान्त क्षणिकत्व का विकल्पानुभव न होने में
होने की आपत्ति २०६ __ कारण १६२ दलनिरक्षेप उत्पत्ति का असंभव
२०७ क्षणिकस्ववत् सदंश के अनिश्चिय की
अनित्यत्व का असंदिग्ध निश्चय असंभव २०७ बौद्ध को आपत्ति १९३ । सत्य रजतज्ञान भो असत्य होने की शंका २००
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
विषय असद् ज्ञान में भी प्रवर्तक ज्ञानाभेदग्रह 'द्विविज्ञेयाः' वचन को अनुपपत्ति २२२
मान्य २०८ द्विविज्ञेयता की उपपत्ति के लिये बौद्ध रजतदर्शन से रजातार्थी की प्रवृत्ति
प्रयास २२३ ___ का निराकरण २०६ द्विधिज्ञेयता की उपपत्ति का प्रयास ध्यर्थ २२४ दर्शन और प्रवृत्ति में हेतु-हेतुमद्भाव की
सामान्य विषयक ज्ञान का बौद्धमत में उपपत्ति का नया तर्क २०६
असंभव २२५ विकल्प की अलीकाकारता का असंभव २१० 'घटपटयोः रूपं इस प्रयोग की नैयायिक मिट्टी और घट के अभेद की उपपत्ति २११
मत में मी अनुपपत्ति २२५ मिट्टी में घटान्वय होने की युक्ति २१३ घटपट उभयवृत्ति साधारणरूप का अभाव २२६ कारणान्वय विना कार्य में लक्षण्य की
व्यवहारनय से उक्त प्रयोग अनुचित्त २२६
अनुपपत्ति २१५ व्यवहार में पविधः प्रदेश. प्रयोग क्षणिकयाद में बौद्धशास्त्रवचन का विरोध २१७
मान्य २२७ अतीतकाल में युद्धकृत पुरुषहत्या २१७
तात्पर्यभेद से योग्याऽयोग्यता का उपपादन २२७ 'मे' शब्द से कर्ता-भोक्ता का अभेदसूचन २१८ 'द्वयोगुरुत्वं न बन्धः' इसके प्रामाण्य की संतान की अपेक्षा से 'मे' निर्देश का
अनुपपत्ति २२८ असंभव २२० आधेयता विधि-निषेध का विषय नहीं है २२६ 'शक्त्या मे' इसकी 'मेरे हेतुक्षण की शक्ति वस्तु सामान्य विशेष उभयात्मक से इस अर्थ में विवक्षा अप्रमाण २२०
मानना चाहिये २३१ संसारास्थानिवत्ति के लिये क्षणिकत्व
सौत्रान्तिका मत का अन्तिम उपसंहार २३२ देशना २२१ शुद्धिदर्शिका ....
२३४ 'कल्पस्थायिनो पृथिवी' बुद्ध वचन २२१ ।
..
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थस्तवककारिकाणामकारादिक्रमः
१६
___४६
१६६
१४१
२५
कारिकांशः
कारिकांश: पृष्ठं कारिकांश: अगन्धजनन १४८ एतदप्युक्तिपात्रं
तदाकारपरित्यागा० १७० अग्मिज्ञानजमेतन एतेनाऽहेतुकत्वे
तदाभूतेरियं तुल्या २८ अग्न्यादिज्ञानमेवेह
४३
तदेव न भवत्येत० एतेनैतत्....न्याय०
५७ अत्यन्तासति ८६
तद्रूपशक्तिशून्यं अत: कथंचिदेकेन
१०५ एतेनंतव....सूक्ष्म १६५
तद्देशना प्रमाणं चेन्न २२१ अत्र चोक्तं न चा. १४२
एवं तज्जन्यभावत्वे २१३ तयाहुः क्षणिकं ५ अत्राप्यभिदधत्यन्ये एवं व्यावृत्तिभेदे
तस्मादवश्यमेष्ट्रव्यं अथान्यत्रापि सामर्थ्य १४४ एवं च न विरोधोऽस्ति २२४ तस्मादवश्यमेष्टव्या २०६ अथाभिन्ना न कल्पितश्चेदयं
तस्यैव तत्वस्वभावस्व हा अनन्तरं च तद्भाव १४ कादाचिकमदो
तस्यां च नाऽगृहीतायां ३८ अनुभूतार्थविषयं
किच तत्कारणं ६३ तं प्रतीत्य तदुत्पाद अन्तेऽपि दर्शन
३९ कि चान्यत् क्षणिकत्वे २१६
तानशेषान् प्रतीत्येह १४० अन्यादृशपदार्थेभ्यः २०७
क्षणस्थितौ तवैवा०२४ न तद्गतेर्गतिस्तस्य अबुद्धिजनक
१४७
क्षणिकात्वे यतोऽमीषां २२२ । न तद्भवति चेत् अभिन्न देशतादिना० १०१ गृहीतं सर्वमेतेन
न तयोस्तुल्य असतः सस्वयोगे ज्ञानमात्र च
न धर्मी कल्पितो असत्याग संक्रान्तों ज्ञेयत्ववत्स्वभावो
न पूर्वमुत्तरं चेह १६७ असदुत्पत्तिरप्यस्य तज्ज्ञानं यन वै
न प्रतीत्यसामर्थ्य असदुत्पत्तिरप्येव तत्तज्जननभावत्वे
भावश्व असदुत्पद्यते तद्धि तत्तज्जमनस्वभावं.
मानात्वाबांधना० १५२ इत्येव मन्यापत्ति: २१३ तत्तद्विधस्वभावं
नाभावो भावता यति २० इत एकनवते कल्पे
तत्सत्त्वसाधक २१७
नम्ना विनापि
४२ इन्द्रियेण परिच्छिन्ने २२३ तथा ग्रहस्तयोर्नेत० १५८
नाहेतोरस्य भवनं ३० उपादानादिभावेन तथा ग्रहे च सर्व माऽ १५६
नेत्थं बोधान्वयोभावे १६९ उभयोग्रहणाभावे तथापि तु तयोरेव
नैकोपि यद् द्विविज्ञेय २२४ एकत्र निश्चयो
तथान्यदपि यत्कल्प० २२१ नोत्पत्त्यादेस्तयोरक्यं ३१ एक कालग्रहे तु स्या० २२३ तथेति हन्तको १६२ पञ्च बाह्या द्विविज्ञेया २२२ एकमर्थ विजानाति १५७ । तदनन्त रभावित्व
पूर्वस्यत्र तथाभावा० ९८ एतच नोक्तवद्यु १११ । तदभावेऽन्यथाभाव
प्रतिक्षिप्तं च तद्धेतो: १०७
.
"
.
ती
२१६
Mirr
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
कारिकांशः
प्रतिक्षिप्तं च यत्सत्त्वा प्रदीर्घाध्यवसायेन
प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां प्रत्येकं तस्य तद्भावे प्रभूतानां च नैकत्र
भावस्याभवनं
भावे ह्येष विकल्पः
मन्यन्तेऽन्ये जगत्
भवतु मे येत्यात्म निर्देशः
यज्जायते प्रतोत्यंक
यतो भिन्नस्वभावत्वे यदि तेनंव विज्ञानं
यस्मिन्नेव तु संताने यः केवलानल
यापि रूपादिसामग्री योऽप्येकस्यान्यतो
पृष्ठ
०९
२०६
१६६
१४२
१३६
५०
४४
३
२२०
२१८
१४०
१४०
१४६
१८
१६१
१३७ १०३
१६
कारकांशः
पृष्ठ
रूप येन स्वभावन १४६ रूपालोकादिकं कार्य ६८ वस्तुनोऽनन्तरं.... कस्य ० १०६ वस्तुनोऽनन्तरं.... तत्तथा १०८ वस्तुस्थित्या तयोस्तत्व १५८ वस्तुस्थित्या तथा
९०
वासकाङ्क्षासना
१५३
चास्यवासकभावश्च
१५५
१५३
१६८
वास्यव। सकभावा
विकल्पोऽपि तथा
विभिन्न कार्यजनन
स एव भावस्तद्धेतु सक्षणस्थिति० सतोऽसत्वं
सत्त्वेऽपि नेन्द्रियज्ञानं सतोऽसवे
3
१५१
३०
२२
२१
२२५ २१
कारिकांश: सत्यामस्यां स्थितो
समनन्तर कल्यं
समारोपादसो नेति सर्वथैव तथाभावि सर्वेषां बुद्धिजन
स हि व्यावृत्तिभेदेन संतानापेक्षया
संताना पक्षमायैतच्चे
साधकत्वे तु सर्वस्य
सामग्रीभेदतोयव
सामग्रघपेक्षयाप्येवं
सोऽन्तेवासी
स्तस्तो भिन्नाभिन्नो स्वकृतस्योपभोगस्तु स्वभावक्षणतो
स्वसंवेदनसिद्धत्वान
पृष्ठं
२०६
१६०
३३
९९
१३७
१४८
१७
२१९
९३
१४५
१५१
१२
९५
१६
३८
१७५
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
*
अहं फ्र हिन्दाविवेचनसंयुत स्याद्वादकल्पलतान्याख्याविभूषित
शास्त्रवार्त्तासमुच्चय #
चतुर्थस्तवकः
[ व्याख्याकार का मङ्गलाचरण ] यस्याभिधानाज्जगदीश्वरस्य समीहितं सिद्धयति कार्यआतम् |
सुरासुराधीशऋतांह्रिसेवः पुष्णातु पुण्यानि स पार्श्वदेवः ॥ १ ॥
जिस जगत्स्वामी के नामोच्चार से मनुष्य के समस्त अमीष्ट कार्य सिद्ध होते हैं, एवं देवों तथा असुरों जिसके चरणों की सेवा करते हैं वे पार्श्वदेव भगवान् हमारे पुण्य का हमारी 'पवित्र प्रवृत्तियों का हमारे विशुद्ध मनोमयों का हमारे शुभ अनुबन्धों का संवर्धन करें। इस मंगलश्लोक में भगवान् के नामोच्चार आदि से मनुष्य के सर्व ग्रभिलषित कार्यों को सिद्धि होने की बात कही गयी है और उन्हें जगत् का ईश्वर बताया गया है। इन दोनों कथन से श्रापाततः इश्वर में जगत् के मनचाहा विनियोग एवं सम्पूर्ण कार्यवृन्द का कर्तृत्व भासित होता है, किन्तु मङ्गलकर्ता का इस अर्थ में तात्पर्य नहीं हो सकता, क्योंकि तृतीयस्तबक में सविस्तर ईश्वर के जगत्कर्तृत्व का खंडन किया है और यहाँ भी उस का संकेत 'समस्त इष्टसिद्धि में भगवद् नामकीर्तन हेतुकता' के कथन से कर दिया है।
श्राशय यह है कि भगवत्कीर्तन समस्त वांछित का साधन है, स्वयं भगवान् इसमें सरक्षात् कृतिमान रूपसे कत्ता नहीं, क्योंकि वीतराग होने से उन में इस प्रकार का कर्तृत्व हो ही नहीं सकता, किन्तु जगत् का ईश्वर कहने से यह सूचित किया है कि और किसी के नहीं किन्तु वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् के नाम कीर्तन से ही सर्वमनोवांछित की सिद्धि होती है, इसलिये सिद्धि में मुख्य कारण भूत कीर्तन के आलम्बन भगवान् ही है।
जैन दर्शन में कार्यमात्र के प्रति नियति-स्वमाव-काल-कर्म-पुरुषार्थं इन पांचों का समवाय कारणभूत माना गया है, वहां भी प्ररिहंत भगवान का इन पाँच कारणों पर प्रभुत्व माना गया है, इस से सूचित होता है कि पंचकारणजन्य जगत्कार्य पर भी भगवान् का प्रभुत्व है । यही जगवीश्वरत्व है । वीतराग सर्वज्ञ २३ वे तीर्थंकर पार्श्ववेव में इसी प्रकार का प्रभुत्व विवक्षित है ।
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा वा० समुच्चय-स्त०५
अङ्कारूढमृगो हरिनं भुजगाऽऽतङ्काय साऽसुहृद्
निशा गुरा-तुरा न च भियोऽहङ्कारभाजो नृपाः । यद्वयाख्याभुवि वैर-मत्सरलबाशङ्कापि पङ्कावहा
श्रीमद्वीरमुपास्महे त्रिभुवनालङ्कारमेनं जिनम् ।।२।। मंगल के उत्तरार्ध में भगवान के चरण के लिये 'हि' यह शब्द प्रयोग किया है जिसका अर्थ है अहस यानी समो पापों को नष्ट करने वाला। इस शब्दप्रयोग से यह सूचित किया है कि मगवान् के चरणों को सेवा से सब पापों का विनाश हो जाता है। यहाँ पाप शब्द दुष्कृत एवं अशुभ कर्म दोनों का सूचक है इसलिये भगवत् चरण की सेवा से उन दोनों का ग्रन्त सूचित होता है, क्योंकि मोक्षार्थी के लिये जसे दुष्कृतों का परिहार अपेक्षित है उसी प्रकार प्रशुभ कर्मों का नाश भो अपेक्षित है क्योंकि वे दोनों हो बन्धन है । एक दृष्टि से पुण्य कर्म भो बन्धन कहा जा सकता है किन्तु मोक्षमार्ग-प्राराधना की सामग्रो-मानवभव इत्यादि की प्राप्ति विना पुण्य नहीं हो सकती । प्रतः अन्त में मोक्षोपयोगी शुषलध्यान में अति प्रावश्यक संहननबल-मनोबल पर्यन्त के लिये पुण्य अति प्रावश्यक है, इसलिये पुण्य का बन्धन सहसा त्याज्य नहीं है । अत: पापों के बन्धन से मुक्त होने के लिये भगवत् चरण को सेश को छोडकर अन्य कोई मार्ग नहीं हो सकता।
देव और असुरों के अधीश्वरों अर्थात् सुरेन्द्र प्रसुरेन्द्रों के द्वारा भगवान को चरण सेवा को जाने की बात जो कही गयी है, इस से यह तात्पर्य सचित होता है कि देवेश और दानवेश जिन में उच्चकोटि की सहल शत्रुता इतर लोक मानते हैं, वे भी उस शत्रुभाव को छोड कर परस्पर सहयोगपूर्वक भगवान् पार्श्वदेव की चरण सेवा में संलग्न होते हैं । वीतराग के समक्ष सभी का परस्पर वैरत्याग सर्वथा उचित ही है, क्योंकि वीतराग व्यक्ति अहिंसा में पूर्णतया प्रतिष्ठित होता है। अहिंसा में पूर्णप्रतिष्ठित होने का अर्थ यही है कि केवल उस पुरुष के हो वेष का अन्त नहीं किन्तु उस के सम्पर्क में प्राने धाले प्रायः सभी जीवों के मन में भी परस्पर वेष को भावना मिट जाती है । अन्य दर्शनों में भी इस भाव की सूचना प्राप्त होती है, जैसे
"अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:"[ ] इस पातञ्जलसूत्र से स्पष्ट है। ध्यापाकार ने इस मंगल श्लोक द्वारा भगवान पाश्चंदेव से पुण्य को किसी व्यक्तिविशेष से संबद्ध न बताकर यह सूचित किया है वे भगवान से जीवमात्र के पुण्यपुष्टि होने को कामनावाले हैं। 'पुण्य' शब्द का अर्थ यहाँ 'वैषयिक सुखों का प्रापक प्रदृष्ट' विवक्षित नहीं है, क्योंकि वह भी अाखिर तो पाप के समान एक बन्धन ही है, अतः 'पुण्य' शब्द से यह पुण्यानुबन्धी पुण्य विवक्षित है जिससे मनुष्य को उच्च उच्चतर आराधना में अनुकूल मनोबल प्रादि साधन सामग्री सम्पन्न हो, व उन प्रवृत्तियों और निर्मल मनोभावों की पुष्टि हो, एवं जिन से मनुष्य का प्रात्मिक उत्थान होता है और मोक्ष के लिये अपेक्षित प्राध्यात्मिक सफर में ऐसे उत्तम शम्बल की प्राप्ति होती है जिस से मनुष्य निश्चिन्त हो कर अपनी प्रारमोन्नायक सफर पूर्ण कर सके।
[ व्याख्याभूमि समवसरण की महिमा ] दूसरे मंगलश्लोक में भगवान महावीर की उपासना के प्राधार भूत तग्यों का वर्णन किया गया है जो इस श्लोक के अनेक शब्दों से स्पष्ट होता है । श्लोक का अर्थ इस प्रकार है
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्या० ५० टीका-हिन्दीविवेचन ]
वार्तान्तरमाहमूलम्-मन्यन्तेऽन्ये जगत्सर्व क्लेशकर्मनियन्धनम् ।
क्षणक्षयि महामाज्ञा ज्ञानमात्रं तथा परे ॥१॥
.
जिस की प्रवचनभूमि सिंहासन का अधःकक्ष समवसरण में, सिंह की गोद में मग निभय होकर छठ पाता है, सो का शत्रु याने गरुड या मयूर से सर्यों का प्रातङ्क-मय समाप्त हो जाता है, देवता पौर दानव एकदूसरे के प्रति नि:श-आक्रमण को शङ्का से रहित हो जाते हैं और नरपति अहंकार एवं परस्पर द्वेष से मुक्त हो जाते हैं, और जिस को व्याख्याभू समवसरण में स्थित प्राणियों में परस्पर में इर्ष्या और शत्रुता होने की किचित् मात्र शङ्का मी शालु के लिये पावह प्रर्थात् पाप जनक होती है, क्योंकि भगवान के सानिध्य में उन में इन बातों की किश्चित्मात्र सम्मायना ही नहीं होती, तीनों लोग के अलङ्काररूप ऐसे भगवान श्री महावीरस्वामी को हम उपासना करते हैं।
इस श्लोक में मडुलकर्ता ने भगवान् महावीरस्वामी को तीनों लोक का प्रलङ्कार कहा है। प्रलजार का अर्थ होता है-भूषित करने वाला, शोभा बढ़ाने वाला आभूषण शोभा को वद्धि इसी वस्त से होती है जो प्रलंकरणोय वस्तु को नितान्त निर्मलरूप में प्रस्तुत कर सके जिस को प्रामा से प्रलंकरणीय वस्तु का दोष पूर्णतया अभिभूत या समाप्त हो जाय । त्रिभवन पर भगवान महावीर का ऐसा ही प्रमाव है । उन के सम्पर्क से चाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष सारा त्रिभुवन अलंकृत हो उठता है, क्यों कि भगवान के प्रभाव से राग, द्वेष, भय, प्रातङ्क, शङ्का, अहंकारावि त्रिभुवन के सम्पूर्ण मल शिथिल हो जाते हैं और समाप्त हो जाते हैं । भगवान महावीर को श्रीमान् भो कहा गया है, 'श्री' का अर्थ होता है सौंदर्य और सौंदर्य का प्राश्रय यही वस्तु होती है जिस से किसी प्रकार का उद्वेग न हो, उद्धेगकारि वस्तु कभी भी सुन्दर नहीं कही जाती । भगवान को श्रीमान् कहकर उन को इसी अनुवेजकता की-पानी परखेदकर्तृत्व के प्रभाव की सूचना दी गई है।
भगवान को 'जिन' भी कहा गया है। 'जिन' का अर्थ होता है विजेता, विजेता का गौरव उसो पुरुष को मिलता है जो सब से बड़े शत्रु पर विजय प्राप्त करता है । जीवमात्र का सबसे बडा शत्र होता है उस का मोह । मोह का अर्थ है मिथ्याष्टि, इस दृष्टि से ही मनुष्य पतित और पराजित होता है। इस महा शत्र मोह पर विजय प्राप्त करने के कारण ही भगवान को जिन कहा गया है। भगवान के सम्बन्ध की यही विशेषताओं को श्लोक के पूरे भाग में परिपुष्ट किया गया है और यह बताया गया है कि जिस भूमि में भगवान का उपवेश प्रवाहित होता है एवं जिस भूमि में भगवान के गुणों और महिमा की पवित्र चर्चा होती है उस भूमि में इा-शत्रुता आदि पूर्णरूप से तिरोहित हो जाते हैं। उस को किंचित् मात्र मो सम्भावना नहीं रहती। प्राणियों के हृदय में एक दूसरे से भय की भावना नहीं रहती है, मग सिंह का वध्य है वह भी सिंहों के बीच भयमुक्त होकर विचरण करने लगता है, सर्प मयूर के भक्ष्य होते हैं किन्तु उन्हें उक्तभूमि में मयूर से कोई प्रातङ्क नहीं होता है । देव और दंत्य जन्म से ही दूसरे के प्रति शत्रुता रखते हैं, एक दूसरे से स्वभावतः सशङ्क रहते हैं, सेकिन भगवान से प्रभावित भूमि में वे भी परस्पर निःशङ्क हो जाते हैं। राजामों का प्रहंकार भी चूर्ण हो जाता है। उनके मन में परस्पर प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं रह जाती जिस से वे विश्वबन्धुता, मित्रता और एकात्मकता के भाव से भर जाते हैं ।
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा. पा समुच्चय स्त:-४ श्लोक-१
अन्ये सौत्रान्तिकाः सौगताः सर्वचराचरम् जगत , क्लेशकर्मनिषन्धनं रागादिनिमित्तम् , तथा क्षणक्षषिप्रतिक्षणनश्वरम् , मन्यन्ते । तथा महामाज्ञा:-तेभ्योऽपि सूक्ष्मबुद्धयः परे योगाचाराः, ज्ञानमान्नं क्षणिकविज्ञानमात्रं जगद्मन्यन्ते ।।१।।
[ सौत्रान्तिक-योगाचार बौद्धमतवार्ता } प्रमथ कारिका में बौद्ध सम्प्रदाय के अस्तित्ववादी दार्शनिक दृष्टिकोण की चर्चा को गई है। अस्तिस्थवादी दार्शनिक सम्प्रवाय की दो शाखाएँ हैं। एक-बाह्यार्थ अस्तित्ववादी और दुसरी-विज्ञानमात्र अस्तित्ववादी। बाह्यार्थास्तित्ववादी को दो शाखा है-बाह्यार्थप्रत्यक्षवादी और बाह्यार्थानुमेयवादी। एवं विज्ञानास्तित्ववादी को भी दो शाखाएं है-साकार विज्ञानवादी और निराकारविज्ञानवादी। बाह्मास्तित्ववादीयों में प्रथमवाद की मान्यता यह है कि मनुष्य को ज्ञान और उसके विषयभूत पदार्थ जिसे ज्ञान भिन्न होने से बाद्यपदार्थ कहा जाता है दोनों का प्रत्यक्षानुभव होता है और उन अनुभवों को भ्रम मानने में कोई प्रमाण नहीं। अत: ज्ञान और ज्ञान से भिन्न विषय दोनों को सत्ता प्रमाणिक है। दूसरे बाद की मान्यता यह है कि मनुष्य को मुख्यरूप से अपने ज्ञान का ही प्रत्यक्ष होता है । विषय तो उस प्रत्यक्ष में ज्ञान का अङ्ग यानी विशेषण होकर मासित होता है । विषय के स्वतंत्र प्रत्यक्ष के अस्तित्व में कोई प्रमाण नहीं है, इसलिये ज्ञान और बाझविषय इन दोनों का अस्तित्व होने पर भी उन दोनों में ज्ञान ही प्रत्यक्ष है और विषय अप्रत्यक्ष है। ज्ञानके अङ्गरूप में विषय को अनुभूति होने से उस अनुभूति द्वारा विषय का अनुमान होता है । प्रतः बाह्यार्थ यह प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमेय होता है।
विज्ञानमात्रास्तित्ववादी को प्रथम शाखा का प्राशय यह है कि बाह्यवस्तु का अस्तित्व अप्रमा. रिणफ है । ज्ञान में जो साकारता का अनुभव होता है वह साकारता उसका सहज धर्म है। उसकी उपपत्ति के लिये प्रर्थात् ज्ञान को साकार बनाने के लिये ज्ञान से भिन्न विषय की कल्पना अनावश्यक है । शान और उसका आकार दोनों ही ज्ञानस्वरूप है । उसको दूसरी शाखा का अभिप्राय यह है कि मान में अनुभूत होने वाली साकारता वास्तविक नहीं है किन्तु कल्पित है । जान स्वभावतः निराकार है। प्राकार की कल्पना वासनामूलक है। प्राकार सत्य नहीं है । बाह्मार्थवादी की प्रथम शाखा सौत्रान्तिक और दूसरी वैमाषिक कही जाती है। द्वितीयवादो को दोनों शाखाएं योगाचार के नाम से प्रसिद्ध है।
[ भाव को क्षणिकता में हेतुचतुष्टय ] प्रस्तुत प्राद्यकारिका में इन्हीं बातों का सूक्ष्म संकेत करते हुए कहा गया है कि कुछ बुद्धानुयायी सौत्रान्तिकादि वादिजन सम्पूर्ण जगत् को श्लेशकर्ममूलक मानते हैं । क्लेशकर्म का अर्थ है राग, द्वेष, मोह । 'क्लेशः वुखम् कर्म-कार्यम् यस्य' इस व्युत्पत्ति से क्लेश का जनक होने के कारण रानादि को क्लेशकर्म शब्द से व्यवहृत किया जाता है । जगत् को रागादिमूलकता अन्य समो पुनजन्मवादी दर्शनों को मान्य है। इसलिये उनसे इस मत में अन्तर बताने के लिये यह भी कहा गया है कि जगत् क्षणविनाशी है । अर्थात जगत् का प्रत्येक भाव अपनी उत्पत्ति के प्रव्यवहित उत्तरक्षरण में ही नष्ट हो जाता है। किसी भी भाव का दो क्षण के साथ सम्बन्ध नहीं होता।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्या० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
मूलम् - तयालुः क्षणिक सर्व नाशहेतोरयोगतः । अर्थक्रियासमर्थत्वात् परिणामात्क्षयेक्षणात् ॥ २॥
[ *
तथाहि-ते=मौगताः आहुः प्रतिजानते । किम् ? इत्याह- सर्व क्षणिकमिति । अत्र हेतुचतुष्टयम्-नाशहेतोरयोगत इत्याद्यो हेतुः अर्थक्रयासमर्थत्वादिति द्वितीयः, परिणामादिति तृतीयः, अतादवस्थ्यादित्यर्थः, सवेक्षणादिति तुर्यः, अन्ते क्षयदर्शनादित्यर्थः ।
अाहेतुना स्थायित्वाऽसिद्ध साध्यसिद्धिः । तथाहि नाशहेतुभिर्नश्वरस्वभावो भावो नाश्येत, अशो वा ? आये प्रयासचैफल्यम् । द्वितीये तु स्वभावपराकरणस्य कतुमशक्यत्वादनाशप्रसङ्गः । कियत्कालस्थायित्वस्वभावस्यैव कार्यस्य हेतुभिर्जनने च तादृशस्वभावस्योदयकाल इवान्तकालेऽपि सच्चात् पुनस्तावन्तं कालमवस्थानाऽऽपत्तिरिति ।
कारिका में यह भी कहा गया है कि जो बुद्धमत्तानुयायो अधिक सूक्ष्मबुद्धि सम्पन्न है जैसे योगाचार, वे जगत को केवल क्षणिकविज्ञान रूप मानते हैं । उनको दृष्टि के अनुसार सम्पूर्ण जगत् विज्ञान की ही एक अवस्था है। विज्ञान से पृथक् उतका अस्तित्व नहीं है ॥ १ ॥
[age कारिका से समूचे चौथे स्तबक में सौत्रान्तिक को लक्ष्य बना कर क्षणिकवाद की ही बालोचना की जायगी। ]
(योगाचार अमित विज्ञानवाद की सालोचना पाँचवे स्तबक में प्रस्तुत की जायगी । ) ( यहाँ दूसरी कारिका से साधारणतया सौगत के क्षणिकवाद की और तीसरी काfरका में योगाचार [ सौगत विशेष ] अभिप्रेत विज्ञानवाद को पूर्वपक्ष की स्थापना को जा रही है )
बौद्ध दार्शनिकों का जगत् के सम्बन्ध में यह अभिप्राय है कि- 'सवं क्षणिक' सम्पूर्ण भाव क्षणिक =भएमात्र स्थायी = अपनी उत्पत्ति के श्रव्यवहित उत्तरक्षण में नश्वर हैं । इस श्रभिप्राय को सिद्धि के लिये ये चार हेतुत्रों का प्रयोग करते हैं। पहला हेतु नाश के कारण का प्रभाव इसका श्राशय यह है कि भाव के नाश का कोई कारण नहीं होता । अर्थात् भाव का नाश कारणनिरपेक्ष होने से भाव का जन्म होते ही नाश उत्पन्न हो जाता है। दूसरा हेतु है अर्थ किया समर्थत्व । अर्थ का तात्पर्य है भाव, क्रिया का अर्थ है उत्पत्ति और समर्थन का अर्थ है योग्यत्व। इस प्रकार भावोत्पादनसामर्थ्य ही द्वितीय हेतु है । तृतीय हेतु है परिणाम परिणाम का अर्थ है तववस्थता का श्रव । श्राशय यह है कि जननावस्था हो भाव की अवस्था होती है। जननावस्था का अर्थ है काल सम्बन्ध । भाव दूसरे क्षरण में इस अवस्था से रहित हो जाता है । प्रर्थात् काल के साथ उसका सम्बन्ध तूट जाता है । श्रथवा परिणाम का अर्थ है अन्यथाभाव । चौथा हेतु है अन्त में क्षयदर्शन । इसका अर्थ है अन्त में क्षय का प्रत्यक्ष प्राशय यह है कि किसी भी भाव का एक न एक दिन नाश अवश्य देखा जाता है । यह नाश सहसा संभव नहीं होता किन्तु जन्म क्षण से ही उसकी प्रक्रिया का प्रारंभ हो जाता है और एक दिन ऐसा आता है जब मात्र का नाश दृष्टिगोचर होता है ।
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा.वा. समुच्चय त०४- श्लो० २
द्वितीयेऽप्यर्थक्रियासमर्थत्वं स्थायिनो निवर्तमानं क्षणिक एवं भावे विश्राम्यति । तथा हि- स्थायी भात्रः क्रमेण वा कार्यं कुर्यात् अक्रमेण वा १ द्वितीये एकदेव सर्वकार्योंत्पत्तिः आधे चार्थक्रियाजननस्वभावत्वे प्रागेव कुतो न कुर्यात् ? सहकार्यभावादिति चेत् ?
१
1
( भाव की क्षणिकता में हेतुचतुष्टय )
इन हेतुओं से 'मात्र की क्षणिकता किस प्रकार सिद्ध होती है' इस बात का प्रतिपादन व्याख्याकार श्री यशोविजयजी महाराज ने अत्यन्त तर्कपूर्ण रीति से किया है। जैसे ( १ ) प्रथम हेतु-नाश कारणाभाव से भाव के स्थायित्व की सिद्धि न होने के कारण मात्र का क्षणिकत्व सिद्ध होता है । नाशकारणाभाव का उपपादन करने के लिये उन्हों ने प्रश्न उठाया है कि यदि नाश का कोई हेतु होता है तो वह किसका नाश करता ? जो भाव स्वभावतः नश्वर है उसका नाश करता है या जो स्वभावत: नश्वर है उसका नाश करता है ? इन में प्रथम पक्ष में नाश का हेतु सिद्ध नहीं होता, क्योंकि भाव जब स्वभावतः नश्वर है, नाश हो जाना उसका स्वभाव ही है तो स्वयं ही नष्ट हो जायमा प्रत: नाश के कारण को कल्पना निरर्थक । दूसरे पक्ष में भी नाश का हेतु नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि यदि नाव का स्वभाव अनश्वरत्व होगा तो उसे दूर कर सकना किसी के लिये संभव नहीं है। क्योंकि किसी भी वस्तु का जो स्वभाव है वह अपरिहार्य होता है। इसलिये इस पक्ष में नाश के असंभाव्य होने के कारण होगी।
यदि यह कहा जाय कि भाव का स्वभाव न नश्वरत्व हैं और न अनश्वरत्व है किन्तु कुछ कालतक स्थायित्व है । यह स्वभाव तभी उपपन्न हो सकता जब भाव का कुछ काल के बाद नाश हो । श्रतः ऐसे नाश की उत्पत्ति के लिये नाश के हेतु की कल्पना श्रावश्यक है क्योंकि नाश को श्रहेतुक मानने पर भाव का जन्म होते ही नाश हो जायगा । श्रतः कुछ काल तक स्थायित्व उसका स्वभाव न हो सकेगा। नाश को सहेतुक मानने पर जितने काल तक नाश के हेतु का संविधान न होगा उतने काल तक नाश न हो सकने के कारण माव का स्थायित्व बन सकता है अतः भाव के इस स्वभाव की उपपत्ति के लिये नाशहेतु की कल्पना सार्थक है-' तो यह वयन ठीक नहीं है क्योंकि भाव जिन कारणों से उत्पन्न होगा उन कारणों से अपने कियत्कालावस्थायित्व स्वभाव के साथ ही उत्पन्न होगा । क्योंकि वस्तु का स्वभाव नही धर्म होता है जो वस्तु के साथ होता है, बाद में प्राने वाला धर्म वस्तु का स्वभाव नहीं होता । और स्वभाव एवं वस्तु को श्रायु समान होती है। श्रर्थात् वस्तु के रहते स्वनाव की निवृत्ति नहीं होती और न स्वभाव को छोडकर वस्तु भी निवृत्त होती है। फलत भाव का freeकालावस्थायित्व स्वभाव जैसे भाव के उदयकाल में रहेगा उसी प्रकार उसके जीवनकाल यावत् अन्तकाल में भी रहेगा। तात्पर्य, भाव अपने स्वभाव से कदापि मुक्त न होगा। फलत: इस स्वभाव का पर्यवसान भाव के सार्वकालिकत्व में होगा । इसलिये नाश हेतुनों से उस स्वभाव का निराकरण संभव न होने से नाश हेतु की कल्पना निरर्थक होगी। उक्त विचार से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि नाश का कोई हेतु नहीं होता इसलिए नाश के होने में किसी को अपेक्षा न होने से कोई विलम्ब नहीं हो सकता. अत एव किसी भी भाव का जब जन्म होता है तो उसके ठीक अगले ही क्षण में उसका नाश हो जाता है। इस प्रकार नाशकारणामाव रूप हेतु से भाव की क्षणिकता सिद्ध होती है।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
शा० क० टीका-हिन्दी विवेचना |
[
किं सहकारित्वम् ? - अतिशयाऽऽधायकत्वम्, एककार्यप्रतिनियतत्वं वा ? आग्रे, अतिशयाधानेनैव कारको पयः, अतिशयस्य भेदे च सहकार्यनुपकारः, अभेदे च चलाद् भिन्नस्वभावत्वम् । द्वितीये, साहित्येऽपि पररूपेणाऽहेतुत्वादकारकावस्थात्यागात् कार्यानुत्पत्तिरेव । ' इतर हेतु संनिधान एव कार्य जनयतीति हेतोः स्वभावः' इति चेत् १ तहूयु त्पश्यनन्तरमेव स्वभावानुप्रविष्टवादितरहेतून मेलयेदिति ।
[स्थाभित्र में क्रिया का असम्भव ]
(२) द्वितीय हेतु से भाव के क्षणिकत्व की सिद्धि का उपपादन करते । हुए व्याख्याकार ने कहा हैअर्थक्रियासमर्थत्व रूप द्वितीय हेतु किसी स्थायिभावों में नहीं हो सकता, श्रतः भाव को क्षणिक मानना आवश्यक है ताकि उस भावो में अर्थक्रियासमर्थत्व रह सके । प्रयंक्रियासमर्थत्व स्थायि भाव में नहीं रह सकता' इस तथ्य को व्याख्याकार ने इस प्रश्न के प्राधार पर प्रतिष्ठित किया है कि स्थायिभाव यदि कार्य का जनक होगा तो क्रम से होगा प्रथवा प्रक्रम से होगा ? इसमें दूसरा पक्ष मान्य नहीं हो सकता क्योंकि यदि भाव से कार्यों की उत्पत्ति प्रक्रम से होगी तो उसके समस्त कार्य एक ही क्षरण में हो जायेंगे । श्रतः दूसरे क्षरण उसका कोई कार्य शेष न रहने से उसका अस्तित्व प्रामाणिक हो जायगा, क्योंकि अर्थक्रियाकारित्व हो अस्तित्व है एवं अस्तित्व का साक्षी है। प्रथम पक्ष भी स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि उस पक्ष में इस प्रश्न का समाधान नहीं हो पाता कि भाव यदि बाद में उत्पन्न होने वाले कार्यों का जनक होता है तो उन कार्यों को पहले ही क्यों उत्पन्न नहीं कर देता ? क्योंकि बाद में भी उसे हो उन कार्यों की उत्पन्न करना है ! तो वह जब पहले विद्यमान है तब पहले ही उन कार्यों को उत्पन्न करने में कोई बाधा तो है नहीं । अतः पहले ही उस समय उन सभी कार्यों को उत्पन्न कर देना चाहिये । श्रतः भाव को क्रम से कार्यों का उत्पादक मानना प्रत्यन्त संकटपूर्ण है ।
1
यदि यह कहा जाय कि 'भाव अकेला कार्य का जनक नहीं होता, क्योकि कोई भी कार्य किसी एक हो कारण से उत्पन्न नहीं होता इसलिये भाव को अपना कार्य उत्पन्न करने के लिये उस कार्य के श्रन्य कारणों के भी सहयोग की अपेक्षा होती है इन सहयोगी कारणों को सहकारी कारण कहा जाता है । श्रतः बाद में होने वाले कार्यों के सहकारी कारणों का पूर्व में सन्निधान न होने से पूर्व ही उनकी उत्पत्ति की प्रापत्ति नहीं हो सकती। किन्तु भाव को जब जिस कार्य के सहकारी कारणों का सन्निधान प्राप्त होता है तब ही भाव से उस कार्य की उत्पत्ति होती है । अत एव भाव क्रम से अपने कार्यों को उत्पन्न करता है इस पक्ष के स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती'तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि इस कथन का श्राधार है म य द्वारा कार्य की उत्पत्ति में सहकारी की अपेक्षा । किन्तु यह बात सहकारित्व का निर्वाचन न हो सकने से स्वीकार नहीं की जा सकती। -जैसे सहकारित्व के सम्बन्ध में दो विकल्प हो सकते हैं, पहला यह है कि सहकारित्व प्रतिशयाधायerrer है। अर्थात् भाव का सहकारी वह होता है जिससे भाव में कोई अतिशय उत्कर्ष उत्पन्न हो, जिसके बल से भाव कार्य को उत्पन्न कर सके । और दूसरा विकल्प है सहकारित्व 'एक कार्यप्रतिनियतत्व' रूप है श्रर्या सत्तद् कार्य के उत्पादन के समय जो भाव के साथ नियम से अवश्य उपस्थित हो वह तत्तद्कार्य को उत्पन्न करने में भाव का सहकारी होता है ।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
[शा. वा. समुच्चय म्न०४-श्लोक-२
तृतीये परिणामस्याऽन्यथामावरूपस्य पूर्वरूपपरित्यागं बिनाऽभावात् , तस्य चानुभवसिद्भूत्वात् क्षणिकत्वसिद्धिः ।
इनमें प्रथम विकल्प ग्राहा नहीं हो सकता क्योंकि सहकारी और माव स्वयं दोनों अतिशय को उत्पन्न करके ही क्षीणशक्तिक हो जायेंगे । अतः उस कार्य को उत्पत्ति न हो सकेगी जिसके लिये भाव को अन्य कारणों को प्रपेक्षा थी। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि सहकारी कारणों से उत्पन्न होनेवाला अतिशय यदि भाव से भिन्न होगा तो उसके उत्पन्न होने से भी माय सहकारियों द्वारा अनुपकृल ही रहेगा। क्योंकि किसी भी वस्तु का निन्न वस्तुओं की उत्पत्ति से कोई उपकार होना सिद्ध नहीं होता । क्योंकि मिन्न वस्तु से वस्तु में कोई वशिष्टय नहीं पाता। फलत: पूर्व भाव में सहकारिस निधान दशा में भी सहकारी असन्निधान दशा को अपेक्षा कोई वैलक्षण्य न होने से पहले के समान ही उससे कार्य की उत्पत्ति न हो सकेगी. प्रतः उसमें कम से कार्यजनकत्व की उपपत्ति नहीं हो सकती और यदि अतिशय को भाव से अभिन्न माना जायगा तो वह पूर्व भाव से अभिन्न तो हो नहीं सकता क्योंकि पूर्व भाव के बाद उत्पन्न होता है। अतः उसे किसी नये भाव से अभिन्न मानना होगा । अर्थात् यह मानना होगा कि सहकारी कारण किसी नये सातिशय भाव को उत्पन्न करता है जिस से कार्य की उत्पत्ति होती है। फलतः पूर्वभाव और नये भावों में भिन्नता होने के कारण भाव में क्रम से कार्यजनकता को सिद्धि नहीं हो सकती।
मिस कविगतता, एकाकार्यप्रतिनियतत्व रूप सहकारित्व] सहकारित्व का दूसरा विकल्प भी स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि अन्य कारणों का साहित्य होने पर भी भाव उन कारणों के रूप से तो कारण हो नहीं सकता- उत्पादक हो नहीं सकता, क्योंकि कोई भी भाव अपने रूप से ही कार्य का उत्पादक होता है, परकीय रूप से नहीं होता, और भाव का अपना रूप सहकारी कारणों के असंनिधान में जो प्रकारक अवस्था थी, वही है । अतः उस अवस्था का त्याग न होने से कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती और यदि उस अवस्था का त्याग होगा तब पूर्वभाव न रह जायगा किन्तु नया भाव उत्पन्न होगा और उसी से कार्य की उत्पत्ति होगी, प्रतः सहकारित्व के द्वितीय विकल्प में भी भाव में क्रमिक कार्य जनकता नहीं सिद्ध हो सकती। यदि यह कहा जाय कि 'अन्य सभी कारणों का संनिधान होने पर हो कार्य को उत्पन्न करना भाव का स्वभाव है- तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि इस स्वभाव में अन्य हेतुत्रों का संनिधान भी प्रविष्ट है और स्वभाव भाव का सहभावी धर्म होता है। अतः भाव का उका स्वभाव मानने पर उसको उत्पत्ति के समय हो अथवा उत्पति के अव्यवहित उत्तरक्षण में ही उसमें ही अन्य कारणो का संनिधान भी अपरिहार्य हो जायगा। इसीलिए भाव से उसके समस्त कार्यों को उत्पत्ति एक ही समय होगी, भिन्न समय में न होगी। फलतः भाव का उक्त स्वभाव मानने पर भी उसमें क्रमिक कार्यजनकता की सिद्धि नहीं हो सकती।
(३) तीसरा हेतु परिणाम है और उसका अर्थ है-अन्यथाभाव, जो पूर्वरूप का परित्याग हुए बिना नहीं हो सकता, क्योंकि अन्यथाभाव पूर्वरूपपरित्यागपूर्वक ही अनुभवसिद्ध है और अब माव के पूर्वरूप का परित्याग होगा तो उसका अर्थ यही होगा कि भाव का स्वरूपत्याग होता है, न कि भाव का अपना पूर्वरूप स्वयं भाव ही होता है अतः भाव की परिणामशीलता से भाव के क्षणिकरव को सिद्धि अनिवार्य है।
।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या क० टीका-हिन्दीविवेचना ]
चतुर्थेऽप्यन्ते क्षयदर्शनात् तदन्यथानुपपत्या प्रागपि तत्सिद्धिः । इह प्रत्यक्षानुपपत्तिमुलम् , आद्य तु स्वभावानुपपत्तिरिति विशेषः ॥२॥
(४) चौथा हेतु है अन्त में माव के नाश का प्रत्यक्ष । प्रत्यक्ष विषयजन्य होने के कारण यह प्रत्यक्ष भावनाश के अधीन है । और भाव का नाश अन्त में भी यदि सहसा ही होगा तो भाव की उत्पत्ति के अव्यवहितोस रक्षण में उसको उत्पत्ति अपरिहार्य होगा क्योंकि सहसा उत्पत्ति में किसी को अपेक्षा न होने से उसमें विलम्ब होने का कोई कारण नहीं है। और यवि अन्त में प्रत्यक्ष विख पड़नेवाले भावनाश को हेतुजन्य माना जायगा तो प्रश्न यह होगा कि उस हेतु का संनिधान कौन करता है माव स्वयं करता है या अन्य कोई करता है ! द्वितीय पक्ष में संनिधान के अन्य किसी निमित्त में कोई निदोषयक्ति न होने से भाव को ही नाश हेतु के संनिधान का सम्पादक मानना होगा। तो यदि भाव से ही उसके नाशक का संनिधान होता है तो भाव के उत्पत्ति काल ही में उसके नाशक का संनिधान प्रवर्जनीय होगा । अतः उत्पत्तिक्षण बाद ही के क्षण में भाव का नाश हो जाने से उसके क्षणिकत्व की सिद्धि अनिवार्य है। प्रश्न हो सकता है यदि बीज प्रादि भाव का नाश इस के द्वितीय क्षण में ही होता है तो उसी समय बीज आदि माय के नाश का प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता ? वह अंकुर प्रादि का प्रादुर्भाव होने पर ही क्यों होता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि बीज प्रावि माव अपने प्रग्रिम क्षणों में अपने समान बीज प्रादि को उत्पन्न करते रहते हैं अतः समान अग्रिमखोज के प्रत्यक्ष से पूर्वबोजनाश के प्रत्यक्ष का प्रतिबन्ध हो जाता है । अन्तिम बोज नये बीज का जनक नहीं होता, अत एव उस से किसी समान बीज को उत्पत्ति नहीं होती। अत: कोई प्रतिबन्धक न होने से प्रडकुरोत्पत्ति के समय बीज ना का प्रत्यक्ष होता है।
प्रयवा यह भी कहा जा सकता है कि बोजादिभावों का नाश अग्रिम क्षण में उन से उत्पन्न होने वाले भाव से भिन्न नहीं होता, उत्तरोत्तर माव ही पूर्वभाष का नाश कहा जाता है। इसीलिए यह प्रश्न ही नहीं ऊठ सकता कि अङ्कुरोत्पत्ति के पूर्व ही बीज नाश का प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता? क्योंकि उत्तरोत्तर भाव का प्रत्यक्ष होने से पूर्वभाव के नाश का प्रत्यक्ष होना सिद्ध ही है। इस प्रकार उत्तरोत्तर धीज का प्रत्यक्ष पूर्व पूर्व बोज के नाश का प्रत्यक्ष है । और अंकुर का प्रत्यक्ष अन्तिम बीज के नाश का प्रत्यक्ष है। पूर्व बीज से अंकुरात्मक बीजनाश की और अन्तिम बीज से बीजात्मक बीजनाश की उत्पत्ति क्यों नहीं होती ? इसका उत्तर यह है कि अंकुर का कारण यह भाव होता हैं जिसमें अंकुर कुर्वत्पत्य होता है, और बोज का कारण वह होता है जिसमें बीजकुर्वद्रूपत्व होता है । पूर्व बोज में अफरकूटपत्व नहीं होता है इसलिए पूर्व बीजों से अडकूर उत्पत्ति नहीं होती और अन्तिम में बीज कुर्षद्र पत्व नहीं होने से उससे बीज की उत्पत्ति नहीं होती।
प्राशय यह है कि किसी भाव के नाश का प्रत्यक्ष जो अन्त में होता है उसकी उत्पत्ति के लिए भाव का नाश मानना अनिवार्य है उस नाश के अपने प्रतियोगी भावमात्र के ही अधीन होने के कारण भाव की उत्पत्ति के द्वितीय क्षरण में ही उसको उत्पत्ति अपरिहार्य है इसलिए चौथे हेतु से भी क्षणिकस्व की सिद्धि प्रावश्यक है।
प्रथम हेतु और चौथे हेतु में क्षणिकत्व की साधकता का प्राधार भिन्न होने से दोनो में अन्तर है। जैसे, चौथा हेतु इसलिए क्षणिकत्व का साधक होता है कि भाव को क्षणिक माने बिना नाश की उत्पत्ति
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
१.]
[शा. वी. समुरुचय-स्त०४-एलो०३
योगाचारमतप्रयोगमाह
मूलम्-ज्ञानमात्र घ यल्लोके ज्ञानमेवानुभूयते ।
नार्थस्तव्यतिरेकेण ततोऽसौ नैव विद्यते ॥३॥ ज्ञानमात्रं च 'जगत्' इति शेषः। चकारेण क्षणिकत्वसमुच्चयः । हेतुमाह-यद् यस्मात् , लोके ज्ञानमेवाऽनुभूयते, अर्थस्तद्वयतिरेकेण नानुभूयते, तस्य जडत्वाभ्युपगमात् , ज्ञानविषयताया ज्ञानाऽभेदनियतत्वात् । ततः, असौ-संवृतिसिद्धोऽर्थः, नैव विधाते-पारमार्थिको नेत्यर्थः ।।३।।
संभव न होने के कारण उसके प्रत्यक्ष को अनुपपत्ति होती है। और प्रथम हेतु नाशकारणामाय इसलिए क्षणिकत्व का साधक है कि नाशकी उत्पत्ति भाव को नश्वर स्वभाव मानने पर होती है और यह स्वभाव को क्षणिक माने बिना नहीं उपपन्न हो सकता ॥२॥
[ अनुभव से ज्ञानमात्र का अस्तित्व-योगाचार ] तीसरी कारिका में योगाचार मत की स्थापना करते हुए कहा गया है कि-विश्व में ज्ञान का हो अनुभव होता है. ज्ञान भिन्न वस्तु का अनुभव नहीं होता, क्योंकि मनुष्य को जो अनुभव होता है वह 'मैं अमुक वस्तु को जानता हूं' इसी रूप में होता है, 'यह अमुक वस्तु है' इस रूप में नहीं होता । लोक में किसी वस्तु के सम्बन्ध में जो यह कहा जाता है कि यह अमुक वस्तु है' वह अनुभव नहीं है किन्तु वचनमात्र है और वचन अनुमवाधीन होता है । अनुभव 'मैं इस वस्तु को जानता हूँ' इस रूप में ही होता है।
प्राशय यह है कि किसी भी वस्तु की सिद्धि अनुभव से ही होती है और अनुभव उसी वस्तु का हो सकता है जिस वस्तु का अनुभव कर्ता के साथ सहज संबंध हो क्योंकि अनुभवकर्ता को यदि असंबद्ध वस्तु का भी अनुभव माना जायगा तो वस्तु में ज्ञात और अज्ञात का भेव न हो सकेगा, क्योंकि उस वशा में सभी वस्तु समान रूप से अनुभव कर्ता को जात होगी। वस्तुवादी के मत में वस्तु ज्ञानसे भिन्न होती है, अत: जड होती है, अनुभव कर्ता के साथ उसका सहज सम्बन्ध नहीं हो सकता। प्रतः ज्ञान से भिन्न होने पर उसका अनुभव नहीं हो सकता । वस्तु में जो ज्ञानविषयता का व्यवहार होता है वह वस्तु को ज्ञान से अभिन्न मानने से हो हो सकता है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि 'जगत में एकमात्र ज्ञान ही सत् वस्तु है ज्ञान से भिन्न यदि कोई वस्तु प्रतीत होती है तो वह संवृतिमूलक है वासनामूलक है। संवृत्ति का अर्थ है-जिससे वस्तु के सत्यस्वरूप का संवरणप्रावरण हो, और वह है प्रनादिसिद्ध वासना । वस्तु का वास्तविक स्वरूप ज्ञानात्मकता ही है, किन्त मनुष्य वस्तु को ज्ञान से भिन्न समझता है और वह ऐसा इसलिए समझता है कि अनादि काल से वस्तु को ऐसा ही समझने को उसकी वासना बन गयी है। इसलिये वस्तु की शामाऽभिन्नता का मूल बासना रूप संवृति हो है । अत: वस्तु को शानभिन्नता प्रसत् है और वस्तु की जानरूपता पारमार्थिक है। प्राशय यह है कि वस्तु ज्ञानभिन्न रूप में मसत् है, पारमार्थिक नहीं है, पारमार्थिक केवल ज्ञान रूप में ही है ॥३॥
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था० ० टीका-हिन्दी विवेचना ]
अत्र समाधान वार्त्तामाह
मूलम् - अत्राप्यभिदधत्यन्ये स्मरणादेरसंभवात् । बाह्यार्थवेदनाच्चैव सर्वमेतदपार्थकम् ||४||
[ ११
अत्रापि - बौद्धवादेऽपि, अन्य - जैनाः, अभिदधति उत्तरयन्ति । किम् इत्याहक्षणिकत्वे स्मरणादेरस भवात्, बाह्यार्थवेदनाच्चैव वाह्यार्थ प्रमान्यथानुपपच्या ज्ञानमात्रासिद्वेश्चैवेत्यर्थः, सर्वमेतत्-दिङ्मात्रेण निर्दिष्टं सौगतमतद्वयम्, अपार्थक निष्प्रयोजनम् ॥४॥
( बाह्यार्थ के अबाधित अनुभव से बौद्धमत को प्रयुक्तता - उत्तरपक्ष )
इस कारिका में जैन मनीषियों की ओर से बौद्ध के उक्त मतों का निराकरण करते हुए यह कहा गया है कि 'भावमात्र को क्षणिक मानने पर भाव के स्मरण और प्रत्यभिज्ञा को उपपत्ति असंभव होगी' । स्मरण की अनुपपत्ति के दो कारण हैं । (१) स्मरण की उत्पत्तिपर्यन्त भाव के पर्यानुभव के संस्कार का न होना। घौर बुसरा कारण है अनुभव कर्ता का न होना । श्राशय यह है कि जब किसी मनुष्य को किसी भाव का अनुभव होता है तब उस प्रनुभव से एक संस्कार उत्पन्न हो जाता है और कालान्तर में जब किसी हेतु से यह संस्कार उद्बुद्ध होता है तब उस भाव के पूर्वानुभवकर्ता मनुष्य को उस भाव का स्मरण होता है । किन्तु यदि भावमात्र को क्षणिक माना जायगा तो माव के अनुभव से उत्पन्न होने वाला मावविषयक संस्कार भी क्षणिक होगा, एवं भाव का अनुभव करने वाला व्यक्ति भो क्षणिक होगा, अतः स्मरण की उत्पत्ति के समय दोनों का प्रभाव होने से स्मरण का होना असंभव होगा । प्रत्यभिज्ञा की प्रनुत्पत्ति में भी यही दो कारण है, क्योंकि स एव अयं घटः ' -यह वही घडा है यह प्रत्यभिज्ञा पूर्वानुभूत घट और वर्तमान में दृश्यमान घट के ऐक्य को विषय करती है और होती है उसी मनुष्य को जिसे दृश्यमान घट का पूर्वकाल में अनुभव हुम्रा रहता है।
भावमात्र के क्षणिकत्व पक्ष में पूर्वानुभूत घट और वर्तमान में दृश्यमान घट में मेद होता है एवं वर्तमान में घट को देखने वाला व्यक्ति पूर्वकाल में घट का प्रतुभव करनेवाले व्यक्ति से भिन्न होता है, यतः भावमात्र को क्षणिक मानने पर प्रत्यभिज्ञा भी नहीं हो सकती । स्मरण और प्रत्यभिज्ञा का अपलाप भी नहीं किया जा सकता क्योंकि उन के आधार पर लोक में अनेक व्यवहार होते हैं। [ ज्ञानभिन्न वस्तु असत् नहीं है ]
इसी प्रकार जगत् को केवल ज्ञानमात्रात्मक भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि ज्ञान से भिन्न वस्तु का अस्तित्व न होगा तो उस का यथार्थ ज्ञान भी नहीं होगा, क्योंकि प्रसद् वस्तु का यथार्थज्ञान नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि- ज्ञानभिन्न वस्तु का यथार्थज्ञान प्रसिद्ध है क्योंकि भूतल यदि देश में घट आदि के ज्ञान से उन स्थानों में घट आदि की प्राप्ति होती है। यदि यह ज्ञान अयपार्य हो तो उस से वस्तु की प्राप्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि लोक में जिस ज्ञान को प्रयथार्थ समझा जाता है उस से वस्तु की प्राप्ति नहीं होती । ज्ञान भिन्न वस्तु के ज्ञान को यथार्थ मानना इसलिए भी उचित है कि अन्य ज्ञान से इस का बाध नहीं होता. यदि बाध न होने पर भी ज्ञान यथार्थ होगा तो ज्ञान का अनुभव भी यथार्थ होगा ग्रतः शान भी सत्य बस्तु के रूप में सिद्ध हो न सकेगा । अत: सभी भाव क्षणिक होता है और ज्ञान से भिन्न कोई वस्तु नहीं होती' बौद्ध के ये दोनों हो मत प्रयुक्त एवं निरर्थक है ||४||
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
[शा. या. समुच्चय स्त०-४ श्लोक ५-६
स्मरणाऽसंभवापपादयति
मलम्-अनुभूतार्थविषयं स्मरणं लौकिकं यतः ।
कालान्तरे तथाऽनित्ये मुख्यमेतन्न युज्यते ॥५॥ अनुभूतार्थविषयंत्रातार्थगोचरम् , लौकिकम् आगोपादिमिद्धम् , यतः यस्मात् , कालान्तरे अनुभश्व्यवहितोत्तरकाले. तथा अनिनियतरूपेण, अनित्य-निग्न्वयनश्वरेऽनुभवितरि, मुख्यम् अभ्रान्तमेव, एतत्-स्वसंवेदनसिद्धं स्मरणम् नोपपद्यते-अन्येनाऽनुभवेऽन्य. स्य स्मरणाऽयोगात , 'योऽहमन्वभवं सोऽहं स्मरामि' इत्युल्लेखानुपपत्तेश्च ॥५॥ प्रत्यभिज्ञापि न युज्यते इत्याहमूलम्-सोऽन्तेवासी गुरुः सोऽयं प्रत्यभिज्ञाप्यसंगता ।
दृष्टकौतुकयुनेगः' प्रवृत्तिः प्राप्तिरेव वा ॥६॥
[ संदर्भ:--प्रतिपक्ष में बाधक प्रदर्शन और उसकी अभिप्रेत युक्तियों का खण्डन-दो प्रकार से प्रतिपक्ष का निराकरण करने में यहाँ ४ थे और पांचवे स्तबक में क्रमशः सौत्रान्तिक और योगाचार मत में बाधक युक्तिनों का ही निरूपण होगा। छ? स्तबक में क्षणिकवाद की साधक नाशहेतोरयोगादि' युक्तियों का खण्डन प्रस्तुत होग]
[पूर्वानुभूत का स्मरण क्षणिकत्व पक्ष में बाधक ] पांचवीं कारिका में पूर्वकारिका में कथित स्मरणानुपपत्ति का उपपादन किया गया है, कारिका का अर्थ इस प्रकार है
पूर्वकाल में अनुभूत वस्तु का कालान्तर में स्मरण होता है यह बात सर्वजनसिद्ध है, इस में प्रशिक्षित गोपाल से लेकर महान शाखज्ञ तक किसी का भी वैमत्य नहीं है किन्तु भावमात्र को क्षणिक मानने पर यह स्मरण नहीं हो सकता, क्योंकि इस मत में माव का पूर्वकाल में अनुभव करने वाला व्यक्ति क्षणिक होने के नाते कालान्तर में नहीं रह सकता, क्योंकि क्षणिक का अर्थ ही है निरन्वय विनष्ट होना अर्थात् वस्तु का ऐसा नाश होना जिस से किसी भी रूप में कालान्तर में उस का मन्वय-सम्बन्ध न रह सके । और जब कालान्तर में पूर्वानुमव कर्ता न रहेगा तो स्मरण न हो सकेगा, क्योंकि जिसे पूर्वानुभव है वह स्मरणकाल में है नहीं और जो स्मरणकाल में है उस को पूर्वानुभव नहीं है और अन्य के अनुभव से अन्य को स्मरण नहीं हो सकता क्योंकि स्मरण और अनुभव में एकात्मनिष्ठतया कार्यकारणभाव है। इसीलिए अन्य के अनुभव से अन्य को स्मरण नहीं होगा। और यदि अन्य के अनुभव से अन्य को स्मरण माना जायगा तो 'योऽहं अन्वभवम् सोऽहं स्मरामि-पूर्वकाल में मैने ही अनुभव किया था और पाज मैं ही स्मरण कर रहा हूँ इस प्रकार अनुभव और स्मरण का एकनिष्ठसया उल्लेख नहीं हो सकेगा॥५॥
(१) 'कमुस' इति पाठ भारतः, दृष्टकौतुकडोकसिद्धमिति च व्याख्यातं टीकायाम् ।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका और हिन्दी विवेचना ]
'सोऽयमन्तेवासी' - 'सोऽयं गुरुः' इति प्रत्यभिज्ञापि अणिकत्वपक्षेऽसंगता, तत्ताविशिष्टाउभेदस्येदंना विशिष्टेऽनुपपत्तेः।
न च प्रत्यभिन्ना न प्रमाणम् , 'संवेयं गूर्जरी' इत्यादी विषयबाधदर्शनादिति वाच्यम्। एवं मति हेत्वाभासादिदर्शनात सहनुमानादीनामप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात । न चाध्यक्ष पूर्वकालसंबधिताया अमंनिहितत्वात पगमानुपपत्तिः, अन्त्यसंख्येयग्रहणकाले 'शतम्' इति प्रतीते क्रमगृहीतसंख्येयाध्यवसायतत्संस्कारवशादुपपत्तेः । न च नीलपीतयोरिव वर्तमाना-ऽवर्तमानत्वयोविरुद्धत्वादेकत्र तत्परिच्छेदरूपत्वादयं भ्रमः, अत एव तस्य तादृशापरापरविषयसंनिधानदोषजन्यस्वमिति वाच्यम् , एकत्र नानाकालसंबन्धम्याऽविरुदत्वात् । अन्यथा नीलसंवेदनस्यापि स्थूराकारावभासिनो विरुददिकमंबन्धात् प्रतिपरमाणु भेदप्रसक्तैस्तदवयवानामपि पट्कयोगाद् मेदापत्तितोऽनवस्थाप्रसक्तेः।
[ 'सोऽयं' प्रत्यभिज्ञा क्षरिणकत्वपक्ष में बाधक ] कारिका-६-लोक में इस प्रकार का व्यवहार देखा जाता है कि 'यह बही अन्तेवासी है-और 'यह वही गुरु हैं । व्यवहार व्यवहर्तव्य के ज्ञान से होता है । इस व्यवहार के अनुरोध से इस प्रकार का ज्ञान भी सिद्ध होता है । यह ज्ञान पूर्वष्ट अन्तेवासी और गुरु में कम से वर्तमान में दृश्यमान अन्तेवासी और गुरु के अभेद को विषय करता है, इस ज्ञान को प्रत्यभिज्ञा कहा जाता है।
यह प्रत्यभिज्ञा भावमात्र को क्षणिक मानने पर नहीं उपपन्न हो सकती क्योंकि इस के लिए इवताविशिष्ट में अर्थात् दृश्यमान वस्तु में तप्ताविशिष्ट का अर्थात् पूर्वदृष्ट का अभेव अपेक्षित है और वह क्षणिकश्व पक्ष में पूर्वदष्ट और दृश्यमान में भेद होने के कारण प्रसंभव है, अत: विषय के असत् होने से यह प्रत्यभिज्ञा उपपन्न नहीं हो सकती।
[प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य की उपपत्ति । इस प्रसङ्ग में बौद्ध की ओर से यह बात कही जाती है कि प्रत्यभिज्ञा प्रमाण मूतज्ञान नहीं, यथार्थ ज्ञान नहीं है । प्रत एव इस के लिए विषय को वास्तविकता अपेक्षित नहीं है, वास्तविक विषय यथार्थ ज्ञान के लिए अपेक्षित होता है। और यथार्थ ज्ञान विषय का बाध होने पर भी होता है, जैसे किसी सम्मुख प्रायी हुमो नई गुर्जरी में पूर्वदृष्ट गुर्जरी का ऐक्य न होने पर भी उस के अतिशय सादृश्य के कारण 'यह वही पूर्वदृष्ट गुर्जरी है-संवेयम् गुर्जरी' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा होती है। अतः मावमात्र को क्षणिक मानने पर भी प्रत्यभिज्ञा को अनुपपत्ति नहीं हो सकती-किन्तु यह बात ठीक नहीं है क्योंकि किसी एक प्रत्यभिज्ञा के अयथार्थ होने से सभी प्रत्यभिज्ञा को अयथार्थ मानना उचित नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रसद्हेतुमूलक अनुमानों के प्रप्रमाण होने से उसी दृष्टांत से सद् हेतुमूलक अनुमान पावि में भो अप्रामाण्य की अपत्ति होगी । जब सभी अनुमान अप्रमाण हो जायगा तो भावमात्र में क्षणिकत्व सिद्ध करने की कामना भी सफल न हो सकेगी, क्योंकि भावमात्र में क्षणिकरव को सिद्धि अनुमान से हो की जाती है और जब अनुमान अप्रमाण हो जायगा तो उस से उक्तसिद्धि कैसे हो सकेगी?
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४]
[ सा. वा. ममुन्चय स्त० ४-श्लो०६
नघक्षणिकत्वानुमानेनाऽस्या बाध इति शङ्कनोगम् , निश्चितप्रामाण्यकत्वेनाऽनयैव तद्बाधात् ,
[प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य में विरोध को प्राशंका ] यदि यह कहा जाय कि-'प्रत्यभिज्ञा को भाव के क्षणिकत्व में बाधक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षात्मक ज्ञान है अत: उस में इदन्ताय शिष्ट में तत्ताविशिष्ट अभेद का भान नहीं हो सकता क्योंकि तत्ताविशिष्ट के प्रभेद का भान होने के लिए तत्ता का भो भान अपेक्षित है और तत्ता पूर्वकालसम्बन्धिता रूप है। अत: प्रत्यभिज्ञा के समय उस के संनिहित न होने से प्रत्यभिज्ञा में उसका भान असंभव है, क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान में संनिहित वस्तु के हो भान होने का नियम है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कम से उत्पन्न होनेवाली सौ वस्तुओं में जब शतत्व संख्या का प्रत्यक्षा होता है उस समय केवल अन्तिम वस्तही सन्निहित होती है पूर्ववस्त संनिहित नहीं होता है, फिर भी शतत्व के प्रत्यक्ष में उस समय शतत्व के प्राधार रूप पूर्व वस्तुत्रों का ही भान होता है। तो उन्न वस्तुनों का मान जैसे उन वस्तुओं के पूर्ष अनुभवाधीन संस्कार द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान में होता है उसी प्रकार पूर्वकालसम्बन्धिता-तत्ता का भी पूर्वानुभवाधीन संस्कार द्वारा प्रत्यभिज्ञात्मक प्रत्यक्ष में भान हो सकता है।
[भनेविसमा में विली प्रत्यापत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'वर्तमानस्वरूप इदन्ता और अवर्तमानत्वरूप तत्ता में नील और पोत के समान परस्पर में विरोध है अतः एक वस्तु में उन विरुद्ध धर्मों का ग्राहक होने से प्रत्यभिज्ञा भ्रम है । और वह पूर्वदृष्ट वस्तु के सहश वस्तु के निधान रूप दोष से उत्पन्न होता है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वर्तमानत्व और प्रवर्तमानत्व वर्तमानकालसम्बन्ध और प्रवर्तमानकालसम्बाधरूप है । और एक वस्तु में अनेककाल का सम्बन्ध होने में विरोध नहीं है । और यदि एक वस्तु में अनेककाल का सम्बन्ध विरुद्ध माना जायगा और उस से वस्तु में भेद की कल्पना की जायगी तो "वदं नोलं स्थलाकारम् - यह वस्तु नील और स्थल है" इस प्रकार के ज्ञान में जो वस्तु का अनेक दिकसम्बन्धहप प्रकार भासित होता है वह भी विरुद्ध होगा और उस से श्वस्त में प्रवयवमेव से मेद की प्रसक्ति होगी और उसी प्रकार अवयवों में भी छ दिशाओं के विरुद्ध सम्बन्धों द्वारा भेद की प्रापत्ति होगी । प्रतः अनवस्थित भेद की कल्पना प्रसक्त होगी इसलिए जसे एक वस्तु में अनेक दिशाओं का सम्बन्ध होने पर भी उस वस्तु में भेद नहीं होता उसी प्रकार अनेक काल सम्बन्ध से भी वस्तु में भेद सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए इदं और तत् में ऐक्य सभव होने के कारण 'सोऽयं इस प्रत्यभिज्ञा को भ्रम नहीं कहा जा सकता, और जब प्रत्यभिज्ञा भ्रम नहीं है तब इस के द्वारा पूर्वोसर भावों में प्रभेद की सिद्धि होने के कारण भावों में क्षणिकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती।
[क्षरिणकत्व अनुमान प्रत्यभिज्ञा का बाधक नहीं ] यदि यह कहा जाय कि 'सर्व क्षणिक सत्यात्-सत यानी अर्थक्रियाकारी होने से समस्त भाव क्षणिक है' इस अनुमान से उक्त प्रत्यभिज्ञा का घाध हो आयगा तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यभिशा में प्रामाण्य निश्चित है और क्षणिकत्वानुमान में प्रामाण्य निश्चित नहीं है, इसलिये प्रत्यभिज्ञा
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ १५
कुर्वद्रूपत्व सिद्धावुपस्थितवाहित्यादिकं विहाय वहन्यादेविंजातीयविवादिना हेतुत्यवद् विजातीयधृमत्वादिना धृमादेः कार्यत्वमभावनयोपस्थितधमत्वावच्छेदन कार्यस्वाऽग्रहात , तदनुकूलतर्काभावेन व्याप्तेग्ग्रहात , प्रमिद्धानुमानस्याप्युकछेदेन क्षणिकत्वानुमानस्यैवाऽनवताराच्च । 'घटे रूपादेरियोक्तप्रत्यभिज्ञायां पूर्वताया वर्तमान माना समबनिस्पनि नाच्या सानिहित एवं विशेषणे विद्यमानतायाः संपादिना भानादिति दिक |
"--
-
अनुमान को अपेक्षा बलवतो है और अनुमान उस की अपेक्षा दुर्बल है। इसलिए प्रत्यभिज्ञा से ही इस क्षणिकत्व के अनुमान का बाध न्यायप्राप्त है ।
और मुख्य बात यह है कि समस्त मात्रों को क्षणिक मानने पर घूम से मह्नि के प्रसिद्ध अनुमान का ही भंग हो जाता है, इसलिए क्षणिकत्व के अनुमान की प्राशा ही नहीं की जा सकती। क्योंकि जब धूम में वह्नि का व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता तब सत्व में क्षणिकत्व के व्याप्तिज्ञान की प्राशा कैसे हो सकेगी? कहने का प्राशय यह है कि बौद्ध मत में सत्ता प्रक्रियाकारित्वरूप है। अर्थक्रियाकारित्व का अर्थ है कार्योत्पादकत्व और कार्योत्पादकत्व कम अथवा म किसी भी प्रकार स्थायी भाव में नहीं हो सकता, किन्तु तत्तत् कार्य की उत्पादकता तत्सत्कार्यानुकूल कुर्वन पत्व विशिष्ट में ही होती है । तत्तत्कार्यानुफुल कुर्वत पत्व स्थायीभाषपदाथ में नहीं होता । इस के अनुसार यहि धूम के प्रति वह्नित्वरूप से कारण न होकर धूमकुर्वत पत्वविशिष्ट वह्निरवरूप से ही कारण होता है । इसो प्रकार यह भी संभावना हो सकती है कि धूम धमत्वरूप से वह्नि का काय भी नहीं है किन्तु धूम जिस कार्य का कारण होता है तत्तत्कार्य कुर्वद्र पत्व धूम में भी रहेगा इसलिए उसी रूप से घूम बलि का कार्य होगा फलत: धूमत्व और वह्नित्व रूप से धूम और वह्नि में कार्य कारण भाव न हो सकने से धूमत्व रूप से धूम में वह्नित्वरूप से बलि का व्याप्तिज्ञान न हो सकेगा। इसलिए धूम से वह्नि का अनुमान असंभव होगा। तो जसे धूम और वह्नि में लत्तत् कार्य कुर्वत पत्व रूप से कार्यकारणभाव की सिद्धि न होने के कारण अनुकूल तर्क के अभाव में धूम में वह्निध्याप्ति का ज्ञान नहीं होता-उसी प्रकार सहकारी कारणों के समवधान से स्थायी भाव में भी प्रक्रियाकारित्व की संभावना से 'जो जो अर्थक्रियाकारी होता है वह क्षणिक होता है इस व्याप्ति का ज्ञान भी नहीं हो सकता प्रतः प्रक्रियाकारित्व से क्षणिकत्व का अनुमान असंभव है।
(प्रत्यभिज्ञा को भ्रमात्मकता का निराकरण) यदि यह कहा जाय कि घद के प्रत्यक्षात्मक ज्ञान में घटगत रूपादि का जैसे वर्तमानस्वरूप से भान होता है उसीप्रकार 'सोऽयं घट:' इस प्रत्यभिज्ञा में पूर्वकालसम्बन्धित्वरूप से ही मान होता है। प्रसः प्रवर्तमान सत्ता का वर्तमानस्य रूप से ग्राहक होने के कारण उक्त प्रत्यभिज्ञा भ्रम है-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो विषय संनिहित होता है उसी में इन्द्रिय से युक्त संसर्ग से विधमानता का भान होता है। घटप्रत्यक्षकाल में उसमें घटगत रूप प्रादि संनिहित रहता है इसलिए उसमें इन्द्रियसंयुक्त घट का संसर्ग होने से विद्यमानता का भान होता है किन्तु तत्ता उक्त प्रत्यभिज्ञा काल मैं संनिहित नहीं रहती है प्रत एवं उसमें इन्द्रियसंयुक्तत्व संसर्ग न होने के कारण विद्यमानता का
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६ ।
[ शा वा समुरचय स्त०४-श्लोक "
तथा दृष्टकौतुकेऽर्थे उद्वेगा=सिद्धत्वज्ञानकृतेच्छाविच्छेदरूपः असंगतः स्यात् , क्षणिकतन्यक्त्यन्तरदर्शनस्याऽसिद्धत्वात् । तथा, प्रवृत्तिरपि तद्वयक्तित्रिषयिणी असंगता स्यात्, ज्ञाताया व्यक्तेर्नष्टत्वात् , अज्ञातायां चाऽप्रवृत्तेः । तथा, प्राप्तिरेव च इच्छाविषयव्यक्तः, असंगता, अस्याः प्रागेच नाशात् ॥३॥
मूलम्-स्वकृतस्योपभोगम्तु रोत्सारित एच हि।
शीलानुष्ठानहेतुर्यः स नश्यति तदैव यत् ॥७॥
मान नहीं हो सकता । श्रतः विद्यमानस्वरूप से सत्ता का ग्राहक होने के कारण उसे भ्रम नहीं कहा जा सकता।
(उद्वेग, प्रवृत्ति एवं प्राप्ति को क्षणभंग पक्ष में अनुपपत्ति) __ भाव को करिणक मानने पर उसमें उद्वेग, प्रवृत्ति और उसकी प्राप्ति भी संगत नहीं हो सकती। जैसे उद्वेग का अर्थ है 'सिद्धत्वज्ञानमूलकइच्छाविच्छेद। इसका प्राशय यह है कि मनुष्य को जिस वस्तु में सिद्धत्व का ज्ञान होता है उस वस्तु की उसे इच्छा नहीं होती। इसप्रकार किसी वस्तु को इच्छा न होना ही उस वस्तु के विषय में उद्वेग है । यह उच्थेग स्थायी वस्तु में हो सकता है क्योंकि उसी वस्तु में पहले सिद्धत्व का ज्ञान और वाव में इच्छा क विच्छेद संभव हो सकता है किन्तु जो वस्तु क्षणिक होगी उसमें पहले और बाद में उस शब्द का प्रयोग हो नहीं हो सकता क्योंकि वह क्षणिक होने के नाते सिद्धत्वज्ञानकाल और इच्छाविच्छेवकाल में नहीं रह सकती । फलतः जिस क्षणिक व्यक्ति में इच्छाविच्छेद होगा उसमें सिद्धत्व का ज्ञान नहीं होगा और जिस व्यक्ति में सिद्धत्व का ज्ञान होगा उसमें इच्छा का विच्छेय नहीं होगा।
(क्षणिकत्व पक्ष में प्रवृत्ति का उच्छेद) इसीप्रकार भावों को क्षणिक मानने पर प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती क्योंकि प्रवृत्ति उसी विषय में होती है जो स्वस्पेण और इष्टसाधनत्वेन ज्ञात होती है । भाव को क्षणिक मानने पर ज्ञात व्यक्ति प्रयत्तिकाल में नहीं रहेगी प्रत एवं उस विषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती और उस व्यक्ति के अस्तित्वकाल में उसमें प्रवत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उसके पूर्व यह अज्ञात रहती है और प्रवृत्ति प्रज्ञात में कभी नहीं होती। __ माध को क्षणिक मानने पर उसकी प्राप्ति भी नहीं हो सकती क्योंकि प्राप्ति उसी वस्तु को होती है जिसको पहले इच्छा होती है। भाथ के क्षणिकत्व पक्ष में इच्छा के विषयभूत व्यक्ति का प्राप्तिकाल में अस्तित्व ही नहीं होता क्योंकि यह पहले ही नष्ट हो चुकी होती है। अत: क्षणिक भाव की प्राप्ति असंभव है । कारिका में इष्टकौतुके अर्धे शब्द से भाव के उद्धग, उस में प्रवृत्ति और उसकी प्राप्ति के असंगत होने मे दृष्टकौतुकत्व को हेतु कहा गया है। इस दृष्टकोसुकत्व का स्वीकृत क्षरिणकत्व अर्थ होने से यह तथ्य ज्ञात होता है कि अर्थ यानी भाव को क्षणिक स्वीकार करने पर उद्वेग प्रादि की असंगति होगी ।।६।।
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १७
स्या० क० टीका - हिन्दीविवेचना ]
स्वकृतस्य = शुभादेः, उपभोगः - विपाकानुभवः दूगेत्सारित एव हि निश्चितम् प्रवृत्ते मादिना कथञ्चिदुपपतावपि स्वकृतोपभोगोपपादने न कोऽप्युपाय इति भावः । कुतः ? इत्याह-यत् = यस्मात् कारणात् यः शीलानुष्टानहेतुः क्षणः स तदैव नश्यति निरन्षनाशभाग् भवति ||७||
पर आहु:
मूलम् - संतानापेक्षयास्मार्क, व्यवहारोऽग्विलो मतः ।
स बैंक एव तस्मिंश्च सति कस्मान्न युज्यते ||८||
( क्षणभंगपक्ष में भोग की अनुपपत्ति)
पूर्व कारिका में भोग्यभाव की क्षणिकता से प्रत्यभिज्ञा और उद्वेगादि की प्रसंगति बताई गई है और प्रस्तुत सातवीं कारिका में भोक्ता को क्षणिकता से भोग को अनुपपत्ति बतायी गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
मामा के क्षत्व पक्ष में भोक्ता को अपने शुभाशुभ कर्म का फलभोग न हो सकेगा । पूर्वकारिका में जो प्रत्यभिज्ञा प्रादि को प्रनुपपत्ति बतायी गई हैं उसका परिहार तो भ्रम प्रावि द्वारा किसी प्रकार हो सकता है । जैसे सभी प्रत्यभिज्ञा को 'संवेयम् गुर्जरी' इस प्रत्यभिज्ञा के समान पूर्वोत्तर भायों में सादृश्य या भेदाज्ञानमूलक भ्रम मान लिया जाय। एवं उद्वेग की उपपत्ति जिस भाव में इच्छा का विच्छेद होता है उसमें सिद्धव का भ्रम मान कर की जाय, एवं जिस विषय में प्रवृत्ति होती है- पूर्ववर्ती ज्ञान को उस विषय का ग्राहक मान लिया जाय एवं जिस विषय की प्राप्ति होती है उस विषय को इष्यमाण मान लिया जाय। किन्तु भोक्ता के क्षणिक होने पर पूर्वोक्स कर्मों के फल भोग को उपपन्न करने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि शील ग्रादि के अनुष्ठान का कर्ता क्षण अपनी उत्पति के उत्तरक्षण में ही इसप्रकार पूर्वरूप से नष्ट हो जाता है कि श्रागे उसका किसी प्रकार का अन्वय-सम्बन्ध अथवा अस्तित्व नहीं रहता । इसलिये भावमात्र को कणिक मानने पर यह श्रापति अनिवार्य होगी कि जो व्यक्ति शुभ अशुभ कर्म करता है- फलभोग काल में उसका अस्तित्व न होने से उसे उसके कर्म का भोग नहीं होता और जिसे फलभोग होता है वह पूर्व में न होने से उन कर्मों का कर्ता नहीं होता, उसे कर्म किये बिना ही फलभोग होता है । इस स्थिति को स्वीकार भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि ऐसा होने पर कोई भी व्यक्ति कोई कर्म ( शुभ शीलानुष्ठान) करना न चाहेगा, जिससे लोक व्यवहार का लोप हो जायगा ॥७॥
( हेतु हेतुमद्भाव के सन्तान - सामग्री पक्षद्वय )
आठवी कारिका में
बौद्धों के पक्ष से पूर्वोक्त दोषों का परिहार प्रस्तुत किया गया है। परिहार को हृदयङ्गम करने के लिये हेतु हेतुमद्भाव के सम्बन्ध में बौद्धों के इस मन्तव्य को दृष्टिगत रखना श्रावश्यक है कि उनके मत में हेतु हेतुमद्भाव के दो पक्ष होते हैं। एक सन्तान पक्ष और दूसरा सामग्री पक्ष । जंसे कोई बीज उत्पन्न होता है तब उसके माध्यम से जब तक प्रकुर की उत्पत्ति नहीं होती इतनी अवधि में बीज का एक सन्तान चलता है जिसके अन्तर्गत बीजक्षणों में पूर्व बीजक्षण उसर बोजक्षण का अकेले कारण होता है। इस उत्पत्ति क्रम में सामग्री की अपेक्षा नहीं होती ।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
१]
[ शा. वा० समुच्चय-स्त०४ श्लो०९
सन्तानापेक्षया भृत--वर्तमान--भविष्यन्क्षणप्रवाहापेक्षया अस्माकं अखिला ऐहिक आमुष्मिकश्च व्यवहारः मतः इष्टः । स च सन्तानः एक एव । तस्मिश्च सति कस्माद् न युज्यते स्मृत्यादिः, ऐहिकतयोपयत्तेःः ॥८॥
आमुनिकमधिकृत्याह
मूलम्-यस्मिन्नेव तु संताने आहिता कर्मवासना । ___ फलं तत्रैव सन्धत्ते कर्पासे रक्तता यथा ॥१॥
यस्मिन्नेव सन्ताने अणप्रवाहे, तुःआधानयोग्यतां विशेषयति, कर्मवासना आहिताकर्मणा जनिता, फलं-शुभाऽशुभादिकम् , तत्रैव संधत्तेजनयति । किंवत् इत्याह यथा कसे लाक्षारसाद्याहिता रक्तता कर्पास एब स्वफलं स्वीपरक्तयुद्धयादिकं जनयति ॥९॥ यह हेतु-हेतुमजाव का सन्तानपक्ष है । सामग्रोपक्ष तब होता है जब किसी एक सन्तान से विजातीय सन्तान की उत्पत्ति होती है जैसे बीज से अङकुर की उत्पत्ति के लिये अकेला बोज पर्याप्त नहीं होता किन्तु उसमें उपजाउ भूमि आदि का सन्निधान अपेक्षित होता है। हेतु-हेतमद्भाव का यह पक्ष सामग्री पक्ष कहा जाता है। इस सामग्री पक्ष की मालोचना ६६ वौं कारिका से प्रारब्ध होगी। प्रस्तुत कारिका ८ से सन्तान पक्ष को दृष्टि से पूर्वोक्त आक्षेपों का समाधान प्रारंभ किया जा रहा है-कारिका का अर्थ इस प्रकार है
(सन्तान पक्ष में हेतु-हेतुपद्भाव उपपत्ति) बौद्धों का कथन यह है कि प्रत्येक वस्तु यद्यपि क्षणिक है किन्तु उसका प्रवाह भूत वर्तमान और भविष्य तोनों काल में चलता रहता है जिसे 'सन्तान' संज्ञा से अभिहित किया जाता है। इस सन्तान से सम्बद्ध व्यक्तियों के अनेक होने पर भी सोनों काल में यह सन्तान एक होता है । अतः उसके द्वारा ऐहिक अर्थात् पूर्वानुभूत का कालान्तर में स्मरण, पूर्वानुभूत को उत्तरकाल में प्रत्यमिजा, ज्ञात और इच्छित को प्राप्त करने को प्रवृत्ति प्रादि समस्त ऐहिक व्यवहार और पूर्व जन्म में किये गये शुमाशुभ कर्मों का उत्तर जन्म म उपभोग रूप प्राष्मिक व्यवहार की उपपत्ति हो सकती है । प्रतः सन्तानी-सन्तानान्तर्गत व्यक्तित्रों के अनेक होने पर भी सन्तान के तीनों काल में अनुवर्तमान होने के कारण स्मरणादि की उपपत्ति क्यों नहीं हो सकती? जब उक्त प्रकार से सन्तान द्वारा उस सम्पूर्ण व्यवहारों की उपपत्ति हो सकती है तब उनके अनुरोध से वस्तु में स्थिरता (प्रक्षणिकता) की कल्पना का प्रयास अनावश्यक है ॥८॥
(क्षणिकरवपक्ष में पारलौकिक फल को उपपत्ति) नवों कारिका में भावमात्र के क्षणिकत्व पक्ष में भी कर्म फल के प्रामुष्मिक उपभोग की उपपत्ति की गई है जो इस प्रकार है
जिस सन्तान में क्षणात्मक वस्तु के प्रवाह में कर्म से वासना की उत्पत्ति होती है वह वासना उस सन्तान में ही कर्मफल को उत्पन्न करती है। यह बात ठीक उसी प्रकार उपपन्न होती है जैसे कापस के बीज में लाक्षा के रसादि से पंदा को गई रक्तता उस बीज से उगत और विकसित
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० क० टीका- हिन्दीविवेचना ]
।११
मूलम्-एतदप्युक्तिमात्रं यन्न हेतु-फलभावतः ।
संतानोऽन्यः स घायुक्त एषाऽसत्कार्यवादिनः ॥१०॥ एतदपि-संतानैक्यमादाय सामाधानमपि, अक्तिमात्र थुक्तिशून्यं वचनम् , यद्यस्मात् कारणात, हेतु-फलभावतः-पूर्वा-ऽपरक्षणहेतु-हेतुमद्भाबाद अन्यः संतानो नास्ति । 'एवमपि नानुपपत्तिः, स्वजन्यतासंबन्धनानुभवादेः स्मृत्यादिनियामकत्वात् , प्रत्यभिज्ञाया अपि स एवायं गकारः' इत्यादाविय तज्जातीयाभेदविषयकतयोपपत्तेः, इच्छादेरएि समानप्रकारकतयैव प्रवृश्यादिहेतुतयोपपत्तेश्च" इत्यत आह-स चक्षणिकहेतु-हेतुमद्भावश्च, असत्कार्यवादिनो मते अयुक्त एव ॥१०॥ होनेवाले कपास में ही अपना फल अर्थात् कपास में हो रक्ततावगाही विशिष्ट वृद्धि को उत्पन्न करती है इस प्रकार भावमात्र को क्षणिक मानने पर भी उसके विकास में अनुवर्तमान संतान के द्वारा कर्मों के प्रामुठिमक फलोपभोग को उपपत्ति सम्भव होनेसे मोक्ता को स्थिर मानने की कोई पावश्यकता नहीं रह जाती 11
(सन्तान पूर्वापरभावापन्न क्षरणों से अतिरिक्त नहीं) १०वों कारिका में बौद्ध द्वारा पूर्वनिर्दिष्ट समाधान की प्राशङ्का का उत्तर दे रहे हैं जो इस प्रकार है-सन्तान की एकता को स्वीकार करके जो समाधान बौद्धों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है यह केवल कथनमात्र है, उसमें कोई युक्ति नहीं है। क्योंकि हेतुहेतुमद्भाव पूर्वोत्तर क्षण में ही होता है अर्थात् पूर्वक्षण उत्तरक्षण का कारण होता है । एवं उत्तरक्षण स्वोत्तरवती उत्तरक्षण का कारण होता है। इस प्रकार क्रम से उत्पन्न होने वाले क्षणों में ही कार्य-कारण भाव निहित है। सन्तान का कोई कारण सिद्ध नहीं है अतः उन क्षणों में भिन्न सन्तान का अस्तित्व ही नहीं हो सकता।
स्मृति और प्रत्यभिज्ञा की नये ढंग से उपपत्ति-सौगत) बौद्ध:-सन्तान को स्वीकार न करने पर भी भावमात्र के क्षणिकत्व पक्ष में अनुभव से स्मत्यादि की और इस जन्म में किये गये कर्म से जन्मान्तर में फलभोग को प्रापत्ति नहीं हो सकतो, क्योंकि स्वजन्यतासम्बन्ध से अनुभव प्रादि को स्मृत्यादि का नियामक माना जायेगा । आशय यह है कि क्षणिकत्व पक्ष में वस्तुओं में कार्यकारणभाव सामानाधिकरण्यमूलक नहीं होता क्योंकि कोई स्थायी प्राधार न होने से कार्य और कारण में सामानाधिकरण्य को सम्भावना हो नहीं हो सकती। अतः अव्यवहित पूर्वापर भाव के हो प्राधार पर कार्य-कारण भाव होता है अर्थात् पूर्वमाय उत्तरभाव का कारण होता है। इसी प्रकार का कार्य-कारण माव होता है, इस स्थिति में पूर्वानुभव से कालान्तर में स्मति को उपपत्ति इस प्रकार की जाती है कि अनुभवक्षण वासना क्षण को उत्पन्न करता है। प्रोर वासनाक्षण प्रपने उत्तरोत्तर वासनाक्षण को उत्पन्न करता है, चरम वासनाक्षण स्मतिक्षण को उत्पन्न करता है । इसी प्रकार भावमात्र के क्षणिकत्व पक्ष में प्रत्यभिज्ञा की भी उपपत्ति हो सकती है क्योंकि प्रत्यभिज्ञा के विषयभूत पूर्व वस्तु और वर्तमान वस्तु में व्यक्तिगत ऐषय न होने पर भी जातिगत ऐक्य के प्राधार पर सजातीय प्रभेव को प्रत्यभिज्ञा का विषय मान सकते हैं ।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
२० ]
[ शा.बा. समुच्चय स्त-४-श्लो० ११
तथाहि--- मूलम्-नाभावो भावतां याति शशशृगे तथाऽगतेः ।
भावो नाभावमेतीह तदुत्पत्त्यादिदोषतः ॥११॥ न अभावः तुच्छ भावतां याति-अतुच्छता प्रतिपद्यते । कुतः १ इत्याह-शशशृङ्गे
दृष्टान्त के रूप में यह दृष्टव्य है कि जैसे शब्दअनित्यतावादो के मत में पर्वश्रुत गकार और वर्तमान में श्रयमाण गकार में ऐक्य न होने पर भी उन दोनों में विद्यमान 'यत्व' प्रादि के एक होने से भ्रयमाण गकार में पूर्व श्रुत गकार के सजरतीय प्रमेव को विषय मानने से यह नहीं गकार है' इस प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति होती है, इसी प्रकार भावमात्र के क्षणिक-पक्ष में पूर्वोत्तरवर्ती भावों में भेद होने पर भी पूर्व में अनुवर्तमान प्रतव्यावृत्तिमय घटत्वादि जाति के अभिन्न होने से उत्सरघर में
य प्रमेव को विषय करके 'यह वही घट है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति हो सकती है।
एवं विभिन्न क्षणिक भाव विषयक इच्छादि से क्षणिक भावान्तर को विषय करनेवाली प्रवृत्ति और प्राप्त्यादि की भी उपपत्ति हो सकती है, क्योंकि प्रवृत्त्यादि के प्रति इच्छादि को समानविषयकस्य रूप से कार्य-कारणभाव न मानकर समान प्रकारकत्व रूप से कार्य-कारणभाव होता है । अन्यथा स्थर्यवादी के मत में भी किसी अलविशेष में पिपासाशामकत्व का ज्ञान होने से दूसरे जल पोने में मनुष्य को प्रवृत्ति न होगी, क्योंकि पिपासु की प्रवृत्ति के प्रति पिपासाशामकत्व का ज्ञान कारण होता है और वह पूर्व में पीये गये जल में ही गृहीत हं, नवीन जल में गृहीत नहीं है अतः पूर्व में पिये गये जलमें पिपासाशामकत्व ज्ञान होने पर नवीन जल विषयक पिपासु प्रवृत्ति के प्रति जलस्त्र रूप समान प्रकार द्वारा हो कार्य-कारण भाव मानना आवश्यक होता है । इस प्रकार जब स्वयंवादो के मत में भी समान प्रकारकत्व रूप से हो ज्ञान-इच्छा प्रवृत्यादि में कार्य-कारण भाव है तो उस प्रकार के कार्य-कारण भाव द्वारा भावमात्र में क्षणिकत्व पक्ष में भी भिन्न विषयक इच्छावि से भिन्न विषयक प्रवत्यादि की उपपत्ति हो सकती है । अतः उनके अनुरोध से भाव में स्थिरत्व की कल्पना अनावश्यक है।
बौद्धों के इस कथन का उत्तर प्रस्तुत कारिका।१०) के चौथे चरण में दिया गया है जिसका आशय यह है कि सौगत मत में उत्पत्ति के पहले कार्य सर्वथा असत् होता है । कार्य के प्रसत् पक्ष में क्षरिएकभावो में कार्य-कारण भाव को कल्पना युक्तिसङ्गत नहीं हो सकती है इसलिये कार्य-कारण भाव के प्राधार पर उक्त रीति से अनुभवादि से स्मृत्यादि का उपपादन नहीं हो सकता। कहने का अभिप्राय यह है कि कार्य के प्रसत् पक्ष में कार्य को कारण के साथ कोई सम्बन्ध न होने से कार्य-कारण भाव
नहीं बन सकता, क्योंकि कारण को असम्बद्ध कार्य के उत्पादक मानने से सबसे सबकी उत्पत्ति की आपत्ति होगी और इस दोष का परिहार करने के लिये यदि कारणकाल में अर्थात् कार्योत्पत्ति के पूर्व भी किसी रूप में कार्य की सत्ता मानो जायेगी तो क्षणिकरववाद का भङ्ग हो जायेगा ॥१०॥
(भाव और प्रभाव का अन्योन्य परिवर्तन असम्भव) ११ वो कारिका में प्रसत्कार्यवाव में कार्योत्पत्ति के असम्भव का प्रतिपादन किया गया है। कारिका का प्रयं इस प्रकार है
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ २१
तथा भावत्वेन अगले:अपरिच्छेदात । तथा, भावः अतुच्छः नाऽभावमेतिम्न तुच्छता याति, इह-जगति । कुतः इत्याह-तदुत्पत्त्यादिदोषत:प्रभावोत्पत्यादिदोपप्रमङ्गात् ॥११॥ तथाहिमूलम्-सतोऽसच्चे तदुत्पादस्ततो नाशोऽपि तस्य यत् ।
तन्नष्टस्य पुनर्भावः सदानाशे न तस्थितिः ॥१२॥ सतः क्षणिक मायस्य, असत्त्वे-द्वितीयादिक्षणेऽसत्त्वे सति नदुत्पाद: असत्योत्पादः, कादचिकत्वात् । तत: उन्मादान नाशोऽपि तस्य-असत्वस्य, यद्यस्मात् कारणात् तत्-तस्मात् , नष्टम्य सतः पुनभावः, तदसत्वनाशाधिकरणक्षणन्त्रस्य तदधिकरणत्वप्याप्यत्वादिति भावः । 'नाशस्य नित्यत्वाद् न दोप' इति चेत्र ? तर्हि सदानाशे न तत्स्थितिः प्रथमक्षणेऽपि भावस्य स्थिति स्यात् ।।१२।।
अभाव-प्रसत् याने जो तुच्छ वस्तु है वह मावात्मक सद्र्य नहीं हो सकता क्योंकि असत् शशशङ्ग में भावत्व का निश्चय शक्य नहीं है । इसी प्रकार भावात्मक-सत्-प्रतुच्छ वस्तु यह प्रभाव-तुच्छ-प्रसदप नहीं होता है क्योंकि यदि प्रभाव का भाव होना और भात्र का प्रभाव होना माना जायेगा तो शशशृङ्गावि अर्थ को उत्पत्ति को और पदार्थ नित्यतावादि के मत में नित्य माने गए अाफाश प्रादि के विनाश को प्रापत्ति होगी । ११॥
(संदर्भ:-अब १२ से ३८ कारिकासमूह में “भादो नाभावमेतीह" इसो अंश को उपपत्ति विस्तृत पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष के रूप में की जा रही है।
कादाचित्क प्रसत्व पक्ष में भाव के पुनर्भाव या सवा प्रभाव की आपत्ति) १२ वीं कारिका से उक्त विषय को उपपत्ति की जा रही है जो इस प्रकार है
सत् अर्थात् क्षणिक भाव को द्वितीयावि उत्तरक्षण में यदि प्रसत् माना जायेगा तो उसका अर्थ होगा असत् को भी उत्पत्ति होती है क्योंकि क्षणिक भाव का प्रसत्त्व पूर्व में नहीं था और द्वितीयादि क्षणों में हवा । इसलिये असत्त्व कायाचित्कएमा अर्थात किसी काल में रहनेवाला और किसी काल में न रहनेवाला । जो कावाचिस्क होता है उसको उत्पत्ति होती है और जब प्रसस्व की उत्पत्ति होगी तो उसका नाश भी होगा, क्योंकि वह जन्य है, जन्य का नाश निश्चितरूप से होता है । फलतः, क्षणिकभाष का द्वितीय क्षण में जो प्रसत्व होगा-तृतीयक्षण में उस असत्त्व का भी नाश होने से प्रथम क्षण में उत्पन्न और दूसरे क्षण में नष्ट हुये क्षणिक भाव का तृतीय क्षण में अस्तित्व प्रसक्त होगा, क्योंकि यह नियम है कि- जिस वस्तु के असत्व के नाश का अधिकरण जो क्षरण होता है वह क्षण उस वस्तु का अधिकरण होता है । जैसे-न्यायवैशेषिक मत में तघटप्रागभाव रूप तद्घट का जो प्रसत्व है उसके नाश का अधिकरण क्षण प्रर्थात तद्घटोत्पत्तिक्षरण सघट का अधिकरण होता है।
यवि यह कहा जाय कि "सत्त्व का ही उत्पाद और नाश होता है, किन्तु प्रसत्त्व के नाश का केवल उत्पाद ही होता है नाश नहीं होता, इसलिये नाश के नित्य अनश्वर होने के कारण नाश का
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२]
[शा. वा. समुरचय स्त.-४ श्लोक १३
-
-
-
-
पराभिप्रायमाह
मूलम-स क्षणस्थितिधर्मा चेद् द्वितोयादिक्षणाऽस्थिती।
युज्यते हयेतदप्यस्य तथा चाक्तानतिक्रमः ॥१२॥ साभाचनाशः, क्षणस्थितिधर्मा-भाव एव । अयं भावः-द्विविधो धस्माकं विनाशः, सांव्यवहार्यः, तात्विकश्व | आयो निवृत्तिरूपः, द्वितीयश्च भावरूपः । तत्र कार्यकाले कारणनिवृत्तिविकल्प आयमेव नाशमवलम्बते । वस्तुव्यवस्थापक्रत्वाद्य एव ।
एतेन 'कार्योत्पत्तिकाल एब कारणविनाशाभ्युपगमे कारणोत्पादरूपत्वात तस्प सहभावेन कार्य-कारणभावव्यवस्थोत्मादेन , कारणोत्पादात कारणविनाशस्य भिन्नत्वाभ्युपगमे च कृतकत्वस्वभावत्वमनित्यत्वस्य न भवेत् , व्यतिरिक्ते च नाशे समुत्पन्ने न भावस्य निवृत्तिः, इति कथम क्षणिकत्वम् ? इत्यध्ययनाविडकीयोतकरादीनामपि मतं परास्तम् । अत्राह-इनि चेत् १ एतदपि क्षणस्थितिधर्मकत्वम् , हि-द्वितीयादिक्षणाऽस्थितौ सत्या, युज्यते, तथा चोक्तानलिफ्रमः उक्तदोपाऽपरिहारः ॥१३।। नाश नहीं होगा।"-यह मी ठीक नहीं है । ऐसा मानने पर असत्व की स्थिति सर्वकालीन होगी क्योंकि जिसका नाश नहीं होता उसको सावकालीन स्थिति देखी जाती है-जसे न्यायमत में प्राकाशादि । जब प्रसत सायंकालीन होगा तब भाव की उत्पत्ति के क्षरण में भी भाव का अस्तित्व नहीं हो सकेगा. क्योंकि प्रसत्त्व के सार्वकालीन होने से उस समय भी भाव का विरोधी असत्त्व यथावत् बना रहेगा ।।१२॥
[भावनाश को क्षणिक मानने में बौद्धों को उपपत्ति] पूर्वोक्त प्रापत्ति का परिहार बौद्ध जिस अभिप्राय से प्रस्तुत करते हैं उसका प्रतिपादन १३ / कारिका में किया गया है।
बौद्धों का प्राशय यह है कि भाव का जो असरव अर्थात नाश होता है वह भी क्षणपर्यन्त-एकक्षरणमात्र रहनेवाला भाव ही है। न कि प्रथम क्षणोत्पन्न भाव का नाश द्वितीय क्षरण में होनेवाली कोई मायभिन्न वस्तु है। नाश के सम्बन्ध में बौद्धों का यह मत है कि उसके दो भेव होते हैं (११ व्यावहारिक नाश और (२) तात्त्विकनाश । व्यावहारिक नाश पूर्व भाव को निवृत्तिरूप होता है और तात्त्विक नाश उत्तरभाव रूप होता है। कार्य को उत्पत्तिकाल में कारण की निवृत्ति होती है, यह पक्ष भावनिवत्तिरूप प्राधनाश को ही अवलम्बन करता है । वस्तु का व्यवस्थापक मो यह प्राद्यनाश ही होता है अर्थात् वस्तु के स्वरूप का सम्पादक होता है । वस्तु को अस्तित्व भी बही प्रदान करता है, अर्थात प्रथम भाष को निवृत्ति से ही उत्तरभावात्मक वस्तु की उत्पत्ति होती है । पूच भाव के तात्त्विकनाश से उत्तरभाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि पूर्वभाव का तारिककनाश उत्तरमाव स्वरूप ही है। इसलिये तास्विकनाश और उत्तरभाय के अभिन्न होने से कार्य-कारण साव नहीं हो सकता। इसलिये भावनियत्तिरूप व्यावहारिक नाश को ही उत्तरमाव का उत्पादक मानना उचित है।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ २३
(अविद्धकर्ण-उमाल्या के परा का प्राना) नाश के सम्बन्ध में बौद्धों को उक्त मान्यता के कारण, प्रचिद्धकर्ण और उद्योतकरावि का भाव के क्षणिकत्व पक्ष में किया गया प्राक्षेप भी निरस्त हो जाता है। प्रविद्धकर्णाविका क्षणिकत्व पक्ष में यह प्राक्षेप है कि-"भाव की क्षणिकता नहीं बन सकती, क्योंकि बौद्ध लोक कार्य के उत्पत्ति काल में ही कारण का विनाश मानते हैं। कार्य भो अपने उत्तरभाव का कारण होता है । अत एव कारणविनाश अर्थात् पूर्वभाव का विनाश कारगोत्पादरूप अर्थात उत्तरभावोत्पाद रूप हो जाता है। इस प्रकार पूर्वभाव का विनाश और उत्तरभाव का उत्पाद सहनावी होने से इन दोनों में एकता हो जाती है, और एकता होने से उनमें कार्यकारणभाव नहीं हो सकता । अर्थात् उत्तरमाव-उत्पाद से पूर्वभाव विनाश नहीं माना जा सकता, एवं पूर्वभाव-विनाश से उत्तरभाव का उत्पाद नहीं माना जा सकता । और यदि पूर्वभाव विनाश को उत्तरभाव उत्पाद से भिन्न माना जायेगा तो उत्पाद के ही कृतक-जन्य होने से विनाश में कृतकत्व स्वभाव की हानि हो जायेगो फलत: विनाश का। न हो सकने के कारण विनाश सदातन हो जायेगा। और सदातन हो जाने से पूर्वभाव के उत्पत्तिकाल में भी विनाश के रहने से उस काल में भी पूर्वभाव के अस्तित्व का भड हो जायेगा। और पूर्वभाव नाश को उत्तरभाव उत्पाद से भिन्न मान कर उत्तरभावशील माना जाय तो वह सदातन नहीं होगा। क्योंकि उत्तरभाव क्षणिक होने से तस्वरूप पूर्वमाव नाश भी क्षणजीवी होगा अतः भाव के उत्पत्ति काल में भाव के अस्तित्व में कोई बाधा न होने पर भी उत्तरकाल में भाव की निवृत्ति न हो सकेगी। क्योंकि उत्तरभावोत्पाद ही पूर्वभाव का निवर्तक न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय किपूर्वभाव के नाश से उसको निवृत्ति न हो किन्तु उत्तरभाव उत्पाद से पूर्वभाव निवृत्ति हो सकती है तो यह ठोक नहीं है । क्योंकि उत्तरभावोत्पाद पूर्वभाव नाशात्मक होने पर ही पूर्वभाव का निवर्तक होता है । प्रतः पूर्वभावनाश और उत्तरभावोत्पाद में परस्पर भेद होने पर किसी से भी भाव की निवृत्ति न हो सकेगी। भाव को निवृत्ति न होने से वह क्षणस्थायी न हो सकेगा।"
किन्तु यह प्राक्षेप व्यावहारिक और तात्त्विक दो प्रकार के नाश मानने से निरस्त होता है । क्योंकि प्रथम भाव का सात्त्विक नाश द्वितीयभाव रूप होता है । और वह कृतक और नश्वर होता है। अतः उसके सदातनत्व के प्राधारपर पर भाव के उदयकाल में-भाव के अस्तित्वकाल में भाव के नाश का अस्तित्व हो नहीं सकता। इसलिये उस काल में भाव के अस्तित्व का मन नहीं हो सकता । और भावनिवृत्ति रूप नाश का द्वितोयादिक्षण में हो व्यवहार होने से द्वितीयादिक्षण में ही उसका अस्तित्व सिद्ध होता है। इसलिये प्रथमक्षण में भाव के अस्तित्व में उस नाश से भी कोई बाधा नहीं होती है इसलिये 'अपने उत्पत्ति क्षण में ही रहना और द्वितीयादि क्षण में न रहना' भावमात्र में इस प्रकार के क्षणिकत्व की हानि नहीं हो सकती।
इसके प्रतिकार में ग्रन्थकार कहते हैं-पूर्वभाव का नाश क्षणमात्रस्थितिक भावरूप है यह कथन तभी युक्तिसङ्गत हो सकता जब उसके द्वितीयादि क्षण में उसकी स्थिति न मानी जातो, और द्वितीयादि क्षण में स्थिति के न होने के लिने उसका नाश मानना आवश्यक है । फलत: पूर्वभाव के नाश का नाश हो जाने से पूर्वभाव के पुनर्वर्शन को आपत्ति रूप दोष का परिहार हो नहीं सकता।॥१३॥
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४ ]
[ शा० वा० समुच्चय स्त० ४ श्लोक १४
इदमेव भावयति
मूलम् - क्षणस्थिती तवैवाऽस्य नाऽस्थितियुक्त्यसगतेः ।
न पश्चादपि सालिन व्यवस्थितम् ॥ १४॥ क्षणस्थितः क्षण स्थितिरूपस्यैव क्षणस्थितिधर्मकत्वस्याभ्युपगमे, सदैव द्वितीयादौ क्षण एव अस्य भावस्य, स्थितिर्न भवति युक्त्यङ्गतेः ऋणस्थितिक्षणाऽस्थिन्योविरोधात् । न चेष्टापत्तिरित्याह-न पश्चादपि द्वितीयादिक्षणेऽपि, सा-अस्थितिः नेति, तदस्थिते रेवानुभवान क्षणिकत्वमङ्गप्रसङ्गाच्च ।
द्वितीयादिक्षणाऽस्थितिरपि निवृत्तिरूपा संव्यवहार्येव तान्विकी त्वाद्यक्षण स्थितिरूपेति न दोष इति वाच्यम्, अभावस्याधिकरणानतिरेकेण द्वितीयादिक्षणरूपत्वाद् द्वितीयादिक्षणेषु सतः घटादेः असत्यं व्यवस्थितम् = सिद्धम् तथा च 'सताऽसच्चे' [ लो० १२] इत्याद्युक्तदोषानतिक्रम एव ॥ १४ ॥
[क्षणस्थितिधर्मकत्व की क्षणिकता ]
कारिका १४ में पूर्व कारिका निर्दिष्ट विषय का ही समर्थन किया गया है। पूर्वभाव के मात्रात्मक नाश में जो क्षरणस्थितिधर्मकत्व माना जायेगा वह भी क्षणस्थिति=क्षकमात्रस्थितिरूप हो होगा । और यह दो ही स्थिति में उपपन्न हो सकता है ( १ ) उसे पूर्वभाव के द्वितीय क्षण में ही प्रस्थित भी माना जाय, अथवा (२) उसके द्वितीयक्षण में अर्थात् पूर्वभाव के तृतीय कण में उसे प्रस्थित माना जाए। किन्तु ये दोनों ही पक्ष सङ्गत नहीं हो सकता, क्योंकि प्रथम पक्ष में एक ही क्षरण में उसकी स्थिति और अस्थिति दोनों प्राप्त होगी जो युक्तिविरुद्ध है यदि इस युक्तिविरोध के कारण पूर्वभाव के द्वितोयादि क्षण में उसके भावात्मक नारा के स्थितिमात्र को श्रापत्ति का स्वीकार कर लिया जाय और उसमें क्षणमात्र स्थायित्व की उपपत्ति के लिये उसके द्वितीयादि क्षण में अर्थात् पूर्वमात्र के तृतीय क्षण में उसकी प्रस्थिति मानी जाय तो यह भी उचित नहीं हो सकता। क्योंकि उस क्षण में पूर्वभाव के प्रस्थिति का ही अनुभव होता है। किन्तु यदि पूर्वभाव के उत्तरभावात्मक नाश उस समय यानी तृतीय क्षण में प्रस्थित होगा तो पूर्वभाव की स्थिति के अनुभव की प्रापत्ति होगी । और पूर्वभाव के भावात्मक नाश को अपने द्वितीयादि क्षण में भी प्रवस्थित माना जाय तो उसके अनेक क्षणसंसर्गी हो जाने से उसके क्षणिकस्व का भङ्ग हो जायगा ।
( व्यावहारिक निवृतिरूप प्रस्थिति को कल्पना निरर्थक )
यदि यह कहा जाय कि 'पूर्वभाव के द्वितीयादि क्षण में जो पूर्वभाव को स्थिति होती है यह पूर्वभाव को निवृत्तिरूप है जो उन क्षणो में 'पुत्र भावो निवृत्त:' इस व्यवहार से सिद्ध होने के कारण केवल व्यावहारिक है। इस प्रकार ग्राद्य क्षण में पूर्वमाव की स्थिति हो तात्विक है । और द्वितीयावि क्षरा में उसको ग्रस्थिति केवल व्यावहारिक है । एवं पूर्वभाव का जो भाषात्मक नाश है वह पूर्व" भाव का तात्किनाश है। उसके द्वितीयादि क्षण में जलकी मो व्यावहारिक निवृति रूप अस्थिति
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्या० टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ २५
अवाक्षेप परिहारावाहमुलम्-न तद्भवति चेत् किं न सदा सत्वं तदेव यत् ।
न भवत्येतदेवास्य भवनं सूरयो विदुः ॥१५॥ न तत् असत् भवति तुच्छत्वादिभिप्राय इनि चेन ? किन सदा सच्च मावस्य, सदसच्चाभावात् । पर आह-तदेव-सत्वमेव यद्यस्मात् न भवति द्वितीयादिक्षणेपु, अतो न सदा मच्चं भावस्य । अत्रोत्तरम्-एतदेव भावस्याऽभवनं तदात्वेनाऽसत्वस्य भवन, सूरमा पण्डिताः विदुः जानन्ति ।
तथा हि-नेदं भावाऽभवनं काल्पनिकम् , तथात्वे मावस्याऽपि काल्पनिकत्वाऽऽपत्तेः, यतो लाक्षणिको बिरोधो नील-पीतादेः परैरभ्युपगम्यते, वस्तुस्वरूपव्यवस्थापकं च लक्षणम् , ननिमित्तो बिरोधो लाक्षणिक उच्यते, भावग्रच्युतिश्च लक्षणम् , यतो नीलस्य विरोधो नीलमानने से एकक्षणमात्रस्थायित्व रूप क्षणिकत्व में कोई बाधा नहीं हो सकती'-किन्तु यह कथन भो ठीक नहीं है क्योंकि प्रभाव प्राधिकरण से भिन्न नहीं होता। अत एव द्वितीयादि क्षण में पूर्वभाव को व्यावहारिक निवृत्ति रूप जो अस्थिति होती है वह द्वितीयादि क्षणरूप होगी। प्रतः द्वितीयादि क्षण के निवृत्त होने पर पूर्वभाव की स्थिति भी निवृत्त हो जायगी । इसलिए भावनिवृति रूप व्यावहारिक नाश को कल्पना भी निरर्थक हो जाती है । फलत:, उत्तरभाव को ही पूर्वभाव का तात्त्विक नाश मानना होगा। और वह उत्पत्तिशील होने के नाते उस नाश का नाश भी अनिवार्य होगा। अत: नष्ट के पुनर्दर्शन की आपत्ति का परिहार नहीं हो सकता।
यही तथ्य प्रस्तुत कारिका (१४) के "सतोऽसत्त्वं व्यवस्थितम्" से व्यक्त किया गया है जिसका अर्थ यह है कि उत्पत्ति क्षण में सत् घटादि द्वितीयादि क्षण में असत् उत्पन्न होता है । इसलिए १२ वीं कारिका ( सतोऽसत्वे तदुत्पादस्ततो नाशोऽपि तस्य यत् । तन्नष्टस्य पुनर्भावः सदानाशे न तरिस्थति: ॥१२॥ ) में कहे गये दोष के उद्भावन का अतिक्रमण ( निवारण ) नहीं हो सकता ॥१४॥
[ सस्व का न होना ही असत्य है ] १५ वों कारिका में बौद्धमत के विरुद्ध प्रतिपादन के उपर मौतों द्वारा किये गये प्राक्षेप और उसके समाधान का उल्लेख किया गया है। कारिका में, सर्व प्रथम बौद्ध का यह अभिप्राय है कि पूर्वभाय का असत्त्व नहीं होता थाने प्रसत्त्व उत्पन्न नहीं होता क्योंकि प्रसत्त्व तुच्छ होता है । और तुच्छ की उत्पत्ति नहीं होती।
इस अभिप्राय के विस सिद्धाम्ती जन को प्रोर से यह कहा गया है कि यदि भाव का प्रसत्त्व नहीं होगा तो मावका सर्वदा सस्प हो जायेगा। इसके विरुद्ध पुनः बौद्ध की ओर से यह शङ्का की गई है कि द्वितीया विक्षण में माव का प्रसस्त उत्पन्न नहीं होने पर मो मावका सत्त्व न रहने से उसके सा सस्व की प्रापत्ति नहीं हो सकती । इस कपन का सिद्धान्ती की ओर से उत्तर यह किया गया कि द्वितीयाविक्षण में भाव के सरकका न होना ही भाव के प्रसत्त्व का होना विद्वज्जनों को मान्य है।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६ ]
[शा. वा समुच्चय स्त-४ श्लोक-१५
प्रच्युत्या, तद्विरोधे च पीतादीनामपि तत्प्रच्युतिव्याप्तानां तेन विरोधः, तथा च 'प्रमाणं नीलपरिच्छेदकत्वेन प्रवृत्तं नीलग्रच्युति सद्याप्तांश्च पीतादीन् व्यवच्छिन्ददेव स्वपरिच्छेद्यं नीलं परिच्छिनत्ति' इत्यभ्युपगमः।
सच भावाभवनस्य शशविषाणप्रख्यत्वे भावविरुद्धत्वस्य पीतादिव्यापकत्वस्य चाऽभावाद् नोपपद्यत इति । न च तदभवने तदग्रहणमात्रमेव, न तु तदतिरिक्तग्रहणम्, इति न सदभवनमेव तदसत्त्वभवनमिति वाच्यम् , सद्वयवहारनिषेधाऽसद्धयवहारप्रवृत्त्यास्तदग्रहणतदभावग्रहणनिमित्तत्वादिति दिए ।।१५
[भाष का अभाव तुच्छ नहीं है ] व्याख्याकारने इस विषय को स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि भाब के अभवन-यानी असत्त्व को काल्पनिक-तुच्छ नहीं माना जा सकता क्योंकि भाव के प्रभवन को काल्पनिक मानने पर भाव भी काल्पनिक हो जायेगा। कहनेका प्राशय यह है कि बौद्धों के मत में नील-पीतादि में लक्षणमूलक विरोध माना जाता है, क्योंकि लक्षरण वस्तु के स्वरूप का नियामक अर्थात् लक्ष्यतावच्छेदक का नियामक होता है। अतः जिसमें लक्षण का प्रभाव होता है उसमें लक्ष्यतावच्छेदक का प्रभाव होता है अर्थात् वह लक्ष्य से भिन्न होता है । इस प्रकार लक्ष्य और अलक्ष्य का जो भेदात्मक विरोध है वह लक्षणमूलक होता है। जैसे अनील पीतादि) का लक्षण होता है नोलभाव की प्रच्युति अर्थात् नी भाव का अभाव, इस प्रभाव के साथ नील का विरोध है और पोतादि इस प्रभाव का व्याप्य है क्योंकि जो मी पोतादिरूप होता है उसमें नील प्रच्यति अर्थात नील भाव का प्रभाव रहता है। नीलभावाभाव अर्थात् नील प्रच्युति के साथ नील का विरोध होने से उसके ध्याप्य पीतादि के साथ भी विरोध होता है। क्योंकि व्यापक के साथ जिसका विरोध होता है उसका व्याप्य के साथ विरोध न्यायप्राप्त होता है। इसलिए नील का निश्चय करने के लिए जो प्रमाण प्रवृत्त होता है वह नीलप्रच्युति-नोलभावाभाव और उसके व्याप्य पीतादि का व्यवच्छेद करते हुए अर्थात् नील में उनके ज्ञानको व्यावृत्ति करते हुए नीलका निश्चायक होता है । अर्थात् नीलग्राही प्रमाण से "अयम् अनीलभिन्नः, पीतादिभिन्नश्च नील" इस प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है।
अब यदि भाव का प्रभवन शशसोंग के समान तुच्छ होगा तो नीलभाषाभावरूप नीलप्रच्युति मी तुम्छ होगी। अत: उसमें नोल का विरोध एवं पोसावि को व्यापकता नहीं रहेगो। क्योंकि तुच्छ वस्तु किसीकी विरोधी या व्यापक नहीं होती। फलतः नीलपीतादि में जो लक्षण मूलक विरोध बौद्धो द्वारा माना जाता है उसको अनुपपत्ति हो जायेगी। जिसका परिणाम होगा पीतादि विरुद्ध नीलावि के प्रसत्त्व को आपत्ति । प्रतः भाव के प्रभवन को काल्पनिक मानने पर भाव के काल्पनिकत्व को भापत्ति अपरिहार्य है।
मदि यह कहा जाय कि-'किसी वस्तु का प्रमवत होने पर उसका अज्ञान मात्र हो होता है। उस वस्तु के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु का ज्ञान नहीं होता। अतः द्वितीयादि क्षण में माव के अभवन से भाव का प्रग्रहण मात्र हो जाता है, उसको असत्त्व की प्रापत्ति नहीं हो सकती'-तो यह ठोक नहीं है । क्योंकि सत व्यवहार का निषेध वस्तु के अग्रहण में, और असत्-व्यवहार की प्रवृत्ति
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
शा० का टीका-हिन्दी विवेचना
एतदेव स्पष्टयनाहमूलम्- कादाचिकमको यस्मादुत्पादावस्य तत् ध्रुवम् ।
तुच्छत्वान्नेत्यतुच्छस्याप्यतुच्छत्वात्कथं नु यत् ॥१६॥ अदः एतदमत्वम् यस्मात् कादाचित्कम् भावकालेऽसन्चात् , तदस्योत्पादादि-उत्पादविनाशादि ध्रुव-नियतम् , यद्यत् कादाचित तत्तदुत्पादादिमदिति व्याप्तेः । पर आह तुच्छस्वादसखस्योत्पादादि नेति । परिहरति-अतुच्छस्यापि भावस्य अतुच्छत्वात् कारणात् कथं नु तदुत्पादादि १ यद्-यस्मादेवं अतो न प्रागुक्तम् , अप्रयोजकहेतुमात्रेण साध्यासिद्धेरिति भावः ॥१५॥
वस्तु के अभाव के ग्रहण में, निमित्त होते हैं । द्वितीयादि क्षण में जैसे भाव का प्रग्रहण होता है उसी प्रकार भाव के प्रभाव का भी प्रहण होता है । अतः उसकी उपपत्ति के लिए उस समय भाव के असत-व्यवहार को स्वीकारना आवश्यक है। और यह व्यवहर्तव्य के प्राधीन होता है. इसलिए द्वितीयादि क्षण में भाव के असत् व्यवहार की उपपत्ति के लिए भाव के प्रसत्त्व का उत्पाद मानना प्रावश्यक है ॥१५॥
(असत्त्व कादाचित्क होने से उत्पतिशोल है) १६ वीं कारिका में पोंक्त को स्पष्ट किया गया है।
कारिका का अर्थः असत्त्व कादाचित्क होता है, क्योंकि माव के उदयकाल में वह नहीं होता । इसलिए उसकी उत्पत्ति और नाश अपरिहार्य-अनिवार्य है । क्योंकि जो कादाचित्क-स्वतित्वस्वभिन्न कालवत्तित्वोमय सम्बन्ध से काल विशिष्ट होता है वह उत्पत्तिविनाशशाली होता है । इसपर यह शङ्का हो कि-'उत्पत्ति-विनाश शालित्व का यदि उत्पत्ति-विनाश उभयशालित्व अर्थ होगा सो उक्त कादाचिकत्व हेतु से उत्पत्तिनाश उभयशालित्व का अनुमान नहीं हो सकता, क्योंकि प्रागमाष
और ध्वंस में कादाचित्कत्व हेतु उत्पत्तिविनाशउभयशालित्व का व्यभिचारी है। और यदि उत्पत्तिविनाश उभयशालित्व का उत्पत्ति विनाश अन्यतर शालित्व अर्थ किया जायेगा तो असत्त्व में उत्पत्ति सिद्ध होने से सिद्ध साधन होगा' । किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि अभी प्रसत्व को भावकाल में अविद्यमान बताकर उसे कादाचित्क कहा गया है। उसकी उत्पत्ति अभी तक निर्धारित नहीं है। प्रतः उत्पत्ति विनाश अन्यत्तर शालित्व का साधन करने से विनिगमना के विरह से उत्पत्ति विनाश दोनों को सिद्धि असत्व में होगी जो बौर को मान्य नहीं है।
इस पर बौद्ध की और से यह शङ्का की जा सकती है कि-"प्रसस्व तुच्छ है, इसलिए उसका
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८ ]
[ शा. या समुच्चय स्त० ३-३० १७
पर आह
मृलम्- तदाभूतेरियं तुल्या तन्निवृत्तेन तस्य किम ।
तुच्छताऽऽयमेन भावोऽस्तु नासत् सत् सदसत्कथम् ||१७||
तदाभूतेः = तदोत्पत्तिदर्शनेन, अतुच्छस्योत्पादादि न्याय्यमित्यर्थः । अत्रोत्तरम् - इयम् अनुभवसिद्धा तदाभूतिः तुल्या, तुच्छस्याऽपि सच्चानन्तरम सच्वस्यानुभूयमानस्वात् । पर आह निवृत्ते अतुच्छ निवृत्तेः न तुल्या तुच्छस्य तदाभृतिः, 'अतुच्छस्योत्पादानुभवः प्रमाणम्, तुच्छस्य तु निवृत्त्यनुपपतेरुत्पादानुभवो न प्रमाणम्' इति भावः ।
अत्रोत्तरम् - न तस्य किं नत्र उभयत्र सम्बन्धात् 'तस्य तुच्छस्य किं न निवृत्तिः' ? इत्यर्थः । पर यह छताप्लेमिलि तुम्छैन उताप्न तदात्मकत्वात् न तनिवृता asपि तत्रान्यत् किञ्चिदाप्यमस्ति तनिवृत्तेरपि तुच्छत्वात् । अतो न तुच्छस्य निवृत्तिरिति ।
"
( तुच्छ की अनिवृत्ति हेतु से उत्पत्तिविरह को शंका )
१७ वीं कारिका में पूर्वोक्त के सम्बन्ध में बौद्ध द्वारा श्राशङ्कत समाधान और उसके निराकरण की चर्चा की गई हैं।
कारिका का प्रर्थः जैन विद्वानों की और से जो यह कहा गया है कि यदि तुच्छत्य हेतु से सत्त्व में बौद्धों द्वारा उत्पत्ति विनाश विरह का साधन क्रिया आयेगा तो प्रतुच्छत्व हेतु से भाव में भी उत्पत्ति विनाश विरह के साधन की प्रापत्ति होगी यह समीचीन नहीं है। क्योंकि अतुच्छ को उत्पति अनुभव सिद्ध होने से न्यायसङ्गत है । किन्तु तुच्छ की उत्पत्ति अनुभव सिद्ध न होने से यह स्वीकार्य नही हो सकती । इसके उत्तर में जैन विद्वानों का कहना है कि श्रतुच्छ के समान सुच्छ को उत्पति भी अनुभवसिद्ध है। क्योंकि सत्त्व के बाद प्रसत्त्व का अनुभव सर्वसम्मत है । इस पर बौद्ध की यह आशङ्का है कि तुच्छ की उत्पत्ति में प्रतुच्छ की उत्पत्ति की तुल्यता नहीं है क्योंकि प्रतुच्छ की निवृत्ति भी होती है। इसलिए निवृत्ति के अनुरोध से प्रतुच्छ की उत्पत्ति के अनुभव को प्रमाण माना जाता है । किन्तु तुच्छ की निवृत्ति नहीं होती इसलिए तुच्छ की उत्पत्ति के अनुभव को प्रमाण नहीं माना जा सकता ।
( स्वतः तुच्छ की निवृत्तिनिष्प्रयोजन है-बौद्ध )
काfरका के द्वितीय पाद में स्थित 'नम्' पर का 'तनिवृत्तेः तुल्या न' इस प्रकार एक बार और 'तस्य किं न निवृत्ति: इस प्रकार दूसरी बार श्रन्वय मानकर व्यख्याकार ने जैन विद्वानों की औौर से इस भाशा का उसर दिया है कि जैसे तुच्छ की निवृत्ति होती है वैसे तुच्छ की निवृत्ति क्यों नहीं होगी ? अर्थात् अतुच्छ को निवृत्ति के समान तुच्छ को निवृति भी मान्यता प्राप्त होने से तुच्छ की उत्पत्ति के अनुभव को प्रमाण मानने में कोई बाधा नहीं हो सकती । इस पर वौद्ध की और से यह कहा जा सकता है कि किसी भी वस्तु की निवृत्ति उसमें तुच्छता की उपपत्ति के लिए मानी जाती है। प्रत: अतुच्छ की निवृत्ति तो उचित हो सकती है क्योंकि निवृति से निवर्तमान को तुच्छता प्राप्त होती है जो प्रतुच्छ में स्वभावतः प्राप्त न होने से
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्याक टीका-हिन्दीविवेचना ]
अनोत्तरम् 'न भावोऽस्तु' इति नैतदेवं यदुच्यते भवता-'तुम्छेन तुच्छताप्तव, इति न तन्निवृत्तिः इति' यनो भावोऽस्तु तुच्छता, एतमेवैतम्भिवृत्युपपत्तेगिन । पर आह-नासत् सदिति कथं चासत मद् भवति येनोच्यते 'तुच्छतानिवृत्तौ भावोऽस्तु'-रत्यभिप्रायः । अत्रोत्तरम्-'सदसत् कथमिति' ? एतदुक्तम्भवति-यग्रसत सद् न भवति प्रकृत्यन्यथायोगेन, ततः सदसत् कथं भवति ? इति ॥१७॥
पर आह
मलम्-स्वहेतोरेव तज्जातं तत्स्वभावं यतो ननु ।
तदनन्तरभावित्वादितरत्राप्यदः समम् ॥१८॥ स्वहेलोरेव-स्वकारणादेव तत्-सत्वम् जातम् उत्पन्नम् तत्स्वभाव असद्भवनस्वभावम् यतः यस्मात् , तस्मात् सदसन् भवतीति न दोपः । अत्रोत्तरम्-ननु यद्येवम् , तदा तदनन्तरभावित्वात् सत्यानन्तरभावित्वात इतरत्राऽपि असच्चे, अदः एतत् 'स्त्रहतारवाऽसव सद्भचनस्वभावं जातम्' इति कल्पनम् समतुल्ययोगक्षेमम् ॥१८॥ निवृत्ति द्वारा प्राप्तव्य है । किन्तु तुच्छ की निवृत्ति मानना यह उचित नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें तुच्छता स्वत:सिद्ध है । प्रतः उसको निवृत्ति मानना निष्प्रयोजन है। यदि यह कहा जाय कि 'तुच्छता की निवृत्ति का तुच्छ के लिए कोई प्रयोजन न हो किन्तु निवृत्ति को निवृत्ति के लिए ही मानना उचित है क्योंकि उसको न मानने पर वह स्वयं ही सिद्ध न होगी। जो चीज नित्य नहीं होती उसका अस्तित्व उसकी उत्पत्ति से हो सिद्ध होता है। तो यह कयन भी ठीक नहीं, क्योंकि तुच्छ निवृत्ति भी निवृत्ति रूप होने के कारण तुम्छ हो है । प्रत एष उसमें कोई वस्तु प्राप्तव्य नहीं हो सकती, प्रतः तुच्छ को निवृत्ति नहीं मानो जा सकती । और जब तुच्छ को निवृत्ति मानी नहीं जातो तब उसकी उत्पत्ति का अनुभव प्रमाण नहीं माना जा सकता ।
[प्रसत् सत् नहीं होता तो सत् असत् कैसे होगा-जन] इस पर जंग विद्वानों का यह उसर है कि-तुच्छ में तुच्छता स्वमावत: प्राप्त है इसलिए तुच्छ को निवत्ति मान्य नहीं हो सकती यह बौद्धों का कथम ठीक नहीं है। क्योंकि तुच्छ भावात्मक न बम जाय इसलिए तुच्छ की निवृत्ति मामला प्रावश्यक है । इसपर बौद्ध यह तर्क कर सकता है कि'तुच्छ की निवृति न मानने पर उसमें सस्व का प्रापावान उचित नहीं हो सकता । क्योंकि जो स्वमावत : असत् है वह सत् नहीं हो सकता । क्योंकि ऐसा मानने पर स्वभावहानि की मापत्ति होगो, जबकि स्वभावहानि किसी भी वादो को मान्य नहीं है। इसकाम विद्वान द्वारा यह उत्तर कि यदि प्रकृति के प्रन्ययात्व को प्रापत्ति के भय से असत् सत् नहीं हो सकता । तो सत् भी कैसे असत् हो सकता है ? निष्कर्ष यह हुमा कि पूर्वक्षण में सद्भूत भाव का असर काल में प्रसस्व सम्मन न होने से भावमात्र क्षणिक होता है इस बौड सिद्धान्त का लोप हो जायगा ॥१७॥
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
[शा. वा. समुच्चय स्त-३ श्लोक-१९-२०
पर आह
मूलम-नाहे तोरस्य भवनं न तुच्छे तत्स्वभावता।
तन: कथं नु तद्भाव इति युक्त्या कथं समम् ॥१९॥ नाहेतो:न्नाकारणस्य अस्य-असत्यस्य भवनम् । तथा, तुच्छे-असस्वे, न तत्स्वभावना सद्भावस्वभावना, निःस्वभावत्वेन तुच्छत्वव्यवस्थानात् । यत एवं अतः कथं नु तगाव असतः सद्भावः, नेवेत्यर्थः । इति एवम् , युक्त्या न्यायेन कथं समं स्वहेतोरेव जातस्त्रादिकल्पनम् । इति ॥१९॥ अत्रोत्तरम्मूलम्-स एच भावरतहेतुस्तस्यैव हि तदाऽस्थितेः ।
स्वनिवृत्तिस्वभावोऽस्य भावस्येव ततो न किम् ॥२०॥ म एव भावो यम्याग्रिमणेऽसत्त्वम् , तडेतुः असत्त्वहेतुः, तस्यैव हिम्भावस्य तदा द्वितीयममये अस्थितः अभवनात् । एतेन नियतानन्तरभावित्वं हेतु-फलभावाङ्गमुक्तं,
[स्वभाव हेतुता में तल्यता को आपत्ति] १८ वी कारिका में उक्त के सम्बन्ध में ही और प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गए हैं। जैसे, बौद्ध का कहना है कि-सत् वस्तु के असत्त्व को अनुपपत्ति बतलाना उचित नहीं है, क्योंकि सत् वस्तु अपने तथाभूत कारणों से बाद में असत् हो जाने के स्वभाव से युक्त होकर ही उत्पन्न होती है। इसके उत्तर में जैन का यह कहना है कि-बौद्ध का यह समाधान समोचीन नहीं हो सकता। चकि जैसे सात् अपने कारण से बाद में असत् हो जाने के स्वभाव से ही सम्पन्न होकर उत्पन्न होता है, उसी प्रकार यह भी कल्पना की जा सकती है कि 'असत् मी अपने हेतु से बाद में सत् हो जाने के स्वभाव से प्रन्वित होकर ही उत्पन्न होता है' ॥१८॥
[तुच्छ का कोई स्वभाव नहीं होता-बौद्ध) १६ वौं कारिका में बौद्धो की और से उक्त कथन का निम्तोक्त समाधान प्रस्तुत किया गया है किप्रसव के बारे में उक्त स्वभाव की कल्पना नहीं की जा सकती । क्योंकि प्रसत् का कोई कारण नहीं होता । अतः तुन्छ में मरूपताभवनस्वमाघ का प्रापादान नहीं हो सकता, क्योंकि तुच्छ बस्तु सर्वस्वभाव शून्य होती है अत एव दोनों कल्पनाओं में जो साम्य बताया गया है वह ठीक नहीं है ॥१९॥
[भाव और असत्त्व में हेतु-फलभाव है। बोसवीं कारिका में पूर्वोक्त बौद्धों के कथन का उत्तर दिया गया है जो इस प्रकार है-प्रसत का कोई कारण नहीं है-यह बौनों का कथन प्रसङ्गत है, क्योंकि पूर्ववर्तीभाव ही उत्तरकाल में होने वाले प्रसत्त्व का हेतु है । क्योंकि उत्तरकाल में पूर्ववर्ती भाव की प्रस्थिति अर्थात प्रसत्त्व होता है प्रतः पूर्ववर्ती भाव उत्तरकालभावी असत्त्व का कारण है। इस कयन से यह सूचित होता है कि नियतानन्तरमावित्व हेतु-फलमाव का अंग याने नियामक है। अर्थात मी जिसके मश्यवहित उत्तर
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० क० टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ ३१
कार्यदर्शनेन तस्कुर्वरूपानुमानमपि निराधाधमेव, तथाविधक्षणकुपक्षणानुमानेऽप्यस्यैव बीजत्वात् , कार्यसामान्ये सत्कुर्वद्रूपत्वेन तु न हेनता. मानामावान् , गौरवाच्च ।
यदि च 'अभावस्य भावीकरणमेव तद्वयापारः अन्यथानुपयोगादिति' संप्रदाया, तदा कार्यदर्शनवलाद् भावम्याभावीकरणपनि न्यापासावारीका व्यमिति । अधिकमग्रे ।
तथा, स्वनिसि= स्वात्मनिवृत्तिः स्वभावा-धर्मः, अस्य असत्यस्य भावस्येब, हेतुसामात् । यत एवं ततो न किं युक्त्या समं स्वहेनोरेव जातलादिकल्पनम् ॥२०॥
क्षण में होता है वह उसका फल-काय होता है और जो जिसके अव्यवहित पूर्वक्षरण में नियत होता है वह उसका जनक हेतु होता है। यदि यह कहा जाय कि- 'भाव में असत्त्वका कुर्वदरूपत्व प्रसिद्ध है। अतः उसे असत्व का कारण माना नहीं जाता, क्योंकि बौद्ध मत में कार्यकर्वपत्वेन ही कारगता होती है"-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि भाव के अनंतर असत्व रूप कार्य के कुवंद्र रत्व का अनुमान निर्वाध रूप से सम्पन्न हो सकता है। क्योंकि जहाँ कहीं भी प्रनन्तरभावी क्षण के प्रति पूर्व मावो कुर्वद्रूप क्षरण का अनुमान होता है वहां सर्वत्र इस अनुमान में नियतानन्तरभावित्व ही बीज होता है । यदि यह कहा जाय कि-'कार्यसामान्य के प्रति कारण को सदनुकुल कुर्वद्रूपत्व रूप से ही कारणता होतो है । अतः भाव असत्त्व का कारण नहीं हो सकता क्योंकि सदनुकुलकुर्व पकारण सद्रूप कार्य को ही उत्पन्न कर सकता है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें कोई प्रमाण नहीं है, अपितु कारणतावच्छेदक कोटि में सदनुकुलकुर्व पत्व के प्रवेश में गौरव भी है।
(भाव का प्रभाव में परिवर्तन को पूर्ण शक्यता) यति सह शहा की जाय कि-"माव प्रसत्वका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि अभावका भाव में परिवर्तन करना कारण का व्यापार होता है अन्यथा कारण को कोई उप सिद्ध न हो सकेगी, यही सम्प्रदाय की मान्यता है। प्रतः भावको प्रसत्त्वका कारण नहीं माना जा सकता। क्योंकि मायरूप कारण से प्रसत्त्व का भावीकरण नहीं होता यानी प्रसत्त्व की भावात्मकता का सम्पावन नहीं होता"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जब भाव के अव्यवहित उत्तर काल में प्रसत्वरूप कार्य का वर्शन होता है तो भाय का प्रभाव में परिवर्तन करना भो हेतु का व्यापार मानना प्रावश्यक होगा। प्रतः भावको प्रसत्त्व का कारण मानने में कोई बाधा नहीं है। फलतः, जब प्रसत्व भी सकारणक हुमा तो उसके बारे में यह कल्पना की जा सकती है कि-प्रसस्व प्रपने कारण से सजवन स्वभाव से सम्पन्न होकर ही उत्पन्न होता है । इस विषय में और बात मागे ज्ञात हो सकेगी।
कारिका के उत्तराध में यह बताया गया है कि उक्त रीति से असत्त्व में सकारणकाव सिद्ध हो जाने पर यह भो कल्पना की जा सकती है कि जैसे भाव अपने कारण से, निवृत्त होने के स्वभाव से सम्पन्न ही उत्पन्न होता है उसी प्रकार असत्त्व भी अपने प्रतियोगीभूत भावात्मक कारण से, निवृत्ति स्वमाव से सम्पन्न होता है। इस प्रकार तुच्छ की निवृत्ति सरलतया ही सिद्ध हो सकती है। प्रस: पूर्व कारिका में भाव के समान असत्त्व में भी अपने कारण से ही उत्पत्ति आदि कल्पना में जो साम्य बताया गया है वह युक्तिसङ्गत क्यों नहीं हो सकता! ॥२०॥
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२ ]
[ शा. वा. समुच्चयस्त० ४ श्लो० २१-२२
उपचयमाह
मूलम् - ज्ञेयत्ववत्स्वभावऽपि न चायुक्तोऽस्य तद्विषः | तदभावे न तज्ज्ञानं तनिवृत्तेर्गतिः कथम् ॥२१॥
न चास्य = असवस्य तद्विधः सद्भवन लक्षणः स्वभावोऽपि ज्ञेयत्वस्वभाववदयुक्तः, भावस्वभावत्वाभाव एव हि तुच्छत्वम् न तु सर्वथा निःस्वभावत्वम् । अत एव शशविषाणादाचखण्डेऽनादिवासनाप्रभवविकल्प गोचरतया शेयस्वं कृतम् । ज्ञेयत्वमपि नास्त्येव तत्र ' इत्यवाह तदभावे ज्ञेयत्वाभावे न तज्ज्ञानं नासत्वज्ञानम् । तथा च तनिवृत्तेः सवनिवृत्तेः, गतिः परिछेदः कथम् ? ॥२१॥
पराभिप्रायमाह -
मूलं तत्तद्विधस्वभावं यत्प्रत्यक्षेण तथैव हि ।
गृह्यते नद्गतिस्तेन नैतत्क्वचिदनिश्चयात् ||२२||
तत् = मखानुविद्धं वस्तु तद्विस्वभावं निवृत्तिरूपधर्मकम् यद्यस्मात् तम्मात् प्रत्यक्षेण= तथाभृतयस्तुग्राहिणा निर्विकल्पेन, तथैव हिस्वधर्मवदेव, गृश्यते=परिच्छिद्यते ।
$
[ सत्त्व में सद्भवनस्वभावता और ज्ञेयत्थ की सिद्धि]
२१ व कारिका में सत्व में श्रापादित सद्भवनस्वभावता की पुष्टि की गई है। कारिका का श्रर्थः श्रसत्त्व का जेसे ज्ञेयस्यास्वभाव युक्तिविरुद्ध नहीं है उसी प्रकार उसकी सद्भवन स्वभावता भी युक्तिविरुद्ध नहीं है । यदि यह कहा जाय कि असत्त्व की सद्भवनस्वभावता के समर्थन में शेयत्व को दृष्टान्त रूप से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। क्योंकि ज्ञेयत्व को प्रसव का स्वभाव मानने पर तुच्छता प्रतुपपन होगी" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तुच्छता सर्वेया नि:स्वभावत्वरूप नहीं है अपि तु साथ स्वमावत्व का प्रभावरूप है। अर्थात् तुच्छ होने के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह सर्वथा स्वभावशून्य हो । feng यह आवश्यक है कि नाव के प्रसाधारण स्वभाव से शून्य हो । 'इसलिए शशसोग इस प्रखण्ड रुप से भासमान को, श्रनावि वासनाजन्य विकल्पात्मक ज्ञानका विषय होने से बौद्धाविकों ने मी माना है । यदि यह कहा जाय कि "असत्त्व में शेयत्व भी नहीं होता, अतः उसमें सद्भवनरूप भावान्तर ज्ञेय को सिद्ध करने के लिए ज्ञेयत्व काष्टांत रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि यदि उसमें ज्ञेयत्व का प्रभाव होगा तो उसका ज्ञान न होगा। फलत: उसी स्थिति में सत्यनिवृत्ति का परिच्छेद कैसे हो सकेगा ? ॥२१॥
* विकरूपात्मक ज्ञानः-ओ ज्ञान शब्दज्ञान से उत्पन्न हो और जिसका विषयभूत पदार्थ वास्तविक से उत्पा न हो उस ज्ञान को विकल्पात्मकज्ञान कहते हैं । शशसींग का ज्ञान 'शशशु' इस शब्द होता है और उसका विषय 'शशशुग' वास्तविक नहीं है। अतः 'शशसींग' का ज्ञान विकल्पात्मकशाच कहा जाता है, उस ज्ञान का विषय होने से 'शशशृङ्ग' शेम कहा जाता है ।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० का टीका-हिन्दी विवेचन ]
[५
यत एवं तेन कारणेन तद्गतिः सत्चनिवृत्तिगतिः। यद्यप्येवमपि तदधर्मभूतनिवृत्तभ्रमविषयतयापि शेयत्वस्वभाववत् कार्यत्वस्वभावोऽविरुद्ध एव, तथापि वस्तुस्थित्या समाधानमाह-नतद् -यदुक्तं परेण 'प्रत्यक्षेणैव सच्चानिवृतियते' इति । कुतः १ इत्याह क्वचिदनिश्चयात प्रतीत्यभावेन क्वाप्यनिश्चयात् । यद्वा, क्वचित्-सभागसंततानिश्चयात् , निश्चय एव मध्यक्षकल्पका, यथा नीलादिनिश्चयात् तदध्यक्षकल्पनम् । अन्यथा दानहिंसाविरतिचेतसा स्वर्गप्रापणशक्तेरप्ययक्षत एवायसितेने तत्र विप्रतिपत्तिः, इति तद्वय दासार्थमनुमानप्रवर्तनं शास्त्रविरचनं वा धैयर्थ्यमनुभवेत् ॥२२॥ पराभिप्रायमाशङ्कयाह--
मूल-समारोपादसौ नेति गृहीतं सत्यतस्तु नत् ।
यथाभावग्रहासस्यातिप्रसङ्गाददोऽप्यसत् ॥२३॥ समारोपात-तुल्यसत्त्वाध्यारोशात , असी सत्यनित्तिनिश्चयः न, यथा रजत
[ सत्त्वनिवृत्ति प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है ] बावीसवीं कारिका में सत्त्वनिवृत्ति के सम्बन्ध में बौद्ध का अभिप्राय प्रस्तुत कर के उसका निराकरण किया गया है। सत्त्व को आश्रय भूत सवस्तु स्वभावत: निवृत्तिधर्मक होती है, क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा वह सद् वस्तु निवृत्तिधर्मकरूप में गृहीत होती है । सत्त्वनिवृत्ति का परिच्छेद भी इसीलिए हो सकता है। यद्यपि निवृत्ति को असत्व का धर्म न मानने पर भी भ्रम द्वारा उसमें यश्वस्वभाव हो सकता है। इसी प्रकार कार्यत्व को उसका स्वभाव मानने में कोई विरोध नहीं है, इसलिए निवृत्ति को उसका धर्म बताने की प्रावश्यकता नहीं है । तथापि वस्तुस्थिति के अनुरोध से ऐसा समाधान किया गया है । इस समाधान के सम्बन्ध में ग्रन्थकार का कहना यह है कि सत्त्वनिवृत्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण से ग्रहण नहीं हो सकता । क्योंकि उसका सविकल्प निश्श्रय अर्थात् प्रत्यक्ष कहीं सिद्ध नहीं है। अथवा सभागसन्तान में कहीं उसका निश्चय नहीं है। प्रौर निश्चय ही निर्विकल्पक का अनुमापक होता है। जैसे, नीलादि के निश्चय से नीलादि के निविकल्पक की कल्पना होती है । जिस विषय का निश्चय नहीं होता यदि उसका भी प्रत्यक्ष माना जायगा तो जिस पुरुष का चित्त दान और अहिंसा में संलग्न है, उसकी स्वर्गप्रापक शक्ति का भी प्रत्यक्ष प्रमाण से ही ज्ञान हो जायगा । अतः उस विषय में कोई विरोध संभवित न होने से विरोधनिराकरण के लिए स्वर्ग प्रापण शक्ति का अनुमान प्रौर उसके प्रतिपादन के लिए शास्त्र की रचना व्यर्थ हो जायेगी ।२२।।
[समारोप के कारण सत्त्वनिवृत्तिग्रह न होना प्रयुक्त है] २३ वी कारिका में पूर्वकारिका गत प्राक्षेप के सम्बन्ध में बौद्ध के अभिप्राय को प्रस्तुत कर के उसका प्रतिकार किया गया है । बौद्ध का कथन यह है कि वस्तु के सत्त्व की निवृत्ति मानने पर भी उसका निश्चय इसलिए नहीं होता है कि उसमें सत्त्व का प्रारोप होता है। यह आरोप ही सत्त्वनिवृत्ति के निश्चय का बाधक हो जाता है। क्योंकि सत्त्व और असत्त्व में विरोध है, और एक विरोधी धर्म का मारोप दूसरे विरोषी धर्म के निश्चय का प्रतिबन्धक होता है। जैसे शुक्तित्व के विरोधी रखतस्व
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४ ]
[ शा.बा. समुरुचय स्त८५-श्लो०२४
समारोपाद् न शुक्तिनिश्चयः ! तत्त्वतस्तु तत्-असच्चम् गृहीतम् अध्यक्षण परिच्छिन्नम् , तस्य अध्यक्षस्य यथाभावग्रहात्-प्रतिनियतधर्मकम्बलक्षणग्राहित्वात् , तहलेनैव तदुत्पत्तेः, अन्यधर्मानुकरणे भ्रान्तत्वप्रसङ्गात , तद्धर्माननुकरणे चानुत्पत्तरेवेति । अत्र यद्यपि वस्तुनो निवृत्तिधर्मकल्पविद्धायध्यक्षस्य तग्राहियसिद्धिः, तस्स समाहित्यसिद्धौ च वस्तुनस्तथात्वसिद्धिः, अनुमानेऽपि प्रत्यक्षस्य मूलत्वात् , इति स्फुट एवान्योन्याश्रयः, तथाऽप्युत्कटदोषान्तरमाह-अदोऽप्यतिप्रसङ्गादसत्-अकिञ्चित्करम् ।।२३।। तथाहि
मूलम्-गृहीतं सर्वमेतेन तत्वतोऽनिश्चयः पुनः ।
मितग्रहसमारोपादिति तत्त्वव्यवस्थितेः ॥२४॥ गृहीतं सर्व-त्रैलोक्यम् , एतेन अध्यक्षेण, तत्वतः परमार्थतः, अनिश्चयः पुनः सर्वविषयः मितग्रहसमारोपात यावद् यत्र निश्चीयते तावत एव तत्रारोपात् , इति एवं
के प्रारोप से अनवेशयी वस्तु में शुक्तित्व का निश्चय प्रतिबद्ध हो जाता है। किन्तु सत्यनिवृत्ति वस्तु का वास्तविक स्वरूप है। अत एव निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से उसका ग्रहण होता है। क्योंकि निर्विकल्पक का यह स्वभाव होता है कि वह जिस वस्तु का जो धर्म होता है, उस धर्म के द्वारा हो वह स्वलक्षण यानी वास्तविक वस्तु को ग्रहण करता है, क्योंकि वस्तु के बल से हो अध्यक्ष को उत्पत्ति होती है। यदि प्रत्यक्ष अन्य वस्तु के भी धर्म को ग्रहण करेगा तो भ्रम हो जायेगा, और वस्तु के वास्तविक धर्म को ग्रहण न करेगा तो उसकी उत्पत्ति ही न हो सकेगी।
यद्यपि इस बौद्ध समाधान में अन्योन्याश्रय स्पष्ट है। क्योंकि वस्तु में नित्तिधर्मकत्व सिद्ध हाने पर हो निविकल्पक से उसका ग्रहण सिद्ध हो सकता है। और निर्विकल्पक से उसका ग्रहण सिद्ध होने पर ही वस्तु में निवृत्तिधर्मकत्व को सिद्धि हो सकती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि निषतिधर्मकत्व की सिद्धि अनुमान से होगी। क्योंकि अनुमान भी प्रत्यक्ष-मूलक ही होता है। अतः ग्रन्धकार द्वारा इस अन्योन्याश्रय का उद्भायन उचित था, किन्तु ग्रन्थकार ने इसकी उपेक्षा इसलिए की है कि उसके सम्मुख बलवत्तर दोष उपस्थित था और वह दोष प्रतिप्रसङ्ग है । जिसे अग्रिम कारिका में स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया गया है ।।२३।।
[निविकल्प से त्रैलोक्यग्रह को प्रसक्ति] २४ वीं कारिका में पूर्व कारिका में संकेत किये गये प्रतिप्रसङ्ग को स्पष्ट किया गया है, जो इस प्रकार है वस्तु की सनिवृत्ति का यदि उसके निश्चय के बिना भी निविकल्पक प्रत्यक्ष से ग्रहण माना जायेगा तो निश्चय के बिना भी सम्पूर्ण त्रिलोकवत्ती वस्तु का, निर्विकल्पक-प्रत्यक्ष द्वारा प्रसद्प में ग्रहण होने का प्रतिप्रसङ्ग होगा। क्योंकि जिस वस्तु में जिसने धर्मों का निश्चय होता है उतने ही धर्मों का उसमें मारोप माना जाता है। प्रसत्त्व का निश्चय किसी वस्तु में नहीं होता, अत एव किसी वस्तु में असत्त्व का आरोप नहीं माना जाता । फलतः असत्त्व सम्पूर्ण वस्तु का अनारोपित-वास्तविक रूप होगा। प्रत एव सम्पूर्ण वस्तु का प्रसत्व रूप से निर्विकल्पक द्वारा ग्रहण का प्रतिप्रसङ्ग दुनिवार्य है।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३५
स्वा० क० टीका-हिन्दीविवेचना ]
तत्वव्यवस्थिते:- स्वलक्षणाध्यक्षस्वरूपोपपत्तेः सम्भवात् । त्रैलोक्याऽसंनिकर्षात् कथं तयपादानम्' ? इति चेत् १ अभिप्रायाऽनभिज्ञोऽसि स्वलक्षणस्यैव त्रैलोक्यात्मकत्वापादनात्, 'इतरग्रहप्रतिबन्धकल्पनापेक्षयेतराग्रहस्यैव कल्पने लाघवमिति चेत् ? तदाऽसत्रस्याऽप्यग्रह एवं कल्प्यताम् किं समारोपेण तनिश्चयप्रतिबन्धकल्पनया ! |
+
यद्वा, परमार्थतोऽसद्दशानामपि भावानां समारोपबलेन तादृशविकल्पोत्पादकदर्शनहेतुत्वे स्वयमनीलादिस्वभावानामपि भावानां नीलादिविकल्पोत्पादक दर्शन हेतुत्वसम्भवाद् निर्धर्मकमेवास्तु स्वलक्षणम्, तथा च सर्व-धर्माभावाद् निरवशेषमित्यर्थः, नत्रोऽप्रश्लेषाद् निश्चय:- मितनिश्चयः पुनर्मितग्रहसमारोपाद् - नियतवासनाप्रबोधात् इति व्याख्येयम् । वासनाप्रवोध नियमेऽप्यनुभवस्यैव नियामकत्वाद् नायं दोष' इति चेत् १ तह्यत्यन्तासति विषये कथं वासनास्वीकारः ! ' समनन्तरा-समनन्तरविक्रम्पविभागाऽर्थं वासना भेदस्वीकाराद् न दोष' इति चेत् ? सोऽपि किमर्थम् ? 'परम्परया संवादा ऽसंवाद नियमार्थमति चेत् १ तहिं साक्षादेव तदभ्युपगमोऽस्तु किमीशकुसृष्टया ? इति दिक् ||२४||
विबौद्धों की ओर से यह कहा जाय कि 'सम्पूर्ण वस्तु के साथ सन्निकर्ष न होने से प्रसद्रूप में सम्पूर्ण वस्तु के ग्रहण का श्रापादान नहीं हो सकता तो उनका यह कथन आपादक के अभिप्राय के अज्ञान का हो सूचक होगा क्योंकि प्रापादक का अभिप्राय सम्पूर्ण वस्तुग्रहण के आपादन में नहीं है किन्तु जो कोई एक स्वलक्षरण वस्तु निविकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा गृहोत होती है उसीमें सम्पूर्ण जगत् के परिसमाप्त हो जाने में है। यदि पुनः उसके उत्तर में बौद्ध की प्रोर से यह कहा जाय कि 'इस आपादान में सन्निकृष्ट स्वलक्षणवस्तु से अतिरिक्त वस्तु के ज्ञान का प्रतिबन्ध फलित होता है । किन्तु इतर वस्तु का ज्ञान नहीं होता" इस कल्पना में लाघव है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी कल्पना करने पर सत्त्व के आरोप से असत्त्व निश्चय के प्रतिबन्ध की कल्पना भी उचित नहीं होगी, किन्तु सत्य के ग्रह की कल्पना ही उचित होगी । अतः ज्ञेयत्व को प्रसत्य का स्वभाव न मानने पर असत्त्व के परिच्छेद की अनुपपत्ति जो बतायी गई थी वह तववस्थ रहेगी । फलतः जैसे ज्ञेयश्व प्रसव का स्वभाव होगा उसी प्रकार उसमें कारणबनसे सद्भूवनलक्षण स्वभाव की प्रापति का परिहार भो नहीं हो सकेगा ।
[ स्वलक्षण में निर्धर्मकत्व का प्रतिप्रसङ्ग ]
श्रथवा इस पूरी कारिका को पूर्व कारिका में संकेतित प्रतिप्रसङ्ग के स्पष्टीकरण में ही न लगा कर अन्य प्रकार से भी व्याख्या की जा सकती है । जैसे यह कहा आ सकता है कि "गृहीसं सर्वमेतेन तत्वतः " अंश से प्रतिप्रसङ्गका स्पष्टीकरण किया गया है और निश्चय: पुर्नामग्रहसमारोपात्' इस भाग से बौद्ध द्वारा प्रतिप्रसङ्ग के समाधान की प्राशङ्का की गई है, और प्रतिम अंश से उसका निराकरण किया गया है। आशय यह है कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से असत्त्व के ग्रहण का बौद्ध द्वारा समर्थन करने पर जैन द्वारा यह प्रतिप्रसङ्ग बताया गया कि 'असत्व निश्चय के बिना भो प्रसत्त्व कर ग्रहण मानने पर असदूप से सम्पूर्ण जगत् का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से ग्रहण हो जायेगा, पसः
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा वा समुच्चय-स्त ४ श्लो० २४
किसी भी वस्तु का सत्य से निश्चय न हो सकेगा ।' बौद्ध की दृष्टि से यह उचित नहीं हो सकता, क्योंकि बौजमत में समस्त भाव परमार्थ ष्टि से परस्पर में एक दूसरे के सहश नहीं होते । क्योंकि भाव क्रमिक होते हैं । और सादृश्य तभी हो सकता है जब क्रमोत्पन्न माव में अनुगत स्थायी कोई धर्म हो किन्तु वह सर्वक्षणिकरववावी बौद्ध के मत में सम्भव नहीं है । अतः उनके मतमें यही व्यवस्था करनी होगी कि भाव अपने वर्शन-निर्विकल्पक ग्रहण को उत्पन्न करते हैं। और यह दर्शन वासना के बल से भाव में सादृश्यग्राही सविकल्प प्रत्यक्ष को उत्पन्न करता है इसके अनुसार यह निष्कर्ष सर्वया सम्भव है कि भावात्मक पदार्थ वास्तविक दृष्टि से अनोलादि स्वभाव होते हैं । किन्तु वे वासना के सहयोग से नौलादि विषयक सविकल्पक बुद्धि को उत्पन्न करनेवाले दर्शन निविकल्पक ग्रहण के हेतु होते हैं । अतः प्रत्येक स्वलक्षण भाव निर्मक ही होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण वस्तु धर्मशून्य होने पर सर्व पद का अर्थ कर सकते हैं "निरवशेष' । तात्पर्य यह हुमा कि वस्तु निरवशेष-निर्धर्मक होने से उसके ग्रहण में कुछ भी शेष न रहा, सर्व गृहोत हो गया । यही प्राशय 'निश्चयः पुनमितग्रहसमारोपात्' इस अंश भी से स्पष्ट हो जाता है । इस व्याख्या में 'तत्त्वतो निश्चयः उन शब्दो के मध्य नजयानी प्रकार प्रश्लेष करना जरूरी नहीं है, अतः उस भाग में निश्चय शम्द का अर्थ है मितनिश्चय' अर्थात् मित यानी निर्विकल्पक के द्वारा गृहीत अर्थ का सविकल्पक निश्चय । पुनः से उसकी उपपत्ति सूचित की गई है और उसमें हेतु है मित्तग्रह का समारोप । मितग्रहसमारोप का अर्थ है वासना का नियत प्रबोध । यह प्रर्थ 'मितस्य निर्विकल्पेन गृहीतस्य ग्रहः निश्चयः यतः स मितग्रहः वासना अपरपर्याय: संस्कार , तस्य समारोप:--नियतप्रबोथ. इस प्युलात से नियत होता है। इस भाग से उक्त अतिप्रसन के सम्बन्ध में बौद्ध का यह समाधान प्राप्त होता है कि प्रसस्व का निश्चय न होने पर भी असत्त्व का ग्रहण मानने पर सम्पूर्ण विश्व के प्रसदप में ग्रहण का प्रतिप्रसङ्ग बताकर ओ जगत् के निश्चय की अनुपपत्ति बतायी गई है वह ठीक नहीं है, क्योंकि असद्रूप में वस्तु का निर्विकल्पक ग्रहण होने पर भी तसद्धर्म विषयक वासना के प्रबोध से सरवादि धर्म द्वारा विश्व का निश्चय उपपन्न हो सकता है। क्योंकि व्यवस्थित निश्चय वासना के प्रबोध का नियामक अनुभव ही होता है अतः उक्त दोष की प्रापत्ति नहीं हो सकेगी।
बौद्ध के इस समाधान को ध्वस्त करने के अभिप्राय से व्याख्याकार ने यह प्रश्न ऊठाया है कि जब विषय प्रत्यन्त असत् है तो उसमें विभिन्न प्रकार की वासना कैसे स्वीकारी जा सकती है ? यदि बौद्ध को और से उसका यह उत्तर दिया जाए कि-'लोक में दो प्रकार के विकल्प यानी विशिष्ट ज्ञान अनुमूत होते हैं, एक समनन्तरविकल्प प्रोर एक असमनन्तरविकल्प । समनन्तरविकरूप अर्थात् सदशविकल्प पूर्वक विकल्प याने व्यवहार दृष्टि से सत्यविकल्प । और असमनन्तर विकल्प सहश विकल्पापूर्वकविकल्प याने असद्विकल्प । इस विकल्प भेद की उपपत्ति के लिए ही वासनाभव मानना आवश्यक है । अतः विषय के अत्यन्त असत् होनेपर वासनाभेद की अनुपपत्ति रूप दोष नहीं हो सकता है।'-तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि वो प्रकार के जो लोकसिद्ध विकल्प बताये गये हैं उन विकल्पों के भेद का कोई प्रयोजन नहीं प्रतीत होता। यदि यह कहा जाए कि-'समनन्तर विकल्प का व्यबहार दृष्टि से अर्थप्रापक प्रवृत्ति के साथ संवाद होता है । और दूसरे में उसका संवाद नहीं होता है। इसलिए इस संवाव भोर असंवाद को नियमित करने के लिए उक्त विकल्पभेद मानना प्रावश्यक
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ ३७
अत्रैवोपचयमाहमूलम्-एकत्र निश्चयोऽन्यत्र निरंशानुभवावपि ।
न तथा पाटवाभावादित्यपूर्वमिदं तमः ॥२५॥ एकत्र-सव निश्चयः अनुभवपाटवात् । अन्यत्र च-असत्वे निरंशानुभवादपि पाटवाभावात् न तथा न निश्या, इनीदमपूर्व तमः महत्तममनानम् , 'निरंशे एकत्र पाटवम् अन्यत्र न' इति विभागाऽभावात् । 'सत्वनिश्चयजननी शक्तिरेव पाटवम् , अमचनिश्चय हेतुशक्त्यभावश्चाऽपाटवम् , न तु तत्र विषयावच्छेदोऽपि निविशते. येन निरंशत्वविरोधः स्यादि' ति चेत् ? न, तद्विषयत्वेनैव तच्छक्तिनियमात , अन्यथा नीलादिस्वभावेऽप्यनाश्वासप्रसङ्गात् । विसभागमततावसच निश्चयदर्शनेनाऽनुभवे तच्छक्तिकल्पनाऽऽवश्यकत्वाच्च, अन्यथा अतिप्रसगात सर्वाऽनुभवेऽपि मितनिश्रयः शक्तिसम्भवादिति दिक् ॥२६॥
है'-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसकी उपपत्ति विषय के सत्त्व असत्त्व को मानकर साक्षात् भी की जा सकती है । प्रत: उसके लिए उक्त प्रप्रमाणिक कुसष्टि की कल्पना निष्प्रयोजन है ॥२४॥
(पटुता और अपटुता का निरंश में असम्भव) २५ वीं कारिका में पूर्व कारिका के अर्थ का ही उपोद्वलन समर्थन किया गया है। प्राशय यह है कि भाव जब वस्तुगत्या निर्धर्मक-निरंश है, तो यह कहना कि "वस्तु में सत्त्व का निश्चय हो सकता है क्योंकि सत्त्वग्राहो वस्तु का अनुभव सत्वनिश्चय के अनन में पटु होता है किन्तु असत्त्व का निश्चय नहीं हो सकता क्योंकि यद्यपि उसका निरंश अनुभव- निविकल्पक ग्रहण-अनुभव होता है फिर भी उसमें प्रसत्त्व निश्चय उत्पन्न करने को पटुता नहीं होती। इसलिए असत्त्व का निश्चय नहीं होता ।"-यह बौद्धों का कथन एक विचित्र अन्धकार है, अत्यन्तविशाल प्रज्ञान ही है । क्योंकि भाव और उसका निर्विकल्पक अनुभव वोनों ही निरंश है । इसलिए उसमें सत्व निश्चय उत्पादन की पटुता और असत्त्व निश्चय उत्पादन को प्रपदता के विभाग को कल्पना नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाए कि-"सत्वनिश्चय को उत्पादिका शक्ति पढ़ता है और प्रसस्व निश्चय के उत्पादक शक्ति का अभाव ही अपटुता है और अपटुता की कुक्षि में विषयभेद का प्रवेश नहीं है । प्रतः निरंश भाव के निविकारक ग्रहण में उक्त पटुता और अपटुता के कारण निरंशत्व का विरोध नहीं हो सकता"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि भावके निरंश अनुमय में निश्चयजनिका शक्ति सत्त्वविषयकत्वावच्छेदेन और शक्ति का प्रभाव असत्त्यविषयकत्यावच्छेदेन मानना होगा । अतः पाटव-प्रपाटव के द्वारा निर्विकल्पक ग्रह के निरंशत्व का विरोध अनिवार्य है । तथा यदि ऐसा नहीं मानेगे तो वस्तु को नीलादिस्वभावता भी अविश्वसनीय हो जायेगी । तथा वस्तु को विसभाग-बिसदश सन्तान में असत्त्व का निश्चय देखा जाता है इसलिए अनुभव में प्रसत्त्वनिश्चय की उत्पादक शक्ति की कल्पना प्रावश्यक है। प्राशय यह है कि किसी वस्तु का सहशसन्तान जब तक अनुवर्तमान होता है तब तक तो उस वस्तु के असत्त्व का निश्चय नहीं हो सकता है । किन्तु जब उसका विसदृश विशिष्ट सन्तान प्रादुर्भूत होता है तो उसके
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८ ]
[शा. वा.समुच्चय स्त०-४ श्लोक २६-२७
प्रस्तुतमेव समर्थयतिमूलम्-स्वभावक्षणतो ह्य वं तुच्छता तन्निवृत्तितः ।
नासाचेकक्षणग्राहिज्ञानात् सम्यग्विभाव्यते ॥२६॥ स्वभावक्षणतः स्वसत्ताक्षणात् , ऊ=अग्रिमक्षणेषु, हि=निश्चितम् , तुच्छतान्तदसव. रूपा । कुतः ? इत्याह-तनिवृत्तितः भाषनिवृत्त्यभ्युपगमात् । यत एवम् , अत्तो नामो-तुम्छता, एकक्षणग्राहिज्ञानात् सम्यम् विभाव्यते-न्यायतो निश्चीयते, तदा तुच्छनाया असत्वेन तदननुभवादिति भावः ॥२६।। ततः किम् ? इत्याइ
मूलम्-तस्यां च नाऽगृहीतायां तत्तथेति विनिश्चयः।
न होन्द्रियमतीतादिग्राहकं सद्भिरिष्यते ॥२७|| तस्यां च द्वितीयादिक्षणाऽस्थितिरूपायां तुच्छतायाम् अग्रहीतायां सत्याम् , तद्-वस्तु तथा क्षणस्थितिघर्षकम् इति न विनिश्चयः, तच्वेन विनिश्चयस्य द्वितीयादिक्षणाऽस्थितिग्रहणसापेक्षत्वात् । न च तद्ग्रहोऽपीन्द्रियेणेव भविष्यति, इत्याह-न हीन्द्रियं-चक्षुरादि, अती
प्रसत्त्व का निश्चय होता है, जैसे बीजसन्तान से अइन्कुरसन्तान का प्रारम्भ होने पर बीज के प्रसत्त्व का निश्चय होता है । यदि बीज सन्तान के अन्त्यबीजक्षरसननुभव में बीज के प्रसत्त्वनिश्चय को उत्पन्न करने को शक्ति नहीं मानी जायेगी तो प्रकरसन्तान का प्रारम्भ होने पर बीज के प्रसत्त्व का निश्चय नहीं हो सकेगा । यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो पूरे अनुभव में गृहीत अर्थ के निश्चय को उत्पन्न करने की शक्ति का सम्मव होने से प्रतिप्रसङ्ग होगा। प्रर्थात् नील वस्तु के ग्रहण से पोत निश्चय की उत्पत्ति की प्रापत्ति होगी ॥२५॥
२६ वौं कारिका में असत्त्व का ग्रहण प्रसम्मय है इस बात का प्रतिपादन किया गया है। सुच्छता यानी भावना असत्य वह भाव के सत्ताक्षण में नहीं होता किन्तु उस क्षण के अग्रिम क्षण में भाव की निवृत्ति मानी जाती है। इसलिए भावक्षण को ग्रहण करने वाले ज्ञान से तुच्छता का निश्चय न्यायसङ्गत नहीं है, क्योंकि उस समय तुच्छता यानी भसत्त्व के न होने से उसका अनुभव ही नहीं होता है ॥२६॥
(तुच्छता के अग्रह से क्षरिपकत्व निश्चय का असंभव) २७ वों कारिका में तुच्छताग्रहण की सम्भाव्यता बतलाने का परिणाम बताया है। जैसे, द्वितीयादि क्षणो में भावको अविद्यमानता यानी तुच्छता का ग्रहण सम्मव नहीं होता, इसलिए भावमें क्षणिकत्व का निश्चय नहीं हो सकता, क्षणिकर के निश्चय के लिए द्वितीयावि क्षणमें असत्त्व का ज्ञान अपेक्षित होता है । यदि यह कहा जाय कि-"भावक्षण में भी उसके असत्त्व का इन्द्रिय से ही ग्रहण हो जायेगा या द्वितीयादि क्षण में भाव के प्रसस्त्र का इन्द्रिय से ग्रहण हो जायेगा"-तो यह कथन उचित नहीं हो सकता। क्योंकि चक्षुनावि इन्द्रिय अतीत और प्रनागत को ग्राहक नहीं होती-यही विद्वानों का सिद्धान्त है।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वा० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
तादिग्राहकम् - अतीत यत्परिच्छेदकम् सद्भिः पण्डितैः इष्यते । न च वर्तमानक्षणग्रहे पूर्वापरयोदर्शनादेवाभावग्रह इति शङ्कनीयम् दृश्याऽदर्शनस्यैवाभावग्राहकत्वात् ||२७||
[23
+
प्रस्तुतोपचयमाह
मूलम् - अन्तेऽपि दर्शनं नास्य कपालादिगतेः क्वचित् । भावी जावखेन प्रतीतितः ||२८||
5
अन्तेऽपि = विभागमन्तत्युत्पत्तावपि अस्य = घटाऽसच्यस्य क्वचिद् दर्शनं न । कुतः इत्याह- कपालादिगतेः = कपालादेरेव परिच्छेदात् । 'कपालाद्येव घटाभावः स्यात् इत्याहन तदेव - कपालाद्येव घटाभावः = घटाऽसत्वम् । कुतः ? इत्याह भावत्वेन प्रतीतितः = सच्चेनाऽनुभवात् न चास सवेनानुभूयते ||२८||
"
प्राय यह है कि माय की उत्पत्ति के क्षण में उसका प्रसस्व नहीं रह सकता इसलिए असत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता । द्वितीय क्षण में प्रसस्त रहता है किन्तु भाव नहीं रहता इसलिए मायके प्रसत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता । क्योंकि इन्द्रिय द्वारा 'विशिष्ट' ग्रहण करने के लिए 'विशेष्य-विशेषण' दोनों का वर्तमान होना श्रावश्यक है । इसमें यह शङ्का हो सकती है कि "वर्तमान क्षण के ग्रहण काल में उसके पूर्वक्षण का और उत्तर क्षण का दर्शन नहीं होता इसलिए इस प्रदर्शन से हो दोनों के प्रभाव का ग्रहण हो सकता है। अतः यह कहना व्यर्थ है कि उत्तरक्षण में भावी प्रसत्त्व का पूर्वक्षण में ग्रहण नहीं हो सकता" - किन्तु यह ठीक नहीं हैं, क्योंकि दृश्य का प्रदर्शन ही प्रभाव का ग्राहक होता है, वर्तमान क्षणके ग्रहण कालमें पूर्व और उत्तरक्षण दृश्य नहीं होते । श्रत एव उस कालमें उसके प्रदर्शन को दृश्य कर प्रदर्शन नहीं कहा जा सकता । क्योंकि कोई वस्तु दृश्य उसी समय मानी जाती है जब उसका दर्शन होता है अथवा उस वस्तु और उस वस्तु के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष ईन दोनों से प्रतिरिक्त उस वस्तु के दर्शन के सम्पूर्ण कारण विद्यमान होते हैं। जैसे घटशून्य भूतल में प्रालोक का सविधान और चक्षु का संयोग रहने पर घट दृश्य माना जाता है किन्तु श्य होते हुए भी उसका प्रदर्शन होता है । अत एव उस प्रदर्शन से उसके प्रभाव का ग्रहण होता है। वर्तमान क्षण के ग्रहण काल में पूर्वोत्तर क्षणका न तो दर्शन होता है न तो उनके दर्शन के इतर कारण तत्कालीन दृष्टा श्रादि विद्यमान होते हैं। अत एव उस समय उन्हें दृश्य नहीं कहा जा सकता । इस लिये उस समय का उन का प्रदर्शन दृश्य का प्रदर्शन न होने से, उनके प्रभाव का ग्राहक नहीं हो सकता ||२७||
(
सत्त्व का दर्शन नहीं होता)
२८ वीं कारिका में पूर्वोक्त अर्थ का ही समर्थन किया गया है। कारिका का श्रयं किसी भी भाव के, उसके अन्त में भी प्रर्थात् उसके विसदृश सन्तान का प्रारम्भ होने पर भी उसके प्रसत्य का दर्शन किसी को नहीं होता । क्योंकि उस समय भी असदृशसन्तानवर्ती किसी भाव का हो वर्शन होता है । जैसे घट का ध्वंस होने पर घट के विसदृश कपाल के सन्तान का प्रारम्भ होने पर कपालादि का ही दर्शन होता है, घटके प्रसस्य का नहीं। यदि यह कहा जाय कि 'उस समय दृश्यमान कपाल ही घटाभाव है । प्रत एव ओ कपाल का दर्शन होता है वह घटाभाव का ही दर्शन है।' तो यह ठीक नहीं हो
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
४० ]
[ शा० वा० समुच्चय स्त० ४ श्लोक २६
' मा भूतु कपालादिकमेव घटाऽसत्रम्, तथाऽपि कपालादिदर्शनेन घटाऽसच्वमनुमास्यते'
इत्यत्राह
मूलम् - न तद्गतेर्गनिस्तस्य प्रतिबन्धविवेकतः ।
तस्यैवाभवत्वे तु भावाऽविच्छेदतोऽन्वयः ||२९||
न तद्गतेः = कपालादिदर्शनात् तस्य घटाऽसस्वस्य गतिः - ज्ञानम् । कुतः ? इत्याह- प्रतिबन्ध विवेकतः कपालादिघटाभावयोर्व्याप्यभावात् । "तादात्म्य तदुत्पत्तिभ्यामेव हि व्याप्तिः" इति सुगतसुतस्य सम्प्रदायः न च कपाले घटाभावतादात्म्यम् तदुत्पत्तिर्वा, इति न व्याप्तिरिति निगवः ।
3
सकता क्योंकि कपालादि का दर्शन भावरूप में होता है। यदि वह घट का प्रभाव रूप होता तो उसका भाव रूप में प्रतुभव न हो कर प्रभाव रूप में ही अनुभव होता, क्योंकि प्रसत्त्व का सद्वप से अनुभव कभी किसी को नहीं होता ||२८||
( व्याप्ति दिना प्रसत्त्व के ज्ञान का प्रसंभव )
२६ व कारिका में कपालादि के दर्शनकाल में घट के श्रसत्त्वज्ञान का बौद्ध की प्रोर से उपपादन करके उसका निराकरण किया गया है ।
बौद्ध का आशय यह है कि कपालादि का मात्र रूप में दर्शन होने के कारण उसे घटाभाव रूप भले न माना जाय, किन्तु यह स्वीकार करने में तो कोई प्रापत्ति प्रतीत नहीं होती की कपालाकि सन्तान के समय घट का प्रभाव होता है और वह कपालादि के दर्शन से अनुमित होता है। इस कथन का श्राधारभूत अभिप्राय यह है कि घटदर्शन के बाद कपालादि सन्तान का आरम्भ होने पर भी यवि घटका अस्तित्व होता तो उसका दर्शन होना न्यायप्राप्त था । किन्तु उस समय उसका दर्शन नहीं होता, कपालादि का ही दर्शन होता है । अत: यह अनुमान बेरोकटोक किया जा सकता है कि उस समय घटका प्रभाव हो जाता है। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार हो सकता है "घटदर्शनोत्तरकपालादिवर्शनकाल: घटाभाववान्, घटदर्शनोत्तरश्य मानकपासादिमत्त्वात् घट दर्शन के अनन्तर जिस काल में कपालादि का वर्शन होता है वह काल घटशून्य है या घटाभाववान् है, क्योंकि दर्शन के उत्तर काल में दृश्यमान कपाल का श्राश्रय हैं" ।
वह घट
किन्तु यह कपालादि के वर्शन से घटके प्रभाव का श्रानुमानिक ज्ञान मानना ठीक नहीं है क्योंकि कपाल में घटाभाव के प्रतिबन्ध यानी व्याप्ति का विवेक श्रमाय है । श्राशय यह है कि बोद्ध सम्प्रदाय में तादात्म्य और तदुत्पत्ति से ही व्याप्ति की उपपत्ति होती हैं, जैसे 'एष वृक्ष, शिशपाया:' यह वृक्ष है क्योंकि सोसम है । जो सीसम होता है वह सब वृक्ष होता है । अर्थात् जिसमें तादात्म्य सम्बन्ध से सोसम होता है उसमें तादात्म्य सम्बन्ध से वृक्ष होता है । तदुत्पत्ति से व्याप्ति ग्रह का उदाहरण है। वह्नि और धूम | अर्थात् धूम वह्नि से उत्पन्न होता है इसलिए धूम में वह्नि की व्याप्ति होती हैं, कपाल में न तो घटाभाव का तादात्म्य है, क्योंकि उसकी भावरूपसे प्रतीति होती है और न उसकी घटाभाव से उत्पत्ति होती है। अतः कपाल से घटाभाव का अनुमान नहीं हो सकता ।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
[४१
'अस्तु तर्हि अनायत्या घटाभावतादात्म्यमेव कपालादो, अधिकरणानतिरिक्ताभावस्य शशविषाणप्रख्यत्वात् , एकस्यैवाऽखण्डतया प्रतीयमानस्य नाशस्य सांवृतिकत्वात्' इति पक्षाङ्गीकारे परस्याह-तस्यैव-कपालादेरेव, अभवनत्वे तु-घटाऽभवनत्वे तु, तुनाऽभ्युपगमः सूच्यते, 'भावाऽविच्छेदतोऽन्योत्पादनस्य नाशाऽव्यवहारेण कपालरूपधटनाशे घटस्य तादात्म्यसम्बन्धस्वीकारे कपालतया घटस्य परिणामेऽपि 'घट एव कपालीभृत' इत्यर्थप्रतीयमानया भावतोऽविच्छित्या, अन्ययः सिद्धः । घटाऽसत्त्वस्याऽखण्डस्य स्वीकारे तु 'शशविषाणम्' इत्यादाविध षष्ट्यर्थाऽपर्यालोचनात स्यादप्यनन्वय इति भावः ॥२६॥
(कपालमें घटाभावतादात्म्य मानने में क्षणिकत्वभंग) यदि यह कहा जाय कि 'दूसरा चारा न होने से कपालादि के साथ घटामाव का तादात्म्य मानना प्रावश्यक है। क्योंकि कपालादि काल में घटका दर्शन नहीं होता और घटाभाव का भी कपालाविमिन्न रूप में दर्शन नहीं होता, अत: घटका दर्शन न होने से उस समय घट के प्रभाव का होना प्राप्त होता है । और कपालादि से भिन्न घटाभाव का दर्शन न होने से उसको कपालादिरूपता भी प्राप्त होती है, क्योंकि अधिकरण से भिन्न प्रभाव शशसोङ्ग के समान प्रसत् है किन्तु अधिकरण से अभिप्त प्रभाष शशसौंग के समान असत् नहीं है। और जो एक प्रखण्ड नाश को प्रतोति मानी जाती है वह सांयतिक-काल्पनिक है।"
तो यह भी ठीक नहीं है। कारण, यदि कपालादि को हो घद का प्रभाव माना जायेगा तो माय का अविच्छेद प्राप्त होगा । क्योंकि उत्तर वस्तु की उत्पत्ति में पूर्व वस्तु के नाश का व्यवहार नहीं होता। इसलिए यदि कपाल में होनेवाला घटनाश कपालरूप है. तब कपालोत्पत्ति और घटनाश इन दोनों को एक वस्तु को उत्पत्ति और अन्य वस्तु के नाशरूप नहीं माना जा सकता किन्तु इन दोनों को एककर्तृक मानना होगा । फलत: दोनों के कर्ता में ऐक्य होनेसे कपाल और घर में ऐक्य होगा। और घटनाश को कपाल रूप मानने से घटनाश में घटका तादात्म्यसम्बन्ध स्वीकृत हो सकेगा। फलत: घटनाश का अर्थ होगा घटका कपाल रूपमें परिणाम । और इस स्थिति में 'घट ही कपाल हो जाता है। इस प्रकार घटभाव यानी घट के अस्तित्व का अविच्छेद प्राप्त होगा। अर्थात् जो घट के रूप में प्रतीत-इष्ट होता था वह कपाल बन गया-कपाल रूपमें एष्ट होने लगा। इस प्रकार घट और कपाल दोनों अबस्थामों में एक वस्तु का अन्धय-प्रवर्तन सिद्ध होगा जिससे भाव के क्षणिकत्व के सिद्धान्त का ध्वंस हो जायेगा।
हाँ. यदि धटासस्थ को अधिकरण से अतिरिक्त एक प्रखण्ड प्रमाव माना आय तो जसे तुच्छ रूप में प्रतीत होनेवाले विषाण के साथ शश का कोई सम्बन्ध उपपन्न नहीं होता, उसी प्रकार घटाऽसत्त्व के साथ मो घटका कोई सम्बन्ध न होने से घटाऽसत्त्व कालमें घटका मनन्वय हो सकता है। किन्तु यदि घटाऽसत्त्व कपालादि रूप होगा तब तो घटाऽसस्य काल में घटके अन्वय का उक्त रोति से परिहारनी सकेगा। फलतः प्रभाव के प्रधिकरणात्मक पक्ष में क्षणिकरवसिमान्त की हानि प्रनिबार्य होगी ॥२६॥
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२ ]
[ शा. बा० समुच्चन स्व० - ४ श्लोक-३०-३१
उपसंहरन्नाह
मूलम् - तस्मादवश्यमेष्टव्यं तदूर्ध्वं तुच्छमेव तत् ।
शेयं सज्ज्ञायते तदपरेणाऽपि युक्तिमत् ||३०|| तस्मात् उक्तयुक्तेः, तदूर्ध्वं क्षणस्थितिधर्मणः सच्वादुम् तद् = घटासच्यम्, तुच्छमेव= भावविलक्षणमेव, अवश्यमेष्टव्यम् = अङ्गीकर्तव्यम् | हि निश्चितम् एतद् असत्रम्, ज्ञेयं सद= ज्ञेयस्वभावं सत्, अपरेणाऽपि = अग्रिमज्ञानेनाऽपि ज्ञायते = परिच्छिद्यते, युक्तिमत् न्याय्य मेतत्, विपयसच्चे तज्ज्ञानसंभवात् तत्तुच्छत्वा तुच्छत्वयोः प्रामाण्याऽप्रामाण्ययोरेव प्रयोजकत्वात्, सन्मात्रविषयत्वरूपप्रामाण्याभावेऽपि भ्रमभिन्नत्वरूपस्य तस्याऽक्षयत्वाच्चेति
1
निगर्वः । तदेवमसत्त्वस्योत्पादादि व्यवस्थापितम्
अत्राऽनिष्टाऽपत्तिजिहीर्षयाह
मूलम् - नोत्पस्यादेस्तयोरैक्यं तुच्छेतरविशेषतः ।
निवृत्तिभेदतश्चैव वुद्धिभेदाच्च भाव्यताम् ||३१||
नोत्यादेः कारणात् तयोः = सच्चाऽसत्वयोः ऐक्यम् । कुतः ! इत्याह- तुच्छेतरत्वभेदात्, असचं हि तुच्छस्वभावं सत्यं चातुच्छस्वभावमिति । तथा, निवृत्तिभेदतइ चैव=
(घट का प्रसव भाव से विपरीत है )
३० वीं कारिका में प्रसत्त्व के विषय में अब तक के सम्पूर्ण विचारों का उपसंहार करते हुए उनका निष्कर्ष बताया गया है जो इस प्रकार है, उक्त युक्ति के अनुरोध से 'क्षणिक भाव के उत्तरकालमें जो उसका प्रसत्व होता है वह भावात्मक न होकर तुच्छ हो होता है' यह बात अवश्य स्वीकार करनी होगी और यह प्रसत्त्व ज्ञेय स्वभाव होगा । प्रत एव अग्रिम ज्ञानसे उसका निश्चय न्यायप्राप्त है । क्योंकि विषय के रहने पर यदि कोई बाधा न हो तब उसका ज्ञान होता ही है । विषय को तुच्छता और अतुच्छता केवल उसके ज्ञान में प्रामाण्य और प्रप्रामाण्य की प्रयोजक होती है । इस पर यह शङ्का करना कि- 'पूर्वभाव के उत्तरक्षण में प्रसत्त्व मानने पर भाव भी सत् नहीं रह जायगा इसलिए उस भाव का ज्ञान भी प्रमारा नहीं माना जायेगा। क्योंकि सन्मात्रविषयक ज्ञान ही प्रमाण होता है।' ठीक नहीं है। क्योंकि उत्तरक्षण में प्रसव से ग्रस्त होने वाले पूर्वभाव के ज्ञान में सन्मात्र विषयकत्वरूप प्रामाण्य भले न हो किन्तु भ्रम - भिन्नत्वरूप प्रामाण्य होने में कोई बाधा नहीं है। फलत: उपर्युक्त रीति से प्रसव के उत्पत्ति श्रादि की सिद्धि निर्विवाद रूपसे अपरिहार्य है ||३०||
( उत्पत्ति नाश के कारण सत्त्व असत्त्व में ऐक्य प्रसंग नहीं है)
३१ वीं कारिका में प्रसत्त्व की उत्पत्ति मानने पर अनिष्टापत्ति का उद्भावन कर के उसका परिहार किया गया है। कारिकामें प्रनिष्टापत्ति इस प्रकार से प्रस्तुत की गई है कि यदि असत्व का उत्पत्ति और बिनाश माना जायेगा तो उत्पत्तिविनाशशाली सत्य से उसका कोई भेव न रहेगा । क्योंकि दोनों ही उत्पत्तिविनाशशाली हैं तो दोनों के भेव का कोई आधार नहीं हो सकता ।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था०० सीमा-हिन्दीविरेषना ]
[४३
सत्त्वस्य निवृत्तिस्तुच्छा, असत्त्वस्य त्वतुच्छेति । तथा, बुद्धिभेदाच्च-सत्त्वे 'अस्ति' इत्येव घुद्भिः, असत्वे च 'नास्ति' इति विभाव्यताम्-विमृश्यताम् , विरुद्धधर्माध्यासस्यैव भेदकस्वात् , अन्यथा नीलपीतादीनामपि भारत्वेन भेदो न स्यादिति । एवं तावदभिहितः परपक्षेऽनिष्टप्रसङ्गः ॥३१॥
अर्थतेन यदपाकृतं तदुपन्यस्यन्नाह-- मूलम्-एतेनैतत्पतिक्षिप्तं यदुक्तं न्यायमानिना ।
न तत्र किञ्चिद् भवति न भवत्येव केवलम् ॥ ३२॥ एतेन-अनन्तरोदितेन प्रसङ्गदोषेण एतत् प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं न्यायमानिना=तर्कावलिप्तेन धर्मकीर्तिना । किं तदुक्तमिति सार्धकारिकाद्वयमाह-न तत्र वस्तुनि क्षणाचं किश्चिद् भवति वस्तुशब्दवाच्यम् । किं तर्हि तत् ? इत्याह-केवलं न भवत्येव-प्राक्क्षणे भवनशीलं तदेव न भवति, अन्यथा तन्नाशायोमादित्यर्थः ॥३२॥
ननु तद् घटाभवनं यदि घटस्वभावम् अनीदृशं का ? उभयथापि घटाप्रच्युत्तिा, घटबभावनाशकाले घटस्याऽपि सम्वात् , घटाऽस्वभावेन नाशेन घटस्वरूपाप्रच्युतेश्च' इत्यादिदोषोपनिपातः कथं वारणीयः १ इत्यत आह
इसका उत्तर कारिका में इस प्रकार दिया गया है कि सत्व-असत्य में उत्पत्ति और विनाश का साम्य होने पर भी उनमें ऐक्य नहीं हो सकता है । क्योंकि प्रसत्त्य तुच्छ है. सत्त्व अतुच्छ है । प्रतः तुमछाऽतुच्छ में ऐक्य सम्भावना नहीं हो सकती । उन दोनों को निवृत्ति में भेद है अर्थात् सत्त्व की निवृत्ति तुच्छ है और असत्य की नित्ति अतुम्छ है । उनको प्रतीतियों में भी भेद है जैसे, सत्त्व को 'प्रस्ति रूपमें प्रतीति होती है और असत्त्व को 'नास्ति' रूपमें प्रतीति होती है। तो इस प्रकार सत्व और असत्त्व में जब अनेक विरोधी धमों का समावेश है, तो उनमें अभेद को कल्पना नितान्त प्रयुक्त है। क्योंकि यदि विरुद्ध धर्माध्यास होने पर भी भेद न मान कर ऐक्य माना जायगा तो नोल पीतादि रूप में भी भावत्वरूपसे साम्य होने के कारण उनमें भी भेद न होकार ऐक्य हो जायेगा। इस प्रकार अब तक को युक्तियों से बौद्ध के सिद्धान्त में अनिष्टापत्ति का प्रदर्शन किया गया है ॥३१॥
(पंडितमानी धर्मकीति के मत का उपक्रम) ३२ वीं कारिका में उस बात को बताया गया है जो बौद्ध पक्ष में प्रनिष्टापत्ति के उद्धायन से फलित होती है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
अभी तक जिस अनिष्ट प्रसङ्ग का उद्भावन किया गया है उससे ताकिकता के दर्द से प्रवलिप्त न्यायवादो धर्मकोत्ति के कथन का निराकरण हो जाता है । धर्मकोत्ति का कथन (पूर्वपक्ष) ३२ वीं कारिका के उत्तराध और प्रप्रिम ३३-३४ वीं दो कारिका में प्रस्तुत है । प्रस्तुप्त कारिका के उत्तरार्ध का तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु का उसको उत्पत्ति क्षण के बाद ऐसा कुछ नहीं होता जिसे बस्तु
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४ ]
[ शा. वा. समुच्चय ० ४ श्लोक-३३
मूलम् -'भावेष विकल्पः स्याद्विधेर्वस्वनुरोधतः । न भावो भवतीत्युक्तमभावो भवतीत्यपि ||३३|| भावे हि वस्तुनो भवने, एषः तत्त्वाऽन्यस्त्रयोरनिष्टप्रसङ्गादिरूपः विकल्पः स्यात् । कुतः ? इत्याह-विधेः शब्दादिना विधिव्यवहारस्य वस्त्वनुरोधतः = वस्त्वालम्ब्यैव प्रवृत्तेः, अवस्तुनि तदभावात् ।
ननु यद्येवं कथं तर्हि 'शशविषाणमभावो भवति' इत्यादिर्व्यवहारः ९ इत्यत आह'अभावो भवति' इत्ययुक्ते 'भावो न भवति' इत्युक्तम् तस्य तत्रैव तात्पर्यात ; अन्यथा विधिव्यवहारविषयत्वे तत्र तुच्छतेव न स्यात् ।
1
ननु योग्याऽनुपलब्ध्या शशशृङ्गाभावग्रहात तंत्र कालसम्बन्धार्थक भवनविधानमविरुद्धम्, प्रतियोगि प्रतियोगिव्याप्येतरत्ववद् दोषेवरत्वस्याऽपि योग्यताशरीरे निवेशात्, अन्यथा हृदादी वहयादिश्रमकोपसच्चे नानुपलम्भः, तदसखे तु न योग्यता इति तत्र बहून्याकहा जा सके, किन्तु इतना हो कहा जा सकता है कि पूर्व क्षण में होनेवाली वस्तु उत्तरक्षरण में नहीं होती है। यदि इतना भी नहीं होगा तो उसका नाश नहीं होगा ॥३२॥
इस पर यह शङ्का हो सकती है कि पूर्वक्षण में विद्यमान घटका उत्तरक्षण में जो प्रभवन होता है उसको घटस्वभाव अथवा घटका अस्वभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि दोनों ही स्थिति में घटके द्वितीय क्षण में मी घट को प्रप्रच्युति यानी घटके श्रन्यय का प्रसंग होगा। क्योंकि घटाभवन को घटका स्वभाव मानने पर घटना कालमें भी घटका प्रस्तित्व मानना आवश्यक होगा, क्योंकि श्राश्रय के बिना स्वभाव का अस्तित्व नहीं माना जा सकता । और यदि घटाभवन घटका प्रस्वमाव माना जायेगा तो घटका नाश होने पर भी घटस्वरूप की निवृत्ति न होगी, क्योंकि किसी वस्तु के पूर्व स्वभाव की निवृत्ति उस वस्तु के ही उत्तरवर्ती विरोधी स्वभावान्तर से ही होती है ।
इस शङ्का में प्रयुक्त योषारोपण का उत्तर ३३ वीं कारिका में दिया गया है ।
[ विकल्प प्रयोग प्रवस्तु में नहीं हो सकता ]
घटके अभवन के विषय में जो यह विकल्प उठाया गया है कि- "वह घटस्वभाव होगा या घटस्वभाव से मित्र होगा" यह विकल्प उसके सम्बन्ध में नहीं उठाया जा सकता। क्योंकि शब्दादि द्वारा इस प्रकार का व्यवहार वस्तु अनुरोधी होता है । अर्थात् किसी वस्तु के हो सम्बन्ध में ऐसे व्यवहार की प्रवृत्ति होती है अवस्तु में नहीं होती । प्रभवन प्रभावात्मक होने से प्रवस्तु रूप हैं। प्रत एव उसके विषय में उक्त विकल्प का उत्पान प्रसम्मथ है ।
इस पर यदि कहा जाय कि "ऐसा मानने पर तो "शशविषाणं प्रभावो भवति ।" यह मी व्यवहार न हो सकेगा।" - तो यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि 'अभावो भवति प्रभाव होता है इस शब्द से भी 'भावो न भवति' भाव नहीं होता-इसी की पुनरुक्ति होती है। 'प्रभावो भवति' शभ्य का तात्पर्य 'मावो न भवति' इसी प्रर्थमें होता है, क्योंकि ऐसा न मानकर यदि शशविषाण को 'प्रभावो भवति' इस प्रकार विषिरूप व्यवहार का विषय माना जायेगा तो उसको तुच्छता ही समाप्त हो जायेगी ।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या०० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ ४५
द्यभावप्रत्यक्षमपि न स्यात् । न च प्रतियोग्यंशे भ्रमजनकदोषेतरत्वं निवेशनीयम्, हृदे वह्निआमदोषकाले वह्निविशिष्टहृदत्वाभावप्रत्यक्षापत्तेः तत्र तदनुपलम्भविघटकदोषेतरत्वनिवेशे च 'अत्र पीतशङ्खो नास्ति' इत्यादाचिव तत्र तद्वनाभ्रमजनकदोषाऽतिरिक्तस्य प्रतियोगिनि प्रतियोगितावच्छ देकवैशिष्टयांशे भ्रमजनकस्य दोषस्य सच्चेऽपि तत्र तदनुपलम्भस्यावाधात् ।
( धर्मको के विरुद्ध विस्तृत पूर्वपक्ष )
यदि बौद्ध प्रतिद्वन्द्वो की और से इस पर यह शङ्का की जाय कि ' योग्यानुपलब्धि से शशशृङ्गाभाव का ग्रहण होने से शशशृङ्ग का प्रभाव प्रामाणिक है। प्रत एव उसमें कालसम्बन्धरूप भवन का विधान मानने में कोई विरोध नहीं हो सकता ।
fa यह शङ्का की जाय कि - " शशशृङ्ग को अनुपलब्धि योग्यानुपलब्धि नहीं होगी। क्योंकि प्रतियोगी से और प्रतियोग से इतर वात्कारणकलाप को हो प्रतियोगी की योग्यता मानी जायेगी। अब शशशृङ्ग-प्रभाव के प्रतियोगी और प्रतियोगिव्याप्य इतर प्रतियोगी ग्राहक यावत्कारण के मध्य में शशशृङ्ग ग्राहक दोष भी प्राता है । अतः उस दोष के रहने पर हो योग्यता रह सकती है, किन्तु उस क्षण में दोष महिमा से शशशृङ्ग की ( भ्रमात्मक) उपलब्धि हो जाती है । अत एव शशशृङ्ग की अनुपलब्धि नहीं रह सकती, प्रत एव योग्यानुपलब्धि से शशशृङ्गप्रभाव का ग्रहण मानना सङ्गत नहीं हो सकता'
तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि योग्यता के शरीर में प्रतियोगी और प्रतियोगिव्याप्यइतरत्व के समान दोषेतरस्य का निवेश करना भी श्रावश्यक होता है । अतः शशशृङ्ग के ग्राहक दोष के प्रभाव में प्रतियोगी प्रतियोगीध्याप्य एवं दोष से इतर यावत् कारणसामग्रीस्वरूप योग्यता एवं शशशृङ्ग की अनुपलब्धि होने से शशशृङ्ग के प्रभाव का ग्रहण हो सकता है ।
यदि यह कहा जाय कि शशशृङ्ग-प्रभाव का ग्रहण होने में कोई प्रमाण न होने से शशशृङ्ग के ग्राहक दोष के प्रसत्त्व कालमें शशशृङ्ग ग्राहक योग्यता को सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है । अतः प्रनुपलम्भ के सहकारीभूत योग्यता को कुक्षि में दोबेतरत्व का निवेश अनावश्यक है । फलत: शशशृङ्ग के अनुपलम्म काल में प्रतियोगी और तब्याप्य से इतर प्रतियोगगिग्राहक यावत्कारण रूप योग्यता के न होने से शशशृङ्ग-प्रभाव का ग्रहण नहीं माना जा सकता"
तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि यदि योग्यता के शरीर में दोषेतरत्व का निवेश न किया जाएगा तो जलाशय में वह्नि के प्रभाव का प्रत्यक्ष न हो सकेगा, क्योंकि जलाशय में जब वह्निभ्रमजनकदोष रह गया उस समय में बह्नि का अनुपलम्भ नहीं होगा, और जब उक्त दोष नहीं रहेगा उस काल में ग्रहण की योग्यता नहीं रहेगी । फलतः योग्यता विशिष्टानुपलकिन के सम्भव न होनेसे जलाशय में बहुन्यभाव का प्रत्यक्ष न हो सकेगा ।
यदि इस प्रपति के परिहारार्थ योग्यता की कुक्षिमें प्रतियोगी अंशमें भ्रमजनक जो शेष ततिर मात्र का निवेश करे तो जलाशय में वह्निभ्रमजनक शेष के समय जलाशय में वह्निविशि
त्वामाथ के प्रत्यक्ष की भावसि होगी । क्योंकि हृदमें वह्निभ्रम का जनकदोष वह्निविशिष्टहृदयाभाव के प्रतियोगी-अंश में भ्रमजनक नहीं है। प्रत एव दोष के रहने पर मो प्रतियोगि-अंश में
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा०३० समुच्चय स्त०४-इनोक ३३
एतेन-*दुष्टोपलम्भसामग्री शशशृङ्गादियोग्यता । न तस्यां नोपलम्भोऽस्ति, नास्ति सानुपलम्भने न्या. कु. ३-३] ।" इत्युदयनोक्तमपास्तम् ।
न च पदधृत्याद्यभावात् तादृशशाब्दव्यवहाराऽसङ्गतिरिति वाच्यम् , पदवृत्याद्यमावेऽपि दोपविशेषमहिम्ना शब्दादपि तद्रोधसम्भवात् , वेदान्तवाक्याद् निदोपत्वमहिम्ना पदच्यादिकं विनैव वेदान्तिनो निगुणब्रह्मयोधवत् । भ्रमजमकदोष से इतर एवं प्रतियोगी-सदाचाप्य से इतर प्रतियोगिग्राहकसामनोरूप योग्यता और वह्नि विशिष्ट हुदत्व के अनुपलम्भ रहने से वह्निविशिष्टहृदत्वाभाव के प्रत्यक्ष को प्रापत्ति प्रनिधाय होगी । यदि इस दोषके भी परिहार के लिए जिस प्रधिकरण में जिस प्रतियोगीक प्रभाव का ग्रहण होता है उस अधिकरण में उस प्रतियोगी के अनुपलम्भ का विघटन करने वा से इतरत्व का निवेश करेंगे तब, जैसे शंख में पीतत्ववैशिष्टय के भ्रम का जनक दोष रहने पर और एतवदेशमें पोतशडभ्रम का जनक दोष न रहने पर एतदेश में पीतशः के अलपलम्भ के विघटक दोष से इतर एवं गणिोली-प्रतियोगिता प्रकार प्रतियोगी प्राशयावत् कारण कलापरूप योग्यता और पीतशङ्ख की अनुपलब्धि से एतद्देशमें पीत शङ्ख का अभाव ग्रहण होता है, उसी प्रकार शन में शशवृत्तित्वके भ्रम का जनक दोष रहने पर भी एतद्देश में शशशङ्ग के भ्रमका जनक दोष न रहने पर एतद्देश में शशशुङ्ग के अनुपलम्भ का विघटन करनेवाले दोषसे अतिरिक्त एवं प्रतियोगी और तचाप्यसे अतिरिक्त प्रतियोगी के ग्राहक यावत्कारण का सनिधान और शशशङ्गकी अनुपलब्धि होनेसे एतद्देश में शशशङ्ग के प्रभाव का ग्रहण हो सकता है । इस प्रकार प्रतियोगी को अनुपलब्धि के सहकारी रूपमें स्वीकरणीय प्रतियोगिग्राहकयोग्यता को कुक्षिमें दोषेतरत्व का निवेश होने से शङ्गमें शशवत्तित्व के भ्रामक दोष रहने परमी अधिकरणभूत प्रश्वादि में शशशङ्ग के भ्रमजनक बोष न रहने से प्रश्वादि में शशशश-प्रभाव के ग्रहण की जानका शशशङ्ग की अनुपलब्धि को योग्यता का सन्निधान प्राप्त होनेसे शशशङ्ग-प्रभाव का ग्रहण हो सकता है।
नियायिक जदयनमत का प्रतिक्षेप] अत: उदयनाचार्य का यह कथन भी कि-"शङ्गमें शशवृत्तित्व के ग्राहक दोष से घटित सामग्री ही शशशन की योग्यता है। अतः उस योग्यता के रहनेपर शशशङ्ग का उपलम्भ ही हो जानेसे उस समय शशशृङ्ग का अनुपलम्भ नहीं हो सकता है । और शशशङ्गके अनुपलम्भ काल में शशशृङ्ग का ग्राहक दोष न होने से योग्यता नहीं रहती। क्योंकि शाङ्गग्राहक योग्यता के गर्भ में शशशङ्ग ग्राहक
* शशशृङ्गानियोग्यता शशङ्गादिस्थ ले ऽनुपलब्धियोग्यता 'दुष्टा' दोषरिता. वपलम्मसामग्री शशशलोपलम्मस्य भ्रमत्वेन तज्जनकसामप्रथा दोषघटितत्वनियमान प्रतियोगिमाहपस्येवोक्तयुक्त्या योग्यतावनिर्वचनात् । 'तस्यां' सत्यां 'नोपलम्मः'उपळम्मामाष इति नास्ति । मनुषसम्मने अनुपलसंधी 'मा' पूर्वोक्ता योग्यतंय नास्तीत्यर्थः । तथा च यदा तासाममी सदा न प्रतियोग्युपलम्मामाव:, यदि तु न तादृशमामग्री तदा न निक्तयोग्यानुपलब्धिरिति न यथा शशशशाभावसिद्धि. तथा निरुक्तयोग्यशनुपलब्धिविरहादीश्वराभावोऽपि न सिध्यतीति मायः ।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ ४०
पदा कोष" अन्तत्यर्थेि ज्ञानं शब्दः करोति हि । अवाधातु प्रमामत्र स्वतः प्रामाण्यनिश्चलाम् ।।” [ खंडन खंडखाद्य १ - १] इति । न चैवं तदुपलम्भकसामग्र्यादिकल्पने गौरवम्, प्रामाणिकत्वात् । अन्यथा प्रातीतिक पदार्थमात्र विलयापत्तेरिति चेत् ?
न दोषेतरतदुपलम्भकहेतोरेवाभावात्, आलोक-मनस्कारादेर्भावस्यैवोपलम्भकत्वात् 1 दोष का सन्निवेश है । अत: योग्यानुपलम्भ से शशशृङ्ग के प्रभाव का ग्रहण प्रसम्भव है ।" यह कथन निर्मूल हो जाता है।
यदि यह कहा जाय कि -' घटादि का भवन तुच्छ होता है और तुच्छ में किसी पदकी शक्ति अथवा लक्षणारूप वृत्ति नहीं होती है । अतः उसके सम्बन्ध में शाब्द व्यवहार प्रसङ्गत है । तो यह कहना ठीक नहीं हो सकता है । क्योंकि, पदवृत्ति का प्रभाव होने पर भी दोषविशेष के प्रभाव से, शब्द से भी घटादि के श्रभवन का बोध हो सकता है जैसे निर्गुण में किसी भी पदका संकेतादि न होने पर भी निर्दोषत्व के बल से 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इत्यादि वेदान्त वाक्य से निर्गुहा का बोध होता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जैसे इन्द्रिय यद्यपि सन्निकृष्ट अर्थ का ही ग्रहण करती है फिर मोचक्षु द्वारा शङ्ख में प्रसन्निकृष्ट पीलेपन का ग्रह अपने में रहे हुए पीत्त दोषकी महिमा से [ सहयोग से ] होता है। एवं शुषितगत रजतसादृश्य रूप दोष के बलसे शुक्ति में प्रसत्रिकृष्ट रजतत्व का भी ग्रहण नेत्र से होता है उसी प्रकार पद, वृत्ति से उपस्याप्य अर्थ का ग्राहक होने पर मी वृत्ति के
योग्य अर्थ का भी ग्राहक हो सकता है यदि उसे किसी प्रतिरिक्त सहाय का सनिधान प्राप्त हो जाए। यही कारण है कि वेदान्तवाक्यघटक सत्यादि पद की निर्गुण ब्रह्म में वृत्ति सम्भव न होने पर भी ब्रह्मगत निर्दोषत्व की सहायता से उसका बोध होता है । तो जैसे वेदान्त वाक्य घटक सत्यादिपद से वृत्ति से अनुपस्थाप्य भी निर्गुण ब्रह्म का बोध होता है उसी प्रकार घटादि के श्रभवन में पदकी वृत्ति न होने पर भी उसके तुच्छत्व रूप दोष की सहायता से उसका बोधन हो सकता है। इस मान्यता का मूल अभिप्राय यह है कि जो पदार्थ किसी गुणधर्म प्रादि से विशिष्ट होता है उसका शब्द द्वारा बोध होने के लिए उस गुणधर्मं विशिष्ट वस्तु शब्द की वृत्ति प्रपेक्षित होती है। इसलिए एक गुणधर्म विशिष्ट के बोधक शब्द से श्रन्य गुणधर्म विशिष्ट पदार्थ कर बोध नहीं होता। किन्तु जिस पदार्थ में कोई मुख्य धर्म वैशिष्टय नहीं होता है, शब्द द्वारा उसके बोध के लिए उसमें शब्द की वृति अपेक्षित नहीं होती। इसलिए जैसे वेदान्त वाक्य से निर्गुणब्रह्म का बोध सम्भव होता है उसी प्रकार घटा भवन शब्द से घटादिके प्रभवदावि तुच्छ *पदार्थ का भी बोध हो सकता है ।
में
* इस पर यह शङ्का हो सकती है कि "बामवन जैसे तुच्छ पचार्थ है उसी प्रकार पटादि का भवन मी तुच्छ पदार्थ है और उसमें भी कोई गुणधर्म वैशिष्टय नहोने से उम्र के मान के लिए मी शब्द की वृत्ति अपेक्षित नहीं होगी। तब वृत्ति की अपेक्षा का अभाव तुल्य होने पर घटाऽभवन शब्द से जैसे घटाभवन तुच्छ का बोध होता है तो पहाभवन रूप तु का भी दोष हो जायेगा" - किन्तु यह संभव नहीं है क्योंकि टावन शब्द के साथ घटामन रूप तुच्छ के बोध का ही अन्वयव्यतिरेक देखने में आता है पटाभवन रूप तुच्छ के बोध का उसके साथ अन्वयव्यतिरिक देखने में नहीं भाता है इसलिए घटाभवन शब्द को केवल घटामधन रूप तुच्छ का ही बोधक मानना होगा ।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
शा. वा. समुच्चय स्तर ४-श्लो० ३३
शब्दस्थलेऽपि शशशृङ्गमुख्यविशेष्यके नास्तित्वप्रकारकशब्दविकल्प एव तत्तदानुपूर्व्याः साम
ग्रंकल्पनात् । नहि 'शशशृङ्ग नास्ति' इत्यत्र 'शशशृङ्गाभावोऽस्ति' इति कस्यचिद् व्यवहारः किन्तु 'शशशृङ्गमस्तित्वाभाववत्' इत्येव । न च व्यवहारप्रातिकूल्येन कल्पना युक्तिम. तीति ॥३३॥
(असत् पदार्थ का भी शब्द से ज्ञान) श्रीहर्षने भी इस बात का समर्थन किया है कि-शब्द अत्यन्त प्रसत् अर्थ का, जिसमें उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, उसका भी बोधक होता है । अतः निर्गुण ब्रह्म के साथ वेदान्तवाक्यघटक सत्याधि शब्द का कोई सम्बन्ध न होने पर भी शब्वों से उसका बोध हो सकता है। असदर्थ के बोधको अपेक्षा ब्रह्मविषयक बोध में यह अन्तर है कि जहां असदर्यका बोध अप्रमाणिक होता है वहां ब्राह्म विषयक बोध प्रमा होता है क्योंकि उस बोषका कोई बाधक नहीं है प्रत एवं उसका स्वतःप्रामाण्य अभंग रहता है।
इस प्रसङ्ग में यह शङ्का होती है कि-"शशशङ्ग प्रादि की योग्यता के शरीर में यदि दोषेतरत्व का निवेश किया जायेगा तो शशशज उपलम्भक दोष से भिन्न भिन्न शशशतके उपलम्भक हेतु को कल्पना करनी पडेगी अतः गौरव है"-किन्तु यह ठीक नहीं है । क्योंकि प्रामाणिक होनेसे यह गौरव दोष रूप नहीं है। यदि इस गौरव का स्वीकार नहीं किया जायेगा तो प्रातीतिक पदार्थों की प्रातीतिकता का उपपादन न हो सकेगा अर्थात् 'उनकी केवल प्रतीति ही होती है-अस्तित्व नहीं होता इस बात का उपपादन नहीं हो सकेगा, क्योंकि प्रातोतिकता के उपपादन के लिए उनके प्रभाव का ग्रहण प्रावश्यक है। यदि उसके प्रभाव का ग्रहण नहीं होगा, तो यह कहना कठिन होगा कि 'उसकी केवल प्रतीति ही होती है, अस्तित्व नहीं होता ।' और जब उसके प्रभाव का प्रहण मानना आवश्यक है तो उसके लिए प्रतियोगो को योग्यता माननी होगी । वह योग्यता वोष घटित मानी जायेगी तो प्रतियोगी का ही उपलम्भ होगा किन्तु अभाव का ग्रहण नहीं होगा। अतः दोष से इतर उसके उपलम्भक कारणों को ही योग्यता मानना होगा और यह तभी सम्मव हो सकता है जब दोष से अतिरिक्त भी उसके उपलम्भ का हेतु माना जाय । इस प्रकार प्रातोतिक पदार्थों के दोष से इतर भी उपलम्भहेतु प्रामाणिक होने से उक्त हेतु की कल्पना का गौरव दोष नहीं माना जा सकता।
[धमकीर्ति का प्रत्युत्तर ] इस सम्बन्ध में बौद्ध का यह कहना है कि-योग्यता के शरीर में दोषतरत्व का निवेश करके शशशङ्ग को अनुपलब्धि के काल में शशशङ्ग को योग्यता का उपपादन कर जो शशशङ्गाभाव के ग्रहण को उपपत्ति की गई है वह युक्तिसङ्गत नहीं है । क्योंकि दोष से मिन्न शशक्षका कोई उपलम्भक ही नहीं है। प्रालोक-ममस्कार प्राविको उसका उपलम्मक नहीं माना जा सकता. क्योंकि उसमें माष पदार्थ-सवस्तु को ही उपलम्भकता सिद्ध है । यदि यह कहा जाय कि-'शशशङ्ग नास्ति' इस शब्द से शशशङ्गामाव का ग्रहण हो सकेगा, क्योंकि प्रभाव के शाम्बयोधात्मक शानमें प्रतियोमी की योग्यता पपेक्षित नहीं होती तो यह मी ठोक नहीं हैं ।क्योंकि 'शशशङ्ग नास्ति' इस वाश्य की प्रानुचों में शरान मुख्य विशेष्यक अस्तित्वाभावप्रकारक शासबोधात्मक विकल्प प्रतीति की ही कारणता मानी जाती है। क्योंकि 'शशशङ्ग नास्ति' इस मामय से उत्पन्न बोष का 'शारागाभावोऽस्ति' इन
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
४]
[ शा. बा. समुच्चय-स्त०४-श्लो० ३४-३५
एवं समर्थिते स्वमते परः स्वयमेव प्रसङ्गदोष परिहरमाहमूलम्-एतेनाऽहेतुकत्वेऽपि ह्यभूत्वा नाशभावतः ।
सत्त्वाऽनाशित्वदोषस्य प्रत्याख्यातं प्रसञ्जनम् ||३४|| एतेन नाशस्य विधिव्यवहाराऽविषयत्वप्रतिपादनेन, नाशस्याऽहेतुकत्वेऽप्यङ्गीक्रियमाणे हि-निश्चितम् अभूत्वा-प्रथममभवनरूपेणोत्पद्य, नाशभावतः अनन्त भावरूपतया नाशोत्पत्तेः, सवामाशित्वदोषस्य अङ्कुरादिवत् सत्वोन्मज्जनरूपस्यानिष्टस्य, प्रसजनम् = आपादानम् , प्रत्याख्यातं निराकृतम् ।।३४|
एतद् धर्मकीर्तिनोक्तम् , तच्च सर्व ‘सतोऽसत्त्वे' ८ (का० १२) इत्यादिनेह दूषितमेव, तथापि 'यतेन' इत्यादि योजयन्नाहमृतम्-प्रतिक्षिप्तं च यत्सत्त्वानाशिवागोऽनिवारितम् ।
तुच्छरूपा तदाऽसत्ता भावाप्नोशितोदिता ।।३।।
शब्दों से व्यवहार नहीं होता किन्तु 'शशशृङ्ग अस्तित्वामायवत्' ऐसा ही व्यवहार होता है। और व्यवहार के प्रतिकूल कोई कल्पना युक्तिसङ्गत नहीं होती ॥३३॥
नष्ट भाव के उन्मज्जन को आपत्ति का प्रतिकार] ३४ वीं कारिका में यह बात बतायी गई है कि धर्मकोत्ति ने उक्त प्रकार से अपने मत का समर्थन कर के बौद्ध सिद्धान्त में प्रसक्त होने वाले दोष का स्वयं ही परिहार किया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
'नाश विधिव्यवहार का विषय नहीं हो सकता' इस तथ्य का प्रतिपादन कर देने से 'नाश आहेतुक होता है. इसलिए अपने प्रतियोगी के उत्पत्ति क्षण में ही उत्पन्न हो जाता है इस बौद्ध सिद्धान्त में जो प्रतिवादीयों द्वारा अनिष्टापादन होता है उसका निराकरण हो जाता है। प्राशय यह है किनाश को अहेतुक मानने पर प्रतिवादी द्वारा बौद्ध मतमें यह प्रनिष्टापादन किया जाता है कि पूर्वक्षण में उत्पन्न का द्वितीयक्षण में प्रभवन-असत्त्व उत्पन्न होगा और उसके अनन्तर भाव रूप नया उसका नाश उत्पन्न होगा। क्योंकि जो उत्पन्न होता है उसका नाश अवश्य होता है । फलतः पूर्वक्षण में उत्पन्न होने वाले भाव के नाश का अभाव हो जायगा जिससे उस भाव के उन्मज्जन पुनवंशन-पुनः अस्तित्व रूप अनिष्ट की आपत्ति होगी । पूर्वभाष के असत्त्व का नाश होनेपर उसका पुनरुन्मज्जन उसी प्रकार प्रसक्त होगा जैसे बीजका नाश होने पर अडकूर का उन्मजन होता है। किन्तु उक्त रीतिसे जब यह तथ्य स्फुट कर दिया गया कि नाश अर्थात् पूर्वक्षणमें होनेवाले भाव का द्वितीयक्षणमें असत्त्व तुच्छ होने से विधिम्यवहार का विषय नहीं है, तो फिर भावरूप में उसकी उत्पत्ति की कल्पना नहीं हो सकती ॥३४॥
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका-हिन्दीविवेचन ]
प्रतिक्षिप्तं चैतत् , यद्यस्मात् , सस्वानाशिस्वागः भावोन्मज्जनापराधः अनिवारितम् अतस्तदवस्थ एव । कथम् ? इत्याह-तुच्छरूपा=निःस्वभावात्मिका, तदा द्वितीयक्षणे असता. तस्या नाशिता निवृत्तिः, भावाप्से सत्तारूपप्रवेशात , उपिताप्राक प्रसञ्जिता ॥३५|| ननूक्तं 'अभावे विकल्पाभावाद् न प्रसङ्गः' इत्यत्राह
मूलम्-भावस्याभवनं यत्तदभावभवनं तु यत् ।
__तत्तथाधर्मके हयक्तविकल्पो न विरुध्यते ।।३६ । मावस्याभवनं यत्-तुच्छरूपं तत् तदेव अभावभवनम् , आर्थप्रत्ययाऽविशेषात् , 'घटो नास्ति' इत्यतो घटाऽस्तित्वाऽभावबोधवद् घटाऽभावेऽस्तित्वबोधस्याऽप्यानुभविकत्वात् , उभयथापि संशयाऽभावात् , तात्पर्यभेदेनोभयोपपत्तेश्च ।
(धर्मकीतिमत का प्रतिक्षेप प्रारम्भ) ३५ वीं कारिका में यह बताया गया है कि "धर्मकीति ने जो कुछ कहा है उस सबका 'सतोऽसत्त्वे' इस १२ वी कारिका में खण्डन कर दिया है। फिर भो ३४ वीं कारिका में पूर्वभाव के अप्सत्व को निवृत्ति होने पर पूर्वभाव का पुन: उन्मज्जन रूप अनिष्ट प्रसङ्ग के निराकरण की जो बात कही गई है उसकी उपपत्ति नहीं हो सकती ।" कारिका का अयं इस प्रकार है-सत्त्व के अनाशित्व का अर्थात पूर्वक्षणमें उत्पन्न भाव के द्वितीयक्षणमें होनेवाले नाश का अभाव अर्थात् तृतीयक्षण में भाव के पुनरुत्मज्जन का जो अनिष्टापादन बताया गया है, वह धर्मकीति द्वारा प्रदशित रीति से भी निवारित नहीं होता । अतः वह दोष यथापूर्व बना रहता है, क्योंकि पूर्वक्षणोत्पन्न माय का द्वितीयक्षणमें जो तुच्छ प्रसत्त्व उत्पन्न होता है, भावकी प्राप्ति-उत्पत्ति होने के कारण उसकी भी नाशिता अर्थात् निवृत्ति को आपत्ति उद्भरवित की गई है जिससे द्वितीय क्षण में विनष्ट पूर्वभाव का अग्रिम क्षणमें उन्मज्जन अपरिहार्य हो जाता है ।।३५॥
[प्रभाव में विकल्प के असंभव कथन का प्रतिकार 'प्रभाव के तुच्छ होने से उसमें उसके भवन-उत्पत्ति आदि का विकल्प सम्भव न होने के कारण उक्त अनिष्ट प्रसङ्ग नहीं हो सकता' इस प्रकार बौद्ध द्वारा स्मरण कराये गये पूर्वोक्त तर्फ का ३६ वीं कारिका में निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
माव का जो तुच्छ अभवन होता है यही प्रभाव का भवन है। क्योंकि 'मायो न मति' और प्रभावो भवति' इन दोनों वाक्यों से उत्पन्न होने वाले प्रर्थबोध में कोई भेद नहीं होता। जैसे 'घटो नास्ति' इस वाक्य से घट में प्रस्तिस्यामाव का बोध होता है उसी प्रकार घटाभाव में अस्तित्व का बोध भी उस वाक्य से अनुभव सिद्ध है । क्योंकि 'घटो नास्ति' इस वाक्य. जन्य बोध के बाद जैसे
प्रस्तित वा' इस संशय की निवतियोती है उसी प्रकार 'घटामावः अस्तिनवास संशय की भो नियत्ति होती है ।-घटो नास्ति' इस एक ही वाक्य से घटमें अस्तित्वाभाव के और घटाभाव में अस्तित्व के द्विविध बोध की उपपत्ति नहीं हो सकती-यह शङ्का नहीं की जा सकती क्योंकि तात्पर्य
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा. वा. समुच्चय स्त०-४ रक्षोक-३६
___ यत्त-भृतले घटो नास्तीत्यादौ सप्तम्या निरूपितत्वमर्थः, धातोराधेयत्वम् , तथा च भृतलनिरूपितवर्तमानाधेयत्वाश्रयत्वाभाघस्यैव घटादावन्वयः, तथैव सुय्-तिङोर्वचनैक्यनियमोपपत्तेः । यदि च 'गगनमस्ति' इत्यादी कालसम्बन्ध एच 'अस्' धात्वर्थः, तदा सप्तम्यर्थोऽवच्छिन्नत्वमस्त्यर्थे ऽन्वेति, 'घटे मेयत्वमस्ति' इत्यादौ तु मेयत्वनिष्ठकालसम्बन्धस्यानवच्छिन्नस्वेन बाधात् सप्तम्या वृत्तित्वमात्रमर्थ इति न दोषः । अन्यथा तु-भवनाद् निर्गते घटे 'भवने घटोऽस्ति' इति, भवनस्थे च घटे 'भवने घटो नास्ति' इति व्यवहारप्रामाण्यापत्तिः, भवनवृत्तिघटस्य भवनवृत्तिघटामावस्य च क्वचित् सत्वात् । न च 'जातो न सत्ता' इत्यत्रान्वयानुपपत्तिः, जातिसमवेतत्वस्याऽप्रसिद्धत्वात् , संबन्धान्तरेण जातिवृत्तित्त्वस्य च सत्तायां सत्चादिति पाच्यम् । एकार्थसमायादिभिनसम्बन्धेन वृत्तित्वे सप्तम्या निरूढलक्षणास्वीकारात्' इति केषाश्चिद् नैयायिकानां मतम-तदसत् , 'भृतले न घट:' इत्यादी द्विविधयोधस्येवानुभवमिद्धत्वात् , भवननिर्गते घटादो कश्चिद् घटादिपृथग्भृताधेयत्वपर्यायविगमेनानुपपत्यभावात , विशिष्टेऽस्तित्त्वान्वये विशेषणेऽपि तदन्वयात् , अन्यथा पाकरक्ततादशायाँ 'श्यामो घटोऽस्ति' इति धीप्रसङ्गात् । किञ्च, एवं 'वृक्षे न संयोगः' इति व्यवहारो न प्रमाणं स्यात् , संयोगस्य वृक्षवृत्तित्वाऽभावाऽभावात् , संयोगाभावस्य धृक्षवृत्तित्यान्वये तु नानुपपत्तिः, अवयव्य भेद देशवृतित्वं स्वादाय सथाविधव्यवहारप्रवृत्तेः, इति व्युत्पादित नयरहस्ये।
भेदसे दोनों की उपपत्ति हो सकती है। अर्थात् 'घटो नास्ति' इस वाक्य का घनिष्ठ अस्तित्वाभाव के बोध में तात्पर्य ज्ञान होने पर घर में अस्तित्वाभाव का बोष और घटाभाव निष्ठ प्रस्तित्व के बोध में तात्पर्य का ज्ञान रहने पर घटाभाव में प्रस्तिस्य का बोध भी हो सकता है।
[कुछ नयायिक अभिमत सप्तम्यर्थ निरूपिसत्व-पूर्वपक्ष] इस सम्बन्ध में नैयायिकों का यह कहना फि-'भूतले घटो नास्ति' इस वाक्य में सप्तमी का अर्थ है निरूपितत्व, उसका अन्वय होता है 'प्रस्' धात्वर्थ प्रादेयता में, और प्राधेयता का प्रत्यय होता है तिअर्थ प्राश्रयता में, उसी में तिङ के दूसरे प्रर्थ वर्समानत्व का अन्वय होता है, और प्रभाव का घटमें अन्वय होता है, इस प्रकार उक्त वाक्य से 'घटः भूतलनिरूपितवर्तमानाऽऽधेयताऽऽश्रयस्थवान्' यह बोध होता है । ऐसा मानने पर ही घट पदोत्तर सुप और प्रस् धातु के उत्तर तिङ् उमय के समानवचनकत्व के नियम की उपपत्ति होगी। क्योंकि यह नियम है कि जिस सुबन्तपद से उपस्थाप्य अर्थ में जिस तिङन्त उपस्थाप्य अर्थ का प्रन्यय होता है, उस सुप् और तिल में समानवचनकत्व का नियम होता है । यदि उक्त वाक्य से इस प्रकार का बोध न मानकर 'घटाभाषः भूतलनिरूपितवर्तमानायताश्रयतावान्' ऐसा बोध माना जायेगा तो 'मूतले घटो न सन्ति' इत्यादि वाक्यमें भी साधुरष की
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका-हिन्दी विवेचना !
मापत्ति होगी। क्योंकि घटपद और मस्ति पब में समानवचनकत्व का कोई नियामक न होगा। यदि 'गगनमस्ति' इस वाक्य में गगन प्रवृत्ति पदायें होने से प्रस् धातुका प्राचयत्व अर्थ न मानकर 'कालसम्बन्ध' रूप ही अर्थ माना जाय, तो भूतले घटो नास्ति' इस वाक्य में सप्तमी का अवच्छिन्नत्व अर्थ स्वीकार कर कालसम्बन्ध रूप अस् धात्वर्थ में इसका प्रन्वय होगा। 'घटे मेयत्वं अस्ति' इस वाक्य में तो सप्तमी का आधेयत्व ही अर्थ मानना उचित हो सकता है क्योंकि मेयत्व में कालसम्बन्ध व्याप्यवृत्ति होता है। अत एव उसमें अवच्छिन्नत्व बाधित हो जाता है । प्रवच्छिन्नत्व रुप सप्तम्पर्य का बाध होने पर ही सप्तमी का वृत्तित्व अर्थ मानना उचित होगा । जहां अवच्छिन्नत्वरूप प्रथं का बाध नहीं है वहां अवच्छिन्नत्वरूप अर्थ ही करना होगा । अन्यथा, सर्वत्र सप्तमी का वृत्तित्वार्थ मानकर यदि उसका प्रथमान्त अर्थ में अन्वय किया जायमा तो किसी भवन से घट बाहर हो जाने पर भी भवने घट: अस्ति' एवं पूर्व कालमें भवनमें अविद्यमान घर वर्तमान में भवनवता होने पर 'भवने घटो नास्ति' इस व्यवहार में प्रामाण्य की आपत्ति होगी क्योंकि घट में पूर्व वाक्य ले भवन यत्तित्व और कालसम्बन्धरूप अस्तित्व का बोध होता है और वह दोनों ही घटमें विद्यमान है। और दूसरे वाक्य में घटाभाव में भवनवत्तित्व और कालसम्बन्धका बोध होता है और वे दोनों भी घट में विद्यमान है।
यदि यह कहा जाय कि- ऐसा मानने पर 'जातो न सत्ता' इस वाक्य से अन्वय बोध न हो सकेगा। क्योंकि सत्तामें जातिसमवेतत्व का प्रभाव मानने पर अप्रसिद्ध होगी । क्योंकि समवेतत्व-समवायापच्छिन्नत्तिता जातिनिहायत नहीं होती और जातिनिरूपित वृत्तित्वसामान्याभाव का बोध मानने पर बाध होगा। कोंकि सत्तामें किसी न किसी सम्बन्ध से तो जातिनिरूपितत्व होता है । अत एव जातिनिरूपितत्वसामान्याभाव उसमें बाधित है ।-किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि उक्त वाक्य में जातिपदोत्तर सप्तमी विभक्ति की निरुतुलक्षणा स्वसमवायिसमवाय प्रादि सम्बन्ध से भिन्न जो सम्बन्ध तदवच्छिन्नवृत्तिता' रूप अर्थ में है । अत: स्वसमवायिसमवायादि सम्बन्ध मे भिन्न स्वरूपसम्बन्धावच्छिन्न जातिनिरूपितवृत्तिता घटाभावादि में प्रसिद्ध है । अतः सत्ता में उसके प्रभाव का बोध मानने से 'जातौ न सत्ता' इस वाक्य से भी अन्यय बोध की उपपत्ति हो सकती है।
(सप्तम्यर्थसम्बन्धी नयायिक मत प्रतिक्षेप) किन्तु विचार करने पर यायिक का यह मत ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि भूतले न घटः' इस वाक्य से 'घट: भूतलवृत्तित्वामाववान्' और घटाभावः भूतलनिरूपितत्तितावान्' इन दोनों प्रकार का बोध अनुभव सिद्ध है। - "उक्त वाक्य से दोनों प्रकार के बोध मानने पर-भवने घटोऽस्ति' इस बाबय से मोघट भरतनिरूपिताधेयत्व का बोध होनेसे उक्त वाक्य के प्रामाण्य की प्रापत्ति होगी। यह शङ्का नहीं की जा सकती। क्योंकि घटमें भूतल निरूपित प्राधेयता कश्चित् घटसे मिन्न होती है । और जब घट भवन से बाहर होता है तब घटका वह भूतलनिरूपिताधेयता रूप पर्याय नष्ट हो जाता है। प्रतः उक्त व्यवहार में अप्रामाण्य की अनुपपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि भूतलनिरूपितायताविशिष्ट घट में अस्तित्व का प्रन्यय करने पर भूतलानरूपिताधेयता का विलय हो जाने के कारण उसमें तत्काल में अस्तित्व बाधित है। विशिष्ट में अस्तित्व का अन्वय होने पर विशेषण में भी अन्बयमानना आवश्यक है, अन्यथा जिस समय घट पाक से रक्त हो जाता है उस समय भी 'श्यामो घटोऽस्ति' इस बुद्धि की आपत्ति होगी। क्योंकि घट में श्याम रूप भी रह चुका है और अस्तित्व उस कालमें भी है अत एव घटमें श्यामरूप और अस्तित्व के बोधका कोई बाधक नहीं है।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३ ]
[शा.वा. समुच्चय स्त. ४-श्लो०३६
अपि च 'जातों न सत्ता' इत्यत्रापि न सुष्टु समाधानम् , 'जानो समवायेन सत्ता न वा' इत्यादिप्रश्नाऽनिवृत्तेः।
अथात्र सप्तम्यथों निरूपितत्वं समवेतत्वं च, तथा च 'जातिनिरूपितत्वाभाववत्समवेतत्ववती सत्ता' इति बोधः, अन्यथा 'जातियटयोन सत्ता इत्यादी का गतिः ? सत्ताभावस्यो. भयत्वपर्याप्त्यधिकरणाऽवृत्तित्वात् , उभयत्वाधिकरणत्तिन्वान्वये च 'पृथिवी-तद्भिन्नयोर्न द्रव्य
(जाति में समवायसम्बन्ध से सत्ता का मंशय तदवस्थ) इस संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि 'भूतले न घट: इस वाक्य से प्रथमान्तार्थमुख्यविशेष्यक ही सोध माना जायगा तो 'वक्षे न संयोगः' इस वाक्य से भी संयोग में वक्षवृत्तित्व के अभाव का हो जो मानना पडेता पलत नह ..जय प्रापा हो जायेगा । क्योंकि संयोग में वृक्षवत्तित्व विद्यमान है और वृत्तित्व ध्यायत्ति होता है इसलिए संयोगमें वृक्षवृत्तित्वाभाव नहीं रहता । और, जब संयोगामाय में वृक्षवृत्तित्व का अन्वय मानेंगे तब 'वृक्षे न संयोगः' इस वाक्य में प्रामाण्य को अनुपपत्ति न होगी क्योंकि वृक्षरूप अवययी की अभिन्नता एवं संयोग और संयोगाभाव में वृक्ष के विभिन्न वेश को वृत्तिता को लेकर वृक्षे संयोगः' और 'वृक्षेन संयोगः' इन दोनों प्रामाणिक व्यवहारों को उपपत्ति हो सकती है । यह बात उपा० यशोविजयनिर्मित नयरहस्य नामक प्रन्थ में विशेष स्पष्ट की गई है।
यह भी द्रष्टव्य है कि 'जातो न सता' इस स्थल में जो नयायिक ने समाधान किया वह मी समोचीन नहीं है। क्योंकि उस वाक्य से उन्होंने सत्ता में एकार्थसमवायादि भिन्न सम्बन्धावच्छिन्न जातिवृत्तित्वाभाव का रोष माना । उस बोध से सत्तामें एकार्थसमवायाविभिन्न सम्बन्ध से जातिवृत्तित्व को शङ्का को अर्थात् एकार्थसमयायादिभिन्न सम्बन्ध से 'जाती सत्ता न' इस संशय की निवृत्ति हो सकती है किन्तु "जाती समवायेन सत्ता न वा'' इस सशंप की निवृत्ति न होगी, क्योंकि वह संशय समवायसम्बन्धावच्छिन्न पत्तितात्वरूपसे समवायसम्बन्धावच्छिन्नत्तित्वको विषय करता है। इमलिए इस संशय के प्रति समवश्यसम्बन्धावच्छिन्न वत्तितात्वाच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव का निश्चय ही प्रतिबन्धक हो सकता है न कि एकार्थसमवायादिभिन्नसम्बन्धायच्छिन्नवृत्तितात्वाविनाऽभाव का निश्चय । क्योंकि तद्वच्छिन्न प्रकारताक वृद्धि में तद्धर्मायन्टिन प्रतियोगिताकामावनिश्चय हो प्रतिबन्धक होता है । अतः "जातो न सत्ता'' इस मिश्य से "जाती समवायेन सत्ता न वा" इस संशय की निवृत्ति का उपपादन प्रशश्य होगा।
(सप्तमी का अर्थ निरूपितत्व और समवेतत्व-नव्यपरिष्कार) यदि नैयायिक को प्रोर से यह कहा जाए कि 'जातो न सत्ता इस वाक्यमें सप्तमी के यो प्रर्थ है, निरूपितत्व और समवेतश्व । इन दोनों में से निरूपितत्व का नअर्थप्रभाव के साथ अन्वय होता है
और प्रभाव का समवेतत्व के साथ अन्वय होता है तथा समवेतत्व का सत्ता में अन्यय होता है इस प्रकार उक्त वाक्य से 'जातिनिरूपितत्वाभायवत्समवेतत्यवती सत्ता ऐसा बोष होता है। इस बोध के होने में कोई बाधा नहीं हैं क्योंकि जातिनिरूपितत्वाभाववत् त्यसमवेतत्यादि सत्ता में है। यदि यह व्यवस्था न मान कर सत्ताभावमें हो जातिनिरूपितत्व का प्रत्यय माना जायेगा तो 'जाति घट्यो सता' इस स्थल में शाब्दबोध को उपपत्ति न हो सकेगी। क्योंकि सत्ता में घरवृत्तित्व रहने के कारण जाति
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
या का टीका और हिन्दी विवैधना ]
त्वम्' इत्यस्याप्यापत्तेः । न चैवं 'संयोगेन भवने न घटः' इति स्यात् , भवनावृत्तिप्राङ्गणादिसंयोगवैशिष्टयस्य घटे सन्चादिति वाच्यम् , घटान्वयिसंयोगत्वावकछेदेन भवनाऽवृत्तित्वस्या. न्वय एष तथा व्यवहारात । प्रकारतया तथाभानाऽसंभवेऽपि तदवच्छिन्नसंयोगस्य संसर्गमदिया भानात् । तथैव साकाङ्क्षस्वात, 'जाती समायन न गगनम्' इत्यादौ च ना उभयत्र सम्बन्धात जातिवृनित्वाभाववत्समवायवैशिष्टयाभावबद् गगनमित्यर्थः इत्यस्मन्मतपरिष्कार इति चेत् ?
घटोमयवृत्तित्वामात्र अर्थात 'जातिघटोभयत्व' का पर्याप्तिसम्बन्ध से अधिकरणभूत जाति घटीभयनिरूपितवत्तित्व में हो रहता है । यदि इस दोष के निवारण के लिए उक्त वाक्य से सत्ताभावमें जालिघटोमषत्वपर्याप्त्यधिकरण के प्रवृत्तित्व का बोध माना जायेगा तो जाघिटोभयत्व' का अधिकरण जातिनिरूपितत्तित्व सत्तामाव में रहने से उक्त वाक्य स्थल में प्रन्वय बोध को उपपत्ति सम्भव होने पर भी 'पृथ्वीतद्भिन्नयोन द्रव्यत्वम्' इस वाक्य में प्रामाण्य की प्रापत्ति होगी क्योंकि
विनोभयत्व का प्रधिकरण गुणादि से निरूपित वत्तित्व द्रव्यत्वाभाव में रहता है। प्रतः द्रव्य स्वाभाव में पृथ्वीतद्भिनोभयत्राधिकरण निरूपित वृत्तित्व बोष के यथार्थ होने से उक्त वाक्य में प्रामाण्य की उपपत्ति हो सकती है । यदि यह शङ्का को जाय कि-"इस प्रकार की व्यवस्था मानों पर भवनस्थ घट में 'संयोगेन भवने न घट:' इस प्रयोग में प्रामाण्यापत्ति होगी क्योंकि उक्त व्यवस्था के अनुसार इस वाक्य से भवनाऽवृत्तिसंयोगवैशिष्टयवान् घटः' यही बोध होगा, और यह बोध प्रमा है। क्योंकि भवनमें प्रवृत्तिघटप्राङ्गण का संयोग घट के प्राङ्गणस्थ होने के समय घट में रहता है । प्रत एवं इस बोध के किसी भो अश में अयथार्थ न होने से इस बोध के जनक 'संयोगेन भयने न घट:' इस वाक्य के प्रामाण्य में कोई बाधा नहीं हो सकती"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि घटान्वयिसंयोगत्वावच्छेदेन भवनाऽसत्तित्व का अन्वय होने पर ही संयोगेन भवने म घटः' यह व्यवहार मान्य है। प्रत: घटान्यमी संयोग परिधि में प्राने वाले घट-भवन का संयोग भवनाऽवृत्ति न होने से घटान्य यिसंयोगत्वावच्छेवेन भवनावत्तित्व का अन्वय सम्भव न होने के कारण उक्त व्यवहार में प्रामाण्यापत्ति नहीं हो सकती। इस मान्यता पर यह शा नहीं की जा सकती कि उक्त वाक्य में किसी मी शब्द से घटान्वयी संयोगत्व उपस्थित नहीं है, प्रत एव भवनाऽवृत्तिस्वरूप प्रकार में घटाऽन्वयिसंयोगत्वध्यापकत्वस्वरूप घटान्वयिसंयोगत्वावच्छिमत्व का भान नहीं हो सकता, क्योंकि उक्त वाक्य अन्य बोध में संयोगमें भवनायत्तित्व का अन्वय घटान्वयिसयोगत्व व्यापक भवनाऽयत्तित्व प्रतियोगिक स्वरूप सम्बन्ध से मानने में कोई प्रापति नहीं हो सकतो, क्योकि सम्बन्ध को क्षि में घराहिसंयोगत्वध्यापकत्व का संसर्गमर्यादा से भान मानने में उसको अनुपस्थिति बाधक नहीं हो सकती, कारण यह है कि संसर्ग अथवा संसर्गघटक पदार्थ के भान में संसर्ग और संसर्गघटक पदार्थ की उपस्थिति अपेक्षित नहीं होती । संयोगेन भवने न घर:' इस वाक्य को घटान्वयिसंयोगत्वावध्छेवेन भवनाऽवृतित्व के अन्वय बोध में साकांक्ष मानने से उक्त वाक्य से ऐसे बोध के होने में कोई बाधा नहीं हो सकती।
उक्त प्रकार की व्यवस्था स्वीकार करने पर 'जातौ समबामेन न गमनम्' इस वाक्य से अन्य बोष को अनुपपत्ति की प्राशङ्का नहीं की जा सकती, क्योंकि न का 'जाती' और 'समवायेन' दोनों
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५ ]
[ शा.पा. समुच्चय स्त०५-श्लो० २४
--
न, नत्र उभयत्र संबन्धेन गच्छन्यपि चैत्रे 'न गच्छति' इति प्रयोगयोग्यतापादनस्य तात्पर्यसत्त्वे इष्टापत्त्या निराससंभवेऽपि 'जाती समवायेन न गगनजाती' इत्यस्यानुपपतेः, गगन जात्युभयत्वावच्छेदेन जातिवृत्तित्वाभाववत्समरायवैशिष्ट्याभावाभावात् ; द्वित्वसामानाधिकरण्येन तद्वोधे च 'घटे सत्ता तद्धिन्नजाती न स्तः' इत्यस्यापि प्रसङ्गात् । एवं च 'हृद-पक्तयोर्न वह्निः' 'शिखरविशिष्टे पर्वते न वह्निः' इत्यादि प्रतीत्या व्यासज्यवृत्तिविशिष्टधर्मावांच्छन्नाधिकरणताकाभावाभ्युपगमेन घटवत्यपि 'घटपटो न स्तः' इत्यस्य 'गुणे न गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्ता' इत्यस्य चोपपादनेऽपि न निर्वाह इति दिक । वस्तुतः श्रुतज्ञानस्थलीयक्षयोपशमपाटवाद समनियतपर्यायाणामेकतरभानेऽन्यतरभानमप्यावश्यकम् , इति सिद्धं भावाऽभवनबानेशानदवार ६
-
के साथ सम्बन्ध मान कर जातिवृत्तित्वाभाववत् समवायवैशिष्ट्याभाव का गगन में बोध माना जा सकता है । अत: नंयायिक का यह मत ठीक ही है कि सप्तम्यन्त पद एवं नञ् पर घटित वाक्य से प्रथमान्त पवार्थ में सप्तम्यन्त पदार्थ निरूपित वत्तित्यामाद का ही बोध होता है न कि प्रथमान्तपदार्थ के अभाव में सप्तम्यन्त पदार्थ निरूपित वृत्तिता का"।
[नव्य मत में नवीन अनुपपत्तियां] किन्तु व्याख्याकार के कथनानुसार यह नैयायिक मत प्रसङ्गत प्रतीत होता है । क्योंकि शिस समय चैत्र गमन कर रहा है उस समय 'चेत्रौ न गच्छति' इस प्रयोग की मापत्ति हो सकती है । क्योंकि नजथं का दो बार भान मानने पर चत्र में गमनाननुकूल कृति प्रभाव के बोध के तात्पर्य से उक्त वाक्य का प्रयोग सर्वथा सम्भव है । क्योंकि जिस समय चैत्र केवल गमन करता है और कोई कार्यान्तर नहीं करता उस समय उसमें गमनाननुकुल कृति का प्रभाव अक्षुण्ण होता है। यदि यह कहा जाए-उक्त प्रकार के बोध में वक्ता का तात्पर्य रहने पर गमनकर्ता चैत्र में चित्रो न गमछति' इस प्रयोग को सम्भावना इष्ट है अतः इस प्रकार को प्रापत्ति का उद्भावन उचित नहीं है, तो भी इस पक्षका समर्थन नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर "जातौ समवायेन न गगनजाती" इस प्रयाग को अनुपपत्ति होगी । क्योंकि जाति में जातिनिरूपितत्वाभावयत्समवाय का वैशिष्टय रहने से गगन-जाति उभय में तादृशोमयत्वावच्छेवेन जातिनिरूपितत्वाभाववत् समवायवैशिष्टचामाय नहीं रहता। और यदि इस वाक्य को उपपत्ति के लिए गगन-जाति उमय में द्वित्वसामानाधिकरण्येन उक्त वैशष्टयामाव माना जायेगा तो घटे 'सत्ताद्भिन्नजाती न स्तः' इस प्रयोग को प्रापत्ति होगी। क्योंकि ससा-तद्भिनजाति गत उभयत्व के आश्रय पटत्यादि जाति में घटसमवेतत्व का प्रभाव रहता है। प्रतः उक्त बोध के यथार्थ होनेसे उक्त बाक्य के प्रामाण्य की प्रापत्ति होगी। जब कि सत्ता और सत्ताभिन्न घटत्वादि जाति में घटसमवेतत्व के रहने से उक्त वाक्य का प्रामाण्य इष्ट नहीं है। केवल घदाधिकरण देश में अत्र 'घटपटौं न स्त: यह प्रयोग होता है एवं गुणे न गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्ता' यह भी प्रयोग होता है। किन्तु इसकी उपपत्ति भी 'घटपटोभयस्वावच्छेवेन एतद्देशवृत्तित्वाभाष' एवं
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
| स्या० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ ५६
ननु न भावाऽभवनमेवाभाव भवनं यत्र कदापि न घटस्तत्र तदभवनेऽपि तदभावाSHवनादिति चेत् ? दर्वीकरवदनादयममृतोद्वारः येन स्वयमेव तुच्छत्वेऽप्यनुभवेन गले हीतो ऽत्यन्ताभावाद् नाशं विशेषयसि । तदिदमाह-यद् - यस्मादेवम्, तत् = तस्मात्, तथाधर्मके= ज्ञेयत्वादिस्वभावे, तस्मिन् अभवनं हि निश्चिनम्, उक्त विकल्पः तच्चाऽन्यत्वलक्षणः
1
गुणकर्मायित्व और सत्ता उभयत्वावच्छेदेन गुणवमिवाभाव का होगा नहीं की जा सकती । क्योंकि घट में घटवद्देश निरूपितवृत्तित्व होने से एतद्देशवृत्तित्वाभाव में घटपटोभयत्वावच्छेद्यत्व एवं सत्ता में गुणवृत्तित्व होने से गुणकर्मान्यत्व और सत्ता उभयत्वावच्छेदेन अथवा सत्तात्वावच्छेदेन गुणवृत्तित्वाभाव नहीं रहता ।
यद्यपि हृद पर्वतोनं वह्निः इस बोध के एवं शिखर विशिष्टे पर्यंते न वह्नि इस बोध के प्रामाण्य के सर्व सम्मत होने से प्रतियोगों के अधिकरण में भी व्यासज्यवृत्तिधर्मावच्छ्रिाधिकरणताकाभाव और विशिष्टधर्मावच्छ्रिन्नाधिकरणताकाभाव माना जाता है. अतः घटवाले देश में घटपटी न स्त:' इस वाक्य की और 'गुणे न गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्ता' इस वाक्य की उपपत्ति की जा सकती है तथापि 'संयोगेन भवने न घट:' इस वाक्य के प्रामाण्य को आपत्ति का परिहार करने के लिए 'घटावपि संयोगत्वा वच्छेदेन भवनावृत्तित्व' और 'जातौ समवायेन न गगनम्' इस वाक्य के प्रामाण्य की उपपत्ति के लिए नत्रर्थ का द्विधा मान मानने पर जो 'जातौ समवायेन न गगनजाती' इस वाक्य के प्रामाण्य की अनुपपत्ति, अथवा 'घंटे सत्ता तद्भिन्नजाति न स्तः इस वाक्य के प्रामाण्य की प्रापति का उद्भावन किया गया है उसका परिहार नहीं हो सकता। इसलिए भूतले न घट:' इत्यादि वाक्य से 'भूतलवृत्तित्वाभाववान् घट' और 'घटाभावः भूतलवृत्तितावान्' इस प्रकार द्विविध बोध मानना ही उचित है। इस प्रकार 'भावो न भवति' इस वाक्य से 'प्रभावो भवति' इस बोध का जो सम्भव बताया गया है वह सर्वथा उचित है।
सच बात तो यह है कि श्रुतज्ञान के प्रयोजक क्षयोपशम को पटुता से समनियत पर्यायों में एक का मान होने पर अन्य का भान होना भी आवश्यक है | श्रतः भाव के प्रभवन का भान होने पर प्रभाव के भवन का भान अनिवार्य है । क्योंकि भावका प्रभवन और प्रभाव का भवन ये दोनों ही पूर्वक्षणवर्ती भाव के समान पर्याय है ।
( भाव का अभवन और प्रभावभवन के ऐक्य में शंका )
बौद्ध की ओर से यदि कहा जाय कि " माव का प्रभवन हो प्रभाव का भवन नहीं हो सकता क्योंकि जहां कभी भी घट उत्पन्न नहीं हुआ वहाँ घटका प्रभवन तो होता है । किन्तु वहां घटाभाव का मन नहीं होता है" तो यह कथन सर्प की जिह्वा से प्रभूत के उद्गार निकलने समान है। क्योंकि बौद्ध स्वयं नाश को तुच्छ मानने पर भी अत्यन्तानाव और नाश के विलक्षण अनुभव से गला पकड जाने के कारण नाश को अत्यन्ताभाव से भिन्न बता रहा है। इसी बातको प्रस्तुत १६ वीं कारिका के उत्तरार्ध में निष्कर्ष के साथ प्रस्तुत किया गया है
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था. क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[५७
न विरुष्यते, तुम्छतयाऽत्यन्ताऽभावतुल्यत्वेऽपि कादाचित्कत्वेन भारतुल्यत्वात् ; अन्यथा शशविपाणादेखि नित्यमभारोपरागेणेव मानं स्यात् , तथा घटाऽसचं नास्ति' इत्युल्लेखः स्यात् । अथास्तित्वं यदि सत्ता तदा तथोल्लेखे इष्टापत्तिरेव, यदि च कालसबन्धस्तत् तदा बाधा न तथोन्लेख इति चेत् तहि अवमिछम्मकालसम्बन्धात् तदेवोत्पादादिमच्चमायातम् । इति घट्टकुदया प्रभातम् । 'काल्पनिक एवायं नाशः, काल्पनिकमेव चास्योत्पादादिक्रमिति न तेन प्रसङ्ग इति पेत् ? तर्हि सट्पटित क्षणिकत्वमपि काल्पनिकमेव इति गतं सौंगतस्य सर्वस्वम् ।।३६॥ दोषान्तरमाहमूलम-तदेव न भवत्येत बिमडमिष लक्ष्यते । .
नदेव' वस्तुसंस्पर्शाद् भवनप्रतिषेधतः ॥३७॥
भाव का भभकी हो प्रभाष का भवन है इसलिए अभवन निश्चितरूपसे तथाधर्मफ यानीजेयत्वस्वभाव है। प्रत एव उसमें उक्त विकल्प अर्थात् 'वह घटका स्वभाव है या अस्वभाव है इस प्रकार का विकल्प प्रसङ्गत नहीं हो सकता। क्योंकि तुच्छ होने के कारण प्रत्यन्तामाव के तुल्य होने पर भी कादाचित्क होने से मात्र के तुल्य भी होता है । यदि वह प्रस्थन्ताभाव के हो तुल्य होता तो शशविषारणादि के समान सवैख प्रभाव द्वारा ही उसका बोध होता, फलतः 'घटाऽसत्त्वं नास्ति' इस रूप में हो घटासस्व की प्रतीति का उल्लेख होता।
यदि कहा जाय-'इस सन्दर्भ में यदि अस्तित्व सत्तारूप हो तो 'घटाऽसत्त्वं नास्ति' इस उल्लेख की नापत्ति इष्ट ही है क्योंकि घटाऽसत्त्व में सत्ता का प्रभाव नहीं होता और यदि अस्तित्व कालसम्बन्धरूप हो तब तुच्छ घटाऽसस्व में कालसम्बन्धाभाष का बाघ होने से 'घटाऽसत्त्वं नास्ति' इस उल्लेख का प्रसङ्ग ही नहीं हो सकता है। तो बौद्ध कर. यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रयछिन्न काल का सम्बन्ध मानने से उत्पत्ति ही प्राप्त हो जाती है अर्थात् प्रसत्त्व के साथ कालविशेष का सम्बन्ध मानने से उसको उत्पत्ति प्रावि का ही प्रसन हो जाता है। प्रतः इस प्रकार का विचार नदी के घाट उपर नदी पार उतरने वाले के पास से कर-उद्ग्रहरण के लिए बनी हुई कुटो में प्रभात होने के समान हो जाता है । यदि यह कहा जाय कि-"नाश काल्पनिक है और उत्पत्ति प्रादि भी काल्पनिक ही है। प्रत एवं वास्तव उत्पत्ति और नाश का प्रसङ्ग नहीं हो सकता. एवं च घटाऽसत्त्व के काल्पनिक नाश से घट के पुनरुन्मज्जन को प्रापत्ति नहीं हो सकती"- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि उत्पत्ति और नाश कल्पित ही होगा तो उससे घटित क्षणिकस्व भी काल्पनिक हो होगा। फलतः, ऐसा मानने पर 'भाव मात्र क्षणिक होता है' सौगत का यह सिद्धान्तसर्वस्व ही समाप्त हो जाता है ॥३६॥
[ बौद्ध पक्ष में विरोध का उद्भावन ] इस (३७) कारिकामें, ३३ वीं कारिका में प्रभावो भवति' इस कथन का 'मानो न भवति' इस कथन में बताये गये पर्यवसान में, विरोध दोष का उद्धावन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
.
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८ ]
[शा. वा.समुच्चय स्त:-४ श्लोक ३७
'तदेव न भवति' एतत् यत् परेणोक्तम् तद् विरुद्धमिव लक्ष्यतेच्याइतमिव दृश्यते कथम् ? इत्याह-'तदेव' इत्यनेन वस्तुसंस्पर्शातू अविकृतवस्तुपरामत भवनपतिवेधतः भवननिषेधात् 'भवनमभवनम्' इत्यापत्तेः, एवं च निषेधमुखेनैव विधिसमावेशात तदा सत एबाऽसायं व्यवस्थापितवान् देवानाप्रियः । "तद् यदि तदाऽसत स्यात् प्रागपि तथा स्यादिति तत्पदपरामृष्ट सांवृतमेव निषिध्यत' इति चेत् ? तर्हि तद्वस्तुनस्तदवस्थत्वाद् वृथैव क्षणिकता प्रसाधनप्रयासः । स्यादेतत्-घटनाशस्य क्षणिकन्वेऽपि न प्रतियोग्युन्मज्जनापत्तिः, तन्नाशनाशादिपरम्परानधिकरणतत्प्रागभावानधिकरणक्षणस्यैव तदधिकरणत्वच्याप्यत्वादिति । मैवम्, लाघवेन तदभावानधिकरणत्वेनैव तदधिकरणत्वव्याप्तिकल्पनात् , सभागसन्ततौ तन्नाशक्षणे सज्जातीयस्वीकारेण बीजाकुरवदुन्मज्जनापत्ते? निवारत्वात् , तन्नाशादिपरम्पराया दुहत्वेन तद्घटितक्षणिकत्वस्य दुर्ग्रहत्वाच्वेति दिक ॥३७॥
बौद्ध की ओर से जो 'गभावो भवति' का तात्पर्य स एव मावो न भवति' इस अर्थ में बताया गया है वह विरुद्ध असा प्रतीत होता है क्योंकि स एव भावो न भवति' इस वाक्य में तत् स शब्द से अविकृत (वास्तधिक) वस्तु का हो परामर्श होता है, क्योंकि अधिकृत वस्तु ही अपने उत्पत्ति क्षण में गृहीत होती है और तत्पद पूर्व गृहीत वस्तु काही परामर्शक होता है । इस प्रकार तत्शब्द से अधिकृत वस्तु का परामर्श कर के भवन का निषेध करने से 'स एव न भवति' का तात्पर्य "भवनमभवनम् ' इस रूप में प्रसक्त होता है । फलतः निषेध मुख से ही विधि का प्रतिपावन होने से तत्काल में सत् पदार्थ का ही प्रसत्त्व व्यवस्थापित होता है. जिससे, 'प्रमाको भवति' का 'भावो न भवति' इस अर्थ में विवरण करने वाले बौद्ध का देवताओं का प्रियत्व'मोदय सचित होता है। यदि इस के विरोध में यह कहा जाय कि-"पूर्वक्षणोत्पन्नभाव यदि द्वितीयक्षण में असत् ही होगा तो पूर्व क्षण में भी प्रसत् ही होगा. इस प्रकार तत्पद से सांवृतिक (काल्पनिक) सत् भाव का ही परामर्श करके उसका निषेध किया जाता है।"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि द्वितीयक्षण में सांवृत का हो निषेध मानने पर पूर्वक्षण में उत्पन्न प्रामाणिक-पारमाधिक वस्तु की द्वितीयक्षण में यथावत् स्थिति बनी रहेगी। फलतः क्षणिकता के साधन का प्रयास हो व्यर्थ होगा।
यदि यह कहा जाय कि-'भणिकत्वयायो का यह अभिप्राय है कि पूर्वक्षण में उत्पन्न घट का द्वितीयक्षण में ना उत्पन्न होता है और उत्पन्न होने के नाते यह भी क्षणिक होता है किन्तु इसके क्षणिक होने पर भी प्रतियोगी के पुनर्भाव-पुनर्वर्शन को प्रापत्ति नहीं होगी। क्योंकि सब वस्तु का नाश और उसके नाश प्रादि की परम्परा का प्रधिकरण और तद्वस्तु के प्रायमरय का अनाधिकरण जो क्षण उसी में तद्वस्तु के प्रधिकरणत्व का नियम है । इसलिए भाव के उत्तरक्षण में भाव का नाश और उसके नाशादि होते रहने पर भी उसमें भावाधिकरणत्व न होने से उसके उन्मज्जन को प्रापत्ति नहीं हो सकती"। किन्तु यह ठीक नहीं है । कारण, तवमावानधिकरणत्व में तवधिकरणत्व की व्याप्ति मानने में लायव है । सभागसन्तति प्रर्थात् सजातीयसन्तान में सन्तानघटक पूर्वभाष के नाशक्षण में
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका-हिन्दीविधैधना ]
[ ५६
-
-
ततः सिद्धं 'सतोऽसाले (का. ३) जाति पसंहारमा इ..
मूलम्-सतोऽसत्वं यतश्चैवं सर्वथा नोपपद्यते ।
नाभावो भावमेतीह ततश्चतमयवस्थितम् ॥३८॥
यतश्चैषम् उक्तेन प्रकारेण सतोऽसम्यम् सर्षया सर्वैः प्रकारे विचार्यमाणं नोपपनते, मावोन्मजनप्रसङ्गात् । ततश्वेह यदुक्तं प्राक्-'मावो नाभावमेति' इति, एतद् व्यवस्थितम् उपपत्रम् , भारविच्छेदेना भाषानुत्पत्तेः तदविच्छेदे च द्रव्यांशान्वयादिति ।।
___ अत्र नैयायिका:-नन्वेवं वराकस्य सौगतस्य तूष्णीभावेऽपि न वयमिदं मृषाभाषितं सहामहे, भारभिन्नस्यैवाभावस्य घटमानत्वात् । तथाहि अभावो भावातिरक्स एव, अधिकरणस्याप्रतियोगिफत्वात् , तस्य च सप्रतियोगिकसयाऽनुभूयमानत्वेन तद्पन्वायोगात् ।
उस भाव के सजातीय को सत्ता मानी जाती है। इसलिए जैसे अङ्कुरक्षण में बीज का नाश हो आने पर प्रडकुर-वृक्षावि की परिणति के बाद बीज का उम्मजन होता है उसी प्रकार सजातीयसन्तान के पूर्वोत्पन्नमाय का नाश हो जाने के बाद भी उसके पुन:जन्मज्जन की मापत्ति का कारण नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि यदि क्षणिकरव का जो उत्पत्तिक्षणमात्रवृत्तिस्वरूप प्रर्थ किया जाता
यदि स्वनाशनाशादि परम्परानधिकरणक्षणवृत्तित्व रूपमें नियंचन किया जायगा तो क्षणिकस्वका ग्रहण भी दर्घट होगा। क्योंकि किसी वस्तु और उसके नाश का अधिक से अधिक उस शतक ग्रहण तो सम्भव हो सकता है किन्तु उसके आगे नाश परम्परा के प्रहण का कोई साधन नहीं है और म उस प्रकार का ग्रहण होना अनुभवसिद्ध-प्रमाणान्तरसिद्ध ही है ॥३७।।।
[द्रव्यात्मकरूप से वस्तु को स्थिरतासिद्धि ] ३८ वीं कारिका में, 'सतोऽसत्त्वे' इत्यादि १२ वी कारिका में विवृत अर्थ का उक्त युक्तियों से समर्थन कर उसका उपसंहार किया गया है। कारिफार्थ इस प्रकार है
नष्टभाव के उन्मजनदोष से सत् का प्रसत् होना किसी भी प्रकार उपपन्न नहीं होता प्रत: "भाव का प्रभाव होना भी सम्भव नहीं' यह बात उक्तयुक्तियों द्वारा सिद्ध हो जाती है । क्योंकि भाव का विच्छेद मानकर प्रभाव को उत्पत्ति का समर्थन नहीं होता और भावका अविच्छेव मानने पर वस्तु के द्रव्यांश का अस्त्रय भाषका कथञ्चित् नाश होने पर भी बना रहता है। इसका अभिप्राय मह हा कि अनुभव में प्रानेवाले प्रत्येक पदार्थ में वो अंश होते हैं । एक स्थायी और एक पागमापायी। उत्पत्तिविनाशशील)। स्थायी पदार्थ को 'द्रवति इति द्रव्यम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार द्रब्य पद से अभिहित किया जता है । क्योंकि वह पूर्व-प्रपर भाव में द्रुत यानी अनुगत होता रहता है और प्रागमापायी को 'प्राधार परित्यज्य प्रयते-गच्छति निवर्तते' इस व्युत्पत्ति से पर्यय या पर्याय सम्व से पुकारा जाता है। इस प्रकार संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने पर्यायात्मक रूपसे निवृत होता रहता है, और अपने द्रव्यात्मक रूपसे स्थिर बना रहता है भाव के उत्पत्तिविनाश का यही तथ्य मान्य हो सकता है। किसी भी पदार्थ का सर्वथा विनाश उक्त युक्तियों से सम्भव नहीं है।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
६.]
[ शा वा ममुच्चय-स्त ४ श्लोक ३८
___ अथ सप्रतियोगिकत्वं प्रतियोग्यविषयकवुद्धिविषयत्वम् । तच्च तवापि नाभावस्य, इदत्यादिनाप्यभावप्रत्यक्षात , किन्न्वभावत्वभ्य, तस्य च ममापि तथात्वमेव, घटवद्भिनत्वरूपस्य तम्य घटधीमाध्यत्वादिति चेत् ? न, तद्धिमत्वस्यापि स्वरूपानतिरेकेणाप्रतियोगिकत्वात् , वस्तुतः प्रतियोग्यवृत्तिरनुयोगिवृत्तियों धर्मस्तजज्ञानस्य, प्रतियोगिवृत्तित्वेन अज्ञातधर्मग्रहस्य चामेदग्रहहेतुत्वेन, तस्य चात्र भेदरूपस्यैव संभवेनान्योन्याश्रयाच्च ।
[प्रभाव और भाव भिन्न हैं -नेयायिकपूर्वपक्ष ] जैनों द्वारा प्रस्तुत उक्त तों के सम्मुख बौद्ध के चुप हो जाने पर नयायिक ऊठ खड़े होते हैं और यह उद्घोष करते हैं कि तार्किक विचार में दुर्बल बौद्ध के मौनावलम्बन कर लेने पर भी जनों का मृषाभाषण हमें सह्य नहीं हो सकता क्योंकि माव से सर्वथा भिन्न अर्थात् भाव के किसी भी प्रकार के अन्यय से रहित प्रभाव को उपपत्ति हो सकती है। जिसे इस रूपमें प्रस्तुत किया जा सकता है कि अमाव भाव से भिन्न ही होता है। (=भाव के अन्धय से सर्वथा मुक्त ही होता है अर्थात् स्वप्रतियोगी के अनाधिकरण कालमें हो वृत्ति होता है ) क्योंकि किसी वस्तु के विनाश काल में वह बस्तु नहीं रहतो, किन्तु उसका प्रधिकरण मात्र रहता है। और यह प्रधिकरण उस नाशात्मकभाव का प्रतियोगी नहीं होता, प्रभाव सदेव सप्रतियोगिक रूप में ही अनुभूयमान होता है और अधिकरण अप्रतियोगिक होता है। अतः प्रभाव कभी भी अधिकरण स्वरूप नहीं हो सकता।
इसके विरद्ध जनोंको यह कहना हो कि-प्रभाव सप्रतियोगिक होता है, और प्रतियोगी के साथ विरोध होने से प्रभाव के बद्धिकाल में प्रतियोगी की वृद्धि न होने से, सप्रतियोगिकत्व का अर्थ है प्रतियोग्यविषयकबुद्धि का विषयत्व, और यह न्याय मत में भी क्वचित् प्रभाव में नहीं हो सकता है, क्योंकि इदन्त्व-शेयत्वादि के रूप में भी प्रभाव का प्रत्यक्ष होता है और यह प्रत्यक्ष प्रमाव के प्रतियोगी को विषय नहीं करता, इसलिए प्रभाव में प्रतियोगि-प्रविषयक बुद्धि विषयत्व प्रा जाता है। प्रत: मैयायिक मो उक्त अर्थ में प्रभाव को सप्रतियोगिक नहीं कह सकते, किन्तु प्रभावत्व को सप्रतियोगिक कहना पडेगा। क्योंकि, अभावत्व का ज्ञान प्रतियोगीविशेषित रूप में ही होता है। जैसे 'घटो नास्ति' पटो नास्ति' इत्यादि । इसप्रकार जब प्रभावत्व में ही उक्त सप्रतियोगीकत्व मान्य है.तो प्रभाव को प्रधिकरणस्य रूप माननेवाले हमारे मत में भी प्रभावत्व रूप से अधिकरण का ज्ञान भी प्रतियोगिविषयक हो होगा । इसलिए प्रतियोगि-विषयक बुद्धि विषयाव रुप सप्रतियोगिकत्व अधिकरण में मी है। अतः अधिकरण को अप्रतियोगिक कह कर उसमें सप्रतियोगिकत्वाभायरूपता की अनुपपत्ति बताना ठीक नहीं है । अभावत्व में प्रतियोगि-प्रविषयकद्धिविषयत्व रूप सप्रतियोगिकत्व प्रत्यन्त स्पष्ट ही है, जैसे-घटाभावत्व कास्वरूप है घटवद्भिन्नत्व, घटवत जो कपालादि तद्भिनरव और घटवद्भिन्नत्व स्वरूप घटाभावत्व का ज्ञान घटात्मक प्रतियोगी के ज्ञान विना असाध्य है अर्थात् घटज्ञान-साध्य है इस में कोई विवाद नहीं है।
तो नैयायिक को जैन का यह कथन मान्य नहीं है। क्योंकि तद्धिनत्व प्रधिकरण के स्वरूप से अतिरिक्त नहीं होगा तो अधिकरण अप्रतियोगिक होने से उसका भी प्रतियोगित्व अनिवार्यरूप
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था० फ० टीका-हिन्दी विवेचना ]
न चाभावव्यवहारार्थमेव प्रतियोगिज्ञानापेक्षा, अभावम्त्वप्रतियोगिक एवेति वाच्यम ,
से प्रशक्त होगा। और सच बात तो यह है कि प्रभाव और अधिकरण में प्रभेद सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि प्रभाव और अधिकरण में प्रभेद का प्रभ्युपगम अन्योन्याश्रयदोष से ग्रस्त है। जैसे, प्रतियोगी में प्रवत्ति और अनुयोगी में वृत्ति ऐसा जो धर्म उसके ज्ञान को तथा प्रतियोगी में वृतित्वेन अज्ञात धर्म के ज्ञान को अधिकरण और भेदके अभेवग्रह का हेतु मानना होगा और वह धर्म भेदरूप ही सम्मव है। प्रतः अधिकरण में भेदके प्रभेदज्ञान के लिए प्रधिकरण में भेद ज्ञान अपेक्षित हुघा, और अधिकरण में भेद ज्ञान के लिए भेवका अमेव-ज्ञान अपेक्षित है । क्योंकि भेद और अधिकरण की प्रभिन्नता के पक्ष में भेद से भिन्नतया गृहीत में ही भेद ज्ञान हो सकता है । अत: 'अधिकरणमें भेदके प्रमेव ज्ञान' के लिए प्रधिकरण में भेजान'की अपेक्षा और अधिकरणमें भेद ज्ञान' के लिए प्रधिकरणमें भेद के अभेवज्ञान' की अपेक्षा होने से अन्योन्याश्यदोष का होना अनिवार्य है।
इस संदर्भ को स्पष्ट रूपसे समझने के लिये--
यह ज्ञातव्य है कि प्रतियोगी में प्रवृत्ति धर्म के ज्ञान को हो प्रधिकरण में भेद के प्रभेद ग्रह का हेतु नहीं माना जा सकता-क्योंकि घटभेद के प्रतियोगो घट में प्रवृत्ति मठस्व का पट में भ्रमात्मक ज्ञानदशा में 'पट : घटभिन्नः' यह ज्ञान नहीं होता, प्रतः प्रतियोगीमें प्रवृत्ति और अनुयोगी में वृत्ति धर्म के ज्ञान को कारण मानना आवश्यक है। मठत्व घटमेव के प्रतियोगी में प्रवृत्ति होने पर मी पटात्मक अनयोगो में वृत्ति नहीं है । अत एव महस्व का ज्ञान रहने पर पटत्वावच्छिन्न घटमेद ग्रह तथा घटभेद के अभेवग्रह को प्रापत्ति नहीं हो सकती। एवं प्रतियोगिप्रवृत्ति न कहकर मात्र अनुयोगीवृत्ति धर्म के ही ज्ञान को अधिकरणमें भेद के अभेदग्रहका हेतु माना जायगा तो घटभेद के अनुयोगी पटमें वृत्ति दस्यत्व के 'द्रव्यं' इत्याकारक ज्ञानकालमें 'द्रव्यं न घटः' अथवा 'द्रव्यं घटभेद: इस ज्ञानको धापत्ति होगी। प्रतियोगिवृत्तित्व कहने पर यह दोष नहीं हो सकता क्योंकि द्रव्यत्व प्रतियोगी में प्रवृत्ति नहीं है ।
एवं यदि प्रतियोगीवृत्तित्वेन अज्ञात धर्म के ज्ञान को कारण न मानकर केवल प्रतियोग्यवृत्ति और अनुयोगीयत्ति धर्मके ही ज्ञान को कारण माना आयेगा तो पटत्व में घटयत्तित्वज्ञानकालमें भी वस्तुगल्या प्रतियोग्यवृत्ति एवं अनुयोगीवृत्ति पटत्वरूप धर्म के 'पटः' इत्याकारक ज्ञानदशामें भी पटमें घटभेद एवं उसके अमेवग्रहको प्रापत्ति होगी, जबकि पटरव में घटवृसित्वज्ञानदशा में उक्त ज्ञान इष्ट नहीं है । ___निष्कर्ष यह फलित हुमा कि प्रतियोगिवृत्तित्वेन प्रजातधर्मज्ञान को भी अधिकरण में मेव के अभेद ग्रह का हेतु मानना आवश्यक है । ऐसी स्थिति में प्रतियोगि में प्रवृत्ति और अनुयोगी में वृत्ति तथा प्रतियोगीवृत्तित्वेन अज्ञात ऐसा धर्म केवल घटभेद ही हो सकता है, पटत्व नहीं । क्योंकि, पटरम में घटभेव प्रतियोगी पृत्तित्व का भ्रमात्मक ज्ञान सम्भव होने से उसे प्रतियोगीवृत्तित्वेन अज्ञात-प्रतिमोगीवृत्तित्वेन ज्ञानान ह नहीं समझा जा सकता किन्तु घटमेव में घटावृत्तित्व का नियम होने से वही एवं भूत धर्म हो सकता है । अत एव भेदग्रह और भेद का अधिकरण के साथ अमेदग्रह इन दोनों में प्रदर्शित प्रन्योन्याश्रय दोष अपरिहार्य है।
[प्रभाव व्यवहार में भी प्रतियोगिज्ञान अपेक्षित नहीं है] इस पर यदि यह कहा जाय कि-'प्रतियोगिज्ञान प्रमाव के व्यवहार में ही कारण होता है, अमाव के ज्ञान में नहीं। इसलिए प्रभाव मी अप्रतियोगिक ही होता है। प्रतः उसे मप्रतियोगिक प्रधिकरण
-.
.-
.
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२ ]
[
मुस ---४ लो:
व्यवहर्तव्यज्ञाने सति, सत्या चेन्छायां व्यवहारोदयेन तत्राधिकस्यानपेक्षणात् , हस्तवितस्त्या. घवच्छेद्यत्वेन दीयत्वग्रह एवं सजातीयसाक्षात्कारप्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वेन तारत्वादिग्रह एवं चावध्यपेक्ष गात् । न चाभाषपृश्यभावस्याधिकरणानतिरेकेण सर्वमिदं प्रतियन्दिकलितमिति घाच्यम् , अभावसिद्धघु तरमुपस्थितायाम्तस्याः फलमुखगौरवबददोषन्यात् । न चाभावग्रहसामग्रयेव तदुपपत्तेः किमन्तर्गडुनाऽभावेनेति वाच्यम् , 'नास्ति' इति धीविषयस्य तस्यान्तर्गडत्वायोगात् ।
----
---
-
-
-
-------
-
-
से भिन्न मानने में कोई बाधा नहीं है किन्तु-यह ठीक नहीं है। क्योंकि व्यवहष्यि का ज्ञान और व्यवहार की इच्छा होने पर व्यवहार को उत्पत्ति होती है अत: व्यवहार में उन दोनों से अतिरिक्त कारण की अपेक्षा नहीं होगी। किन्तु सावधिक पदार्थ के व्यवहार के लिए अवधि की अपेक्षा अवश्य होती है। जैसे हाथ और वेत प्रादि को अपेक्षा वोघरव व्यवहार के लिए हाथ और घेत प्रादि की अपेक्षा से उपभूत दीर्घत्व ज्ञान हो अपेक्षित होता है। एवं वोणा के ध्वनि प्रादि की अपेक्षा मबङ्ग प्रादि की ध्वनि तार (तीन) होती है' इस व्यवहार के लिए बोरगा प्रादि की ध्वनि के साक्षात्कार का सजातीय विरोधी मदंग ध्वनि में प्रतिबन्धकतावश्छेदक रूप से सारत्याग्रह की ही अपेक्षा रहती है। इसलिए दीर्वत्य और तारस्वावि सावधिक होते हैं। उसी प्रकार सप्रतियोगिकत्व रूपसे प्रभाव व्यवहार के लिए सप्रतियोगिकरय रूपसे प्रभाव के ज्ञान को अपेक्षा होती है। इसलिए प्रभाव को सप्रतियोगिक मानना प्रावश्यक है।
यदि यह कहा जाय कि-यायिक भी प्रभाव वृति प्रभाव को अनवस्था प्रसर भय से और कोई बाधक न होने से अधिकरण स्वरूप मानते हैं । अत: प्रभाव में भावात्मक अधिकरण की अभिप्रता का खण्उन प्रतिबन्दि(समान प्रत्युत्तर) से कवलित हो जायेगा' -तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अमावात्मक प्रधिकरण से प्रभाव को अभिन्नता सिद्ध होने के बाद ही प्रतिबन्धि को उपस्थिति होती है। अत एव वह फल मुरखगौरव के समान दोष नहीं है ।
यदि यह कहा जाय कि जिस सामग्री से प्रभाव का ज्ञान होता है उस सामग्री से ही प्रभाव ग्रह और प्रभाव व्यवहार को सिद्धि हो जायेगो अंसे अधिकरण और इन्द्रिय का सन्निकर्ष-अधिकरणज्ञान -प्रतियोगीज्ञान-अधिकरण में प्रालोक सन्निधान प्रादि से ही प्रभाव का ग्रहण हो कर प्रभाव व्यवहार की उत्पत्ति हो सकता है । अत: अधिकरण से अतिरिक्त प्रभाव का प्रभ्युपगम निरर्थक है" तो यह ठोक नहीं है क्योंकि, अतिरिक्त प्रमाव का अभ्युपगम न करने पर 'नास्ति' यह वृद्धि निविषयक हो जायेगी क्योंकि भूतलरूप अधिकरण अथवा घटादिरूपप्रतियोगी को उस बुद्धि का विषय नहीं माना जा सकता । क्योंकि भूतल में घट के प्रदर्शनकाल में भूतलं नास्ति' यह बुद्धि नहीं होती । यदि 'नास्ति' इस प्रतीति का विषय भूतल से अतिरिक्त किसी को न मानकर भूतल को ही माना जायेगा तो 'मूतलं नास्ति' इस प्रतीति को प्रापत्ति अनिवार्य होगो । प्रत: नास्ति' इस प्रतीति में सविषयकत्व की उपपत्त के लिए अधिकरण से भिन्न प्रभाव का अभ्युपगम अनिवार्य होनेसे प्रमाद की कल्पना पो निरर्थक नहीं कहा जा सकता।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था० क० टीका- हिन्दीविवेचना ]
किञ्च, अभावप्रत्यक्षस्य विशिष्टवैशिष्ट्य प्रत्यक्षरूपत्वेन मम विशेषणतावच्छेदकप्रकारकनिश्वयमुद्रा प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिज्ञानस्य हेतुत्वं न तु स्वातन्त्र्येण तत्र तु तद्वाहारे तस्य स्वातन्त्र्येण हेतुत्वं कल्पनीयमिति गौरवम् ।
किञ्च, अधिकरणानामननुगतत्वात् कथमनुगतव्यवहारः १ मम तु समवाय स्वाश्रयसमवायान्यतरसम्बन्धेन सत्तात्यन्ताभाव एवानुगतम मात्रत्वम्, तच्च स्वयपि इति न किञ्चिदनुपपन्नम् ।
[ ६३
(अधिकरण- प्रभाव प्रभेद पक्ष में गौरव )
यह भी है कि अभाव और अधिकरण के अभेदवाद में प्रतियोगिविशेषित प्रभावव्यवहार में प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्ट प्रतियोगी के ज्ञान को स्वतन्त्र कारणता माननी पडेगी। क्योंकि प्रभाव को अधिकरण से मिल मानने पर प्रभाव प्रत्यक्ष में प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्टप्रतियोगीज्ञान को कारण मानना सम्भव नहीं है । क्योंकि अधिकरण रूप में प्रभाव का ज्ञान प्रतियोगितावच्छेदकविशि प्रतियोगीज्ञान के अभाव में भी होता है । श्रतः प्रभावव्यवहार के प्रति प्रतियोगोतावच्छेदकविशिप्रतियोगिज्ञान को पृथक् कारण माने बिना प्रतियोगी की प्रज्ञानदशामें प्रभाव व्यवहार की आपत्ति का परिहार नहीं हो सकता। किन्तु न्यायमत में इस कार्यकारण भावकी श्रावश्यकता नहीं होती। क्योंकि न्यायमत में प्रभाव अधिकरण से भिन्न होता हैं । श्रत एव प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्ट प्रतियोगी की श्रज्ञान वशा प्रभाव ज्ञान सम्भव न होने से प्रभाव के उक्त व्यवहार की प्रापत्ति नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि न्यायमत में भी प्रतियोगि विशेषित प्रभाव प्रत्यक्ष में प्रतियोगितायच्छेदकविशिष्टप्रतियोगी ज्ञान को स्वतन्त्र रूप से कारण मानना होगा; अन्यथा प्रतियोगितावच्छेदकविशि ष्टप्रतियोगी को अज्ञान दशा में उस मत में प्रभावज्ञान सम्भव होने से प्रभाव व्यवहार की प्रापत्ति होगी' - तो यह ठोक नहीं है । क्योंकि 'रक्तो दण्डः' इत्यादि ज्ञान की प्रभाव वशा में 'रक्तदण्डवान् पुरुष:' इस प्रकार रक्तत्य विशिष्ट दण्डवै शिष्टघावगाही बुद्धि की उत्पत्ति न होने से विशिष्ट वैशिष्टयावगाही अनुभव मात्र के प्रति विशेषणतावच्छेदक प्रकारक निश्चय की काररगता सम्मत है। अतः प्रति योगविशेषित श्रभावव्यवहार के लिए अपेक्षित प्रतियोगिविशेषित प्रभाव का प्रत्यक्ष भी प्रतियोगितावच्छेदक विशिष्ट वैशिष्ट्यवगाही होने से विशिष्ट वैशिष्ट्यानाही होता है । अत एव प्रतियोगितावच्छेदक रूपविशेषता यच्छेवक प्रकारक निश्चय की असत्त्व दशा में उक्त श्रमाय प्रत्यक्ष की उत्पसि नहीं हो सकती | प्रत एव प्रतियोगितावच्छेवक विशिष्टप्रतियोगी की प्रज्ञान यशामें व्यवहर्तव्य ज्ञान का अभाव होने से हो प्रतियोगि विशेषित अभाव के व्यवहारकी प्रापत्ति का वारण हो जायगा इसलिए न्यायमत में प्रतियोगिविशेषित प्रभाव प्रत्यक्ष में प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्टप्रतियोगी के ज्ञान को पृथक कारण मानने की प्रावश्यकता नहीं होती । श्रतः कार्यकारणभाव कल्पनासम्बन्धी लाघव के अनुरोध से प्रभाव को श्रधिकरण से भिन्न मानने का पक्ष ही उचित है ।
( अनुगत व्यवहार अभेदपक्ष में घटित )
दूसरी बात, श्रभाव श्रीर प्रधिकरण के प्रमेव पक्ष में यह भी एक दोष है कि उस मत में अधिकरणों के अनुगत होने से प्रभावत्व का अननुगत व्यवहार नहीं हो सकेगा जब कि 'घटाभाव: अभाव:, पटाभाव: प्रभाव:' इत्यादि रूपसे प्रभावत्व का अनुगत व्यवहार सर्वमान्य है । यदि घटाभाव
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४ ]
[ शा० वा० समुकथय स्त० ४ - श्लोक ३८
न चातिरिक्ताभावस्याधिकरणेन समं सम्बन्धानुपपत्तिः, सम्बन्धान्तरमन्तरेण विशिष्ट - प्रतीतिजननयोग्यत्वस्यैव तत्संबन्धत्वात् ।
नन्वेवं घटाभावभ्रमानुपपत्तिः, योग्यतायाः फलैकगम्यतया तत्रापि सच्वात् । न च प्रमायोग्यता सम्बन्धः, सम्बन्धसत्वे तस्यापि प्रमात्वात्, अन्यथाऽन्योन्याश्रयात्, योग्यतायाः
पटाभावादि भूतलादिस्वरूप हुआ तो उन सभी में किसी अनुगत प्रभावत् कर निर्वाचन अशक्य होने से प्रभावत्व के अनुगत व्यवहार की उपपत्ति करना असम्भव होगा । न्यायमत में यह वीष नहीं होगा चूँकि प्रभावत्व को समवाय स्वाश्रयसमवाय इन दो में किसी एक सम्बन्ध से सत्ता का प्रत्यन्ताभावरूप माना जाता है जो एक अनुगत धर्म है। किन्तु इससे प्रभाव को भूतलादि स्वरूप मानने पर प्रभावों में प्रनुगत व्यवहार की उपपत्ति न हो सकेगी । क्योंकि भूतलादि में समवाय-स्वाश्रय- समयाय अन्यतर सम्बन्ध से सत्ता के रहने से उक्त श्रन्यतर सम्बन्ध से सत्ताभाव नहीं रह सकता । किन्तु यदि घटाद्यभाव जब भूतलादि अधिक हो वाय श्रन्यतर सम्बन्ध से सत्ताभाव के रहने में कोई बाधा न होने के कारण घटाभावादि में प्रभावत्व का प्रनुगत व्यवहार हो सकेगा । समवाय-स्वाश्रयसमवाय ग्रन्यतर सम्बन्ध से सत्ताभाव को स्व में भी वृत्ति मानने से उसमें भी प्रभावत्व व्यवहार न होने को कोई प्रापत्ति नहीं हो सकती ।
होतो
[ भेद पक्ष में सम्बन्ध को अनुपपत्ति नहीं है ]
यदि यह कहा जाय कि "भाव और अधिकरण में मेव होने पर प्रधिकरण के साथ प्रभाव का कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता क्योंकि संयोगसमवायादि समस्त प्रमाणसिद्ध सम्बन्ध भाषपदार्थों के मध्य ही होते हैं" - तो यह ठीक नही है । क्योंकि अधिकरण के साथ प्रभाव का कोई प्रतिरिक्त सम्बन्ध न होने पर भी अधिकरण में प्रभाव की विशिष्ट प्रतीति 'भूतसं घटाभाववत्' इत्यादि रूप में होती है । श्रत एव इस प्रतीतिके जनन की योग्यता प्रभाव और अधिकरण में मानना प्रश्वश्यक है । और यह योग्यता हो अधिकरण के साथ प्रभाव का सम्बन्ध है । इसलिए अभाव और अधिकरण में सम्बन्ध की अनुपपत्ति नहीं हो सकती । उक्त सम्बन्ध स्वीकार करने पर, जनों की ओर से -
यदि यह शङ्का को जाय कि ऐसा मानने पर तो घटवाले देश में भी घटाभाव का भ्रम नहीं हो सकता। क्योंकि घटवाले देश में भी घटामाव की भ्रमात्मक विशिष्ट प्रतीति होती है | अतः घटवालेदेश में भी घटाभाव विशिष्ट की प्रतीति के जनन की योग्यता माननी ही होगी। क्योंकि योग्यता फल से अवगत होती है । श्रतः घटथालेदेश में भी घटाभाव का उपन सम्बन्ध सम्भव होने से उसमें होनेवाली घटाभाव की बुद्धि भी प्रमा हो जायगी । फलतः घटाभावश्रम का उच्छेद होगा। यदि यह कहा जाय कि विशिष्टप्रमाजननयोग्यता हो सम्बन्ध है ।' तो यह कहने पर भी उक्त दोषका निस्तार नहीं हो सकता। क्योंकि जब घटवाले देश के साथ भी घटाभाव का सम्बन्ध उक्तरीति से सम्भव है तो घटवाले देश में होनेवाली घटाभाव की प्रतीति भी प्रमा हो होगी प्रत: घटवाले देश में भी घटाभाव की विशिष्ट प्रभाकी योग्यता रूप सम्बन्ध अक्षुण्ण है। तथा यदि विशिष्ट प्रतीति जनन योग्यता को सम्बन्ध न मानकर विशिष्ट प्रमा योग्यता को सम्बन्ध मानेंगे तो श्रन्योन्याश्रय की आपत्ति होगी, क्योंकि प्रमायोग्यता रूप सम्बन्ध सिद्ध होने पर प्रमा की सिद्धि और प्रमा सिद्ध होने पर प्रमायोग्यतारूपसम्बन्ध सिद्ध होगा। दूसरी बात यह है कि विशिष्ट प्रतीति जनन योग्यता तो 'भूतलं
ין
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या क० टीका-हिन्दीविवेचना ]
[६५
प्रत्ययाऽविषयत्वेन विभागाभावाच्च । अथ योग्यतालिङ्गितं स्वरूपमेव सम्बन्धः, भ्रम-प्रमयोश्च बस्तुगत्या घटतदभाववद्वयत्यवगाहित्वेनैव विभाग इति चेत् १ न, अतीन्द्रिया मावस्वरूपसंपन्धेऽच्याप्तेः, तस्य विशिष्टज्ञानाभावादिति चेत् !न, योग्यतावच्छेदकावच्छिन्नस्वरूपदयस्यैव संपन्धत्वात् , योग्यतावच्छेदकं च क्वचित प्रतियोगिदेशान्यदेशत्वम् , क्वचित प्रतियोगिदेशत्वे सति प्रतियोगिदेशान्यकालत्वम् , क्वचित् प्रतियोगितावच्छेदकाभावयत्वम् । घटाभाववत्' इत्यादि प्रतीति का विषय होती नहीं है, अतः यह विभाग करना भी कठिन है कि घटशून्य देश में घटाभाव की प्रतीति प्रमा है और घटवालेदेश में घटाभाव की प्रतीति भ्रम है क्योंकि यह निश्चय विशेष्य में विशेषण सम्बन्ध के सत्त्व-प्रसत्त्व पर निर्भर है पौर विशेध्य में विशेषण के सत्त्व और मसनम का नि विषम मि सम्वत निश्चय के माधीन है। प्रब यहाँ विशिष्ट प्रतीति जनन योग्यत्व रूप सम्बन्ध भूतलादि घटाभावादि को प्रतीति में भासित नहीं होता प्रतः 'घटशून्य में घटभाव की प्रतीति प्रमा और घटवाले देश में घटाभाव को प्रतीति भ्रम' यह विभाग दुर्घट है।
[प्रत्यक्षयोग्य प्रभाव का स्वरूप सम्बन्ध है] नैयायिक यदि यह उत्तर करे कि-"योग्यता से प्रालिङ्गित विशिष्ट स्वरूप ही प्रभाव का सम्बन्ध है । अर्थात् जो प्रभाव प्रत्यक्षयोग्य हो उसका स्वरूप ही उसका सम्बन्ध होता है। मात्र इतना विशेष कि योग्यता का प्रभावबाद्धि में सम्बन्धविधया मान नहीं होता, सम्बन्धविषया प्रभाव के स्वरूप का ही होता है । भ्रम और प्रमा का विभाग योग्यता के प्रभान और भान से अथवा प्रभावस्वरूप के प्रमान और भान से नहीं होता, क्योंकि प्रभाव बुद्धि में उसकी योग्यता का भान हो नहीं होता। प्रभाव स्वरूप का मान भ्रम और प्रमा दोनों में ही होता है। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जब घटाभाव को बुद्धि घटवद्विषयक है तब उसे भ्रम माना जाता है और जब घटाभाव की बुद्धि घटामाववतयक्तिविषयक है तब उसे प्रमा माना जाता है। इस प्रकार प्रतियोगी के प्रधिकरण और प्रभाव के भान द्वारा ही प्रभाव बुद्धि में भ्रमत्व प्रौर प्रमात्वका विभाग होता है। "तो यह उत्तर मो ठीक नहीं है,
ऐसा मानने पर प्रतीन्द्रियाभाष के स्वरूपसम्बन्ध में प्रभावसम्बन्धत्व की प्रग्याप्ति हो जायगो क्योंकि यदि योग्यप्रतियोगिकत्वरूप योग्यता से विशिष्ट स्वरूप को सम्बन्ध माना जायेगा तो प्रतीन्द्रिय अभाव में योग्यप्रतियोगिकस्व न होनेसे उसका स्वरूप योग्यताऽऽलिङ्गित नहीं होगा । और यदि प्रत्यक्षात्मकविशिष्ट प्रतीसिजननयोग्यता को प्रमावस्वरूप को योग्यता माना जायेगा तब भो प्रतीन्द्रियाभाव स्वरूप में योग्यता न रहेगी क्योंकि अतीन्द्रिय प्रभाव को प्रत्यक्षात्मक विशिष्ट प्रतीति नहीं होती।
(योग्यतावच्छेदकावच्छिन्नस्वरूपदय की सम्बन्धतान्नैयायिक) इस समग्न जैनों के प्रतिधार पर नैयायिकों का उत्तर यह है कि-योग्यतावच्छेदक से विशिष्ट प्रभाव और अधिकरण दोनों का ही स्वरूप प्रभाव का सम्बन्ध होता है। अर्थात् कहीं योग्यतावच्छेवकविशिष्टाभाव का स्वरूप प्रभाव का सम्बन्ध होता है, तो कहीं योग्यतावच्छेदकविशिष्टाधिकरण का स्वरूप प्रभाव का सम्बन्ध होता है। प्रभाव के चार प्रकार १ अत्यन्ताभाव २ प्रागभाव ३ ध्वंसा
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६ ]
[ शा०स०] समुचय हत० ४ श्लो०३८
2
न चात्रापि मत्वर्थसम्बन्धानुयोगः, तत्रापि तादृशयोग्यतावच्छेदका नुमरणात् । न चैवमनवस्था, वस्तुनस्तथास्यात् । प्रत्ययानवस्था तु नास्त्येव, उक्तावच्छेदकवत्रस्य स्वरूपपरिचायकत्वात् । एवं च तादृशस्वरूपाभावेयत्रा भावधीस्तत्र भ्रमत्त्वम् इति किमनुपपन्नम् ! भाव ४ अन्योन्याभाव हैं। इनमें प्रथम की योग्यता है प्रतियोगिदेशान्यदेशत्व अर्थात् स्वप्रतियोग्यधिक रणभित्राधिकरणवृत्तित्व । तथा प्रागभाव एवं ध्वंस की योग्यता का प्रवच्छेदक है प्रतियोगिम देश में वृत्ति होते हुऐ प्रतियोगिमत्काल से भिन्न काल में रहना । तथा श्रन्योन्याभाव की योग्यता का प्रवच्छेदक है प्रतियोगितावच्छेदकाभाववस्य । इनमें पहले दो योग्यतावच्छेदक अभावगत है स एव उन योग्यतावच्छेदक से विशिष्ट प्रभाव का स्वरूप क्रम से श्रत्यन्ताभाव तथा प्रागभाव-ध्वंस का सम्बन्ध है। तृतीय योग्यता- प्रवच्छेदक अधिकरणगत है । अत एव तृतीय योग्यतावच्छेदक से विशिष्ट अधिकरण का स्वरूप अन्योन्याभाव का सम्बन्ध है । यह योग्यतावच्छेदक अतीन्द्रिय प्रभाव के स्वरूप एवं अधिकरण में भी है । जैसे, प्रतीन्द्रियमनस्स्व का प्रभाव अपने प्रतियोगी मनस्त्व के अधिकरणभूत देश से भिन्न देश में रहता है । एवं पार्थिव परमाणुगत श्यामरूपादि का प्रागभाव और ध्वंस अपने प्रतियोगी के अधिकरण पार्थिव परमाणु में रहते हुए भी अपने प्रतियोगी के काल में न रहकर श्रन्यकाल में रहता है । एवं मन आदि प्रतीन्द्रिय पदार्थ के प्रत्योन्याभाव के प्रतियोगितावच्छेदक मनस्त्वादि का प्रभाव मनोभिन्न देशमें रहता है । इस प्रकार योग्यतावच्छेदकावच्छिन्न प्रभाव श्रौर ग्रधिकरण के स्वरूप को सम्बन्ध मानने में कोई बाधा नहीं है । भ्रन प्रमा का विभाग तो जैसा बताया गया है- प्रतियोगी श्रथवा प्रतियोगितावच्छेदक के वस्तुतः श्रधिकरण के अथवा उसके प्रभावाधिकरण के अवगाहन से, उपपन्न होता है । अतः अभाव को अधिकररण से भिन्न मानने पर श्रधिकरण के साथ प्रभाव का सम्बन्ध मानने में कोई श्रनुपपत्ति नहीं हो सकती ।
1
( मत्वर्थ सम्बन्ध के बारे में शंकानिवारण )
इस पर यदि यह शङ्का की जाय कि "भूतलं घटाभाववत् घटः पदमेदवान्' इत्यादि प्रतीतिनों में 'मतुप् प्रत्यय से प्रभाव का सम्बन्ध भी विशेषणरूप से भासित होता है अतः उसके सम्बन्ध के विषय में भी प्रश्न होता स्वाभाविक है।" तो इस शङ्का के समाधान में कोई कठिनाई नहीं है क्योंकि मत्यर्थ सम्बन्ध का भी जो उक्त योग्यतावच्छेदक विशिष्टस्वरूप है उस को सम्बन्ध माना जा सकता है। इसमें अनवस्था की शङ्का नहीं हो सकती, क्योंकि प्रभाव का स्वरूप और प्रभावबोधक शब्द के उत्तर में लगे हुए 'म' प्रत्यय के अर्थ का स्वरूप इन दोनों में भेद न होने से अनन्त सम्बन्धों की व्यर्थ कल्पनारूप आपत्ति नहीं हो सकती। यह श्रनवस्था तब होती यदि, जसे प्रभाव की प्रतीति का मतुप् प्रत्ययान्तशब्दघटितवाक्य से ग्रभिलाप होता है, उसी प्रकार मत्वर्थ सम्बन्ध की प्रतीति का मो मतुप् प्रत्ययातघटित शब्द से अभिलाप होता । किन्तु ऐसा नहीं होता. प्रतः प्रतीति की अनवस्था के श्रापादान की सम्भावना नहीं है, क्योंकि यही वस्तुस्थिति हैं अतः वस्तु में अनवस्था प्रसक्त ही नहीं है ।
यह ज्ञातव्य है कि उक्त योग्यतावच्छेदकावलि स्वरूप को प्रभाव का सम्बन्ध मानने पर मी प्रभाव के सम्बन्ध को बुद्धि में उक्त योग्यतावच्छेदक का मान नहीं होता । किन्तु उक्त योग्यतावछेदक से उपलक्षित स्वरूप का ही भान होता है, क्योंकि उक्त योग्यतावच्छेदक प्रभाव के स्वरूप का विशेषण न होकर उपलक्षणरूप से परिचायक मात्र होता है । यही कारण है- उक्त योग्यतावच्छेदक के भान के लिये अनवस्था का सर्जन नहीं होता । निष्कर्ष यह फलित हुआ तादृश स्वरूपसम्बन्ध का
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था क० टीका-हिन्दीविवेचन ]
वस्तुतः स्वसम्बद्धप्रकारावच्छेदेन यत्र ज्ञाने धर्मिसम्बन्धः, स्वसम्बद्धधर्म्यवच्छेदेन या प्रकारसंबन्धः तत्र प्रमात्वम् , अन्यत्र भ्रमत्वम् । अत एव विशिष्टनाने प्रकारधर्मिणोः * संयोगादिवदज्ञानस्यापि परस्परसम्बन्भतया भासमानत्वात् 'इदं रजतम्' इति भ्रमे रजतत्वस्य शुक्ती वैज्ञानिकसम्बन्धेन प्रमात्वम् , संयोगेन च भ्रमत्वमिति दिक् । प्रभाव रहने पर जहां प्रभावको वृद्धि होती है वहाँ प्रभाव बुद्धि भ्रमात्मक होती है । तथा तादृशस्वरूप के सद्भाव होने पर जहाँ प्रभाव को बुद्धि होती है वह बद्धि प्रमा होती है । जैसे, घटमंस्तिदेशमें यदि घटामाद की बुद्धि होगी तो घटाभावमें प्रतीयोगीदेशान्यदेशत्व नहीं रहेगा क्योंकि उस समय उसमें (बुद्धिकुत) प्रतियोगिसमानदेशत्व हो जाता है। अत एव उस समय घटाभाव का स्वरूप प्रतियोगिदेशान्यावेशव रूप योग्यतावच्छेदकावच्छिन्न नहीं होता। अत: घटामाव की वह बद्धि घाभाव के ययोक्त स्वरूपसम्बन्ध के प्रभावमें होनेसे भ्रम होतो है । सथा जब घटशन्यदेश घटाभाव की वृद्धि होती है तब घटाभाव में प्रतियोगीदेशान्यदेशत्व रहता है । अतः घटाभाव के उक्त स्वरूपसम्बन्ध के सद्भाव में उस बुद्धि के होने से यह प्रमा होतो है । प्रतः प्रभाव को प्रधिकरण से भिन्न मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं है।
सत्यबात तो यह है कि जिस ज्ञान में धर्मो का सम्बन्ध धर्मों से सम्बद्ध प्रकारावच्छेवेन भासित होता है वह ज्ञान प्रना होता है और उससे भिन्न ज्ञान भ्रम होता है जैसे 'भूतले घट:' इस बुद्धिमें भूतल रूप धर्मी (प्रधिकरण) का घटमें प्राधेयत्व सम्बन्ध घटानुयोधक भूतलप्रतियोगिक प्राधेयतात्व रूपसे भासित होता है । यह भान हो प्रर्धामसम्बद्ध प्रकारावच्छेदेन मिसम्बन्ध का भान है। इसी प्रकार 'भूतलं घटवत् इस ज्ञानमें घटरूप प्रकार का संयोगसम्बन्ध घटसम्बद्ध मृतल रूप धर्मि-प्रवच्छेदेन भासित होता है । प्रर्यात घटका संयोग भूतलानुयोगिक घटप्रतियोगिकसंयोगत्वेन भासित होता है । यह मान ही प्रकारसम्बद्धधमोप्रवच्छेदेन प्रकारसम्बन्ध का भान है, प्रतः यह दोनों ही ज्ञान प्रमा होते हैं । किन्तु यदि घटशून्य देशमें 'मत्र घट:' अथवा 'अयं देशः घटवान' यह ज्ञान होगा तो उसमें उक्तरूपसे धर्मासम्बन्ध और प्रकार सम्बन्ध का भान नहीं हो सकता, क्योंकि यहां घटानुयोगिक वटशून्यदेश प्रतियोगिक-आधेयताएवं घटशून्यदेशानुयोगिक घटप्रतियोगिक संयोग सम्बन्ध नहीं होता । अत एव वह प्रतीति भ्रम होती है। इसी प्रकार घटशून्यदेश में घटाभाव प्रतीतिमें प्रमात्व और घटसाहितदेश में घटाभाव की प्रतीति को भ्रम समझा जाता है। . __इस व्यवस्था के अनुसार ही शुक्ति में रजतस्वग्राही 'इदं रजतं' इस ज्ञान में प्रमात्व और भ्रमत्व दोनों की उपपत्ति होती है । जब 'इदं रजतम्' इस शुक्ति विशेष्यक रजतत्व के ज्ञान में इदन्त्व रूप से भासमान शुक्ति के साथ रजतत्व का ज्ञानात्मक सम्बन्ध होता है तब उस सम्बन्ध का इदमनुयोगिक रजतस्वप्रतियोगिक रूप में भान होनेसे वह ज्ञान प्रमा होता है । तया शुक्ति में रजतत्व का संयोग-समवायादि सम्बन्ध न होने से उस शान में इदमनुयोगिक रजतत्वप्रतियोगिक रूप से संयोगावि का मान सम्भव न होने से वह ज्ञान संयोगावि सम्बन्ध से भ्रम होता है। * पूर्व मुद्रित व्याख्या प्रन्थ में 'संयोगादिवत्रज्ञान स्याऽपि' ऐसा पाठ है और हस्तलिखित प्रति में 'संयोगादिवदशातस्यामि' ऐसा पाठ प्राप्त होता है। किन्तु यहां 'संयोगादिक्द झानस्याऽपि ऐसा पाठ उचित प्रतीत होता है। क्योंकि इस पाठ में अग्रिम ग्रन्थ की अपपत्ति होती है । ॐ इस संदर्भ में धर्मी शब्द से अधिकरण और प्रकार शब्द से भाधेय को समझाना चाहिये ।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८]
[ शा० वा समुच्चय-स्त०४ श्लोक ३८
अत्र ब्रूमः-नैयायिकाऽस्मिन् नयवाददीपे पतन् पतङ्गस्य दशा नु मा गाः ।
बौद्धस्य बुद्धिव्ययज कुकीर्तिविमृत्यरं कज्जलमम्य पश्य ||१|| तथाहि-अभावस्य लायवात क्लृप्ताधिकरणस्वभावत्वे सिद्ध तत्र सप्रतियोगिकत्वं कल्प्यमानं तवाभाववृत्त्यभावेऽन्यप्रतियोगिकत्वमिव तत्काले तद्बुद्धिजनितव्यवहारविषयत्वादिरूपं न बाधकम् ।
न चाधिकरणस्वरूपत्वेऽननुगमो बाधकः, तथा सत्यभावाभावस्थापि प्रतियोग्यात्मक
प्रभाव और अधिकरण के भेद के सम्बन्ध में नैयायिकों ने जो तर्फबद्ध पूर्वपक्ष प्रस्थापित किया है उसके प्रतिवाद की भूमिका में प्रवेश करते पहले व्याख्याकार सावधान करते है कि नय वाव के प्रवीप में व्यर्थ झम्पात करके उन्हे पतन के जैसी विनाश दशा को प्राप्त नहीं होना चाहिये, जब कि बुद्धि के अपव्यय से उत्पन्न व अपयश को बढ़ाने वाली बौद्ध वादीयों को कालिमा, प्रत्यक्ष उपलब्ध है ॥१॥
(अभाव-अधिकरण अभेदवादी जनों का प्रतिवाद) नैयायिक के उक्त सिद्धान्त के विरोध में जैन विद्वानों का प्रतिपक्ष यह है कि प्रभाव का अधिकरण अन्य प्रमाणों के बल पर क्लप्त है-प्रसिद्ध है। अत एव अधिकरण में प्रतीत होने वाले प्रभाव को तत्स्वरूप (अधिकरण स्वरूप) मानने में लाघव है।।
भूतलादि अधिकरण में प्रतीत होने वाले धाभाव को भूतलादि स्वरूप मानने पर मूतलादि में सप्रतियोगिकरव को कल्पना करनी होगी, किन्तु इस कल्पना से किसी अतिरिक्त पदार्थ का अस्तित्व नहीं प्रसक्त होता। क्योंकि भूतल में घटामात्र को अधिकरणता अथवा घटामाव में भूतल की प्राधेयता को बुद्धि के समय जो 'भूतलं घटामाववत्' अथवा 'भूतले घटाभाव:' यह व्यवहार होता है वह घटज्ञान से उत्पन्न होता है। इस प्रकार भूतल में घटज्ञान से उत्पन्न उक्त व्यवहार को जो विषयता है वही भूतल में घटप्रतियोगिकरव है। घटप्रतियोगिकत्व उक्त विषयता से अन्य कोई वस्तु नहीं है। प्रतः भूतल में सप्रतियोगिकत्व की कल्पना प्रभाव और अधिकरण के ऐक्य में बाधक नहीं हो सकती। तथा इसे बाधक के रूप में नंयायिक द्वारा उद्भावित मो नहीं किया जा सकता क्योंकि, नैयायिक भो प्रभाव में रहने वाले अभाव को अधिकरण स्वरूप मानते हैं । जैसे, घटामाव में विद्यमान पटामाय भेद घटाभावस्वरूप होता है। इसलिये घटाभाव में पटामावप्रतियोगित्व की कल्पना उन्हें भी करनी होती है । तथा यह पटाभाव-प्रतियोगिकत्व उनके मत में भी 'घटाभावो न पटामाव:' इस प्रतीतिकाल में होने वाला पटामावस्वरूप प्रतियोगी का ज्ञान उससे उत्पन्न जो उक्त व्यवहार की विषयता, उस से अन्य नहीं होता। प्रत: अमाव के प्रभावात्मक एवं मावात्मक दोनों प्रकार के अधिकरण में सप्रतियोगिकत्व की कल्पना में कोई अन्तर न होने से प्रभाव मात्र को अधिकरण स्वरूप मानना हो पुक्तिसङ्गत है।
(अभाव-प्रधिकरण अभेद में बाधक का निराकरण) यदि यह कहा जाय कि-"अमाव को प्रधिकरण स्वरूप मानने में अननुगम होगा अर्थात् घटामावस्व की कल्पना करने से विभिन्न अधिकरणों के साथ घटाभावत्व के अनेक संबन्धों को प्रसवित
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या कन्टीका-हिन्दीविवेचना ]
] ६९
खविलयेऽपसिद्धान्तात् । 'तत्र तदभावाभावत्वमेकमेव' इति चेत् । किं तत् ? घटस्वादिकमिति चेत् , कधमस्य तत्त्वम् ? तेन रूपेण घटादिमत्ताप्रतीतो घटायभावाभावव्यवहारादिति चेत् । कथं तर्हि तदसाधारणधर्मान्तराणामपि न तथाल्वम् ।।
किञ्च, एवं घटत्वादिज्ञान प्रतियोगिज्ञानं विना न स्यात् , अभावत्वप्रत्यक्षे योग्यधर्मावच्छिन्नबानत्वेन हेतुत्वात् , अन्यथा तम्मिर्विकल्पकप्रसङ्गाद । यदि च निर्विकल्पकीयविषयतया घटवादिनाऽभावस्य प्रत्यक्षस्याभावत्वाश निर्विकल्पकस्य स्वीकारे विशेष्यत्तानवच्छिन्ननिर्विल्पकीयविषयतया वा प्रत्यक्षेऽभावत्वमेदस्य कारणत्वात् तन्निर्विकल्पकं वार्यते, तदा घटत्वादेरपि निर्विकल्पकाऽप्रसङ्गात , भावावृत्तितयोक्तविषयतया विशेषणे चाऽप्रसिद्धः। होगी" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर घटाभावाभावादि को घटादि स्वरूप मानना भी उचित न होगा। क्योंकि, अनेक घटों में घटामावामावत्व को कल्पना को मापत्ति होगी। यदि इस पक्ष का भी परित्याग कर दिया जायगा तो नैयायिक के सिद्धान्त को हानि होगी क्योंकि प्रभाव का प्रभाव प्रतियोगो स्वरूप होता है यह उनका सिद्धान्त है। यदि यह कहा जाय कि "विभिन्न घट में जो घटाभावाभावस्व माना जाता है वह एक ही है। प्रतः प्रभावाभाव को प्रतियोगी स्वरूप मानने में प्रननुगम की प्रसक्ति नहीं होगी" तो इस कथन का उपपावन शक्य नहीं है, क्योंकि घट में माने जाने वाले घटाभावाभावत्व को घटस्वरूप मानने पर हो यह कहा जा सकता है, किन्तु उसकी घटत्वरूपता में कोई युक्ति नहीं है। यदि इस मान्यता के समर्थन में यह कहा जाय कि "घटत्व रूप से भूतल में 'भूतल घटवत' इस प्रकार की प्रतीति होने पर 'मृतले घटामावो नास्ति' यह व्यवहार होता है इसलिए घटत्व और घटाभावामावस्व में ऐक्य माना जा सकता है-" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने का आधार घट और घटाभावामाव इन दोनों का समनियत भाव हो हो सकता है, अब यवि घटामावाभाव में घट के समनियतभाव से ही घटाभावाभाव को घटरूप मानना है तो घटाभावाभाव में घर के समनियत अन्य अनेक धर्मों का भी समनियतभाव है प्रसः टाभाथाभाव को केवल घटस्वरूप न मानकर सन्यप्रनेक घम स्वरूप भी मानना होगा, प्रतः घटाभावाभावत्व को केवल घटत्व रूप मानना सम्भव न होने से प्रभाव के प्रभाव को प्रतियोगी स्वरूप मानने के पक्ष में भी अननुगम दोष को प्रसक्ति अनिवार्य रहेगी।
(घटाभावाभावत्व को घटत्यादिरूप मानने में अनुपपत्ति) इस संदर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि घटाभावाभाव को घट स्वरूप मानने पर लाघव की दृष्टि से सम्पूर्ण घटों में घटाभावाभावत्व को एक मानना होगा और वह भी लाघववश घटत्व रूप होगा। ऐसी स्थिति में घटाभाव रूप प्रतियोगी के ज्ञान विना घटाभावाभावत्वरूप घटत्व का ज्ञान न हो सकेगा। क्योंकि प्रभावत्व के प्रत्यक्ष में योग्यधर्मावच्छिन्न प्रतियोगी का ज्ञान कारण होता है । यदि यह कार्यकारण भाव न माना जायगा तो प्रभावस्व के निविकल्पक ज्ञान की पापत्ति होगी, जब को प्रभावत्व का निविफल्पक ज्ञान अनुभव और सिद्धान्त दोनों से विरुद्ध है। यदि यह कहा जाय कि'घटरव रूप से जो घटाभावाभाव का प्रत्यक्ष प्रा उसमें घटत्वरूप से प्रभावव का निर्विकल्पक ज्ञान इष्ट है अतः यह आपत्ति नहीं हो सकती है। तथा यदि घटाभावाभावस्व रूप से घटाभावाभाव के
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
[शा० वा० समुच्चय स्त. ४-श्नोक ३६
'अस्तु तर्हि अभावाभावोऽप्यतिरिक्त एव, तृतीयाभावादेः प्रथभाभावादिरूपत्वेनानवस्थापरिहाराद्' इति चेत् ? तो नन्ताभावाना तपाभावत्वस्य कल्पनामपेक्ष्य क्लप्साधिकरणे. वेब पोको भावस्तारिमापोऽनुमानः श्रीगनाम् । नहि 'अयमभावः' इति स्वातन्येण कम्शाऽपि अनुभवोऽस्ति, किन्त्यधिकरणस्वरूपमेव तचदारोपतत्तत्प्रतियोगिग्रहादिमहिम्ना तत्तदभावत्वेनानुभूयते इति ।
अथ तदभावलौकिकप्रत्यक्षे तज्ज्ञानस्य हेतुत्वाद् न स्वातन्त्ररेणाभावभानम् , अन्यप्रतियोगिकत्वेनान्याभावभानं तु नेष्यते, 'प्रमेयत्वं नास्ति, प्रमेयो न' इत्यादी संयोगाद्यवच्छिप्रत्यक्ष में प्रभावत्व का निविकल्पक प्रापाध हो तो भी यह नापत्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह प्रत्यक्ष प्रभावत्व अंश में घटाभावा भावविशिष्ट वैशिष्टयावगाहो है । प्रत एव उसके पूर्व में घटाभावत्वेन घटाभाव ज्ञान को सत्ता अनिवार्य होनेसे प्रभावत्व अंशमें विशेषपारूप से घटाभाव का ज्ञान अवश्य होगा। अत: उस प्रत्यक्ष द्वारा प्रभावत्व में निर्विकल्पकज्ञानविषयत्व का पापाबान नहीं हो सकता। तथा यदि यह कहा जाय कि-"घटामावाभावत्व और घटत्व एक है तो जसे घटत्व में शुद्ध निर्षिकरूपक को विषयता होती है उसी प्रकार प्रभावत्व में मी शुद्ध निविकल्पकीयविषयता की प्रापत्ति होगी।"-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि विशेष्यतानवच्छिन्न निर्विकल्पकीय विषयतासम्बन्ध से प्रत्यक्ष के उद्भव में प्रभावत्वमेव को कारण मानने से इस प्रापसि का परिहार हो सकता है।"-किन्तु यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकार कार्यकारणभाव मानने पर विशेष्यतानवच्छिन्ननिधिकल्पकीयविषयतासम्बन्ध से घटत्व का भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा, क्योंकि घटत्व और घटाभावामावस्व में ऐक्य होने से घटत्व में प्रभावत्व भेव नहीं है । यदि इस दोष का परिहार करने के लिए विशेष्यतानचिन्ननिविकल्पकाविषयता में भावाऽवृत्तित्व विशेषण दिया जाये तो अप्रसिद्धि दोष हो जायेगा क्योंकि उक्त प्रकार को सभी विषयता भावमें ही वृत्ति होती है। प्रभाव और प्रभावत्व में रहनेवाली समस्तविषयतार्य प्रतियोगिनिष्ठप्रकारतानिरूपितविषयता से प्रवछिन्न ही होती है। इसलिये माव में प्रवृत्ति हो ऐसी विशेष्यतानवच्छिन्ननिर्विकल्पकीयविषयता प्रसिद्ध नहीं हो सकती।
(अभाव का प्रभाव प्रतियोगो से भिन्न मानने पर भी गौरव) यदि इसके उत्तर में नैयायिक की और से यह कहा आय कि-"अभावामाव भी भावात्मकप्रतियोगी स्वरूप न मानकर अतिरिक्त प्रभावरूप ही मानेगे क्योंकि अमावाभाव को प्रतियोगी से भिन्न मानने पर विभिन्न प्रभाव की कल्पना में जो प्रनवस्था का प्रसङ्ग होता है उसका परिहार तृतीय प्रभाव को प्रथम अमाध रूप मानकर हो सकता है तो यह कथन भी ठोक नहीं है। क्योंकि अनंतप्रभाव की कल्पना और उनमें प्रभावत्व को कल्पना में अधिक गौरव है । उसकी अपेक्षा अवश्यस्वीकार्य प्रधिकरणों में प्रभावारमक एक परिणाम मानने में लाघव है। क्योंकि अधिकरणो में प्रभावास्मक पर्याय अनुभव सिद्ध है । यदि अधिकरण को छोड़कर स्वतन्त्र रूपसे 'अयमभावः' ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध हो तब तो अधिकरण से मिन्न प्रभाव की कल्पना को अवसर मीलता। किन्तु अनुभव यह है कि जिन अधिकरणों में प्रभाव की प्रतीति होती है जन प्रधिकरणों का स्वरूप ही प्रतियोगीसत्ता के प्रारोप से तथा प्रतियोगी ज्ञान प्रादि कारणों के सन्निधान से प्रभावत्व रूपसे मासमान होता है।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वा०क० टीका - हिन्दी विवेचना 1
[ ७१
अप्रमेयत्वाभावः स्वरूपसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन तत्तत्प्रमेयभेद एव च प्रमेयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन भासते । न च तथापि तदाज्ञानेऽपि घटान्तग्ज्ञानाद घटाभावप्रत्यक्षे समनियताभावस्यैक्ये एकधर्मावच्छिन्नाज्ञानेऽन्यधर्मावच्छिन्नज्ञानेऽपि तदवच्छिन्नाभावप्रत्यक्षं व्यभिचारः, तदभावप्रत्यक्षे तदभावज्ञानत्वेन हेतुखादिति न दोष इति चेत् न, द्रव्यत्वादिना तदभावाभावज्ञानेऽपि तदभावाप्रत्यक्षात् ।
तदभावप्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकज्ञानत्वेन हेतुत्वे तु कम्बुग्रीवादिमश्वस्य गुरुधर्मतया प्रतियोगितानवच्छेदकत्वेन 'कम्बुग्रीवादिमान् न' इति प्रत्यक्षानापत्तेः, तमः प्रत्यक्षे व्यभि
( प्रभाव का स्वतन्त्रबोध न होने में तर्क- पूर्वपक्ष)
नैयायिक की ओर से इस पर यह पूर्वपक्ष उपस्थापित किया जाय कि 'घटाभावाभाव को घटस्वरूप मानने पर घटाभाव की प्रज्ञानदशा में जैसे घटका लौकिक प्रत्यक्ष होता है उसी प्रकार घटा भावाभाव के भी लौकिक प्रत्यक्ष होने की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि तत्प्रतियोगिकामाच के प्रत्यक्ष में तवस्तु का ज्ञान कारण होता है । स एव स्वतन्त्ररूपसे घटाभाव का श्रवगाहन न कर के घटाभावाभाव का भान नहीं हो सकता । उक्त कार्यकारणभाव को स्वीकार करने में व्यभिचार आदि की प्रसक्ति भी नहीं है, क्योंकि अन्य प्रतियोगिकत्वरूप से अन्य प्रभाव का मान मान्य नहीं है। उक्त प्रकार का कार्यकारणभाव मानने पर 'प्रमेयत्वं नास्ति' और 'प्रमेयं न' इस वृद्धि की अनुपपत्ति' होने की प्राशङ्का भी नहीं की जा सकती। क्योंकि प्रभेयत्वं नास्ति' इस बुद्धि में संयोगसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक प्रमेयत्वाभाव का स्वरूपसम्बन्धावच्छ्ति प्रतियोगीताकत्वरूप से भान हो सकता है । एवं 'प्रमेयो न' इस बुद्धिमें तत्तत्प्रमेयभेव का प्रमेयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वरूप से भान हो सकता है । यदि यह कहा जाय कि 'घटाभाव का प्रत्यक्ष भी तद्धटप्रतियोगिकाभाव का प्रत्यक्ष है और वह तद्भट का मान न होने पर भी घटान्तर के ज्ञान से उत्पन्न होता है । इसलिये पूर्वोक्त कार्यकारण भाव में व्यभिचार होगा । एवं समनियताभाव के ऐक्य पक्ष में गुरुत्वाभाव और रसाभाव एक होता है अतः गुरुत्व को अज्ञानदशामें भी रसत्वावच्छिन के ज्ञान से गुरुत्व प्रतियोगिक रसाभाव का प्रत्यक्ष होता है । ग्रतः इस प्रत्यक्ष में व्यभिचार होगा' तो नैयायिक उस के निवारण में कह सकते हैं कि तवभावज्ञानत्वरूपसे तदभाव के प्रत्यक्ष में तज्ज्ञान को कररण मानने पर कोई दोष नहीं हो सकता, क्योंकि तद्धट की प्रज्ञानदशा में घटाभाव का प्रत्यक्ष घटाभावत्वेन होता है, तटाभावस्थेन नहीं होता, इसी प्रकार गुरुत्व की ज्ञानदशा में रसाभाव का प्रत्यक्ष रसाभावत्वेन होता है, गुरुत्वाभावत्वेन नहीं, अतः उद्भावित व्यभिचार को अवकाश नहीं है'
[नयायिक प्रोक्त कार्यकारणभाव में आपत्ति धारा ]
किन्तु नैयायिक का यह पूर्वपक्ष प्रयुक्त है क्योंकि इस कार्यकारण भाव में भी प्रत्यय व्यभिचार स्पष्ट है, जैसे, द्रव्याभावाभाव का द्रव्यत्वेन ज्ञान होने पर भी द्रव्याभावाभावत्वेन प्रत्यक्ष नहीं होता ।
यदि इस दोष के परिहार के लिये कहा जाय कि तदभाव प्रत्यक्ष में तदभावप्रतियोगितावच्छेदकप्रकारक ज्ञान को कारण माना जाय तो कम्बुग्रीवादिमत्त्वप्रकारक ज्ञान से 'कम्बुग्रीवादिनामास्ति' इस प्रत्यक्ष की ओ उत्पत्ति होती है वह नहीं होगी । क्योंकि 'कम्बुग्रीवादिमान्नास्ति' इस प्रोति के
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२ ]
[ शा.बा. समुच्चय स्त०४- श्लो० ३८
7
चारात् अभात्रे प्रतियोगितया घटादिवाधानन्तरं 'न' इत्याकारक प्रत्यक्षापत्तेश्व । बदरादौ कुण्डसंयोगादिधीकाले कुण्डाद्यमावधी वदभावे प्रतियोगिता संबन्धावच्छिन्नप्रतियोगितया घटवैशिष्टयश्रीकालेऽपि प्रतियोगितासामान्येन तदभावधी सम्भवात् ।
fastभूत कम्बुग्रीवादिप्रतियोगिताकाभाव का प्रतियोगितावच्छेदक लाघव होने से घटस्थ माना गया है न कि कम्बुग्रीवादिमत्त्व | इस लिये यह प्रत्यक्ष प्रतियोगितावच्छेदक की अज्ञानवशा में ही होता है । तदुपरांत, उक्त कार्यकारण भाव तिमिरप्रत्यक्ष में व्यभिचार होनेसे भी प्रमाणिक नहीं हो सकता। क्योंकि तिमिर का प्रत्यक्ष भी तेजके प्रभाव का प्रत्यक्ष है किन्तु वह तेजस्त्वेन तेजोजान के बिना ही उत्पन होता है । तथा उक्त कार्य कारणभाव मानने पर प्रभाव में प्रतियोगिता सम्बन्ध से घटका मावो न घटीय:' इस प्रकार बाध निश्चय रहने पर घटाभाव के 'न' इत्याकारक प्रत्यक्ष की प्रापत्ति भी होगी क्योंकि यह प्रत्यक्ष किसी को मो इष्ट नहीं है। इस पर यदि यह कहा जाय कि- "अभावो न घटोय:' इस बाधनिश्वय से अभाव में प्रतियोगितासम्बन्ध से घटमान का प्रतिबन्ध होकर 'न' इस प्राकार में घटाभावप्रत्यक्ष को प्रापति नहीं दी जा सकती। क्योंकि 'प्रभावो न घटप:' इस प्रतोति का स्पष्ट रूप है 'प्रभावः प्रतियोगितासम्बन्धावच्छ्ति प्रतियोगिताकघटाभाववान्' । इस प्रकार यह प्ररोति प्रभावयुग्म को स्पर्श करता है । इस प्रतोतिमें, विशेषणभूत प्रभाव में यवि प्रतियोगितासम्बन्धावच्छ्रित्र प्रतियोगिताकघटाभाव का भान प्रभावत्वावच्छेदेन मग्ना जायगा तो विश्वभूत अभाव में प्रतियोगिवसावच्छ्त्रिप्रतियोगिताक घटाभाव श्रवगाहो होनेसे यह बुद्धि श्राहार्य (इच्छानुचारी) हो जायेगी । अतः इस बुद्धि से प्रभाव में प्रतियोगितासम्बन्ध से घटभान का प्रतिवन्य शक्य न होने के कारण 'न' इत्याकार प्रत्यक्ष की प्रापत्ति नहीं हो सकती है । अब यदि यह बुद्धि विशेषण दल में अभावत्वसामानाधिकरण्येन प्रतियोगिता सम्बन्धावचित्र प्रतियोगिताक घटाभाव को स्पर्श करेगी तो भो वह प्रभावत्वामानाधिकरण्येन प्रतियोगितासम्बन्धेन घटप्रकारकबुद्धि का प्रतिबन्ध न कर सकेगो । फलतः इस पक्ष में भी 'न' इत्याकारक प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती" । किन्तु यह पक्ष भी ठीक नहीं है । व्याख्याकार ने इस पक्षको प्रयुक्तता बहुत अच्छे ढंग से बनाई है। उनका कहना यह है कि जैसे बदर में कुण्डसंयोग का ज्ञान होने पर भी संयोगसम्न्याचितियोगिताक कुण्डाभाव का भान होता है. क्योंकि बदरमें कुण्ड संयोग का निश्चय होने पर भी कुण्डसंयोग कुण्डप्रतियोगीक न होने के कारण कुण्डसंयोगवत्ता का नियामक न होने से कुण्डता का विरोध नहीं होता. इसलिये संयोगसम्बन्धावच्छ्रित्रप्रतियोगिताक कुण्डाभाव का ज्ञान होता है, उसी प्रकार 'प्रभावोन घटीय' इस निश्चयमें विशेषणभूत प्रभाव में घट प्रतियोगितासम्न्याचितियोगितासम्बन्ध से रहेने पर भी वह सम्बन्ध प्रतियोगितासामान्यसम्बन्धेन घटवत्ता का निरक नहीं होता । श्रत एव उसके ज्ञानसे प्रतियोगित्वसम्बन्धावच्छ्नि प्रतियोगिताक घटसामान्याभाव का उससे विरोध नहीं होता । इसलिये प्रभाव में प्रतियोगित्वसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिरा से घटकी बुद्धि होने पर भी प्रभावत्वावच्छेदेन प्रतियोगितासामान्यसम्बन्धाव नियोगता घटाभाव का अनाहार्य स्वाभाविक निश्चय हो सकता है। अत एव उस निश्चय के रहने पर प्रभाव में प्रतियोगितासम्बन्धसे घटभान का प्रतिवन्ध सम्भव होने के कारण 'न' इस रूपमें घटाभाव के प्रत्यक्ष की प्रापत्ति हो सकती है ।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
P
श्या० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ ७३
अपि च एतादृशानन्तप्रतियोगिज्ञानानामिन्द्रियसम्बद्ध विशेषणता रूपाऽऽलोकादीनां पृथगनन्त हेतु - हेतुमद्भावकल्पनापेक्षया लाघवादधिकरणस्यैव घटाभाववश्वेन ग्रहे क्लृप्तविशिष्ट - वैशिष्ट्यबोधस्थलीय मर्यादया निर्वाहः किं न कल्प्यते !, अधिकरणस्वरूपाभावमात्रग्रहे इष्टापत्तेः, अभावत्वस्य च संप्रतियोगिकत्वेन प्रतियोगिग्रहं विनाऽग्रहात्, 'भाषाभावरूपं जगत्' इत्युपदेश सहकृतेन्द्रियेण पथरागत्ववत् तद्ग्रहेऽपीष्टापचेर्वा ।
( प्रभाव - अधिकरण भिन्नता पक्ष में कल्पनागौरव)
अभाव और प्रधिकरण के परस्पर भेद के विरुद्ध यह भी एक युक्ति है यदि अभाव अधिकरण सेभित्र माना जायगा तो एक अधिकरण में प्रतीत होने वाले घटपटादि प्रनम्त प्रभावों को सूतलाधि रूप एक प्रधिकरण से भिन्न मानना होगा और उन प्रभावों में एक प्रभाव के प्रतियोगों के ज्ञानसे ग्रन्य प्रभाव का ज्ञान तो हो नहीं है इसलिये तत्तदभावज्ञानमें अनन्त तत्प्रतियोगीज्ञान को कारण मानना होगा। तथा प्रनन्त प्रभाव के साथ अनन्तइन्द्रियसम्बद्ध विशेषणता सन्निकर्ष को भी कारण मानना होगा । रूपवान् अधिकरण में ही प्रभाव का चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है इसलिये प्रभाव के बा
प्रधिकरणगत रूप को कारण मानना होगा। इसी प्रकार श्रालोकाभावमें भी तत्तदभाव का ग्रहण नहीं होता इसलिये तत्तवनाथ के चाक्षुषग्रह में प्रालोक को भी कारण मानना पड़ेगा। तो इस प्रकार प्रभाव को प्रधिकरण से मिल मानने पर प्रभावबुद्धि और प्रतियोगीज्ञानादि में अनन्त कार्य-कारण भाव की कल्पना करनी होगी । यह कल्पना घटाभाव और अधिकरण में अभेद मानने की अपेक्षा घश्यन्त गौरवप्रस्त है।
(श्रभेद पक्ष में कल्पनालाघव)
अधिकरण और प्रभाव के प्रभेद पक्षमें लाघव है । जैसे, 'भूतलं घटाद्यभाववत्' इस प्रकार की बुद्धिमें घटाविज्ञान को पृथक कारण मानने की श्रावश्यकता नहीं होगी, क्योंकि यह बुद्धि प्रभावांशमें विशिष्टवैशिष्टचावगाही है धौर विशिष्टवैशिष्ट्घावगाही शोध के प्रति विशेषणतावच्छेदकप्रकारक विशेषणज्ञान को कारणता सिद्ध है अतः इसी कार्य-कारण भाषके बलसे घटादि की प्रज्ञानदशामें घटाभावादिरूप से प्रधिकरणज्ञान की उत्पत्ति की प्रापत्ति का परिहार हो जायेगा । अतः इस मत में प्रभावज्ञान में प्रतियोगिज्ञानादि की पृथक् कारणता की कल्पना नहीं करनी पड़ेगी। अभाव और अधिकरण के अभेद पक्षमें यवि यह प्रापत्ति दो जाय कि- घटादिज्ञानके प्रभाव में भी मूतलादिज्ञान की सामग्री रहने पर घटाद्यभाव का ज्ञान हो जायेगा तो यह मापत्ति दोषरूप नहीं है। क्योंकि घटादिक ज्ञानदशायें अधिकरणस्वरूपमात्र से घटावि प्रभाव का ज्ञान इष्ट ही है। एवं घटमान भूतलादिरूप प्रधिकरणज्ञान की प्रापत्ति नहीं दी जा सकती, क्योंकि प्रभावत्व सप्रतियोगिक है. श्रत एव प्रभावश्व का ज्ञान जब होगा तब उसमें विशेषणविषया प्रतियोगी का मान प्रवश्य होगा, प्रसः तद्विशिष्टविषयक बुद्धिमें तज्ज्ञान काररण होनेसे प्रतियोगीतान के बिना अभावस्य ज्ञानको आपत्ति नहीं हो सकती ।
दूसरी बात यह है कि भूतल प्रौर सूतल में घटाभावत्य नानकी जो प्रापत्ति
घटाभाव को अभिन्न मानने पर घटकी प्रज्ञानदशामें मी दी जाती है उसे इष्टापति के रूप में स्वीकार किया जा
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४]
[ शा. वा. समुच्चय-स्त० ४ - श्लो० ३८
,
'अधिकरणस्वरूपाभावाभ्युपगमे आधाराधेयभावानुपपत्तिः' इति चेत् ? न धर्मिताऽऽख्यस्याभेदस्याधारता नियामकत्वात् । ' कीदृशमधिकरणं घटाभावः' इति चेत् ? यादृशं तव घटाभावाश्रयः । " मम भूतले घटानयनदशायां पक्ष 'घटो जाति' इति न व्यवहारः, तव तु तादृशस्यैव भूतलस्वरूपरूप सत्तात् तत्प्रामाण्यापत्तिः" इति चेत् ! न, तदा घटमंयोगपर्यायेण घटाभावपर्यायविगमात् । 'इदानीं घटाभावाभावो जातः' इति सार्वजनीनानुभवात् । न चैवं भूतलादतिरेकः, पर्यायादेशादतिरेकेऽपि द्रव्यादेशादन तिरेकात्, पर्यायद्वारा द्रव्यविमस्यैव प्रत्यभिज्ञानाऽप्रतिप्रन्थित्वात् 'श्याम उत्पन्नः रक्तो विनष्टः' इति वैधर्म्य - ज्ञानकालेऽपि स एवायं वटः' इति प्रत्यभिज्ञायाः सर्वसिद्धत्वात् ।
"
सकता है । क्योंकि जिसको “मावाभावरूपं जगत् संसार की प्रत्येक वस्तु भावाभावो भयात्मक है" यह उपदेश प्राप्त है उसे इन्द्रियमात्र से भी प्रत्येक वस्तु में प्रभावत्व का ज्ञान उसी प्रकार हो सकता है जसे पद्मराग के उपदेश से सहकृत इन्द्रिय से पद्मरागत्य का ज्ञान हो जाता है ।
[ श्राधार-आधेय भाव को उपपत्ति ]
यदि यह शङ्का हो कि - " प्रभाव और अधिकरण में भेद मानने पर मूतलादि और घटादि में श्राधाराधेयभाव नहीं होगा ।" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अधिकरणमें प्रभाव का धर्मितारूप प्रभेद मान्य है और यह प्रमेद आधारता का नियामक होता है । जिनमें धर्मधर्मभाव नहीं होता है उनमें रहने वाला प्रभेद श्राधारता का नियामक नहीं होता। जैसे तद्घटत्वात्रि में तद्द्घटत्वावच्छिन्न का मेव आधारता का नियामक नहीं होता । किन्तु तघटमें विद्यमान धर्म और तद्घटरूप धर्म का अभेद धमितारूप होने से तद्घट में उसके धर्मको प्राधारता का नियामक होता है, यथा 'तद्घटः तत्रूपवान्' इस प्रतीति से सिद्ध है ।
[ कैसा अधिकरण घटाभाव ? ]
प्रभाव और अधिकरण के प्रभेव में 'कोट्शं अधिकरणं घटाभावः = कैसा अधिकरण घटनाव है-? इस प्रश्न के समाधान को अशक्यता भी नहीं मानी जा सकती । क्योंकि अधिकरण और प्रभावके भेद पक्षमें कोट्शं अधिकरणं घटाभावाश्रयः = कंसा प्रधिकरण घटाभाव का आश्रय है। ?" इस प्रश्न का जंसा समाधान होगा उसी प्रकार का समाधान ' कीदृशं अधिकरणं घटाभाव:' इस प्रश्न का भी हो सकता है। आशय यह है कि अधिकरण और प्रभाव के भेद मानने वाले को कोट्शं अधिकरणं घटाभाव:' इस प्रश्न का उत्तर यही देना होगा कि जिस अधिकरण में घटाभावप्रकारक बुद्धि का प्रामाण्य लोकसम्मत है वही घटाभाव का अधिकरण होता है।' तो यही उत्तर प्रभाव और प्रधिकरण के प्रभेद पक्षमें भी दिया जा सकता है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि जिस अधिकरण में भाव बुद्धि का प्रमात्य लोकमान्य है वही अधिकरण घटानाव स्वरूप है ।
यदि यह शङ्का की जाय कि - प्रभाव और भूतल के साथ घटाभाव का सम्बन्ध तुट जानेसे करण और प्रभाव के प्रभेदपक्षमें घटानयन पूर्व
जो
अधिकरण के भेद पक्षमें भूतल में घटानयन होने पर 'घटो नास्ति' यह व्यवहार नहीं होता किन्तु प्रधिभूतल स्वरूप था, घटको लाने पर भी बहू स्वरूप
T
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० ० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[७५
-
-
एतेन 'एवं दुःखध्वसरूपमोशस्यात्मानतिरेकेणासाध्यत्वादपुरुषार्थत्वं स्यात्' इत्यादि बाधकं निरस्तम्, आत्मनोऽपि पर्यायतया साध्यत्वात् । परस्य तु घटानयनदशायां भूतले घटाभावव्यवहारप्रामाण्यापत्तिः, भृतलस्वरूपस्य संबन्धस्य सत्वात् । 'तदभावभ्रमदर्शनेन
प्रक्षण्ण रहता है । अत एव उस कालमें भी 'भूतले घटो नास्ति' इस व्यवहार के प्रामाण्य की प्रापत्ति होगी।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि घटसंयोग और घटाभाव ये दोनों ही भूतल के परस्पर विरोधो पर्याय है । अत: घटानयन कालमें घटसंयोगरूप पर्याय का उदम होमेसे घटामावरूप पर्याय का प्रभाष हो जाता है, । अत एवं उस दशामें 'भूतले घटामाव: यह व्यवहार को मापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि व्यवहार के प्रामाण्यके लिये व्यवहार कालमें ग्यवर्त्तव्य की सत्ता अपेक्षित होती है।
[द्रव्य और पर्याय का भेदाभेद सम्मत है] पदि यह कहा जाय कि-'पर्याय तो उत्पत्ति-विनाशशाली होता है । किन्तु घटाभाव उत्पत्ति विनाशशाली नहीं होता अतः उसे भूतल का पर्याय कहना उचित नहीं है ।'-तो यह ठीक नहीं है। षयोंकि मतलसे घटको हठामे पर "हदानी मतले घटामावो जातः अब भूतलमें घटामाय उत्पन्न हुआ" इस प्रकार का अनुभव सर्वजनप्रसिद्ध है।
यदि इस पर यह शडा हो कि "प्रभाष को उत्पन्न मानने पर तो मूतलसे उसका भेद हो सिद्ध होगा। क्योंकि भूतल से घटको हटाने पर "इदानीं भूतलं जातं" यह अनुभव नहीं होता किन्तु 'भूतले घटामावो मात:' यही अनुभव होता है।"--तो यह ठीक नहीं है क्योंकि भूतल एक द्रव्य है और घटसंयोग तथा घटाभाव उसके पर्याय है। पर्याम और द्रव्य में भेदाभव होता है। प्रतः पर्याय को प्रष्टि से प्रभाव में भूतल का भेद होने पर भी व्रव्य की दृष्टि से घटाभाष में भूतल का भेव उत्पन्न हो सकता है। मूतल में घटाभाव उत्पन्न होने पर घट संयोगात्मक पर्याय की निवृत्ति होने से उसके द्वारा यद्यपि भूतल द्रव्य का भी विगम हो जाता है। फिर भी घटवत्कालीन मूतल और पदाभाव कालीन भूतल में ऐक्य की प्रतिजा में बाधा नहीं हो सकती। क्योंकि पर्यायद्वारफ द्रव्य का विगम ऐक्य की प्रत्यभिज्ञा का विरोधी नहीं होता है। इसलिये 'श्यामः घट: उत्पन्न:' 'रक्तो घटः नष्ट:' इस प्रकार श्यामात्मना घट की उत्पत्ति और रक्तात्मना घट का नाश होने पर मौ स एवायं घट:' इस प्रकार को प्रत्यभिज्ञा का होना सर्व सम्मत है ।
[अभाव-प्रधिकरण-प्रभेद पक्ष में मोक्ष पुरुषार्थ की उपपत्ति] इसीलिये-प्रभाव और अधिकरण के अमेव पक्ष में-"दुखवंसरूप मोक्ष में प्रारमा का भेद न होने से प्रात्मा असाध्य होने के कारण मोक्ष मो असाध्य हो जायेगा इसलिये मोक्ष के पुरुषार्थत्व को हानि होगी अर्थात् पुरुष के लिये वह अभिलाष विषय नहीं रहेगा।" यह मापत्ति भी प्रभाव और अधिकरण की ममेद सिद्धि में बाधक नहीं हो सकती क्योंकि दुखध्वंसरूप मोक्ष मो प्रारमा का पर्याय है । प्रतः (दुखामावरुप)पर्यायात्मना पास्मा में भी साध्यस्व इष्ट है । प्रापत्ति सो सचमुच, प्रभाव और अधिकरण के भेव पक्ष में ही प्रसक्त होती है । जैसे, भूतल में घट के प्रानयनकाल में "भूतले घटो नास्ति' यह व्यवहार के प्रामाण्य को प्रापत्ति संमवित है। क्योंकि उस काल में नित्य होने के नाते घटाभाव भी है और मूसलस्वरूप उसका सम्बन्ध भी है। अत: सम्बन्ध और सम्बन्धी शेनों के विद्यमान होने से उक्त व्यवहार के प्रामाण्य का निराकरण सम्भव नहीं है ।
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा.पा. समुच्चय स्त• ४-इलो०३८
तस्य तदा न संबन्धत्वमि त्यस्य वक्तुमशक्यत्वात् , उक्तोपलक्षणोपलक्षितस्वरूपानवच्छिनसांसर्गिकविषयतापटितप्रामाण्यस्य वाधज्ञानाद्युत्तंजकाऽप्रमाण्यज्ञानादौ निवेशे महागौरवात् ।
न च तदा भृतले घटाभावसंबन्धसत्वेऽपि तत्सम्बन्धावच्छिनाधारताभावात् तदभाववद्विशेष्यकत्वावच्छिन्नतत्प्रकादानजलालाबाहिरसि वयम् । धर्म-धर्मिस्वरूपा
[नयायिक मत में गौरव दोष] यदि यह कहा जाय कि "घट वाले मूतल में भी घटामाव की वृद्धि होती है और उसे भ्रम माना जाता है, इससे यह सिद्ध है कि उस समय मूलल स्वरूप घटाभाव का सम्बन्ध नहीं होता, इसलिये उस समय मूतल में घटामाव का सम्बन्ध न होने से उस समय के 'मूतले घटो नास्ति' इस व्यवहार का प्रामाण्य दुर्घट है" तो यह शक्य नहीं है । क्योंकि भूतलस्वरूप सम्बन्ध से घटामाव प्रकारक प्रामाण्य का निर्वचन असमानकालिकत्यसम्बन्ध से अप्रामाण्यज्ञानास्कंबितबाधज्ञानविशिष्ट भूतलस्वरूपनिष्ठ सांसगिकविषयताकझानत्वरूप करना होगा । व्याख्या में उपलब्ध 'उक्सोपलक्षणोपलक्षितस्वरूपानवच्छिन्न' का अर्थ है असमान कालिकत्व सम्बन्ध से उक्तोपलक्षणोपलक्षितस्वरूपवंशिष्टप अथवा उक्तीपलक्षणवैशिष्टय । यहाँ उक्तोपलक्षण का अर्थ है भूतल में घटानयन काल में होने वाला अप्रामाण्यज्ञानभास्कंदित 'भूतल में घटज्ञान' रूप वाघज्ञान । भूतल में घर को प्रसत्त्वदशा में उक्त बाधज्ञान सम्भव नहीं होता अतः उस काल में होने वाले घटामाष ज्ञान की भूतल स्वरूप निष्ठ सांसगिक विषयता में असमान कालिकत्व सम्बन्ध से तादश बाधज्ञानरूप उपलक्षण बशिष्ट्य रहता है किन्तु भूतल में घटानयन वैशा में भूतल में घटज्ञान हो जाता है अतः उसमें प्रप्रामाण्य ज्ञान होने पर ही भूतल में घटाभाव ज्ञान होता है । अत एव उस ज्ञान को सांसगिक विषयता ताइशज्ञान को समकालीन हो जाती है । अतः असमानकरलिकत्व सम्बन्ध से तादृशज्ञान विशिष्ट भूतलस्वरूपनिष्ठ संसर्गताकत्व रहने से उक्त ज्ञान में घटाभाव प्रकारक प्रमात्व को मापत्ति नहीं हो सकती-किन्तु भूतल स्वरूप सम्बन्ध से घटाभाव प्रकारक प्रामाण्य का ऐसा निर्वचन करने पर उसके गर्भ में प्रपमान कालिकत्व सम्बन्ध से प्रप्रामाण्य ज्ञान विशिष्ट बाघ ज्ञान का निवेश करने से महागौरव होगा । तथा, जब प्रधिकरण मोर प्रभाव में अभेव माना जाता है तब भूतल में घटानयन काल में घटामाय रूप पर्याय का विगम हो जाने से हो 'भूतले घटो नास्ति' इस व्यवहार के प्रामाण्य की प्रापत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि तत्काल में तद्धर्मों में तवाचव्हार के प्रामाण्य का नियामक है तत्कालावच्छेवेन तसर्मी में तत्प्रकारकबुद्धि जनकत्व' । प्रतः इस कल्पना की अपेक्षा पूर्व कल्पना में गौरव स्पष्ट है।
[आधारता का प्रभाव अप्रामाण्यरक्षक नहीं होगा] यदि यह कहा जाय कि-"भूतल में घटानयन काल में घटामाय का सम्बन्ध होने पर भी उस सम्बन्ध से भूतल में घटामाय को प्राधारता नहीं होती इसलिये उस समय भूतल घटाभावामाववाला
'विषयताघटितप्रामाण्यस्य बाद्यबानाय त्तेजकाप्रामाण्यज्ञानाको निवेशे इस मूल पाठ को 'विषयनाघटितप्रामाण्ये बायझानाद्य तेवकाप्रामाण्यज्ञानादिनिवेशे' इस रूप में रखना उचित प्रतीत होताई।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
+
स्था० क० टीका - हिन्वीविवेचना 1
परायचात्राधारताथा अप्यपरावृतेः, ताशाभारताद्यभावकल्पनापेक्षया तदभावविगमकल्पनस्यैव न्याय्यत्वात् ।
प्रसङ्गः,
अधाभावस्याधिकरणानतिरेके मृद्द्रव्यस्यैव घटप्रागभावत्वात् तदनिवृत्तौ घटानुत्पतिकपालादेरेव घटनाशत्वेन तमाशे प्रतियोग्युन्मज्जनप्रसङ्ग इति चेत् १ न, प्रागभावप्रध्वंसयोर्द्रव्य-पर्यायोभयरूपत्वेनानुपपत्यभावात् । तथाहि व्यवहारमयादेशाद् घटपूर्ववृत्तिस्वविशिष्टं स्वद्रव्यमेव घटप्रागभावः घटोत्तरकालवृतित्वविशिष्टं च स्वद्रव्यमेव घटध्वंसः, पूर्वकालवृत्तित्वादिकम् च परिचायकम् न तु विशेषणम् आत्माश्रयात्, विशिष्टस्य अतिरिक्तनानतिप्रसङ्गाच्च ।
हो जाता है । श्रतः घटाभावाभाववत् विशेष्यकत्वावच्छिझघटाभाव प्रकारकत्व रूप प्रप्रामान्य की हानि नहीं हो सकती और घटाभावप्रकारकप्रामाण्य को आपत्ति भी नहीं हो सकती। क्योंकि घटाभावप्रकारक प्रामाण्य घटाभाववद्विशेष्यकत्वावच्छिल घटभावप्रकारकत्व रूप है और घटा नयन दशा में मूतल घटाभाववान् हो नहीं सकता क्योंकि तत्कालीन घटाभाव का सम्बन्ध घटाभाव की प्राधारता का नियामक नहीं है"।- तो यह कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि घटानयन काल में
तल और घटाभाव के स्वरूप में कोई परिवर्तन न होने से भूतल में घटाभाव की आधारता का भी विरह नहीं मान सकते। दूसरी बात यह है कि प्रभाव और अधिकरण के मेव पक्ष में घटानयन काल में भूतल में घटाभाव की आधारता के प्रभाव को कल्पना करनी होती है। उसकी अपेक्षा घटाभाव की निवृत्ति की कल्पना करना ही न्यायोचित है। क्योंकि घटाभावाधारता के प्रभाव से घटाभाव का प्रभाव लघुशरीरक है ।
( प्रागभाव-ध्वंस दोनों की अनुपपत्ति की प्राशंका )
नैयायिकों की ओर से यदि यह शङ्का की जाय कि - " प्रभाव और अधिकरण में ऐक्य मानने पर मिट्टी ही घटप्रागभाव होगा । श्रतः घटकी उत्पावक सामग्री का विधान होने पर घटप्रागभाव की निवृत्ति होने से मिट्टी द्रव्य भी निवृत्त हो जायेगा । इसलिये मूल कारण का अभाव हो जाने पर घटक उत्पत्ति नहीं होगी अथवा मिट्टी द्रव्य के बने रहने से घटप्रागभाव की निवृत्ति न होने के कारण मी घटकी अनुस्पत्ति का प्रसङ्ग होगा । क्योंकि घटप्रागभाव और घट दोनों का एक काल में अस्तित्व नहीं हो सकता । एवं कपालमें घट का नाश इस मतमें कपालाविरूप होगा अतः कपाल का नाश होने पर घट का भी नाश हो जाने से घटके पुनः प्रस्तित्व की प्राप्ति होगी"
( अभाव द्रव्य-पर्याय उभयस्वरूप है )
तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रागभाव और ध्वंस को द्रव्यपर्याय उमयस्वरूप मानने से कोई दोष नहीं हो सकता । जैसे, व्यवहार नय की दृष्टि से घटपूर्ववृतित्वविशिष्ट मिट्टी ब्रष्य हो घटप्रागभाव है और घटोस रकालवृत्तित्वविशिष्ट मिट्टी द्रव्य ही घटध्वंस है । इस निर्वचन में वृत्तित्वपर्यन्तमाग परिचायक है विशेषर नहीं क्योंकि उसे विशेषण मानने पर म्रात्माश्रय दोष लगेगा। जैसे, घटपूर्ववृत्तित्व का अर्थ घटप्राग माथाधिक ररणकाल वृत्तित्वरूप होगा, अतः उसको विशेषरण मानने पर घट
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
]
[ शा. वा. समुच्चय स्त० ४ श्लोक ३८
ऋजुसूत्रनयादेशाच्च प्रतियोगिप्राच्यक्षण एव ग्रागभावः, उपादेय क्षण एक चोपादानसः । न च तत्पूर्वोत्तरक्षण योघन्मज्जनप्रसङ्गः, तत्संतानोपमर्दनस्यैव तदुन्मज्जननियामकत्वादिति व्यक्तं स्याद्वादरत्नाकरे |
विवि
प्रागभावकाल वृत्विविशिष्ट स्वथ्य को स्थिति घटप्रागभाव की स्थिति के प्राधीन हो जायेगी । क्योंकि विशेषण के स्थिति कालमें ही विशिष्ट को स्थिति हो सकती है। अतः घटप्रागभाव अपनी स्थिति में श्रात्माश्रयदोष से ग्रस्त हो जायेगा । तथा, उसे विशेषण मानने पर ज्ञप्ति में भी प्रात्माश्रय होगा। क्योंकि घटप्रागभाव के विशेषण कुक्षि में घटप्रागभाव का प्रवेश हो जाता है और विशिष्टबुद्धिमें विशेषणज्ञान कारण होता है, इसलिये घटप्रागभाव का ज्ञान अपेक्षणोय हो जाता है । एवं घटध्वंस के शरीर में प्रविष्ट घटोत्तरकालवृत्तित्व भी घटाधिकरपकालवृत्तित्वरूप है । अतः उसे भी विशेषण मानने पर घटीसरकाल वृत्तित्वविशिष्ट मिट्टोद्रव्यकी स्थिति घटध्वंस के अधीन हो जायेगी । प्रतः घटयंस सी अपनी स्थिति में श्रात्माश्रय ग्रस्त हो जायेगा । एवं यहाँ भो ज्ञप्ति में श्रात्माश्रय होगा, क्योंकि घटध्वंस के विशेषण भाग में घटस का प्रवेश हो जानेसे उसके ज्ञान में घटध्वंस का ज्ञान प्रपेक्षणीय हो जायेगा । [ श्रात्माश्रय दोष का परिहार ]
घटपूर्वकालवृत्तित्व और घटोत्तरकालवृत्तिस्थ को प्रागभाव और ध्वंसके शरीर में परिभ्रायक मानने पर यह श्रापत्ति नहीं होगो । क्योंकि परिव्ययोग्य की स्थिति परिचायक की स्थिति के अधीन होती नहीं है । अत एव उसे परिचायक मानने पर ज्ञप्ति में भी प्रामाश्रय नहीं होगा। क्योंकि घटोत्पत्ति के पूर्व 'मुद्द्रव्यं घटः' यह जो प्रतीति होती है वह मिट्टी द्रव्य में पूर्वकालवृत्तित्व सम्बन्धसे घटप्रकारक मानी जायेगी एवं मुद्रव्यं घटध्वंसवत्' यह प्रतीति उत्तरकालवृत्तित्वसम्बन्धसे मुद्रव्य में घटप्रकारक होगी । सम्बन्ध के शरीर में प्रागभाव और ध्वंस का प्रवेश होने पर भी प्रागभाव और ध्वंस को ज्ञप्ति में मात्माश्रय नहीं होगा, क्योंकि सम्बन्ध के भान के लिये उसके पूर्वज्ञान की अपेक्षा नहीं होगी ।
यदि यह शङ्का की जाय कि-" मध्य को ही घटप्रागभाव और घटध्वंस रूप मानने पर दोनो में ऐक्य हो जायेगा | जिसके फलस्वरूप घटध्वंस काल में घटप्रागभाव के व्यवहार की और घटप्रागभाव
में घटध्वंस के व्यवहार की प्रापत्ति होगी" तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि विशिष्टवस्तु विशेषण और विशेष्य दोनों से प्रतिरिक्त होती है प्रतः उक्त प्रतिप्रसङ्ग नहीं हो सकता ।
(पूर्वोत्तरक्षणात्मक प्रागभावध्वंस - ऋजुसूत्र )
ऋजुनको दृष्टि से प्रतियोगीका पूर्वक्षण प्रागभाव है और उसका उपादेय याने कार्यक्षण है प्रतियोगीरूप कारण का ध्वंस |
यदि यह शङ्का की जाय कि "यवि प्रतियोगी का प्राच्यक्षण ही उसका प्रागभाव हैं और उसका कार्यक्षण उसका ध्वंस है तो प्रतियोगी के पूर्व तृतीयक्षणमें और प्रतियोगी के उत्तर तृतोपक्षणमें प्रतियोगी के अस्तित्व की प्रापत्ति होगी । क्योंकि उन क्षणो में प्रतियोगी सत्ता का विरोधो प्रागभाव प्रथवा ध्वंस नहीं रहता" तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि प्रतियोगों के सन्तान का उपमर्वन ही प्रतियोगी के उन्मज्ञ्जन का नियामक हो सकता है। प्रतियोगी के पूर्व तृतीयक्षणमें और प्रतियोगी के उतर
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका और हिन्नी विवेचना ]
[.
अथ 'मुद्गरपाताद् विनष्टो घट' इति प्रतीत्याऽतिरिक्तनाशानुभवः, नहि भूतलं तद्बुद्धिर्वा तज्जन्या, तेन विनापि तयोः सत्वादिति चेत् ? न, मुद्भरपातेन कपालकदम्बकोत्पादरूपस्यैव विभागजातस्य घटध्वंसस्य स्वीकाराद , तध्वंसोत्तरं संयोगविशेषेण कपालोत्पत्तिस्वीकारस्य कम्पनामात्रत्वात् , 'मुद्रपातजन्यविलक्षणपरिणामवान् घट' इति प्रकृतवाक्यार्थत्वात् । एतेनेदं व्याख्यातम्
दृष्टस्तावदयं घटोत्र नियतं दृष्टस्तथा मुद्गरो
दृष्टा कपरसंहतिः परमतोऽभावो न दृष्टोऽपरः । तृतीयक्षण में प्रतियोगी का सन्तान विद्यमान रहता है । अत: उसके रहते हुये उसके उन्मज्जन को मापत्ति नहीं हो सकती।
प्राशय यह है कि वस्तुका पूर्वोत्तर सन्तान वस्तु का विरोधी होता है । अत: उसके रहते हुये बस्तुके उन्मज्जनकी प्रापत्ति नहीं हो सकती । बस्तु के उदयकाल में वस्तु का पूर्वोत्तर सन्तान नहीं होता प्रतः उसी समय वस्तु का सद्भाव होता है । यह विषय स्यावावरत्नाकर में विशेषतः स्पष्ट किया गया है।
[स्वतन्त्रनाश को प्रतीति को शंका का विलय] यदि नयायिक की प्रोर से यह शङ्का की जाय कि-'मुद्गर के प्रहार से घट नष्ट हुमा इसी प्रकार घटनाश को मुद्गर प्रहार जन्यरूप से प्रतीति होती है । प्रत: घटनाश को भूतल प्रयवा शून्य भतस की बुद्धि से भिन्न मानना प्रावश्यक है । क्योंकि यदि घटनाश भूतल रूप या शून्य भूतल को बुद्धिरूप हो तो उक्त प्रतीति को उपपत्ति न हो सकेगी, क्योंकि भूतल और उसकी बुद्धि मुद्गरघात के प्रभाव में भी होते हैं तो यह ठीक नहीं हैं। क्योंकि मुद्गर के प्रहार से घट के अवयवों का विभाग होता है और उससे कपाल समूह को उत्पत्ति होती है । कपाल समूह को उत्पति ही घट का ध्वंस है । प्रतः कपाल समूहोत्पादक में मुद्गरपातजन्यत्य होने से तप घटबंस में मुद्गरपातजन्यस्व की प्रतीति में कोई बाधा नहीं हो सकतो, एवं इस पक्ष में स्वतन्त्र घदध्वंस की प्रसंक्ति भी नहीं होती।
यदि कहा जाय कि-"मुद्गरपात से घटध्यस होने के समय कपालों का मो ध्वंस हो जाता है फिर भी घट ध्वंस काल में जो कपाल का दर्शन होता है यह नवीन संयोग से कपालों की उत्पत्ति होने के कारण होता है अतः कपालोत्पाद मुद्गर पात जन्य नहीं है। इसलिये घटध्वंस को कपालोत्पाद रूप मानने पर घट ध्वस में मुद्गरपातजन्यत्व को प्रतीति का समर्थन नहीं हो सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह नियुक्तिक कल्पना मात्र है। क्योंकि मुद्गर का प्रहार होने पर कपालनाश न होने पर भी घट-अवयवों के दिमाग से घट का नाश होना अनुभव सिद्ध है। इसलिये मुद्गर पात से घट का नाश होता है इसका यही अर्थ मानना उचित है कि घट मुगर से विलक्षण परिमाण को प्राप्त होता है । घट का यह विलक्षण परिणाम ही घट का नाश है।
उक्त निरूपण से इस कथन की भी व्याख्या करने को जरूर महीं रह जातो कि
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा. वा. समुभषय स्व०-४ श्लोक-16
-
तेनामाव इति श्रुतिः क्व निहिता किंवा सत्कारणं
स्वाधीना कलशस्य केवलमियं दृष्टा कपालावली ॥१॥ इति । अथ कालविशेषविशिष्टाधिकरणेनैवाभावान्यथासिद्धाक्वयव्यादेरप्यसिद्धिप्रसङ्ग इति चेत् ? न, कालविशेषस्य द्रव्यपर्यायोमयरूपत्वेन तस्यैवाभावाऽवयव्यादिरूपत्वस्येष्टत्वाव , शबलवस्त्वम्युपगमे दोषामावादिति दिक् ।
प्राभाकरास्तु-घटषद्भुतलबुद्धिभिन्ना भूतलबुद्धिर्धटामावः । न च घटवति घटाऽज्ञानदशायां तदभावापत्तिः, अन्याभावानभ्युपगमात् , तद्वयवहारस्य च प्रतियोग्यधिकरणाने यावत्प्रतियोग्युपलम्मकसरचे चेष्टत्वात् ।
[विभक्त कपालखंड ही घटनाश है] "घट. मुद्गर और मुद्गरप्रहार के बाद कपाल समूह, बस इतनी हो वस्तुएँ देखने में प्राती है। इनसे प्रतिरिक्त प्रभाव जैसी कोई वस्तु देखने में नहीं आती। अत: मुगरपात के बाद कपाल समूह के वर्णन के समय जो प्रभाव पद का प्रयोग सुनने में प्राता है उसका कोई अतिरिक्त प्रर्थ और उसका कोई कारण युक्ति द्वारा उपलब्ध नहीं, होता, कलश का केवल कपालसमूह रूप एक परिणाम मात्र ही दृष्टिगोचर होता है।"-इससे स्पष्ट है कि घटनाश कोई अतिरिक्त वस्तु नहीं है अपि तु घट के उपर मुद्गर का अभिघात होने पर कपालों के विभाग होने से जो पविभक्त कपाल समूह की उत्पत्ति दृष्टिगोचर होती है वह घट का नाश है।
नयायिक को प्रोर से इस पर यह शङ्का की जा सकती है कि "यदि कालविशेषविशिष्टाधिकरण से ही प्रभाव को अन्यथासिद्ध किया जायेगा तो अवयवी आदि की मी प्रसिद्धि हो जायेगी। मर्थात् घट भी एक अतिरिक्त द्रव्य न हो कर घटानुभव कालविशेष विशिष्ट कपालसमूह स्वरूप ही रह जायेगा"। किन्तु यह शङ्का अनिष्ट मापादक नहीं है । क्योंकि कालविशेष यह द्रव्यपर्यायउभयरूप होता है और यही प्रभाव और अवयवी माधि रूप भी होता है। उससे अतिरिक्त प्रभाव पौर प्रवयवी प्रावि की सत्ता नहीं होती । इस पर यह शङ्का करना भी उचित नहीं है कि-द्रव्य स्थिर होता है और पर्याय क्षणिक होता है इसलिये उभयरूपात्मक कोई वस्तु नहीं हो सकती-" क्योंकि शवल वस्तु प्रर्थात् अपेक्षामेव से परस्पर विरोधी अनेक रूपात्मक वस्तु स्वीकारने में कोई दोष नहीं हो सकता।
माशय यह है कि द्रव्य और तवाश्रित पर्याय-प्रवाह से मतिरिक्त काम की सत्ता नहीं है, इसलिये कालविशेषविशिष्टाधिकरण का अर्थ होता है पर्यायविशिष्ट द्रव्य । घामाव यह भूत का एक पर्याय है, उस पर्याय से विशिष्ट भूतल से भतिरिक्त घटामाव की सत्ता नहीं होती । इसी प्रकार घटादि अवयवी मो मिट्टीद्रव्य का पर्याय है। पर्याय होने से उसको कालविशेष कहा जाता है और उस घटात्मक पर्यायरूप काळ विशेष से विशिष्ट मिट्टीव्यसे अतिरिक्त घटापि अवयवी की ससा मी नहीं होती। मतः कामविशेषविशिष्टाधिकरण से अतिरिक्त मधवषी की सिद्धि का मापावान इष्ट ही है।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० ० टीका-हिन्दीविवेचना ]
न च चाधावतारदशायर्या तदापत्तिः, प्रतियोगिमच्चज्ञानस्यैव बाधकत्वेन तदानीमभावव्यवहारकाभावात् । न च बाधितव्यवहारस्य संवादापत्तिः, बाधितत्वेनैवाऽसंवादात् ।
(शून्य अधिकरणबुद्धि ही प्रभाव है-प्रभाकर) मीमांसा दर्शन के प्रभाकर सम्प्रदाय का मत यह है कि 'घटवद् मूतलम्' इस वृद्धि से भिन्न जो मात्र भूतल की बुद्धि होती है वही घटाभाव है । तात्पर्य यह है कि भूतलकी बुद्धि कालमेव से 'घटव भतलं' और 'भूतल' इस प्रकार उत्पन्न होती है । इन बुद्धियों में जो भूतलजुलि जिस घर पटादि वस्तु के सम्बन्ध को विषय नहीं करती वह भूतलबुद्धि उस वस्तु का अभाव है। इस प्रकार भूतलस्वरूपमात्र को विषय करनेवाली सम्पूर्ण बुद्धि घटपटावभावरूप है । किन्तु भूतलमात्र विषयक बुद्धि होने पर 'भतले घटो नास्ति'-'पटो नास्ति' इत्यादि व्यवहार एक साथ नहीं होता। क्योंकि इन ध्यवहारों घटादि का शान और घटादि का अनुपलम्भ दोनों की अपेक्षा होती है। अतः भतलस्वरूपमात्रविषयक बुद्धि घटपटादि निखिल वस्तु के अभावरूप होने पर भी उक्त बुद्धि काल में सभी प्रभावों के व्यवहार का प्रसङ्ग नहीं होता।
(घट की विद्यमानता में प्रभाव को आपत्ति नहीं है। यदि इस मत के विरुद्ध यह शङ्का की जाये कि "भूतलमात्रविषयक बुद्धि को ही घटाभाव मानने पर जिस समय भूतलमें घट विद्यमान है किन्तु किसी दोषवश प्रथवा किसी कारण को अनुपस्थितिश्श घटज्ञान नहीं होता किन्तु भतलस्वरूपमात्र का ज्ञान होता है उस दशा में भी भूतलमें घटाभाव की मापत्ति हो जायेगी" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि भूतल स्वरूपमात्र विषयक बुद्धिसे अतिरिक्त . घटाभाव का अस्तित्व न होनेसे घटाभाव को आपत्ति नहीं दी जा सकती और यदि भतलस्वरूप मात्रविषयक बुद्धि रूप घटामाव को प्रापत्ति देना हो तो वह इष्ट ही है क्योंकि घटको सत्ता होने पर मी घटके अज्ञान कालमें भूतलमात्रविषयक बुद्धि होती ही है।
यदि उक्त काल में घटाभावकी प्रापत्ति न देकर घटाभाव व्यवहार को प्रापत्ति दी जाय तो यह भी उचित नहीं है । क्योंकि घट रूपप्रतियोगी-भसल रूपनधिकरण का ज्ञान और घट रूप प्रतियोगी के अन्य सम्पूर्ण ग्राहकों के रहने पर 'भूतले घटो नास्ति' इस व्यवहार का होना इष्ट ही है।
[घटवत्ता का ज्ञान होने पर भो अभावव्यवहार की अापत्ति को शंका] यदि यह कहा जाय कि "प्रभाव व्यवहार के प्रति प्रतियोगी और अधिकरण का ज्ञान एवं प्रतियोगी के यावत् उपलम्भक को कारण मानने पर भत्तल में घटवत्ता ज्ञान रहने पर भी 'भतले घटोनास्ति' इस व्यवहार को प्रापत्ति होगी। क्योंकि उस समय घटाभाव व्यवहार के लिये सम्पण कारण विद्यमान है" तो यह कहना ठोक नहीं है । क्योंकि प्रभावव्यवहार में प्रतियोगिमत्ता का शान प्रतिबन्धक है इसलिये उस समय अमावळ्यवहार की प्रापत्ति नहीं हो सकती। इस संदर्भ में यह शङ्का हो सकती है कि यदि प्रधिकरण के स्वरूप मात्र को बुद्धि को ही प्रभाव माना जायेगा तो 'भूललं घटवत्' इस ज्ञान से 'भूतलं घटाभाववत्' इस व्यवहार का बाध होने पर भी उस व्यवहार में अर्थसंवादित्व को आपत्ति होगी। क्योंकि इस व्यवहार का विषयभूत भूतलस्वरूपमात्रविषयक बुद्धि रूप प्रभाव उस व्यवहार के पूर्व में विद्यमान है । अतः अर्थसद्भाव पूर्वक होने से इस बाधित व्यवहार
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा० वा समुच्चय स्त० ४ श्लो०३८
न च प्रतियोगिमत्तानवगाधिकरणबुद्धि-प्रतियोगिमत्वावगायधिकरणबुद्धयोविषयतया वृत्तौ कि केन बाध्यताम् प्रमावस्यापि माधारण्यान् ? इति वाच्यम्, अभावव्यवहारभ्रमप्रमायानुराधेन प्रतियोगमत्तानाधिकरणबुद्धरधिकरणे विषयतया सत्वेऽपि घटायभावत्वेन तत्राऽसत्वात् , यथा परेषा घट, सस्प घटात्यन्ताभावत्वेन स्वात्मनि सरवेऽपि घटध्वंसत्त्वेन तबाऽसचम् , 'घटध्वंसे घटो ध्वस्तः' इत्यप्रत्ययात् ।।
यद्वा, वस्तुगत्या यः प्रनियोगिमान् तज्ज्ञानभिन्नमधिकरणज्ञानमेव तदभावः आकाशाद्यभावम्त्वधिकरणसामान्यज्ञानमेव । न चैवमननुगमः, वृत्तिमद-ऽवृत्तिमदभाक्योलक्ष्ययोभदेन लक्षणभेदात् ।
में अर्थसंवारित्व की आपत्ति होगी। किन्तु यह ठोक नहीं है। क्योंकि अर्थसवादित्व अर्थसद्भाव पूर्वकत्व प्रयुक्त न होकर अबाधितत्वप्रयुक्त होता है और उक्त व्यवहार घटज्ञान से बाधित हो जाता है । अत एव उसमें अर्थ-संवादिश्व की प्रापत्ति नहीं हो सकती।
(घट-घटाभाव के व्यवहार में विरोधभंग की आपत्ति) घटाऽनवगाहि भूतलमाविषयक बुद्धि को घटाभाव रूप मानने पर यह आपत्ति दी जा सकती है कि-"भतल में घटामाय व्यवहार और घट व्यवहार का जो परस्पर विरोध है यह नामशेष हो जायगा क्योंकि व्यवहार के विरोध का मूल होता है व्यवहारजनक बुद्धियों का विरोध । प्रकृत में घटाभाव ध्यवहार का कारण है घटानवगाहि भूतलस्वरूपमात्रविषयक बुद्धि और घट व्यवहार का कारण है घटावगाहि भूतलविषयक बुद्धि । दोनों ही बुद्धियां विषयतासम्बन्ध से एक ही भूतल में रहती है अत एव उनमें विरोध न होने से तन्मूलक व्यवहारों में भी विरोध नहीं रहेगा । उक्त दोनों ही बुद्धियों में प्रमात्व विद्यमान है, अतः उन दोनों में एक को प्रमा और दूसरे को अप्रमा कह कर मी उनमें विरोध का उपपादन नहीं किया जा सकता। प्रतः भूतल घटाभाववत्' इस व्यवहार को भूतलं घट वत' इस व्यवहार से बाधित कह कर अर्थाऽसंघादिस्व का उपपादन उचित नहीं हो सकता 1-" किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि, यद्यपि घटावगाहिमतलज्ञान का विषयतासम्बन्ध से अधिकरण भतलमें घटानमाहि भूतलजान विद्यमान होता है किन्तु उस की सत्ता ताशबुद्धिस्वरूप से होती है, घटामावत्व रूप से नहीं होती। ऐसा भो इसलिये मानना अनिवार्य है कि घटायगाहि भतलझानकास में भतल में घटाभाव व्यवहार को भ्रम माना जाता है या वह भ्रमात्मक होता है। इसलिये यह मानना श्रावश्यक है कि घटावगाहि भूतनज्ञानकाल में घटानवगाहि मतलज्ञान प्रभावत्वेन भतल में नहीं रहता। इस प्रकार 'घटबद्भुतल' इस ज्ञान और 'मृतलं' इस ज्ञानमें घटवभूतलवताज्ञानत्व और घटाभावत्वरूप से विरोध मान लेनेसे समस्या का समाधान सुलभ हो जाता है। यह कल्पना अन्य विद्वानों को भी मान्य है प्रन: यह कल्पना प्रश्रद्धेय नहीं हो सकती । जैसे,न्यायमल में घटध्वंस में रहनेवाला घटास्यतामावलाघबसे घटध्वंस स्वरूप माना जाता है। अतः घटध्यंस में घटध्वंस भी घटात्यन्ताभावस्वरूप से रहता है क्योंकि 'घटध्वंसे घटो नास्ति' यह व्यवहार प्रमाणिक है। किन्तु घटध्वंसत्वरूप से नहीं रहता क्योंकि 'घटध्वंसे घटो ध्वस्तः' इस प्रकार को प्रतीति नहीं होती है ।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
अथवा,
आरोग्यसम्बन्धसामान्ये यदधिकरणानुयोगिकत्वयत्प्रतियोगिकत्वोभयाभावस्तदकिरणज्ञानत्वमेव तत्सम्बन्धावच्छिनतत्प्रतियोगिताका भावत्वम्-इत्याहुः |
[ -३
[ प्रतियोगिमज्ञान भिन्न श्रधिकरराज्ञान रूप प्रभाव )
भूतल में घटविषयक अज्ञानवशा में घटानवगाही भूतलज्ञान सम्भव होने से उस दशा में भी भूतल में घटाभाव की प्रापत्ति का परिहार करने के लिये प्रभाव का एक अन्य प्रकार से मो लक्षण किया जा सकता है । जैसे, जो वस्तुतः प्रतियोगी का प्राश्रय हो उसके ज्ञानसे भिन्न प्रधिकरण का ज्ञान ही उसका श्रम व है । यह लक्षण करने पर उक्त थापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जिस समय मूतल में घट विद्यमान होगा उस समय का भूतल ज्ञान वस्तुतः घटवद्विषयक ज्ञान हो जाता है । प्रतः एव उस समय का भूतलज्ञान वस्तुगस्या प्रतियोगिमद्विषयक ज्ञानसे भिन्न अधिकरणजान रूप न होनेसे घटाभावरूप नहीं हो सकता । इस विषय का स्पष्ट नियंचन इस प्रकार हो सकता है- 'स्वकालावच्छेदेन स्वविषयवृत्तितत्कालीनज्ञानभिन्नज्ञानम् तदभावः' : भूतल में घटज्ञानकाल में होनेवाला भूतल ज्ञान स्वकालायच्छेवेन स्वविषय भूतल में विद्यमान घट का समानकालीन हो जाता है । श्रत एव वह उससे मिन नहीं होता है, प्रत एव यह ज्ञान घटाभावरूप नहीं होता । जिस समय भूतल में घट नहीं होता उस समय का भूतल ज्ञान स्वकालावच्छेदेन स्वविषय ( भूतल ) वृत्ति घट का श्रसमानकालीन होता है, अत एक वही ज्ञान घटाभाव रूप हो सकता है ।
प्रकाश श्रादि का अभाव प्रधिकरणज्ञान सामान्यरूप ही है । क्योंकि प्राकाश श्रादि का कोई अधिकरण न होने से प्राकाशादि प्रभाव के सम्बन्ध में घटाभाव जंसी श्रापत्ति न हो सकेगी । यद्यपि घटादिप्रभाव और प्राकाशादि प्रभाव का इस प्रकार पृथक् निर्वचन करने पर लक्षण का अननुगम होता है, अर्थात् सभी प्रभाव का एक साधारण लक्षण नहीं हो पाता । तथापि प्रभाव निर्वाचन की इस व्यवस्था में दोष नहीं है क्योंकि, घटादि का प्रभाव वृत्तिमत्प्रतियोगिक प्रभाव है और प्राकाशावि का प्रभाव प्रवृतिमत्प्रतियोगिक प्रभाव है । अतः लक्ष्य का भेद होनेसे लक्षण में भेव होना उचित ही है । यदि सभी प्रभावों का एक हो लक्षण करने का श्राग्रह हो तो वह भी दुष्कर नहीं हैं जैसे( श्रारोप्य सम्बन्ध में उभयाभावघटित श्रभावव्याख्या )
'प्रारोप्य संबन्ध सामान्य में यदधिकरणानुयोगिकत्व यत्प्रतियोगित्व इन दोनों का प्रभाव हो, उस अधिकरण का ज्ञान तत्सम्बन्धायन प्रतियोगिताकतदभाव रूप होता है ।" यह लक्षण आकाशादि के प्रभाव में भी घट सकता है। क्योंकि, प्राकाश कहीं मो किसी भी सम्बन्ध से नहीं रहता । श्रतः सभी सम्बन्ध श्राकाश के श्रारोप्यसम्बन्ध हैं और उन सभी सम्बन्धों में श्राकाशप्रतियोगिकत्व तथा सर्वानुयोगिकत्य उमय का अभाव है अतः सभी वस्तु का ज्ञान श्राकाश-प्रभाव रूप होता है ।
भूतल में जब घटका संयोग नहीं होता उस समय संयोग भूतल और घट का प्रारोप्य सम्बन्ध होता है, उसमें भूतलानुयोगिकत्व-घट प्रतियोगिकत्वोभय का प्रभाव होने से उस समय का भूतलज्ञान संयोगसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताका नाव रूप होता है। प्रारोप्यसम्बन्ध सामान्य का अर्थ है- 'अमुकाविकरणविशेष्यक प्रमुक प्रतियोग्युपलम्भापादक- आरोप विषयप्रमुक सम्बन्धसामान्य । संयोगसम्बन्ध घटअद्भूत विशेषकघटोपलम्भापादकारोपविषय सम्बन्ध सामान्य के अन्तर्गत नहीं आ सकता क्योंकि घटवभूतल में संयोग विद्यमान होने से उसमें उसका आरोप संभव नहीं हैं, फलतः घटवद्भूतल विशेष्यक घटोपलम्भापादकारोपविषय संयोगसामान्य में घटषभूतलानुयोगिक-घट प्रतियोगिको
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ ]
[ शा.बा. समुच्चय स्त०४-श्लो० ३६
तचिन्त्यम् , अभावस्याधिकरणबुद्धिरूपत्वे सूक्ष्मस्य केशादेर्जिज्ञासानुपपत्तः, घटनाशस्य बुद्धिरूपत्वे च तन्नाशे तदुन्मज्जनापत्तः, प्रतियोगिमद्भिन्नाधिकरणस्वाभावस्वरूपत्वे लाघवाच्चेति अन्यत्र विस्तरः । तस्माद् भावपरिणाम एवाभाव इति व्यवस्थितमेतत् 'भाचो नाभावमेति' इति ॥३८॥
अथ 'नाभावो भावतां याति' इत्येतद् व्यवस्थापयन्नाह - मलम-असनः सवयोगे तु तत्तथाशक्तियोगतः।
नासत्त्वं तदभावे तु न तत्सत्त्वं तदन्यवत् ॥३९।।
-
- -
----
भयाभाव अप्रसिद्ध होने से घटबद्भुतल में घटानवगाहो भूतलज्ञान संयोगसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक घटाभावरूप नहीं हो सकता।
प्राशय यह है कि 'पारोप सम्बन्ध सामान्ये' इत्यादि लक्षण का यह स्वरूप है कि यदधिकरण विशेष्यक यदुपलम्मापादकारोपविषय यत्सम्बन्धसामान्य में पदधिकरणानुयोगिकत्व-यत्प्रतियोगिकत्व उभयामाव हो तवधिकरणविषयक ज्ञान तत्सम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक तदभावरूप है ।
(प्रभाकरमत में दूषरणपरम्परा) प्रभाकर के उक्त मत के विरोध में व्याख्याकार का यह कहना है कि प्रभाव को अधिकरणज्ञानरूप मानने पर सूक्ष्म केशादि की जिज्ञासा नहीं हो सकेगी। प्राशय यह है कि केशविहीन मस्तक रूप अधिकरणविशेषमें इस प्रकार की जिज्ञासा का होना अनुभव सिद्ध है कि 'मस्तक में भी सूक्ष्मकेश अथवा केशाभाव का निर्णय हो'। यह इच्छा केश और केशाभाव का संकाय होने पर ही हो सकती है और यह संशय तभी हो सकता है अब केश और और केशाभाव में से किसी का निर्णय न हो । किन्तु यदि अभाव अधिकरण ज्ञानरूप होगा तो केशानवगाही मस्तकज्ञान हो केशाभाव होगा । प्रतः उस ज्ञान का निर्णय होनेपर केशामा निर्णीत हो जायेग! अत: क्रेश और केशामाव के संशय को अवसर नहीं होगा। फलत: 'केश अथवा केशाभाव का निर्णय हो' इस प्रकार की जिज्ञासा नहीं हो सकेगी।
दूसरा दोष यह है कि प्रभाव के अधिकरणज्ञानरूप होने पर घटनाश भी घटनाशाधिकरण कपाल की बुद्धि रूप होगा । अतः उस बुद्धि का नाश होने पर घटनाश का भी नाश हो जानेसे घटके पुनः अस्तित्व की आपत्ति होगी । और, तोसरी बात यह है कि प्रतियोगीमत् अधिकरण ज्ञान से भिन्न प्राधिकरण ज्ञान को प्रभावस्वरूप मानने की अपेक्षा प्रतियोगोमत भिन्न अधिकरण को प्रभाव रूप मानने में लाघव है । अतः अभाव प्रौर प्रधिकरण का ऐक्य स्वीकार्य हो सकता है, किन्तु अभाव और प्रधिकरण ज्ञान का ऐक्य स्वीकार्य नहीं हो सकता। इस विषयका विशेष विचार प्रन्यत्र किया गया है।
उपयुक्त युक्तिनों के प्राधार पर यह सिद्ध होता है कि प्रभाव भाव का एक परिणाम है । प्रत एव 'भाव प्रभाव नहीं होता' यह बात जो इस स्तबक को ११ वीं कारिकामें कही गई है उसमें कोई बाधा नहीं हो सकती ।। ३८॥
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ ८५
असत: एकान्ताऽसत्वेनाभिमतस्य, सच योगे त्वभ्युपगम्यमाने, तस्य-प्रमश्वेनाभिमतस्य, तथानियतरूपानुविद्धभविष्यत्तया, शक्तियोगत:-शक्तिमंबन्धात , नासत्वनाऽत्यन्तामन्यम् , तादृशस्य शशशङ्गवच्छरत्ययोगात् । मा भृव सादृशशक्तियोग इन्यत्राह -तदभावे तुनथाशक्त्यभावे स्वभ्युपगम्यमाने, तदन्यवत् अधिकृतव्यक्तिभिन्नवत् , न प्रतिनियतार्थक्रियाकारित्वरूपं सच्चम् . नियामकाभावात् ।।३९॥
अथ प्रतिनियतार्थक्रियाकारित्वं तद्वयक्तिस्वरूपमेव, तद्वयक्तरुत्पत्तिश्च नञ्जननशक्तिमतो हेतुविशेषादव, न हयेवं सत्कार्यापत्तिः, हेतुम्वरूपायाः शक्तः प्राक सरवेऽपि कार्यस्वरूपायाः शक्तेरभावात् , इत्याशङ्कते
[ उत्पत्ति के पूर्व वस्तु सर्वथा असत् नहीं होती ] ३६वीं कारिका में प्रभाव भाव नहीं हो सकता' इस पूर्वोक्त विषय के समर्थन का प्रारम्म किया गया है-कारिका का अर्थ इस प्रकार है-एकान्ततः जो प्रसत होता है उसमें सत्त्व का सम्बन्ध मानने पर उसमें सद्भवन को शक्ति माननी होगी कितु शाक्त मानन पर वह एकान्ततः असत् नहीं हो सकता । क्योंकि, एकान्त प्रसत में सद्धवन शक्ति नहीं होतो असे शशसींगमे । यदि उसके एकान्त असत्त्व की रक्षा के लिये उसमें सञ्जवन शक्ति का प्रमाव माना जायगा तो उपर्युक्त शक्ति से शून्य शशसींग प्रादि के समान उसमें सत्त्व अर्थात् प्रतिनियत प्रक्रिया का जनकत्व नहीं हो सकेगा क्योंकि उसका कोई नियामक नहीं होगा ।
(नियतकार्योत्पादनशक्तिरूप से कार्य सत्ता ) कहने का अभिप्राय यह है कि-जो विद्वान् वस्तु को उसको उत्पत्ति के पूर्व एकान्त असत् मानते हैं वे भी भविष्य में उसे नियतरूप (गुणधर्मों) से युक्त वस्तुके रूपमें स्वीकार करते हैं प्रतः उस रूपमें उद्त होने की शक्ति उसमें मानना आवश्यक है। क्योंकि, यह शक्ति जिसमें नहीं होती वह भविष्य में कभी भी नियत रूपसे युक्त वस्तु के रूप में बुद्धिगत नहीं होता। जैसे, शससींग प्रादि कभी मो नियतरूपसे सम्पन्न होकर बुद्धिगत नहीं होते। जब इस प्रकारको शक्ति उत्पत्ति के पूर्व वस्तु में मानी जायेगी तो उसे उत्पत्ति के पूर्व एकान्त असत् नहीं कहा जा सकता । क्योंकि जो प्रत्यन्त प्रसत् है वह उक्त प्रकारको शक्ति का प्राश्रय नहीं होता और यदि उसके एकान्त प्रसत्त्व को उपपत्ति के लिये उक्तशक्ति से शून्य मानेंगे तो उसमें सत्व का कोई नियामक न होनेसे सत्त्व की प्राप्ति न हो सकेगो। क्योंकि सत् नही होता है जो नियतकार्य का उत्पादक होता है । नियतकार्य का उत्पावक वही होता है जिसमें नियत कार्योत्पाविका शक्ति होती है । शक्ति का प्राश्रय यही होता है जो एकान्तत: असत् न हो। इसलिये उत्पत्ति के पूर्व असत् मानी जाने वाली वस्तु भविष्य में नियत कार्य का जनक उसी प्रकार न हो सकेगी जिसप्रकार उस नियतकार्य के उत्पादन में अधिकृत व्यक्ति से भिन्न व्यक्ति उसका उत्पादक नहीं होती ॥३६॥
४० वो कारिकामें बौद्ध की ओर से प्रसत्कार्यवाद के समर्थन की दृष्टि से एक प्राशन प्रस्तुत की गई है
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६ ]
[शा या समुच्चय स्त० ४.जोक ४०.४१
मूलं--असदस्पद्यते तद्धि विद्यते यस्य कारणम् ।
विशिष्टशक्तिमत्तच्च ततस्तत्सत्वसंस्थितिः ॥४०॥ तडितदेव वस्तु असदुत्पद्यते यस्य कारणं विद्यते । सच्च-कारण विशिष्टशक्तिमत् , प्रतिनियतरूपानुविद्धकार्थजननशक्तियुक्तम् , ततो हेतोः तत्सत्त्वसंस्थितिः तद्वयक्तेः प्रतिनियनसच्चव्यवस्था ॥४०॥ अनोत्तरम्-- मूलम्-अत्यन्तासति सर्वस्मिन् कारणस्य न युक्तितः ।
विशिष्टशक्तिमत्वं हि कल्प्यमानं विराजते ॥४१॥ अत्यन्तासति-सर्वथाऽविद्यमाने कार्यजाते, कारणम्य युक्तित: न्यायेन विशिष्टः शक्तिमत्त्वं प्रतिनियनजननस्वभारत्वं कल्प्यमानं न विराजते, सर्वथाऽवध्यभावात , अविद्यमानव्यक्तिनामवधित्वेऽतिप्रसङ्गात ; कथश्चिद्विद्यमानत्वेनैवावधित्वे नियमोषपत्तः ॥४॥
( कार्यरूपशक्ति का प्रभाव असत्कार्यवाद का समर्थक नहीं है ) तद्वयक्ति में रहनेवाली नियतकार्य को उत्पादकता तयक्तित्व स्वरूप ही होती है । तथा, तहानक्ति की उत्पत्ति उसी कारण से होती है जिसमें उस व्यक्ति को उत्पाविका शक्ति होती है। जैसे, घटमें विद्यमान जलाहरणरूप कायं की उत्पादकता घटस्वरूप है और घटको उत्पत्ति कपाल से होती है, क्योंकि उसमें घटोत्पादक शक्ति है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि नियत कार्यों को उत्पन्न करने वाली व्यक्ति की उत्पादिका शक्ति उस ध्यक्ति के कारण में होती है। किन्तु वह व्यक्ति अपनी उत्पत्ति के पूर्व स्वयं नहीं होती । इस पक्ष में वस्तु को यदि उसकी उत्पत्ति के पूर्व प्रत्यन्त प्रसत् माना जाय तो भो नियत कार्योत्पादक रूप में उसका अस्तित्व उसके कारणों द्वारा सम्पन्न हो सकता है। ऐसा मानने पर कार्यको उत्पत्ति के पूर्व कार्यके सद्भाव की प्रापत्ति नहीं हो सकती क्योंकि हेतुरूप कार्वजनिकाशक्ति कार्य अस्तित्व होने पर मो कारूप शक्ति का प्रभाव होता है। कहने का तात्पर्ययह है कि कार्य में नियतरूपसे उत्पन्न होने की शक्ति होती है जो कार्य रूप ही होती है। एवं कारण में उत्पादन को शक्ति होती है जो कारण स्वरूप होती है । कारणस्वरूप शक्ति तो कार्योत्पति के पूर्व रहती है, किन्तु कार्यस्वरूपशक्ति उत्पत्ति के पूर्व नहीं रहती। अत एव इस प्रक्रिया से कार्यकारण भाव मानने पर सत्कार्थवाद को प्रापत्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार शशशङ्गादिको उत्पत्ति का प्रसङ्ग भी नहीं हो सकता क्योंकि उसमें उत्पन्न होने की शक्ति ही नहीं है।
कारिका का अर्थ अत्यन्त स्पष्ट है, जो इस प्रकार है-उसी प्रसत् की उत्पत्ति होती है जिसका कारण विशिष्ट शक्ति से-अर्थात् नियत रूपसे सम्पन्न कार्य को उत्पन्न करनेवाली शक्ति से, युक्त होता है। उस कारण से ही उस व्यक्ति को सत्व में अर्थात नियतकार्योत्पायकरूप में स्थिति होती है ॥४॥
( असत् वस्तु उत्पादन की शक्ति का असंभव ) ४१ वीं कारिकामें पूर्वोक्त प्राशङ्का का उत्तर दिया गया है
कार्य को अत्यन्त असत् मानने पर उसे उत्पन्न करनेवालो शक्ति से युक्त कार की कल्पना में कोई युक्ति नहीं है । क्योंकि, जो वस्तु अत्यन्त असत् होगी वह किसी की अवधि (उत्तराबधि) नहीं
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० का टीका और हिन्दी विवेचना ]
[८७
मूलम्-तत्सत्वसाधक तन्न तदेव हि तदा न यत् ।
अत एवेदमित्यं तु नव तस्गेश्ययोगतः ॥४२॥ पर आह-तत्सत्त्वसाधक-तद्वयक्त्युःपादकम् , ता-कारसम् , जसले रिशक्षाकिर मचं, तत्कारणव्यक्तित्वेन पूर्वावधित्वस्य तत्कार्यव्यक्तित्वेन चोत्तरावधित्वस्य मंभवात् । न चैवं गौरवम् , यस्तुतोऽर्थम्य तथान्वादिति । अत्रोत्तरम्-न-नैतदेवम् , तदेव-विवक्षितकार्यसत्त्वम् , तदाकारणकाले न, यद्-यस्मात् , असत्त्वाद् न तत्र हेतुन्यापार इत्याशयः । पराह-यत एवं कार्य प्रागसत् , अत एवेदं कारणस्य तत्सव साधकत्वम् , इत्थं तु-घटमानं तु, सत आका• शादेवि माधकत्वानुपपत्तेः । अत्राह-म वै नेतदेवम् , सर्वथाऽसति तस्मिन 'तत्सत्वसाधकं तत्' इत्यत्र 'तम्य' इत्यर्थायोगात, सर्वथाऽसति शशशङ्गादाविव षष्ठया अप्रयोगात् ॥४२॥
हो सकती। अर्थात् उसके लिये ऐसा कोई पदार्थ नहीं माना जा सकता जिससे उसकी उत्पत्ति हो सके । क्योंकि जो वस्तु जिसमें विद्यमान नहीं हैं वह उस व्यक्ति की यदि अवधि (उत्तराधि) मानी जाएगी अर्थात् उस कारण से यदि उस अविद्यमान (प्रसत) उत्तराधिरूप कार्य की उत्पत्ति मानी जायेगी, तो सबसे सबको उत्पत्ति का प्रतिप्रसङ्ग होगा। क्योंकि सभी कार्यका असत्त्व सर्वत्र कारणों के लिए समान हैं। इसलिये उत्तराधि रूप कार्य को कारण में कथञ्चित् विद्यमान मान कर हो उससे उसकी उत्पत्ति के नियम को उपपन्न किया जा सकता है ॥४१॥
(पूर्वावधि-उत्तरावधि की कल्पना निरर्थक ) ४२ वी कारिका में बौद्ध को प्रोर से पुन: असत् कार्य के समथन की दूसरी युक्ति प्रस्तुत कर उसका खण्डन किया गया है । कारिका का प्रयं इस प्रकार है
बौद्ध का यह कहना है कि मो जिस कार्य का कारण होता है वही उसके सत्त्व का साधकउत्पादक होता है । तस्कार्य कारणत्व को ही तत्कार्योत्पादन शक्ति कहो जाती है. इस प्रकार तत्कार्यकारणत्व हो तत्कार्य के पूर्वावधित्व कर नियामक है, अर्थात् जिस व्यक्ति में जिस कार्य का कारणत्व होता है यही उस कार्य की पूर्वावधि होता है, उसी पूर्वायधिसे उसकी उत्पत्ति होती है । जो जिस व्यक्ति का कार्य होता है वह उस व्यक्ति का उत्तराधि होता है। जो जिसका उत्तराधि होता है उसोको उससे उत्पत्ति होती है । इसलिये कार्य को उत्पत्ति के पूर्व अत्यन्त असत् मानने परमी प्रयधि का सर्वथा प्रभाव होनेसे सबसे सबको उत्पति का प्रसार नहीं हो सकता। क्योंकि सबमें सबकी कारणता नहीं होती। इस कल्पना में कोई गौरव नहीं है क्योंकि कार्यकारणभूत वस्तु की यही वास्तविक स्थिति है।
इस कथन के उत्तर में ग्रन्यकार का यह कहना है कि बौद्ध का उक्त कन समीचीन नहीं हो सकता । क्योंकि, कारणकालमें कार्य की सत्ता न होनेपर उसके सम्बन्ध में कारण का कोई व्यापार नहीं हो सकता, क्योंकि असत् के सम्बन्ध में किसोका कोई व्यापार उपलब्ध नहीं होता।
-
-
---
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८ ]
[ शा.वा समुफचय स्त० ४-लो० ४२
अथ सन्वं न तावत् सत्तासम्बन्धः, व्यक्तिव्यतिरेकेण विशददर्शने तदनवमासात दृश्याऽदृष्टौ चाभावसिद्धेः । न च 'सत् मत्' इति कल्पनाबुद्धया तदध्यवसायः, तत्रापि बहिःपरिस्फुटव्यक्तिस्वरूपान्तर्नामोल्लेखाध्यवसायव्यतिरेकेण सत्तास्वरूपाप्रकाशनात् । सत्ताया अपि सत्तान्तरयोगेन सत्वेऽनवधानाचन ! नापि यसपट! * सत्व , स्वप्नावस्थावगतेऽपि पदार्थास्मनि स्वरूपसद्भाचरात् सत्त्वप्रसक्तेः, परिस्फुटमंवेदनाचमासनिधित्वात् स्वरूपस्य संनिहितत्वेने व तदनुभवात , 'अप्सदिदमनुभूनम् ' इति स्वप्नोत्तरप्रतीतेः ।
( असत् के लिये ही कारण व्यापार का होना असंगत है ) इस उत्तर के प्रतिवाद में बौद्ध का पुनः यह कहना है कि यतः कार्य उत्पत्ति के पहेले असत् होता है इसलिये उसके सत्त्व का साधन करने के लिये कारण का व्यापार होना सङ्गत होता है । यदि वह असत् न होता सो कारण का व्यापार ही निरर्थक हो जाता । जैसे, सत् प्राकाशादि की सत्ता के साधन के लिये कोई व्यापार नहीं होता।
इसके उत्तरमें मूलग्रन्धकार का यह कहना है कि बौद्ध का यह तर्क भी समीचीन नहीं है। क्योंकि, कार्यको उत्पत्ति के पूर्व सर्वथा असत् मानने पर 'कारण उसके सत्त्व का साधन होता है यह कहना ही सम्भव न हो सकेगा। क्योंकि 'उसके सत्त्व' इस प्रयोग में सत्त्व शब्द के सानिधान में पूर्व में कार्यपरक 'उस शब्द के उत्तर होने वाली षष्ठो विभक्ति का संबंध रूप अर्थ सम्भव न होने से शब्द के उत्तर षष्ठी का प्रयोग उसी प्रकार प्रसङ्गत होगा जिस प्रकार शंग शब्द के सन्निधान में कार्यपरक शश शब्द के उत्तर षष्ठी का प्रयोग प्रसङ्गत होता है ।।४२।
"सत्त्व शब्द के सन्निधान में प्रसत् कार्य बोधक पद के उत्तर षष्ठी का प्रयोग सङ्गत नहीं हो सकता-" इस कथन के विरुद्ध बौद्ध की और से ४३ वी कारिका में एक विस्तृत आशंका व्यक्त की गयो है जिसका उत्तर का० ४४ में दिया जायगा।
(बौद्ध के द्वारा सत्त्व अर्थात् सत्तासंबन्ध' इस अर्थ का खण्डन ) बौद्ध का यह अभिप्राय है कि सत्त्व को सत्ता सम्बन्ध रूप नहीं माना आ सकता क्योंकि शानमें व्यक्ति से भिन्न सत्ता का भान नहीं होता और यदि सत्ता दृश्य होकर भी प्रदृष्ट होगी तो दृश्याऽदर्शन यानी योग्यानुपलब्धि से उसका प्रभाव सिद्ध हो जायेगा। ____ 'इदं सत्' 'इदं सत्' इस प्रकार की कल्पना बुद्धि से सत् शब्दसे उल्लिख्यमान बुद्धि से भिन्न किसी सत् वस्तु प्रतीत होती नहीं, अतःअतिरिक्त सत्ता को सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि उषत अद्धि होने पर भी सत्ता के किसी ऐसे स्वरूप का भान नहीं होता जो 'सत्' इस नाम का उल्लेख करने वाले प्रध्यवसाय से भिन्न वस्तुसत् हो । सत् इस नामके अनुरोध से भी सत्ता का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि-नाम भी वस्तु के स्वरूप में ही अन्तर्भूत हो जाता है क्योंकि वस्तु के साथ ही उसका मी बहि. रिन्द्रिय सापेक्ष स्फुट प्रत्यक्ष होता है। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि यदि पदार्थ के साथ सत्ता सम्बन्ध हो पदार्थ का सत्त्व होगा तो सत्ता का भी सत्त्व सत्ता सम्बन्ध से हीस्वीकार करना होगा और इसके लिये मूल सत्ता से अतिरिक्त सत्ता की कल्पना करनी होगी, क्योंकि प्रारमाश्रय के भय से
क यहां सत्त्व का अर्थ है मद्वयवहारविषयत्व ।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका-हिन्दीविवेचना ]
-
-
--
किन्तु अर्थक्रियाकारित्वमेव तत् । तथाचाऽविद्यमानाया अपि व्यक्तेः स्वरूपतः सत्त्वाद् न 'तस्य' इत्यनुपपत्तिः । न हि तदा तत्सत्त्व एव तत्सम्बन्धव्यवहारः, अतीतघटज्ञानेऽतीतघटसम्बन्धित्वेन व्यवहारस्य सर्वसिद्धत्वात् । न च श्रृङ्गाग्राहिकया तत्कायव्यक्तिहेतुत्वाग्रहादनुपपत्तिः, घटार्थिप्रधृतौ घटजातीयहेतुनाज्ञानस्यैव प्रयोजकत्वात् , विशिष्य हेतुतया च प्रतिनियतवस्तुव्यवस्थितेरेवोपपादनात् , इत्याशयवान् पर आहउस सत्तामें भी सत्ता का सम्बन्ध सम्भव नहीं हो सकता । इसी प्रकार उस सत्ता का सत्त्व भी सत्ता सम्बन्ध रूप ही होगा, प्रतः उसके लिये मी अतिरिक्त सत्ता की कल्पना करने पर अनवस्या का प्रसङ्ग होगा।
( वस्तु स्वरूप से ही सद्रूप नहीं ) वस्तु को जैसे सत्ता के सम्बन्ध से सत् नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार उसे स्वरूपतः भी सत् नहीं माना जा सकता। क्योंकि, यदि वस्तु स्वरूपतः सत् होगी तो स्वप्नावस्था में जो पदार्थ ज्ञात होता है उसका भी अपना कुछ स्वरूप होने के कारण उसमें भी सद्रूपता को प्रापत्ति होगी । अर्थात् स्वप्नदष्ट पदार्थ का भी स्वरूप मानना युक्ति से सिद्ध होता है, क्योंकि वह भी स्फुट संवेदनारमक बोध से गृहोत होता है। इसीलिए सन्निहितरूप में ही उसका अनुभव होता है। यदि यह कहा जाय कि-'स्वप्न में विखाई देने वाला पदार्थ असनिहित होता है प्रत एव नि:स्वरूप होता है क्योंकि स्वरूप को कल्पना सन्निहित में ही होती है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि इस उक्ति में कोई प्रमाण नहीं है । प्रत्युत स्वप्नावस्था के प्रनन्तर यह प्रतीति होती है कि हमें असद्वस्तु हो सन्निहित रूपमें अनुभूत हुई है। इस प्रतीति के अनुरोध से यह सिद्ध है कि स्वप्नावस्था में अनुभूत होनेवालो वस्तु सन्निहित होती है और असत् होती है। सन्निहित होने के नाते उसका स्वरूप मानना आवश्यक होता है और उस स्वरूप मानने के कारण उसे सत नहीं माना जाता, क्योंकि असत् ही वस्तु सन्निहित रूपमें स्वप्नावस्था में अनुभूत होती है । यही बात स्वप्न के उत्तर कालमें होनेवाली प्रतीति से सिद्ध है ।
(सत्त्व का स्वरूप अर्थ क्रिया कारित्व कैसे ?-बौद्ध) श्रत : विवश हो कर पदार्थ के सत्त्व को अर्थ-क्रियाकारित्व कार्योत्पादकत्व रूप ही मानना होगा। फलतः अविद्यमान वस्तु का भी जब स्वरूप होता है तब उसको स्वरूपात्मक सत्ता होने के कारण सत्त्व शब्द के सन्निधान में उस व्यक्ति के बोधक पद के उत्तर षष्ठी के प्रयोग को अनुपपत्ति नहीं हो सकती । क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि जिसकाल में जिस वस्तु का स्वत्व हो उस काल में ही उसके सम्बन्ध का व्यवहार हो । क्योंकि प्रतीत घटके ज्ञानमें उस ज्ञानकालमें अविद्यमान भी प्रतीतघट के सम्बन्ध का व्यवहार सर्वसम्मत है ।
(तत्कार्यार्थी को तत्कारणनिष्ठ कारणता का ज्ञान अपेक्षित नहीं) यदि यह शङ्का की जाय कि-"पदार्थों में शृङ्ग ग्राहिका रोलि से, अर्थात् 'अमुक कार्य व्यक्ति में प्रमुक कारण व्यक्ति हेतु है। इस प्रकार का ज्ञान सम्भव न होनेसे उक्त षष्ठो प्रयोग को अनुपपत्ति
# यहाँ सत्त्व का अर्थ है अस्तित्व और वह है विकल्यान्यन नविषयत्वरूप ।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा. वा. समुचय स्त-४ श्लोक-४३
मृलं-वस्तुस्थित्या तथा तवत्सदनन्तरभावि तत्।
नान्यत्ततश्च नाम्नेह न तथास्ति प्रयोजनम् ॥४३॥ वस्तुस्थित्या-आर्थ न्यायमाश्रित्य तथा तत्-कार्यसत्त्वसाधकम् तत् कारणम् । कुतः इत्याह यद्-यस्मात् तदनन्तरभावि-प्रकृतकारणानन्तरभावि, तत्-प्रतिनियतमेव कार्यसत्रम् नान्यदु-नान्यादृशम् । ततश्चेह विचारे, नाम्ना =अमिधानेन 'तथे नि विवक्षितजननस्वभावमित्येवम्भूते ] न प्रयोजनमस्ति, अतदायत्तत्याद् वस्तुसिद्धेः, शृङ्गग्राहिकया तद्ग्रहम्य चाप्रयोजकत्वादिति भावः ।। ४३ ।। अत्रात्तरम् --
बनी रहेगी क्योंकि उत्पत्ति के पूर्व अविद्यमान कार्य के स्वरूप में तदर्थबोधक पदोत्तर षष्ठी प्रयोग के प्रति कारणता का ज्ञान नहीं है। क्योंकि विद्यमान वस्तु के बोधक पद के उत्तर में ही षष्ठी विभक्ति का प्रयोग इष्ट है"-किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि तत्कारण के ग्रहण में तत्कार्यार्थी को। वत्ति के प्रति तत्कारण व्यक्तिमें तत्कार्य व्यक्ति की कारणता का ज्ञान कारण नहीं होता अपि तु तत्कारणजातीय में तरकार्यजातीय को कारणता का ज्ञान कारण होता है । अन्यथा, नये कार्य को उत्पन्न करने के लिये नये कारण को ग्रहण करने में लोकसिद्ध प्रवृत्ति का लोप हो जायेगा । क्योंकि जो व्यक्ति किसी कारणव्यक्ति से भविष्य में उत्पन्न होने वाली है उसको कारणता का ज्ञान जसको उत्पत्ति के पूर्व सम्भव नहीं हो सकता । फलत: 'सामान्य रूप से स्वरूपार्थक या स्वरूपवान अर्थ के बोधक पद के उत्तरवर्ती षष्ठीविभक्ति के प्रयोग में स्वरूप कारण है। इस ज्ञान से हो सत् शब्द के सन्निधानमें असत् कार्यबोधक पद के उत्तर षष्ठी का प्रयोग हो सकता है। क्योंकि उत्पत्ति काल में अविद्यमान वस्तु का भी स्वरूप होता है। यदि उसका कोई स्वरूप न होगा किन्तु शशशृङ्ग के समान सर्वथा निःस्वरूप होगा तो भविष्य में भी उसको उत्पति का सम्भव नहीं हो सकता।
(विशेष कार्य-कारण भाव मानना जरूरी है ) यदि इस पर यह शङ्का को जाय कि-"जब नये कार्य के लिये नये कारण के ग्रहण की प्रवृत्ति सामान्य कार्यकारण भाव से ही सम्भव होती है तो विशेष कार्यकारण भाव की कल्पना निराधार हो जाती है"-यह ठीक नहीं है । क्योंकि अमुक कारण व्यक्ति से अमुक कार्य व्यक्ति को ही उत्पति हो इस व्यवस्था के लिये विशेष कार्यकारणभाव अावश्यक है । अन्य या घटजातीय के प्रति मिट्टी जातोय कारण है, केवल इस सामान्य कार्यकारण भाव को ही स्वीकार करने पर एक घट व्यक्ति की उत्पत्ति जिस मृत्पिण्ड व्यक्ति से होती है उस मत्पिण्ड व्यक्ति से अन्य सभी घट व्यक्ति का उत्पत्ति के अतिप्रसङ्ग का परिहार नहीं हो सकेगा।
बौद्ध के इस प्राशय को प्रस्तुत (४३) कारिका में संक्षिप्त रूपसे व्यक्त किया गया है कारिका यह है-'वस्तुस्थित्या तया....'
(कार्यसत्त्वसाधक ही कारण है-बौद्ध ) कारिका का अर्थ इस प्रकार है- कारण विशेष जो कार्य विशेष के सत्व का साधक होता है बह इसलिये है कि वही वस्तुस्थिति है । अर्थात् यही न्याय अर्थतःप्राप्त है। क्योंकि कारण विशेष के
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या क• टीका हिन्दीविवेचना ]
[ ६१
मुलं-नाम्ना विनापि तत्त्वेन विशिष्टायधिना विना ।
चिन्त्यता यदि सन्न्यायाद् वस्तुस्थित्यापि तत्तथा ॥४४॥ नाम्ना विनापि-शृङ्गग्राहिकया तनुग्रहं विनापि, तत्त्वेन शायव प्रतीत्या, विशिष्टावधिना विना-स्वसंवन्धिन भाविनं विशिष्टमवधिमन्तरेण, चिन्त्यताम् माध्य. स्थ्यमबलम्ब्य विमृश्यताम् , यदि मवनि सन्न्यायात्-सूक्ष्मन्यायेन, वस्तुस्थित्यापि उक्तलक्षणया तत्कारणम् नथा असतः कार्यम्य मच्चमाधकम् 1 नैव तथास्ति, अत्यन्तासमवे तन्मंबन्धम्यवानुपपत्तेः, अनीतघटस्यापि तज्ज्ञानज्ञेयत्वपर्यायण सच्चादेव तज्ज्ञानसंबन्धित्वात् , दण्डादो घटकारणतया अपि तत्पर्यायद्वारा घट सत्वं विना दुर्घटत्वात् ।
ननु जाने घटादेानस्वरूपा विषयतैव संबन्धः; दण्डे च दण्डस्वरूपा कारणव तथा, घटनिरूपितत्वेन तद्वयवहारे च घटज्ञानस्य हेतुत्वाद् न दोष' इति चेत् १ न, उभयनिरूप्यस्य सबन्धस्योधयत्रैवान्योन्यव्याप्तत्वात ; अन्यथेनराऽनिर्भासविलक्षणनि सानुपपत्तेः, विषयविशेषं चिना ज्ञानाकाविशेषोपगमे साकारवादप्रसङ्गादिति अन्यत्र विस्तरः ।।४४।। अनन्तर कार्य विशेष का हो सत्य होता है अन्य का नहीं । इसलिये उत्पन्न होनेवाले कार्यचयक्ति का नाममाहतद्वयक्तिरूपसे जान होने और कारण व्यक्ति में उसके जनन का स्वभाव होनेके विचार का कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि वस्तुसिद्धि-कार्यका सत्त्व उक्त ज्ञान और विचार के प्राधीन नहीं है क्योंकि कार्य के सत्त्य की सिद्धि के लिये कारण ग्रहण में जो कार्याथी की प्रवृति होती है उसके प्रति शृङ्ग ग्राहक रीति से कारण व्यक्ति और कार्य व्यक्ति में विशेषरूपसे कार्यकारण भाव का ज्ञान अप्रयोजक है ।।४३।.
[ सम्बन्ध के विना कार्योत्पत्ति का असंभव ] ४४ वीं कारिकामें बौद्ध के पूर्वोक्त कथन का उत्तर प्रस्तुत किया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-विशेषरूपसे कार्यकारणभाव-ज्ञानके बिना भी यदि अर्थप्राप्तन्याय अर्थात् सामान्य कार्यकारणभावग्रह से ही कार्योत्पत्ति का निर्वाह किया जायेगा और कारण के भावि कार्य रूप अवधि के ज्ञान की अपेक्षा नहीं होगी तो इस तथ्य को सूक्ष्मता के साथ तटस्थ हो कर परीक्षा करनी होगी कि "क्या घस्तुतः उत्पाद्य और उत्पादक का विशेष रूपसे ज्ञान न होने पर भी सामान्य कार्यकारणभाव के प्राधार पर ही कारण असत्कार्य के सत्त्व का साधक हो सकेगा ?" प्राशय यह है कि उत्पत्ति के पूर्व कार्य को सर्वथा असत् मानने पर कारण द्वारा उसके सत्त्व का साधन नहीं हो सकता । क्योंकि, कारण को स्वसम्बद्ध कार्य का हो जनक मानना होगा। यदि कारण से असम्बद्ध भी कार्य की उत्पत्ति मानेंगे तब कारणविशेष का कार्यविशेष के समान अन्य समय कार्यों में भी प्रसम्बन्ध ( सम्बन्धामाय) समान होने से एक ही कारण विशेष से समग्र कार्यों की उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा, मापत्ति होगी ।
__ 'कार्य उत्पत्ति के पूर्व यदि सर्वथा असन होगा तो कारणसे उसका सम्बन्ध न हो सकने के कारण उसके सत्व का साधन असम्भव न होगा क्योंकि विद्यमान और अविद्यमान में भी सम्बन्ध होता है
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२ ]
[ शा. वा. समुच्चय-स्त०४-श्नो ४४
इसके समर्थन में जो प्रतीत घट और उसके ज्ञान के सम्बन्ध को दृष्टान्त रूपमें प्रस्तुत किया गया यह अनुपयुक्त है। क्योंकि प्रतीलघटके जातकाल में तज्ज्ञानज्ञेयत्व' अर्थात 'तज्ज्ञान के विषय होने की योग्यता धारकत्व' रूप से प्रतीत घट को सत्ता होती है। क्योंकि, तज्ज्ञानज्ञेयत्व अतीतघटके ज्ञानकालमें है और वह प्रतीत घट का पर्याय है । पर्याय प्रौर उसके प्राधारभूत पदार्थ में प्रापेक्षिक ऐक्य होता है, प्रत एव पर्याय के रहने पर पर्यायरूपसे उसका भो अस्तित्व अनिवार्य है। इसी प्रकार दण्ड प्रावि में उत्पन्न होनेवाली घट की कारणता मी इसी लिये सम्भव होती है कि उस समय भी भावी घट अपने दरमाबीन उत्पनिमोग्यासमा म के भयो नियमान होता है । अन्यथा वण्ड के साथ भावि घटका कारणतासम्बन्ध ही नहीं संगत हो सकेगा।
[विषयता ज्ञानस्वरूप है-पूर्वपक्षशंका) इस सम्बन्ध में यदि यह शङ्का को जाय कि-'ज्ञान के साथ घरका विषयता रूप सम्बन्ध होता है और वह विषयता ज्ञानस्वरूप होती है । अत एव उस ज्ञानस्वरूप सम्बन्ध का अस्तित्व ज्ञानोत्पादक सामग्री के प्राधीन होता है, घटादि के प्राधीन नहीं होता। अत एव घटादि के न होने पर भी वह सम्बन्ध उपपन्न हो सकता है । इसी प्रकार द में घटका जो कारणता सम्बन्ध होता है वह मो वण्डस्वरूप होता है। प्रत एव उस सम्बन्ध का भी अस्तित्व दण्डसामग्री के ही द्वारा सम्पन्न होता है, उसके लिये भी घट की अपेक्षा नहीं होती । प्रतः घटके प्रसत्त्व में उस सम्बन्ध का अस्तित्व निर्बाध हो सकता है। यदि यह प्रश्न किया जाय कि ज्ञान के साथ घटका विषयता रूप सम्बन्ध यदि ज्ञान स्वरूप है तो ज्ञान का ज्ञानत्व रूपसे ('ज्ञान' इत्याकारक) ग्रहण होनेपर 'ज्ञानं घटीयं-ज्ञान घटका सम्बन्धो है' इस प्रकार का व्यवहार भी क्यों नहीं होता? एवं दण्ड में रहनेवाली घटको कारणता यदि दण्ड रूप है तो दण्ड का वण्डस्य रूपसे ज्ञान होनेपर घटकारणता भी गहीत हो जाती । तब तो उस समय 'दण्डः घटोय :-दण्ड घर काकारण है' इस प्रकार का व्यवहार क्यों नहीं होता?" तो इसका उत्तर यह है कि उक्त व्यवहारों में घट ज्ञान भी कारण है । प्रतएव घटका ज्ञान न रहने पर शुद्धज्ञानस्वरूप और दण्डस्वरूप का ज्ञान रहने पर भी उक्त व्यवहार नहीं होता ।"
( संबंधमात्र द्वयसापेक्ष है-समाधान ) किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है। क्योंकि, सम्बन्ध दोनों सम्बन्धीयों से निरूपणीय होता है। अर्थात् , किसी सम्बन्ध का ज्ञान तभी होता है जब उसके दोनों सम्बन्धियों का ज्ञान हो । प्रत एव दो पदार्थों के बीच में होनेवाले सम्बन्ध को किसी एक पदार्थ के ही स्वरूप में सोमित नहीं किया जा सकता । यदि सम्बन्ध को सम्बन्धिस्वरूप मानना होगा तो दोनों सम्बन्धियों को हो सम्बन्ध मानना होगा । अतः एक के अमात्र में केवल एक मात्र सम्बन्धी के रहने पर सम्बन्ध का अस्तित्व सम्पन्न नहीं हो सकता। क्योंकि, यदि सम्बन्ध एक सम्बन्धी के स्वरूप में ही परिसमाप्त हो सकता हो तब तो दूसरे सम्बन्धी के प्रज्ञान काल में ओ सम्बन्धनात्मक सम्बन्धी का बोध होगा वह उभय सम्बन्धी के ज्ञानकालमें होनेवाले संसर्गतावगाही बोधकी अपेक्षा विलक्षण न हो सकेगा। क्योंकि, एक सम्बन्धी मात्र मो जब सम्बन्धात्मक हो सकता है तो उसके बोध को भी संसर्गतावगाही होना
। इसी प्रकार प्रतीतपटादि के ज्ञान को प्रतीत घटादि के सर्वथा प्रसत होने पर भी यदि प्रतीतघटाधारक माना जायेगा तो ज्ञान को साकारता में विषय को अपेक्षा न होने से साकार ज्ञानवाद योगाचार बौद्ध के विज्ञानवाद की प्रसक्ति होगी जिसके फलस्वरूपविषय के अस्तित्व का सर्वथा लोप हो जायेगा। इस विषयका विशेष विचार अन्यत्र प्राप्त होगा ॥४४॥
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
यदि चैवमपि साधकत्वमिष्यते, तदाऽतिप्रसङ्ग इत्याहमूल - साधकत्वे तु सर्वस्य ततो माचः प्रसज्यते । कारणाश्रयणेऽप्येवं न तसत्त्वं तदन्यवत् ॥ ४५ ॥
साधकत्वे तु तस्य निरवधिक एवाभ्युपगम्यमाने, सर्वस्य = कार्यजातस्य ततः कारणाद भावः = उत्पादः प्रसज्यते तस्याऽसत्साधकत्वेनाविशेषात् । उपसंहरन्नाह एवम् = उक्तेन न्यायेन, कारणाश्रयणेऽपि कार्यविशेषार्थं कारणविशेषानुसरणेऽपि न तत्-प्रतिवितकार्यसम्यम्, तदन्तत् ततोऽन्यत्रेव योग्यताभावाऽविशेषात् नाना कार्य जननी तत्तद्धेतुव्यक्तिनां तद्व्यक्तिजनकत्वमेव स्वभाव इत्यस्य वक्तुमशक्यत्वात्, तत्स्वभावानुप्रविष्ट त्वेन तद्वदेव प्रसङ्गाच्चेति ॥ ४५ ॥ दोषान्तरमाह -
3
[ ६३
मूलं किञ्च तत्कारण कार्यभूतिकाले न विद्यते ।
तनो न जनकं तस्य तदाऽसत्त्वात् परं यथा ॥ ४६ ॥
किश्च तत् = पराभिप्रेतं कारणं कार्यभूतिकाले कार्योत्पादसमये न विद्यते क्षणिकत्वात्, यत एवं ततो न जनकं तस्य कार्यस्य । कुतः ? इत्याह तदाऽसत्त्वात् कार्यभूतिसमयेऽमच्चात् । किंवत् १ इत्याह- परं यथा - कारणकारणवदित्यर्थः ||४६ || आशंकाशेषं परिहरति
[ प्रसत्कार्यवाद में सर्वकार्योत्पत्ति को प्रापत्ति 1
४५ वीं कारिका में कारण को श्रसत् कार्य का उत्पादक मानने पर एक कारण से सभी कार्यों की उत्पत्ति के प्रसङ्गका प्रतिपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है, साधकता कारणता को यदि भावी कार्य रूपी अवधि से निरपेक्ष माना जायेगा तो एक कारण से समस्त कार्यों की उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा, प्रापत्ति होगी । क्योंकि जब कारण को असत् का ही उत्पादन करना है तो समस्त कार्यों में समान रूपसे प्रसव होने के कारण, सब के प्रति उसका उत्पादक होना अपरिहार्य है ।
[ विशेष कार्य-कारण भाव भी प्रसत्कार्यवाद में प्रसंगत ]
एवं उक्त न्याय से कार्य विशेष के लिये कारणविशेष का उपादान मानने पर भी कारण विशेष से नियतकार्य का सत्त्य साधन नहीं हो सकता। क्योंकि, जैसे कारण विशेष में प्रत्यकार्यों के उत्पादन की योग्यता का अभाव होता है उसी प्रकार कार्यविशेष के उत्पादन की योग्यता का भी प्रभाव होगा। इसके प्रतिवाद में यह कहना शक्य नहीं है कि अनेक कार्यों के प्रति स्वरूपयोग्य होने पर भी तत्तत्कार्यव्यक्ति को ही उत्पन्न करना तत् तत् कारण व्यक्ति का स्वभाव है। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि तत्तत्कार्यव्यक्ति की उत्पादकता को तत्तत्कारणव्यक्ति का स्वभाव मानने पर स्वभाव अपने प्रश्रय का सहमावी होने के कारण, कारणव्यक्ति के समानकाल में हो कार्य के अस्तित्व का मी प्रसङ्ग होगा ||४५ ॥
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
[शा. वा. समुरचय स्त-४ श्लोक-४७
मुलं--अनन्तरं च तद्भावस्तत्त्वावेव निरर्थकः ।।
समं च हेतु-फलयो शोत्पादावसंगती ॥४॥ अनन्तर च-कारणाव्यवहितोत्तरसमये च, तद्भावः कार्योत्पादोऽभ्युपगम्यमानः, तत्वादेव-अनन्तरत्वादेव निरर्थकः, दण्डादीनां दण्डत्वादिना घटादिच्याप्यत्वाभावात् , सामग्रीप्रविष्टदण्डत्वादिना तथात्ये गौरवात • कुर्वपत्वेन तथात्वे हि क्षणिकत्यसाधनाशा, सा च न पूर्यते, अव्यवहितोत्तरसमयत्तित्वसंबन्धन व्याप्यत्वे गौरवात् , आनन्तयमात्रस्य च कारणकारण साधारणत्वात् क्षणिकस्याऽनियामकत्वाद, कुर्वपकल्पनापेक्षया कथश्चिद्भिन्नाभिन्नमाममयनुप्रवेशरूपकुचंद्रपत्वेन दण्डादेस्तदेव घटादिध्याप्यत्वोचित्याच्चेत्याशयः । तथा, समं चएककालं च हेतुफल्यो.-कार्यकारलायोः, नागोलायो अशङ्गत अघटमानों ॥४७॥ तथाहि
[क्षणिक वाद में कारगता को अनुपपत्ति ] ४६ वीं कारिकामें भावमात्र को क्षणिकता-पक्षमें एक अन्य दोष भी बताया गया है, जैसे-भाव मात्र को क्षणिक मानने पर कारणभूत भाव भी क्षणिक होगा अतः यह कार्य की उत्पत्ति कालमें नहीं रहेगा । फलतः कार्य की उत्पत्ति के समय न रहने से यह कार्य का कारण नहीं बन सकता । क्योंकि यह नियम है-जो जिस कार्य की उत्पत्ति के समय नहीं रहता वह उसके प्रति कारण नहीं होता जसे द्वितीयक्षरण का कारणीभूत प्रथमक्षण तृतीयक्षण की उत्पत्ति के समय विद्यमान न होनेसे उसका उत्पादक नहीं होता है १४६।।
[क्षणिकवाद में अव्यवहितउत्तरकाल के नियम को असंगति ] ४७ बी कारिका में बौद्धों की बचीची शङ्का का भी परिहार किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-उक्त विचार के संदर्भ में बौद्धों को यह शङ्का हो सकती है कि-"कारणकाल में ही काय की उत्पत्ति होती है यह नियम नहीं है, किन्तु 'कारण के अव्यवहितोत्तर काल में कार्य को उत्पत्ति होती हैं यह नियम है।"-किन्तु यह उचित नहीं है, क्यों कि-कार्य को कारण के प्रत्यक्षति होना-इतना मात्र मानता निरर्थक है. क्योंकि ऐसा मानने पर कार्य-कारण भाव नहीं केन सकता। यतः दण्ड प्रादि दण्डत्वरूप से घटका व्याप्य नहीं होता, अर्थात् जिस कालमें द स्वायवहितोत्सरस्व सम्बन्ध से रहता है उम कालमें कार्य होता ही है-यह नियम नहीं है । क्योंकि, दरातु मात्र के रहने पर घट को उत्पत्ति नहीं होती है। यदि यह नियम माना जाय कि-दण्ड अव्यवहितोसरत्व सम्बन्ध से घटोत्पादक सामग्रो गत यावत्व रूपसे जिस काल में रहता है उस काल में घट होता हैतो इसमें गौरव होगा। क्योंकि घट सामग्रोगत यावत्त्व का दो रूप हो सकता है (१! चकुलालकपालादि विशिष्टदण्डत्व और (२) दण्डच ककुलालकपालाविगत सुसया विशेष, दोनों ही स्थिति में गौरव अनिवार्य है। क्योंकि पहले रूपमें चक्रकुलालकपालादि के विशेषणविशेष्य भाव विनिगमनाविरह होगा, अर्थात् वण्ड को चकविशिष्ट कुलालशिशिष्ट कपालादिविशिष्ट दण्डत्व हपसे व्याप्य माना जाय अथवा कुलालकपालचक्रविशिष्ट दण्डत्व रूप से प्रथवा चऋकुसालकपालादिविशिष्ट दण्डत्व रूपसे व्याप्य माना जाय इसमें कोई विनिगमना न होनेसे सभी रूपों से व्याप्यता का स्वीकार
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वा० क० टीका-हिन्दी विवेचन ]
[ ६५
मूलं -- स्तस्तौ भिन्नाभिन्नों वा ताभ्यां भेदे तयोः कुतः ? नाशोत्पादकभेदे तु तयोर्वै तुल्यकालना ॥४८॥
लौ = नाशोत्पाद, लाभ्यां हेतु-फलाभ्यां भिन्नो अभिन्नों वा स्त इति पक्षद्वयम् । तत्र
करना होगा । तथा सङ्ख्यारूप मानने पर पेक्षा बुद्धि के भेदसे दण्ड-चक्क कुलाल श्रादि में विभिन्न सङ्ख्या की उत्पत्ति होनेसे उन सङ्ख्याम्रो में किस सङ्ख्य रूप से दण्डमें व्याप्यत्ता का स्वीकार किया जाय उसमें कोई विनिगमना न होगी । फलतः, अनन्तयावस्वात्मकसंख्या रूपसे व्याप्यता मानने में गौरव होगा । और यदि दण्ड को घटकुरूपत्वेन घटका व्याप्य माना जाय तो भी भावके क्षणिकत्व के साधन की आशा पूर्ण नहीं हो सकती, क्योंकि इस आशा की पूर्ति तत्तत्कार्य कुर्व द्रूपत्व व शिष्ट दण्ड को व्यवहितोत्तर समय वृतित्व सम्बन्धसे तत्तत्कार्य का व्याप्य मानने पर ही हो सकेगो, क्योंकि, यदि तत्तरकार्य कुरूपत्वविशिष्ट स्थायी होगा तो, अर्थात् तत्तत्कार्योत्पत्ति के व्यवहित पूर्वक्षणो में एवं उत्तर क्षणो में भी विद्यमान होगा तो, तत्कार्योत्पत्ति का स्वरूप समय की अपेक्षा उसका अव्यवहितोसरसमय नहीं होगा किन्तु जब कभी उसका नाश होगा तभी उसका श्रव्यवहित उत्तर समय होगा. और उस समय तत्तत्कार्य-उत्पत्ति होती नहीं है । यदि उसके क्षण की अपेक्षा श्रव्यवहितोतरख लिया जायेगा तो तत्कार्योत्पत्ति के व्यवहित पूर्वक्षणों में भी उसके विद्यमान होने पर तत्कार्योत्पत्ति के यति पूर्व क्षण में भी स्वाव्यय हितोसरत्व रहेगा किन्तु उस समय तत्कार्योत्पत्ति होती नहीं है। फलतः, तत्कार्य को क्षणिक मानने पर ही स्वाऽव्ययहित उत्तर समयवृत्तित्व सम्बन्ध से वह तत्कार्य काव्याप्य हो सकेगा। किन्तु स्वाऽव्यवहितो तर समय वृत्तित्वसम्बन्धसे तत्कायं कुद्रपत्य विशिष्ट को तत्कार्य का व्याप्य मानने में व्याप्यतावच्छेदकसम्बन्ध गुरु बन जायेगा । यदि केवल 'मनन्तयं (उतरवत्तित्व) को ही व्याप्यतावच्छेदक सम्बन्ध माना जायेगा तो तत्कार्यकुवंप का आनन्तर्य तत्कार्य द्रूप तत्कार्थकारण के कारण क्षण में भी प्रा जायेगा। क्योंकि उसमें भी उसका अव्यवहितस्यरूप श्रानन्तर्य है | अतः ग्रानन्तर्य सम्बन्ध से तत्कार्यकुद्वप में तत्कार्य की व्याप्ति उपपन्न करने के लिये सत्कार्य कुर्वद्रूप के प्रव्यवहित पूर्वक्षण में भी तत्कार्य की उत्पत्ति माननी होगी और उसके लिये तत्कार्यकुर्यद्रूप की सत्ता उसके पूर्व मो माननी होगी । फलतः तत्कार्य कुर्यद्रूप के क्षणिकत्व की सिद्धि न हो गी । श्रतः नियत समय में हो तत्तत्कार्य को उत्पत्ति को नियन्त्रित करने के लिये कार्यकुद्रपक्षणिक कारण की कल्पना करने की अपेक्षा यह कल्पना करना उचित है कि जिस काल में कालिक सम्बन्ध से घटादि सामग्री - श्रनुप्रवेशरूप कुर्वद्रपत्य से विशिष्टदण्डादि रहता है उस काल में कालिक सम्बन्धसे घटादि को उत्पत्ति होती है । इस व्याप्य व्यापक भाव में कोई बाधा नहीं है फलतः घटादि के उत्पादक सामग्री में कुर्वद्रूपत्वरूप से विद्यमान घटादि का कपवित्वामेव होनेसे सामग्री काल में घटादि का सद्भाव अस्तित्व निर्बाध है। इस से स्पष्ट है कि कारण और कार्यका नाश और उत्पाद एक काल में प्रसङ्गत है ॥ ४७ ॥
[ उत्पत्ति-नाश कार्य-कारण से भिन्न या श्रभिन्न ? ]
पूर्व कारिका में उपसंहार करते हुऐ कारणनाश और कार्योत्पाद के एककालीनत्व को प्रसङ्गति बतायी गई थी। उसी की पुष्टि ४८ वीं कारिकामें की गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैनाश और उत्पत्ति के सम्बन्ध में दो पक्ष हो सकते हैं। पहला यह कि कारण और उसका नाश एवं काय और उसकी उत्पत्ति दोनों परस्पर मित्र है । तथा दूसरा पक्ष यह कि दोनों परस्पर में
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६ ]
[शा. वा. समुच्चय स्तः ४-श्लो०३८
भेदेऽभ्युपगम्यमाने तयोः हेतु-फलयोः, नाशोत्पादौ कुतः, संबन्धाभावात् , नाशस्य निर्हेतु कन्याभ्यापगमेनोपादस्य चोदापानाजन्यन्वेन तदुत्पत्तिसंवन्धस्याप्यभावात् अभेदे त्वभ्युपगम्यमाने, तयोः कार्य-कारणयोः, वैननिश्चितम् , तुल्यकालता, हेतुनाश-फलोत्पादयोरभिन्नकालत्वात् ॥४८॥ ततः किमित्याह--
मृलं-न हेतु-फलभावश्च तस्यां सत्यां हि युज्यते ।
तनिषन्धनभावस्य योरपि वियोगतः ॥४९।। नस्यां च-कार्य-कारण योग्तुल्यकालतायां च सत्या. हि निश्चितम् , हेतु-फलभावो न घुज्यते । कुतः १ इत्याह सन्निधन्धनभावस्य-कार्यकारणभावनियामकतद्भावभाविवादिसद्भावस्य द्वयोरपि तयोरभिम्नकालयोनिरूपकयोः वियोगता अभावात् ।।४९।। पराभिप्रायमाशय परिहामाहमुलं- कल्पितश्चेदयं धर्म-धर्मिभाषो हि भावतः ।
न हेतुफलभाषः स्यान्सर्वथा तदभाषतः ॥५०॥ अयं-'कारणं धर्मि, नाशो धर्मः, कार्य धर्मि उत्पादश्च धर्मः' इत्याकारो धर्मधर्मिभावः, हि-निश्रितं, भावतः परमार्थतः कल्पितः, नाशस्य सांवृतत्वात् , उत्पादम्य च कार्यरूपन्वेअभिन्न है। यदि भेद माना जायेगा तो नाश के साथ कारण का और उत्पत्ति के साथ कार्य का सम्बन्ध नहीं हो सकेगा । क्योंकि भिन्न पदार्थों में सम्बन्ध प्रष्ट है । इसलिये कारण का नाश, कार्य का उत्पाद इस प्रकार नाश और उत्पाद के साथ सम्बन्ध का व्यवहार न हो सकेगा। एवं 'तत्पत्तिसम्बन्ध' भी नहीं बन सकेगा। नाशमें कारण का, और उत्पाद में काय का उत्पत्ति सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता । क्योंकि बौद्धमतमें नाश निहतुक माना गया है अतः उसकी उत्पत्ति बाधित है ।
र उत्पत्ति को उत्पद्यमान से प्रजन्य माना गया है, इसलिये उत्पत्ति के साथ उत्पद्यमान का उत्पत्ति सम्बन्ध मो असम्भव है । उन दोनो में दूसरा पक्ष अर्थात् अभेद भी नहीं माना जा सकता। क्योंकि, प्रभेव मानने पर हेतुनाश और कात्पिाद के एककालीन होनेसे हेतु और फल में एककालीनत्व की प्रसक्ति होगी ।।४।।
४६ वीं कारिका में हेतु प्रौर फल में एककालीनत्व होने से प्राप्त दोष का प्रदर्शन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है:
कार्य-और कारण यदि समानकालीन होंगे तो उनमें कार्य-कारणभाव न हो सकेगा। क्योंकि, कार्य-कारण भाव का नियामक होता है 'तत्सत्त्वे तत्सत्त्व प्रौर तदमावे तदभाव:' इस प्रकार के अन्वय-व्यतिरेक का नियम; और यह नियम समानकालीन पक्षाओं में उपपन्न नहीं हो सकता ॥४६॥
[नाश और कारण का धर्मविभाव कल्पित है-पूर्वपक्ष ] ५० वीं कारिकामें, पूर्वोक्त आपत्ति के बौद्ध द्वारा प्राशंकित परिहार को उपस्थित करके उसका निराकरण किया गया है। कारिका का प्रथं इस प्रकार है-कारण और नाश में एवं कार्य और उत्पत्ति में जो धर्म-मिभाव का व्यवहार होता है अर्थात् 'कारणं नाशधर्मक' कार्य उत्पत्तिधमक'
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका और हिन्दी विवेचना ]
[१७
ऽपि भेदनिबन्धनधर्म-धर्मिभावव्यवहारानङ्गत्वादिति चेत् ! सर्वथा तदमावतः धर्म-धर्मिभावाभावात् हेतु फलभावो न स्यात् , कारणत्वस्यानन्तर्यघटितत्वात् , तस्य च नाशघटितत्वादिति भावः । ५०|| पराभिप्रायमाह
मुलं-न धर्मी कल्पितो धर्मधर्मभाषस्तु कल्पितः ।
पूर्वो हेतुर्निरंशः स उत्तरः फलमुच्यते ॥५१॥ पारमादिः, न करिपा, स्याध्यक्षावसितत्वात् । धर्म-धर्मिभावस्तु कल्पितः, परापेक्षग्रहत्त्वेन सविकल्पकैकवेधत्वात् । तत्र पूर्वो वस्तुक्षणो निरंशः धर्मान्तराघटितः हेतुः, उत्तरश्च तादृशो वस्तुक्षणः फलमुच्यते । तत्र काल्पनिक कारणत्वं कार्यत्वं च मा भृत, पास्तवं तु धर्मिस्वरूपमन्याऽघटितं भवत्येच, इति भावः ॥५१|| अत्रोत्तरमाह
--
-
---
----
-
-----
इस प्रकार का ओ ध्यवहार होता है उस व्यवहार का विषय वस्तुतः कल्पित है। क्योंकि, नाश बौद्ध मत में पारमार्थिक न हो कर सांवृत-वासनाकल्पित है। जो स्वयं कल्पित है वह किसी का वास्तव धर्म कैसे हो सकता है ? उत्पाद कार्यरूप होने से कार्य के समान ही यद्यपि असांवृत सत्य है फिर भी यह कार्य का धर्म हो कर कायमुत्पत्तिधर्मक' इस धर्मि-धर्ममाव के व्यवहार का उपपादक नहीं हो सकता। क्योंकि, धर्म-धमिभाव का व्यवहार अत्यन्त अभिन्न पदार्थो में न होने के कारण भेदमूलक होता है और बौद्ध को कार्य एवं उसकी उत्पत्ति में भेद अभिमत नहीं है ।
[ कल्पित धर्म-मि भाव से कारणत्व की अनुपपत्ति-उत्तरपक्ष ] इस परिहार के प्रतिकार में जैन का कहना यह है कि कारण और नाश एवं कार्य और उसका उत्पाद इन दोनों में धर्म-धर्म भाव का एकान्त रूपसे सर्वथा परित्याग कर देने पर कार्य-कारण भाव की उपपत्ति न हो सकेगी। क्योंकि कारणता प्रानन्तयं घटित है और प्रानन्तयं नाशघटित है ।
मे. कारणात्य का अर्थ है तत्कायंसमानकालोत्पत्तिक नाशधर्मकत्वे सति तत्कार्यपर्ववत्तित्व। इसी प्रकार तत्कार्यत्व भी तन्नाश समानकालिक उत्पत्ति धर्मकस्व रूप है। यदि नाश कारण का धर्म न होगा तो उसमें उक्त कारणत्व, और उत्पत्ति कार्य का धर्म न होगा तो उसमें उक्त कार्यत्व न होने से कार्य-कारण भाव नहीं हो सकेमा ॥१०॥
[ धर्मों अकल्पित, धर्म-धर्म भाव कल्पित-बौद्ध ] ५१ वी कारिका में उक्त दोष का बौद्ध सम्मत परिहार बताया गया है। कारिका का अर्थ -
बौद्ध का यह कहना है कि उसके मतमें कारण-कार्य प्रादि धर्मो कल्पित नहीं है। क्योंकि, वह स्वलक्षण-सत्य वस्तु को ग्रहण करनेवाले निविकल्पक प्रत्यक्ष से सिद्ध है। कल्पित केवल धर्मधामभाव है . क्योंकि, वह अन्य सापेक्ष ज्ञान का विषय होने से एक मात्र विकल्पक ज्ञान से ही वेद्य है । इसलिये पूर्वभाव अन्यधर्म से प्रघटित होकर के हो कारण होता है और उत्तरमाय भी अन्यधर्मसे अघटित होकर ही कार्य होता है । कारणता और कार्यता अवश्य नाश घटित प्रानन्तयं एवं उत्पत्तिघटित प्रानन्तयं रूप होता है। इसलिये यह वास्तव न हो कर काल्पनिक है और काल्पनिक की उत्पत्ति यदि नहीं
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा. वा० समुच्चय स्त० ४ श्लो० ५२.५३
मुलं--पूर्वस्यैव तथाभावाभावे हन्तोत्तरं कुतः ।
तस्यैष तु तथाभावेऽसतः सत्त्वमदो न सत् ॥५२॥ पूर्वस्यैव-भावक्षणस्य, तथाभावाभावे-फलरूपेण परिणमनाभाचे, 'हन्त' इति खेदे, उत्तर-फल कुतः १ तस्यैव तुकारणक्षणस्य, तथाभावे-फलरूपेण परिणमनेऽभ्युपगम्यमाने, 'असतः कार्यस्य सत्त्वम्-उत्पत्तिः' अद: एतद् वचनम् , न सत्न्न समीचीनम् , व्याहतत्वादित्यर्थः ॥ २॥ एतेनान्यदपि तदुक्तमयुक्तमित्याह
मूल-सं प्रतीत्य तदुत्पाद इति तुच्छामेदं वचः ।
___ अतिप्रसङ्गतइचव तथा चाह महामतिः ॥५३।।
"तं प्रतीत्य-कारणक्षणमाश्रित्य, तदुत्पादः कार्योत्पादः" इतीदं चचम्तुच्छ = निष्प्रयोजनम् ; यतः कारणाश्रयणं यदि तद्रूपाश्रयणं तदोक्तदोपान् , यदि च तदान तय भावमात्रनिवन्धनस्वभावाश्रयणं तदा अलिप्रसङ्कतश्चैव-विश्वस्यापि तदनन्तरभावित्वेन वैश्व
बन सकती तो इसमें बौद्ध को कोई अनभिमति-प्रसम्मति नहीं है । क्योंकि, धर्म का स्वरूप हो वास्तव है और वह अन्य से अटित हो होता है । अतः बौद्धमतमें पूर्वोक्त दोष सम्भव नहीं है। ५१॥
( कारणपरिणति विना कार्य का असंभव ) ५२ वीं कारिकामें बौद्ध के उक्त परिहार का उत्तर दिया गया है । कारिका का अर्थ:--
पूर्व भावक्षरण का यदि कार्य रूपमें परिणमन न होगा तो यह खेद के साथ कहना पडता है कि उस स्थिति में उत्तर क्षरण रूप कार्य भी कैसे हो सकेगा? प्राशय यह है कि पूर्व अस का उत्तरक्षणरूप में परिणाम स्वीकार करने पर ही कार्य की उत्पत्ति हो सकती है । क्योंकि कारण के परिणमन से अतिरिक्त कार्य की सत्ता प्रामाणिक नहीं है । यदि कारण क्षण का कार्यरूप में परिगमन माना जायेगा, अर्थात् सत् कारण क्षण यही सत्कार्य रूप से परिणत होती है यह अगर स्वीकार्य है तब प्रसत कार्य जस्पन्न होता है यह कहनाव्याहत है अथीत स्वीकृति से बाधित है।
[ कारणक्षण के आश्रयण से कार्योत्पत्ति-कश्न को प्रसंगति ) ५३ वी कारिका में बौद्ध के एक अन्य कथन को भो प्रयुक्तता बतायो गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है:-ौज का कहना है कि-'कारण क्षरण का आभय लेकर कार्य उत्पन्न होता है ।'-किन्तु यह कथन निरर्थक-प्रथहीन है। क्योंकि "कायं कारणक्षण' का प्राश्रय लेता है" इसका तात्पर्य यदि यह हो कि कारण के ही किसी रूपविशेष को कार्य ग्रहण करता है तो असत् की उत्पत्ति मानना असङ्गत हो जाता है, क्योंकि कारण सत् होता है प्रत एब उसके रूप का ग्रहण असत् में (प्रसत् से) सम्भव महीं है। यदि कार्य को कारणक्षण का प्राश्रय लेने का अर्थ यह हो कि कार्य एक ऐसे स्वभाव को प्रहरा करता है जो कारण क्षण के अनन्तर होने मात्र से प्राप्त होता है तो प्रतिप्रसङ्ग होगा। क्योंकि एक कारण क्षरण के उत्तर कोई एक ही कार्य नहीं होता अपि तु सारा विश्व हो होता है । जो स्वभाव
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० का टीका और हिन्दी-विवेचना ]
[१
रूप्याभावप्रसङ्गाच्चैव । म्वोक्तेऽथें पूर्वाचार्यसंमतिमुपदर्शयति-तथा चउक्तसदृशं च महामतिः-महामतिनामा ग्रन्थकृत आह-||५३॥ तथाहिमुलं-सधैव तथाभावि वस्तुभावारते न यत् ।।
कारणानन्तर कार्य द्राग्नमस्तस्तता न तत् ॥५४॥
सर्वथैव-कारणत्वादिपर्यायवत् तद्न्यतयापि, तथाभाविवस्तुभावाढते-कार्यकाले फलपरिणामिवस्तुमत्ता विना, कारणानन्तरं प्रतिनियतहेवव्याहतोत्तरसमये, कार्य =प्रतिनियतकार्यम् , दाग-शरित्येर, नभस्तः-आकाशात-अकस्मादित्यर्थः यतो हेतोर्न संभवेत् , ततस्तत् कार्य न भवेदेवत्थंवादिन इति भावः ।।५४ ।। एतदेव समर्थयम्नाहमल-तस्यैव तत्स्वभावत्वकल्पनासम्पदप्यलम् ।
न युक्ता युक्तिवैकल्यराहुणा जन्मपीडनात् ॥५५॥ तस्यैव-विवक्षितकार्यस्यैव, तत्स्वभावत्व कल्पनासम्पदपि स्वभावत एच कारणाऽ. नियममियाजातीयारामयपर्द्धिान्ति अगत्यर्थ! युक्ता । कुतः ? इत्याह-युक्तिवैकल्पराएगा:प्रमाणाभावरूपसहिकेयेण, जन्मपीडनात्-उन्पादस्यैव दूपणात । हेतु विनय
काररक्षण के उत्तर में होने से एक कार्य को प्राप्त होता है वही स्वभाव काररक्षण के उत्सर में होनेवाले सारे विश्वको प्राप्त होगा। फलतः सारे विश्वमें एक स्वभाव हो जानेसे कार्य वैविध्य का लोप होगा। ऐसा ही पूर्वाचाय महामति ग्रन्थकारने भी अपने अन्य में कहा है ॥५३।।
( कारण को सत्ता फलपरिणामस्वरूपकार्य के रूप में अभंग) ५४ वीं कारिका में महामति के ही कथन को प्रस्तुत किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-यदि तप्सत्कार्यकारणम पर्याय से उपेत द्रव्य को कार्यकाल में फलात्मक परिणाम रूपमें सत्ता न मानो जायेगो, अर्थात् 'जो द्रव्य पूर्वक्षरण में तत्तत्कार्यकारणत्व रूप पर्याय से विशिष्ट हो कर रहता है वही द्रव्य उत्तर क्षरणमें कार्यात्मक परिणाम रूप पर्याय से विशिष्ट हो कर विद्यमान होता है इस सत्य की उपेक्षा की जायेगी तो प्रतिनियत हेतु के अव्यवहित उत्तरकाल में प्रतिनियत कार्य का होना प्राकस्मिक हो जायेगा । और कोई कार्य प्राकास्मक तो होता नहीं, अतः असत् कार्यवादी के मतमें कार्य की उत्पत्ति सम्भव न हो सकेगी ।।५४।।
५५ वीं कारिका में इसी बातका अन्य ढंग से समर्थन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-यदि बौद्ध की ओर से यह बात कही जाय कि कार्य का जात्य स्वाभाविक है। उसका कोई स्वभाव से अतिरिक्त नियामक नहीं होता। अत: एक कारणक्षण के अनन्तर होनेशले विभिन्न कार्यों की विजातीयता का मन नहीं हो सकता। क्योंकि, प्रत्येक कार्य अपने कारण से स्वभावत: विजातीयविलक्षण ही उत्पन्न होता है।'-यह बैजात्मलामरूप बोद्ध की काल्पनिक समद्धि भी कार्य को प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसे कार्य का जन्म ही प्रमाणामाव रूप राह से ग्रस्त है । जैसा ज्योतिषियों
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००]
[ शा० वा समुच्चय स्त. ४-श्लो० ५६
तादृशस्त्रमावककार्योत्पादाभ्युपगमे तं विनवार्थक्रियाया अपि स्वभावत एवोपपत्तौ तदुत्पादकल्पनाया अप्यक्तत्वादिति भावः । 'ऋग्ग्रहेण जन्मनि पीडिते च न भवति विभूतिः' इति ग्रहवित्तन्त्रव्यवस्था ॥५५॥
तस्यैव तदनन्तरामवनस्वभावत्वे युक्त्यभावादाकस्मिकत्वेन कार्यानुत्पत्तिषणं स्वोक्तमेव सम्मतिग्रन्थे प्राम् योजितम् । अथ चातिप्रसङ्गं सामान्यशब्देन स्वोक्तमेव तत्र योजयितुमाह-इति केचित्
वस्तुतो-घटकुर्वपत्वेन मृपिण्डदण्डादिक्षणानामेव घटहेतुत्यम् , पटकुटूपत्वेन च तन्तु वैमादिक्षणानामेव पटहेतुत्वम् , इत्यादिरीत्या नातिप्रसंग इत्यत्राप्याह
मूलं-तदनन्तरभावित्वमानतस्तवयवस्थितौ ।
विश्वस्य विश्वकार्यत्वं स्यात्तद्भावाऽविशेषतः ॥५६॥
का कहना है कि जन्मस्थान में क्रूर ग्रह होनेपर विभूति को उत्पत्ति (प्राप्ति नहीं होती है, उसी के अनुसार कार्य के जन्मस्थानमें प्रमाणाभाव राहु मी फर ग्रह के समान उपस्थित है, अतः कार्य में वजात्य का जन्म ही दुर्घट हो जायेगा । अतः उसे वैज्ञात्य रूप सम्पत्ति के लाभ की प्राशा कैसे की आयेगी ? । कहने का प्राशय यह है कि जब कार्य के वैजात्य को कारणनियम्य न मानकर स्वाभाविक माना जायेगा तब उसी प्रकार कार्यक्षणसाध्य अर्थक्रिया भी कार्यक्षरणनियम्य न होकर स्वाभाविक ही मानी जा सकेगो । फलतः प्रक्रियाप्रयोजकत्व के रूप में कार्य के सत्त्व की मान्यता भी युक्तिहीन हो जायेगी।
५६ वीं कारिका के अवतरण में दो मत हैं, कुछ पंडितों का यह कहना है कि-"बौद्ध के मत मेंवही पूबक्षणवर्ती भाव उत्तरक्षण में प्रभाव बन जाता है-इस कथन में कोई युक्ति नहीं है क्योंकि तब प्रतिनियत उत्तर क्षरण में उत्पन्न कार्य को प्राफस्मिक मानना होगा और याकस्मिक कोई कार्य होता नहीं, इसलिये कार्यकी अनुत्पत्ति प्रसक्त होगी। यह दोष प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता ने स्वयं ही कहा है और उसमें सम्मति ग्रन्थ की सम्मति बतायी है। तथा, वैश्वरूप्याभाव का प्रतिप्रसङ्ग भी उन्होंने 'अतिप्रस इस सामान्यशब्द से स्वयं कहा है । अब उसमें भी सम्मतिग्रन्थ को सम्मति प्रदर्शित करने के लिये अग्रिम कारिका का उत्थान किया है"। किन्तु सत्य बात यह है कि इस ५६ वी कारिका का अवतरण अतिप्रसङ्ग के द्वारा पूर्वोक्त दोष का एक परिहार प्रस्तुतकरने वाले बौद्धवादी का निराकरण करने के लिये किया गया है। पूर्वोक्त प्रतिप्रसङ्ग के परिहार में बौद्ध का कहना यह है कि प्रसत्कार्यवाद में भी प्रतिनियत कार्य की व्यवस्था हो सकती है और कार्य के वैविध्य लोप का तिप्रसङ्ग भी नहीं होगा। क्योंकि मत्पिण्डदण्डादि घर के प्रति घटकुर्वद्रूपत्व से कारण होता है । अत एव उनसे उत्पन्न होनेवाला कार्य घट ही होता है। एवं तन्तु आदि क्षण भी पट कुवंद्र पत्व से पट के ही कारण होते हैं । अतः उसले उत्पन्न होनेवाला कार्य पट ही होता है। इस प्रकार कार्य-कारण भाव मानने पर न तो कार्य को विजातीयता प्राकस्मिक होगी और न तो कार्यवैविध्य लोप का प्रापादक कार्यमात्र में एक स्वभावता का प्रतिप्रसङ्ग ही होगा। इस बौद्ध कथन का परिहार का० ५६ में किया गया है..
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका-हिन्दी विवेचना ]
तदनन्तरभावित्वमानतः= अधिकृतकारणानन्तर्यमात्रात् , तव्यवस्थिती कार्य कारणभावसिद्धावभ्युपगम्यमानायां विश्वस्य-मकलकार्यस्य, विश्वकार्यत्वं-सकलकारणजन्यन्वं स्यात् । कुत्ता १ इत्याह-तद्भाषाऽविशेषत: तदनन्तरभावित्वाऽविशेषात् । न घनन्त. रमावि घटापेक्षयेव तादृशफ्टापेक्षयापि न मृत्पिण्डादिक्षणानां कुर्वद्रूपत्वं, येन कार्यविशेषः स्यात् । 'कार्यविशेष दर्शनात् तद्विशेषः कल्प्यत' इति चेत् ? न, व्यावृत्तिरूपस्य विशेषस्य निपेत्स्यमानत्वात् । विधिरूपत्वेऽप्यङ्करकुर्चद्रूपत्वादेः शालित्यादिना सोकर्यात् , जातिरूपस्य तस्याऽसम्भवान् , अनभ्युपगमाच्चेत्याशयः ॥५६॥ इदमेव स्पष्टयति-'विशेषकारणं विक्षिपति' इत्यपरे
मुलं-अभिमतलातादीनामसिनुमाननगात् ।
सर्वेषामविशिष्टत्वान्न तनियमहेतुता ॥५७।।
मिट्टी में पटकुर्वद्र पत्व क्यों नहीं हो सकता ? ] कारिका (५६) का अर्थ इस प्रकार है-जो जिस कार्य कर अधिकृत कारण है उसके प्रानन्तर्य मात्र के आधार पर कार्यकारणभाव की सिद्धि यदि मानी जायेगी तो सम्पूर्ण कार्य में समस्त कारण के कार्य की प्रापत्ति होगी। क्योंकि सबका प्रानन्तर्य सब में समान है। इस स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता कि मत्पिण्डादि क्षणों में उसके अनन्तर होनेवाले घट का ही कुर्वतपत्व है और पदाधि उसके अनन्तरभावी होने पर भी पट का कुर्वपत्व उनमें नहीं है । अतः उक्त रूपसे कार्यकारण भाष की कल्पना कर कारगविशेष से कार्यविशेष के जन्म का समर्थन नहीं हो सकता।
बौद्ध को औरसे इस सन्दर्भमें यह कहा जाय कि-"मृत्पिण्डादि क्षणों से घट जैसे विशेष कार्य की उत्पत्ति और तन्तुग्रादि क्षणों से पट जसे विशेष कार्य को उत्पत्ति वेखो जातो है इसलिये मत्पिण्डादि घट कारणों में घटकुर्वपत्व और तन्तु प्राविपटकारणो में पटकुर्वद्र पत्व की कल्पना युक्तिसङ्गत है"तो यह भी ठीक नहीं हैं। क्योंकि तत्तत्कार्यकुर्बद्पत्व को प्रभाव अथवा भाव रूपमें स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि, उसकी प्रमावरूपता का खण्डन प्रामे किया जाने वाला है और भाषरूपता उसकी इसलिये नहीं मानी जा सकती कि उसको भावरूप मानने पर जातिरूप मानना होगा और उसको जातिरूपता सांकर्य दोष के कारण सम्भव नहीं। सांकर्य दोष उसमें अत्यन्त स्पष्ट है-जैसे, शालित्व कुशूलवतॊशालिबीज में होता है उसमें प्राकरोत्पादकत्व नहीं रहता है और प्रकुरोत्पादकत्व उपजाऊ भूमि में क्षिप्त यवबीजमें रहता है किन्तु उसमें शालित्व नहीं रहता, तथा अङकुरकुर्वदूपत्व पौर शालिरव दोनों उपजाऊ भूमि में क्षिप्त शाली बीजमें होता है अतः कुर्वपस्व को जाति स्वरूप नहीं माना जा सकता । तथा, जाति की सत्ता बौद्ध को स्वीकृत भी नहीं है ।॥५६॥
५७ वी कारिकामें पूर्व कारिकाके प्रतिपाय अर्थ को हो स्पष्ट किया है। दूसरे विद्वानों का मत है कि प्रस्तुत कारिकामें बौद्ध मत खण्डन में नवोन हेतु का उपक्षेप किया गया है
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२ ]
[श वा० समुच्चय स्त०४-श्लो० ५७
अभिनदेशतादीनां कारणदेशैकदेशत्वादीनाम् , आदिनाऽभिन्नजातिन्यादिग्रहः, असित्वात-क्षणिकत्वेन देशादिभेदोषपत्तेः, तथा अपरिणामित्वेनानम्वयात् सर्वेषाम् = अनन्तरभाविना कार्याणाम् सर्वाणि पूर्वभाषीनि कारणानि प्रन्यविशिद्धत्वाद् न तन्नियमहेतुना=न कार्यविशेषनियमहेतुता कारणविशेषे-इत्यक्षगर्थः ।।
देशनियमस्तथाभाविकारणानभ्युपगमे दुर्घटः, सर्वेषां घटकुळंद्र पक्षणानामेकत्राऽसवात , मृत्पिण्डक्षण देशेऽपि पूर्वध घटक्षणानुत्पत्तेश्च । न च मृद्रपघटक्षणं प्रति घरकुर्वपमृक्षणत्वेन हेतुत्वाद् नानुपपत्तिरिति वाच्यम् , दण्डादिसमाजामुद्रपघटापत्तेः । न च दण्डादीनामपि
[ निश्चित कारण से नियतकार्योत्पत्ति क्षणिकवाद में असंभव ] कारिका का अर्थ इस प्रकार है-बौद्धमत में कारण विशेषमें कार्यविशेष की नियत हेतुता' को उपपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि इसको उपपत्ति कारण और काय को समान देशता, समान जातीयता अथवा कार्यमें कारण का प्रन्वय होनेसे ही सम्मव होती है। किन्तु बौद्धमतमें भावमात्रके क्षणिक होनेसे कारण देश का कार्यकालपर्यन्त अवस्यान एवं कारण गत जाति का कार्यकाल पर्यन्त प्रवस्थान न होने से समान देशत्वादि प्रसिद्ध है । तथा, कारण को कार्यात्मना परिणामी न मानने से कारणमें कायका मन्बय भी प्रसिद्ध है । बौद्ध मतमें यदि सिद्ध है तो केवल इतना हो कि कार्य में कारण का प्रानन्तर्य मात्र । किन्तु इतने से ही कारण विशेष से कार्य विशेष की उत्पत्ति का नियम नहीं उपपन्न हो सकता. क्योंकि जिस कार्य व्यक्ति के पूर्व में जितने भी कारण हैं उन सभी का प्रानन्तर्य उस कार्य में समान है । प्रतः 'उसके प्रति कुछ नियत पूर्वधर्ती ही कारण हो, अन्य न हो' यह निर्धारण शक्य नहीं है ! यही है कारिका का साधारण अक्षरार्थ । कारिका के इस प्रक्षरार्थ का निष्कर्ष निम्नोक्त प्रकार से ज्ञातव्य है
[ बौद्धमत में कारणदेश में हो कार्योत्पत्ति का असंभव ] इस सम्बन्धमें बौद्ध के कथन पर विचार करनेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि घटकुवंद्रपत्व रूपसे मृत्पिण्डादिको घटका कारण मानने पर काल नियम प्रर्थात कालविशेष में ही घटादि हप कार्य विशेष की उत्पत्ति का नियम तो उपपा हो सकता है। किन्तु देशनियम की उपपत्ति प्रर्थात् अमुक कार्य की उत्पत्ति प्रमुक देश में ही हो यह व्यवस्था नहीं हो सकती । यह व्यवस्था त भो सम्भव हो सकती थो यदि कार्यात्मना परिणमनशील कारण को सत्ता स्वीकार की जाती, क्योंकि तब यह कहा जा सकता था कि पिण्ड प्रौर घट दोनों एक ही मदव्य के परिणाम है और पिण्डात्मक परिणाम घटात्मक परिणाम के प्रति कारण है। कारण और कार्य दोनों एक हो मद् द्रव्य में प्राश्रित है इसीलिये कारण देश में कार्योत्पत्ति का नियमन हो सकता है। किन्सु क्षणिकवावी बौद्ध को यह मान्य नहीं है। प्रतः घट के जितने भी कुर्वद्रपक्षण है मत्पिण्ड-प-चक्रादि, उन सभी का कीसी एक देशमें प्रवस्थान म होने से किसी देशविशेष में ही उनसे घट रूप कार्य की उत्पत्ति का नियमन नहीं हो सकता। यदि मस्पिण्डक्षण को घटके प्रति घटकुर्वदूपत्वेन तादात्म्यसम्बन्ध से और मत्पिण्डानुयोगिक कालिक सम्बन्ध
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
या० का टीका-हिन्दी विवेचना ]
[१३
मृदूषघटत्वावच्छिन्नं प्रत्येव हेतुत्वाद् नापं दोष इति वाच्यम् , स्फुटगौरवात , कार्यगतयावद्धर्माणां कायर्तावच्छेदके प्रवेशप्रसङ्गात् , कारगगतमृद्रपकार्यसंक्रमेऽन्वयप्रसंगात , अतिरिक्तस्याअनिर्वचनाच । तस्माद् घटयोग्य जाया घटहेतुत्वं विना न निर्वाह इति सूक्ष्ममीक्षणीयम् ॥१७॥ पराभिप्रायमाशङ्कय परिहरति-- मूलं-योऽप्येकस्यान्यता भावः संताने दृश्यतेऽन्यदा ।
तत एव विदेशस्थात्सोऽपि यत्तन्न बाधकः ॥५८||
से घटकुर्वपत्व विशिष्ट दण्डादि को कारण मानकर इन सभी कारणों का एक देश में सत्त्व उपपन्न किया भी जाय तो इस से भी कार्यके उत्पत्ति वेश का नियमन नहीं हो सकता, क्योंकि मृत्पिण्डक्षरण रूप देशमें भी घट क्षण की उत्पत्ति नहीं होगो । कारण, मृत्पिण्ड क्षरण घटक्षण को उत्पत्ति काल में नहीं रहता।
यदि यह कहा आप कि मिट्टो हर टक्षण के प्रत्ति घटकुर्वपत्वविशिष्ट मिट्टी क्षण को कारण मानने से उक्त अनुपपत्ति-कारण विशेष से कार्य विशेष के नियम को अनुपपत्ति'नहीं हो सकती-तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि मिट्टी क्षण को ही मिट्टो रूप घट क्षण के प्रति कारण मानने से दण्डनकादि रूप घटकुर्वपत्व क्षण से मिट्टी से भिन्नरूप घट को उत्पत्ति को प्रापति होगी। यदि इस दोष के परिहार के लिये दण्डादि को भी मिट्टीरूप घटत्वावच्छिन्न के प्रति हो कारण माना जायगा तो स्पष्ट गौरव होगा। क्योंकि घटस्व को कार्यतावच्छेदक मानने की अपेक्षा मिट्टी रूप घटत्व को कार्यतावच्छेदक मानने में स्पष्ट गौरव है । दूसरी बात यह है कि मिट्टीरूपत्व स्वरूप कार्यधर्म को कार्यतावच्छेदक माना जायगा तो घटके अन्य अनेक धर्मों का भी विनिगमना विरह से कार्यतावच्छेदककोटि में प्रवेश प्रसक्त होगा और कारणगत मिट्टीरूप का घटात्मक कार्यमें सक्रमण मानने पर मिट्टीरूप से घटात्मक कार्य में पिण्डात्मक कारण के अन्वय को प्रसक्ति होगी क्योंकि कारण से प्रतिरिक्त उसके मिट्टीरूप का निर्वधन नहीं हो सकता । प्रतः यह कहना कि-"घटोत्पादकता की नियामक घट-योग्यता है और घट-योग्यता घटकुर्वपस्वस्वरूप है और वह मत्पिण्ड-बण्डादि में हो है, तन्तुमादि में नहीं, अत: मपिण्ड-दण्डादि से ही घटको उत्पत्ति होती है, तन्तुमादि से नहीं'-सङ्गत नहीं हो सकता। क्योकि घट्योग्यता की कल्पना घटहेतुरव द्वारा ही माननी होगी, अर्थात् मिट्टो प्रावि घट का हेतु और तन्तुनावि को घटका अहेतु मानकर के ही यह कहा जा सकता है कि घटकुर्वदप घट्योग्यता महिपण्डादि में है और तन्तु प्रादि में नहीं है । तथा घट हेतुस्व की उपपत्ति समानदेशत्वादि के विना असम्भव है । अतः भाव के क्षणिकस्व वादी बौद्ध मत में कारण और कार्य में समानदेशताप्रावि का सम्मथ न होने से कारणविशेष से कार्यविशेष की उत्पत्ति के नियम का निर्धारण नहीं किया जा सकता। यहो कारिका का सूक्ष्म निरीक्षणलभ्य निष्कर्ष है ॥५७।।
[समानदेशत्व का प्रभाव बाधक नहीं है-बौद्ध ] ५८ वौं कारिका में जन धादी से उद्भावित उक्त दोष के परिहार सम्बन्ध में बौद्ध के एक अभिप्राय को शङ्का रूपमें प्रस्तुत कर उसका परिहार किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४ ]
[ शा० वा० समुच्चय स्त०४- श्लो०५८
,
योsपि क्वचिदेकस्य धूमादेः अन्यतः = अग्न्यादेः सकाशात् भावो अभूत्वा भावः, अन्यदा=उत्पादादुद्ध्यं संताने दृश्यते, क्षणयोर्न व्यावहारिकं ग्रहणमिति संतानग्रहणम् सोऽपि विदेशस्थात् देशान्तरस्थितात्, तत एव =अग्न्यादेरेव यद्यस्मात् तत् = तम्मात् न पाघको नियतकल्पनाया अयम् इत्यक्षरार्थः ।
*
अयं भावः – तत्कार्यजननशक्तिमदेव कारणं तत्कार्यजनकम्, देशनियमस्तु स्वभावादेव दूरस्थेनापि बह्निना दूरस्थ मजननदर्शनादिति परस्याशयः । सोऽयमयुक्तः, वह्निना स्वममीपदेश एवं धूमोत्पादादनन्तरं तदुपसर्पणस्याऽपि तत्तत्क्रियादिहेतु देशनियत देशत्वात् अन्यथा काशीयो वह्निः प्रयागेऽपि धूमं जनयेत् । न च लोहोपलस्याsसनिक लोहा कर्षकत्ववदन्यत्राऽपि तथाकल्पनम् अतिप्रसङ्गात् । शक्तिरपि सूक्ष्मकार्यरूपैव अत एव तिलाद तेलसद्भावं निश्चित्यैव तैलार्थिनस्तत्र प्रवर्तन्ते इति न किश्चिदेतदिति दिक् ॥ ५८ ॥
1
+
सन्तान में 'अन्य से' - श्रन्यवेशयत कारण से देशान्तरवर्ती कार्य का अभवनपूर्वक भवन देखा जाता है. जैसे बह्नि सन्तान से घूम सन्तान की उत्पत्ति सर्वविदित है। इस प्रकार जब देशान्तरवत्त काररण से अन्यदेशयत्त कार्य को उत्पत्ति होती है तो कारण और कार्य में समानदेशत्वामाय कारणविशेष से कार्य विशेष के उत्पत्ति नियम का बाधक नहीं हो सकता । यद्यपि, देशान्तरवर्ती कारण से देशान्तरवत्त कार्य की उत्पत्ति एक सन्तानान्तगत पूर्वोत्तरक्षणों में भी मान्य है किन्तु उसे प्रत्यवादी के प्रति दृष्टान्त रूपमें प्रस्तुत नहीं कया जा सकता, क्योंकि उन क्षणोमें एकदेशयस से देशान्तरवर्ती के भवन का व्यावहारिक [ व्यवहार योग्य ] ग्रहण नहीं होता, किन्तु सन्तान में होता हैं, जैसे - वह्निसन्तान और धूमसन्तान में स्पष्ट दृष्ट है। इसी लिये कारिकामें सन्तान द्वारा ही इस बात का कथन किया गया है। कारिका का यह सामान्याक्षराथ है ।
[ स्वभाव से हो देशविशेष का नियम संभव- बौद्ध ]
मूलकार ने शब्दतः बौद्ध के अभिप्राय को प्रस्तुत किया है और तात्पर्यतः उसके खण्डन का सङ्केत किया है जिसे व्याख्याकार ने स्पष्ट किया है जो इस प्रकार है- बौद्धके कारिका-श्रक्षरलभ्य उक्त कथन का श्राशय यह है कि जिस कारणमें जिस कार्यके उत्पादन की शक्ति होती है उसी से उस कार्य कि उत्पत्ति होती है । कारविशेष [ में कार्यविशेष ] के उत्पादन शक्ति की कल्पना कारण विशेष से कार्य विशेष को उत्पत्ति के दर्शन के आधार पर की जाती हैं। इस कल्पना से सब कारणों से सब कार्यों की उत्पत्तिप्रसङ्ग का वारण हो जाता है। रह जाती है बात कार्य देश के नियम की । श्रर्थात् 'कारण विशेष से कार्यविशेष की उत्पत्ति किस देश विशेष में हो ?' इसका उपपादन शेष रह जाता है, जिसे स्वभावाधीन मानना ही उचित है। अर्थात्, कोई कार्य किसी देश विशेषमें स्वभावविशेष से ही उत्पन्न होता है । कार्यस्वभाव से अतिरिक्त अन्य किसी नियामक की पेक्षा नहीं है। क्योंकि दूरस्थ श्रग्नि से दूरस्थ धूम की उत्पत्ति देखी जाती है ।
व्याख्याकार की समानदेश में ही धूमको
[ सम्मान देशता का नियम अभंग है- जैन ] दृष्टि में बौद्ध का यह कथन युक्तिसङ्गत नहीं है। क्योंकि अग्नि भी अपने उत्पन्न करता है। उत्पत्ति हो जाने के बाद धूमका उपसर्पण अर्थात् घूम का
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था का टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ १०५
एतेन प्रसङ्गाभिधानेन यन् व्युदस्तं तदभिधातुकामः प्राहमलं-एतेनैतत्प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं सूक्ष्मबुडिना ।
नासतो भावकत त्वं तदवस्थान्तरं न सः ॥१९॥ एतेन अनन्तरोदितप्रसङ्गेन, एतत्वक्ष्यमाणम् , प्रतिक्षिप्तम्-अपाकृतम् , यदुक्तं सूक्ष्मबुद्धिना-कुशाग्रीयधिया शान्तरक्षितेन । किमुक्तम् ? इत्याह-नासत्तः तुच्छस्य कारणस्य भावकर्तृत्वं-वस्तुजनकत्वं येन शशशृङ्गादेरपि जनकत्वप्रसङ्गः स्यात् । तथा, सः उत्पद्यमानो भावः तदवस्थान्तरं न=सद्रूपापन्नासदवस्थाक्रान्तो न, येन शशशृङगेऽपि सवस्थापादनेन हेतुल्यापारोपवर्णनं सफलं स्यात् ।।५।।
कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध से कार्य और कारणतावच्छेदक सम्बन्ध से कारण के संयुक्त होनेवाले एकदेश में विद्यमान होनेसे धूमक्रिया और धूमोपसर्पण में भी समान देशत्व का नियम अक्षुण्ण है। यदि अग्नि से उत्पन्न दूर तक फैले हुए धूम को देखकर यह कल्पना की जायेगो कि मग्नि से धूम की उत्पत्ति में समानदेशप्ता अपेक्षित नहीं है, तो काशी स्थित अग्नि से प्रयाग में भी धूम उत्पन्न होने को प्रापत्ति होगी। प्रतः कार्य-कारण में समान वेशता का नियम मानना प्रावश्यक है। यदि यह कहा जाय कि"जैसे अन्य देश में अवस्थित लोहचुंबक देशान्तर में स्थित लोह का प्राकर्षण करता है अर्थात् एकवेशस्थ लोहचुंबक से वेशान्तरस्य लोहमें प्राकर्षण क्रिया उत्पन्न होती है-तो जैसे उनमें समान वेशत्व न होने पर भो हेतुहेतुमद्भाव होता है उसी प्रकार अन्य हेतु कार्यों में मो कल्पना को जा सकती है," तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि इस कल्पना में प्रतिप्रसंग है। काशीस्थ अग्नि में प्रयागीय धूमोत्पादन शक्ति की कल्पना कर प्रयागीयधूम इस अग्नि से क्यों न उत्पन्न हो? ऐसो प्रापत्तियों का परिहार अशक्य है। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि लोहचुबक और लोहाकर्षण में भी समानदेशत्व का प्रभाव नहीं है। क्योंकि लोहचबक में लोहाकर्षण शक्ति होने से ही उसके द्वारा लोहका प्राकर्षण होता है। तथा, तत्तत्कारण में विद्यमान तत्तत् कार्य की शक्ति सूक्ष्म तत्तत्कार्य रूप ही होती है। इस प्रकार यहां भी कार्य कारण में समानवेशस्थ अक्षुण्ण है। कार्य-कारण भावमें समानदेशत्व का नियम होने के कारण ही यह माना जाता है- कि तैल चाहने वाले मनुष्य तिल मादि में तेल के अस्तित्व का निश्चय करने पर ही तिल आदि का संग्रह व उसका पेषण, करने में प्रवृत्त होते है। प्रत: बौद्ध का पूर्वोक्त कथन सर्वथा अकिञ्चितकर है । कारणविशेष से कार्यविशेषकी नियतवेश और नियत कालमें उत्पत्ति को व्यवस्था सम्बन्ध में विचार करने की यही संगत विशा है ।।५८।।
[ शान्तरक्षित के 'असत् पदार्थ वस्तुजनक नहीं होता'-कथन की व्यर्थता]
कार्य-कारण में समानदेशत्व का नियम न मानने पर दूरदेशयती कारण से कार्योत्पत्ति के प्रसङ्ग का जो श्रापादन पूर्व कारिका में किया गया उससे प्रकृत में किसका प्रतिक्षेप होता है इस बात को ५६ वो कारिका में दिखाया गया है । कारिका का अर्थ इस तरह है
उक्त प्रसङ्ग-प्रापादन से तत्वसंग्रह के कर्ता शान्तरक्षित के कथन का निराकरण होता है। शान्तरक्षित का कथन यह है कि तुच्छ वस्तु किसी भाव को जनक नहीं होती है प्रतः शशशृङ्गादि के
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६ ]
[ शा.धा. समुच्चय स्त०४-०६०-६१
किं तर्हि तम् ? इत्याह
मूलं वस्तुनोऽनन्तरं सत्ता कस्यचिद्या नियोगतः ।
सा तत्फलं मला व भावोत्पत्तिस्तदात्मिका ॥ ६० ॥
वस्तुनः = अग्न्यादेः अनन्तरं सत्ता कस्यविद् = धूमादः नियोगतः नियमेन या, सा तत्फलं तस्यानन्तरस्याग्न्यादेः कार्यम् मता = दृष्टा, तस्याः कथमुत्पत्तिः ? इत्याह संव= सत्ता भावोत्पत्तिः, उत्पन्त्युत्पत्तिमतोरभेदात्, तदात्मिका - भावात्मिकैव नान्या । ततः सत्ताया एवं जनकत्वात् कथमसज्जनकत्वेनातिप्रसङ्गोद्भावनं युक्तम् १ इत्याशयः ॥ ६० ॥
ननु यद्येवम्, तहिं कथम् 'असत उत्पत्तिः' इत्युच्यते ? इत्यत आह
मूलं - असदुत्पत्तिरप्यस्य प्रागसत्त्वात् प्रकीर्तिता । नासनः सत्वयोगेन कारणात्कार्यभावतः ॥ ६१ ॥
जनकत्व की प्रापत्ति नहीं हो सकती। एवं उत्पन्न होनेवाला भाव सपापन्न होने पर प्रसदवस्था से प्राक्रान्त नहीं रहता, इसलिये शशशृङ्ग में मी सदयस्था के प्रापावान के लिये कारण व्यापार के वर्णन की सफलता नहीं हो सकती । प्राशय यह है कि न तो शशशृङ्ग में जनकत्व का आपादान किया जा 'सकता है, न तो अभ्यत्व का श्रापादान हो सकता | जनकत्व का प्रापादान इसलिये नहीं हो सकता कि वह तुच्छ होता है और तुच्छ कभी किसीका कारण नहीं होता। क्योंकि पूर्व भाव जो उत्तरभश्व का कारण होता है वह सत्त्व प्राप्त करके ही कारण होता है। इसी प्रकार शशशृङ्ग आदिमें उत्पन्न होने बाले भाव के दृष्टान्त से, जन्यत्व का भी प्रापादान नहीं हो सकता। क्योंकि उत्पद्यमान भाव और शशशङ्ग प्रावि के असत्त्व में तुल्यता नहीं है। उत्पन्न होनेवाला भाव उत्पत्ति के पूर्व में प्रसद् श्रवश्य होता है किन्तु उत्पत्ति कालमें सद् रूप को प्राप्त करने पर प्रसवस्या ग्रसद्रूप से श्रीकान्त नहीं रहती । शशशृङ्ग सम्बन्ध में इस प्रकार कारणव्यापार सफल नहीं हो सकता क्योंकि उसकी अवस्था अस द्रूपता कभी निवृत्त नहीं होती। वह सर्वदा तदवस्थ हो रहती हैं || ५६ ॥
[ कारण के बाद कार्यसत्ता - भावोत्पत्ति और भाव सब एकरूप है ]
६० वीं कारिका में शान्तरक्षित के मत से वस्तु की उत्पत्ति और अवस्तु की अनुत्पत्ति के रहस्य का उपपादन किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-अग्नि श्रादि वस्तु के बाद धूम आदि की जोवियत सत्ता मानी जाती है उस सत्ता को ही भाव को उत्पत्ति मानी जाती है। उत्पत्ति और उत्पत्तिमान में कोई भेद नहीं होता । भावको उत्पत्ति भावात्मक हो होती है उससे भिन्न नहीं होती । इसलिये सत्ता में ही जनकत्व की मान्यता होने के कारण असत् में जनकत्व के प्रतिप्रसङ्ग का उद्भावन एवं सत्ता ही उत्पत्तिरूप होने से प्रसद् में जन्यत्व के अतिप्रसङ्ग का उद्भावन युषितसङ्गत नहीं हो सकता । प्रसत् में जनकत्व का शब्दलभ्य उद्घावन असद् में जन्यत्व के आपावान का भी उपलक्षण है । प्रत: उसके भी प्रापादान की सम्भाव्यता की बात कह दी गई है ॥ ६० ॥
६१ वीं कारिका में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि जब उत्पत्ति सत्तारूप है तो फिर यह उत्पत्ति के पूर्व असत् पदार्थों को कंसे हो सकती है ? क्योंकि असत् का सत्तायोग विरुद्ध प्रतीत होता है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
|
Î
---
स्था० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
असदुत्पत्तिरपि अस्य सत्तात्मकस्य भावस्य प्रागसत्त्वात् प्राक्कालवृत्तित्वाभावात् प्रकीर्तिता । विशेषमाह - असतः - तुच्छस्य, सच्च योगेन = सवव्यापारेण न । कुतः ? इत्याहकारणात् सकाशात् कार्यभावतः - कार्योत्पादात् भावादि भावोत्पत्तिरिति । न हि प्रागसवमनुत्पतिव्याप्यं किन्त्वसत्त्वमेव, नापि प्रागसतः सत्ताऽनुपपन्ना किन्त्वसव एवेति भावः ॥ ६१ ॥
यथैतत् प्रतिक्षिप्तं तथा लेशतो दर्शयति
1
१०७
सूर्य-प्रतिक्षिप्तं च तद्धेतोः प्राप्नोति फलतां विना ।
असतो भावकर्तृत्वं तववस्थान्तरं च सः ॥ ६२ ॥
,
प्रतिक्षिप्तं चैतत् ल तो: = विशिष्टफलहेतो दादेः फलतां विना घटादिरूपेण भवनमन्तरेण प्राप्नोति आपद्यते, किम् ? इत्याह- असन:- तुच्छस्यैव भावकर्तुं त्वं, कारणत्वेनाभिमतस्य तच्चतोऽकारणत्वात्, कार्योत्पादकाले तस्याऽसत्वात् अर्थक्रियाकारित्वाभावेन स्वरूपवस्य स्वप्नावगतपदार्थवद् वस्तुव्यवस्थाऽहेतुत्वात् । तथा, असतः नदवस्थान्तरं च = अमवस्थाविशेषश्च सः मात्रः प्राप्तोति, अनुत्पत्तिरूपाऽसत्ताया एवोत्पत्तिरूपसतावस्था - प्राप्तेः ॥ ६२ ॥
[ प्रसत् की नहीं, प्रागसत् की उत्पत्ति और सत्ता मान्य है ]
सत्तात्मक भाव की जो उत्पत्ति होती है यह तुच्छ की उत्पत्ति नहीं है फिर भी उसे असत् की उत्पति इसलिये कहा जाता है कि उत्पन्न होने वाला माव उत्पत्ति के पूर्व काल में प्रसत होता है, न कि उत्पन्न होने वाला भाव उत्पत्ति के पूर्व तुच्छ होता है अर्थात् नितान्त असत् होता है और बादमें उसमें सत्ता का सम्बन्ध होने से इसकी उत्पत्ति मानी जाती है । क्योंकि 'कारण' से कार्य की उत्पत्ति होती है इसका अर्थ यह होता है कि 'भाव से भाव को उत्पत्ति' । क्योंकि पूर्वक्षण उत्पन्न हो जाने से भावात्मक हो जाता है और उत्पन्न होने वाला उत्तर क्षण भी उत्पत्ति कालमें मावात्मक हो जाता है। कार्य को उत्पत्ति के पूर्व असत् मानने से उसकी अनुत्पत्ति का प्रापादान नहीं हो सकता । क्योंकि उत्पत्ति के पूर्व कालीन प्रसत्त्व अनुत्पत्ति का व्याप्य नहीं होता, किन्तु अनुत्पत्ति का व्याप्य तो केवल सत्त्व होता है । एवं उत्पत्ति पूर्व कालीन असत् में सत्ता का होना अनुपपन्न नहीं है किन्तु केवल प्रसत्- सर्वत्रा श्रसत् में ही सत्ता का होना अनुपपन्न है । ६१ ।।
[ शान्तरक्षित मत की प्रसारता, हेतु-फल का ऐक्य ]
६२ वीं कारिका में, शान्तरक्षित के 'नाइसतो भावकर्तृत्वं तदवस्यानन्तरम् न स:' इस पूर्वोक्त कथन का प्रतिक्षेप किस प्रकार हो जाता है इसका सांकेतिक प्रदर्शन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
विशिष्ट फल के कारणभूत मिट्टि श्रादि का घटादि रूप से भवन न मानने पर तुच्छ में जनकता प्राप्त होती है क्योंकि जिसे कारण मानना अभिप्रेत है वह वास्तविक रूप में कारण नहीं है। क्योंकि, कार्य के उत्पत्तिकाल में वह असत् हो जाता है । इसलिये उसमें उस समय अर्थक्रिया
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८ ]
[ शा.वा.समुच्चय स्त० ४-३को० ६३
T
E
:
-
.
-
.
-
.
.
-
.
-
-
इदमेव भावयतिमूलं-वस्तुनोऽनन्तरं सत्ता तत्तथा तां विना भवेत् ।
नभःपातादसत्सत्त्वयोगाछेति न तत्फलम् ॥३३॥
वस्तुनः मृदादेः, अनन्तरं सत्ता-घटादिकार्गरूपा, तत्तथा तां विना-मृदादेव तद्भावमन्तरेण, नभःपातात् अकस्माद् वा भवेत् , असत्सवयोगादा-असतः सदवस्थापत्तेर्वा, इति हेतोनियमाऽयोगाद , न तत्फलम्-न तस्यैव कार्य तदिति ॥६३॥ कारित्व नहीं होता। प्रतः स्वरूपसत् होने पर भी वह स्वप्न में दृष्ट पदार्थ के समान वस्तु की व्यवस्था का हेतु नहीं हो सकता । प्राशय यह है कि बौद्ध मत में सत्ता दो प्रकार की होती है ।। १) अर्थकियाकारित्व रूप सत्ता उस समय होती है जब बस्तु किसी कार्य को उत्पादक होती है। किन्तु स्वरूप सत्ता के लिये किसी कार्य का उत्पादक होना आवश्यक नहीं है अपि तु उसके लिये विकल्पात्मक जानका विषय होनाही पर्याप्त है। शशशङ्गादि की स्वरूप सत्ता नहीं होती क्योंकि वह विकल्पात्मक ज्ञानका ही विषय होता है। किन्त जो वस्त कभी विकल्पात्मक ज्ञानका विषय नहीं होती है उसकी स्वरूप सत्ता प्रक्रियाकारित्व के न होने पर भी मानी जाती है। जैसे स्वप्न में दृष्ट पदार्थ अर्थभियाकारी न होने पर भी स्वरूप से सत होता है। उसी प्रकार पूर्वक्षण भी उत्तरक्षण के उत्पत्ति काल में प्रक्रियाकारित्व की दृष्टि से असत् हो जाता है किन्तु स्वरूप सत्ता उसको उस समय भी होती है। किन्तु यह स्वरूप सत्ता किसी वस्तु की व्यवस्था के लिये प्रकिश्चित्कर है। उसके लिये प्रर्थक्रियाकारित्वरूप सत्ता प्रावश्यक होती है अन्यथा यदि स्वरूप सत्ता भी उसके लिये पर्याप्त मानी जाय तो स्वप्नदृष्ट पदार्थ से भी वस्तु को व्यवस्था होने की प्रापत्ति होगी।
यह भी ज्ञातव्य है कि उत्पन्न होनेवाला भाव प्रसस् पदार्थ की विशेष अवस्था ही है। क्योंकि अनुत्पत्ति रूप असत्ता अर्थात् उत्पत्ति के पूर्व वस्तु को प्रसत्ता ही उत्पत्ति रूप सत्ता की अवस्था को प्राप्त करती है। कथन का निष्कर्ष यह है कि जो शान्तरक्षित ने यह कहा था कि "प्रसत् में भायका जनकत्व नहीं हो सकता और उत्पन्न होने वाला भाव भी प्रसत्ता का अवस्थान्तर नहीं है" यह युक्तिसङ्कत नहीं है। क्योंकि उक्त रीति से उत्तर भावको उत्पत्ति काल में पूर्वभाव के असत् होने से असत में हो भावका जनकरव और उत्पत्ति के पूर्व असत्ता का ही उत्पत्ति रूप सत्ता की अवस्था में परिवर्तन होने से उत्पत्ति को असत्ता का ही प्रवस्थान्तररूपत्व बौद्ध मत में भी सिद्ध होता है । इस प्रकार शान्तरक्षित के उक्त कथन की निःसारता सूचित हो जाती है । ६२।।
( असत् पदार्थ अकस्मात् या सत्त्वलाभ कर के उत्पन्न नहीं हो सकता ) ६३ वीं कारिका में उक्त युक्ति से प्राप्य फल का कथन किया गया है-मिट्टी प्रादि वस्तु के बाद ओ घटादि रूप सत्ता होती है वह मिट्टी आदि का घटादि रूप में परिणमन माने बिना नहीं हो सकती क्योंकि मिट्टी प्रादि का घटादि रूप में परिणमन न मानने पर घटादि को मिट्टो प्रादि का कार्य कहना दो प्रकार से ही सम्भव हो सकता है। एक यह कि कार्य प्राकाश से टपक पडता है अर्थात् कार्य की उत्पत्ति अकस्मात होती है। दूसरा यह कि असत् को सववस्था की प्राप्ति होती है । किन्तु यह दोनों ही अनियत है। क्योंकि यदि कार्य अकस्मात् हुमा करे तो अप्रामाणिक प्रनन्त कार्योत्पत्ति का प्रसङ्ग
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० क० टीका- हिन्दीविवेचना ]
उपन्यस्तशेषं निराकरोति
मूलं असतुत्पत्तिरप्येवं नास्यैव प्रागसत्त्वतः ।
किन्त्व सरसद्भवत्येवमिति सम्यग्विचार्यताम् ॥६४॥
[ १०
असदुत्पत्तिरपि एवम् उक्तप्रकारेण नास्य = अधिकृतभावस्य प्रागसस्वत एव = प्राक्कालवृत्तित्वाभावमात्रादेव, किन्तु एवं स्वदभ्युपगमरीत्या असत् सद् भवति इति सम्यक् = सूक्ष्माभोगेन विचार्यताम् । तथाहि नाशवत् प्रागभावोऽपि तव तुच्छ एव ततस्तत्संबंधादसत्वमेव वस्तुन आपतितम् इत्यसत एवोत्पच्या सद्भवनं सिद्धम् ।
+
,
अथ प्रागभावसम्बन्धित्वरूपं प्रागसच्यं काल्पनिकमेव, तात्विकं त्वधिकरणात्मकप्रातकाल, परिव्याप्यम् अतो न प्रागसत्त्वस्य तुच्छत्वे तच्चतस्तदभावविकल्पेनाऽपि प्राक्सत्त्वप्रसङ्गावकाशः, धर्मिरूपतदभावे सत्युत्पत्तिरूपायाः सत्तायाः प्राच्यत्वायोगात् प्रागेव प्रागसत्त्वाभावकल्पनायाश्च प्रागसत्त्वकल्पनाप्रतिरोधादेवानुदयात्, असद्विषयत्वे तस्या भ्रमत्वव्यवस्थितेः, तद्भ्रमत्वेनाऽपि तदसिद्धेरिति चेत् ? न, असत्या अपि
"
होगा । एवं असल को सस्य का लाभ अर्थात् श्रसत् को सदवस्था की प्राप्ति भी यदि नियम से हो तो शशसींगादि में सता का लाभ यानी सववस्था की प्राप्ति को प्रापत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि इन दोनों ही पक्षमें कौन किसका कार्य हो इस बात का कोई नियम न हो सकने से 'घटादि मिट्टी का ही कार्य है' यह व्यवस्था उपपक्ष न हो सकेगी ॥१६३.
( प्रागसत्त्व होने से असत् की उत्पत्ति होने का पक्ष असार है )
६४ वीं कारिका में पूर्वप्रदर्शित पूर्वपक्ष के बचे हुये प्रनिराकृत भाग का निराकरण किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
प्रसत्
को उत्पत्ति मो बौद्धाभिमत रीतिसे उत्पन्न होनेवाले पदार्थ के उत्पत्तिप्राककालिकप्रसत्त्व मात्र से ही नहीं हो सकती। क्योंकि ऐसा मानने पर सूक्ष्म विचार से यही प्राप्त होता है कि असत् ही सत् होता है। श्राशय यह है कि बौद्ध के मत में नाश के समान प्रागभाव भी तुच्छ है । श्रतः वस्तु का प्रागभाव मानने से उसका प्रसत्त्व ही प्राप्त होता है, इसलिये उत्पत्ति द्वारा असत् का हो सत् होना सिद्ध होता है।
[ प्रागसत्य की तुच्छता से प्राक् सत्त्व की प्रापत्ति नहीं है - बौद्ध )
बौद्ध की भोर से यह पूर्वपक्ष स्थापित किया जाय कि "उत्पत्ति के पूर्व जो भाव का सत्त्व माना जाता है और जिसे प्रागभावसम्बन्धित्व रूप कहा जाता है वह काल्पनिक है। किन्तु उत्पन्न होने वाले पदार्थ का जो उत्पत्ति के पूर्व काल में प्रभाव है प्रथवा उत्पन्न होने वाले पदार्थ में जो उत्पत्ति के पूर्व कालकी वृत्तित्ता का प्रभाव है वहो उसका प्राक् कालिक प्रसव है और वह अधि करणात्मक होने से तात्विक है। क्योंकि असत्त्व यदि प्राक्काल में वस्तु का प्रभावरूप है तो उसका
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
११.]
[शा०या० समुफचय स्त० ४ श्लो०६४
प्रागमत्तायाः सत्तास्वरूपनाशे तादात्म्यसम्बन्धेऽसत एव सच्चापत्तेः, भावरूपनाशस्थ निर्हेतुकस्वानभ्युपगमेन तत्र तदुत्पत्तिरूपसम्बन्धोपगमे च तुच्छस्य जनकत्वप्रसङ्गात् , असम्बन्धे च प्रागसत्ता न निवर्तेतैव नित्यनिवृत्तित्वाद ; एतदनिवृत्तिमभ्युपगम्य तनिवृत्त्यनुभवापलापे च नीलाद्यनुभवस्याप्यपलापप्रसङ्गात् , कम्पनयव सर्वव्यवहारोपपत्तेः, उन्पत्तेः स्वप्नायगतपदार्थमाधारणत्वेनाऽसति सत्वाधानं विना सत्त्वस्य दुर्घटत्वाच्च, इति न किञ्चिदेतत् ॥६४॥
.-
. .
.....-
-.-.
पूर्वकाल रूप अधिकरण भी तात्विक है और यदि वह वस्तु में प्राक्कालवृत्तिाव के प्रभाव रूप है तो उस प्रभाव का अधिकरण उत्पन्न होने वाली वस्तु है और वह भी तात्विक है । फलतः यह प्रागसत् काल्पनिक न हो कर तात्त्विक है और यही उत्पत्ति का व्याप्य है। इसलिये कार्य के प्राक सत्त्व का प्रापादान. इस कल्पना से भी नहीं हो सकता कि "प्रागसत्त्व तुच्छ है अतः कार्य के पूर्व उसका तात्त्विक प्रभाव है." क्योंकि प्राकसत्त्व का प्रमाव ही प्रागसत्त्य है । तदुपरांत यह मो सोचना यावश्यक है कि कार्य में उत्पत्ति के पूर्व जिस ससा का पापावान करना है वह सत्ता उत्पत्ति रूप है ? अथवा प्राक सत्ता के प्रमाध रूप है ? उत्पत्ति रूप मानने पर उसमें प्राककालिकत्व को सम्मावना नहीं हो सकती । क्योंकि कार्य में जो प्राककालवृत्तित्व के प्रभाव रूप प्रागसत्त्व है वह कार्यात्मक धर्मी कार्यात्मकाधिकरणस्वरूप है और उस धर्मों की उत्पत्ति रूप सत्ता प्राक्काल में किसी को भी मान्य नहीं है । तथा उसके प्राककालवृत्तित्व का भी प्रापावान नहीं हो सकता क्योंकि प्राक्कालवृत्तित्व को धर्मोंरूपताप्राककालवृत्तित्वाभावरूप प्रागसत्य के प्रभ्युपगम से ही प्रतिहत है । इसी प्रकार प्रागर प्रभाव रूप सत्ता की कल्पना नहीं हो सकती क्योंकि उसका उदय प्राक प्रसत्त्व की कल्पना से ही प्रतिरुद्ध है। अतः प्रागसस्थामाव की कल्पना असविषयक होने से भ्रमरूप होगो और भ्रमरूप होने के कारण उससे प्राक्काल में कार्य की सत्ता नहीं सिद्ध हो सकती।"
- किन्तु बौद्ध का यह पूर्वपक्ष ठोक नहीं है । क्योंकि प्रागसत्व के तुन्छ-काल्पनिक होने पर भी कार्योत्पत्ति काल में जो उसका नाश होता है वह उस क्षण में होनेवाला जो सत्तात्मक कार्य तत स्वरूप हो है प्रतःप्रागसत्त्वनाश के साथ प्रागसत्व का तादात्म्य सम्बन्ध मानने पर प्रसत में ही सत्त्य को अपत्ति होगी। यदि उसका उस नाश के साथ उत्पत्तिरूप सम्बन्ध मानेगे तो भावरूप नाश निर्हेतुक न होने से उसे उस नाश का जनक मानना होगा जिससे तुच्छ में जनकत्व को प्रापत्ति होगी। यविनाश के साथ प्रागसत्ता का कोई सम्बन्ध न मानेगे तो प्रागनसत्ता अनिवृत्त रह जायेगी। क्योंकि वह अनादि से तो अनुवर्तमान है हो और प्रागे भो उसकी अनुवृत्ति कालोप न होने पर वह नित्यनिवृत्तिस्वरूप हो जायेगी । अगर उसकी अनुवृत्ति मानी जायेगी तो कार्योत्पत्ति के समय कार्य की प्रागसत्ता को निधत्ति के अनुभव के समान ही नीलादि के अनुभव का भी अपलाप हो जायेगा । फलत: नोलादि वस्तु की भी सिद्धि नहीं होगी। क्योंकि नोलादि के व्यवहार को उपपत्ति नीलाधि की कल्पनामात्र से ही उपपन्न हो जायेगी। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि उत्पत्ति स्वप्नदृष्ट पदार्यों की भी होती है और स्वप्नरष्ट पदार्य वस्तुतः असत् होते हैं। इसलिये असत् में सत्त्व का उपपादन भी दुर्घट है । सारांश, बौद्ध का उक्त कथन प्रकिश्चित्कर है ॥६॥
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्या० क० टीका और हिन्दी विवैधना ]
[ १११
मूलोपक्रमोपसंहारमाह
एतच्च नोक्तवश्युक्त्या सर्वथा युज्यते यतः । 'नाभावो भावतां याति' व्यवस्थितमिदं ततः ॥६५॥
एतच्च-असत्सद्भवनमनन्तरापादितम् , उक्तवयु क्त्या अभिहितजातीयन्यायेन, सर्वथा भावावधिसून्य मते यः, तो 'नामाको भावना याति' इति यदुक्तं इदं व्यवस्थितम्-उपपन्नम् , स्वाभिन्नहेतोरेव स्वोपादानत्वात सत्कार्यवादसाम्राज्यात् ।।६।।
अत्र नैयापिका ननु नैतत् साम्राज्यम् , स्वसमवेतकार्यकारित्वेनैव [स्वोपादानात , सत्कार्यकारित्वेनैव ! ] स्वोपादानत्वसंमनात , सत्तासमवायेनेव चार्थाना सत्वात् , अनुत्पत्तिदशाया प्रागभावरूपासत्वेऽपि सत्ताभावाऽयोगेनाऽविरोधात , घटप्रागभावदशायां घटसच्याभ्युपगम एव विरोधात ; तस्य घटत्वावच्छिन्नत्वाभावेन घटत्त्वावच्छिन्नेन सह विरोधस्य वक्तुमशक्यत्वाद् इति चेत् ? न, विरोधस्य विशिष्यव कल्पनात , 'इदानीं सन घटः प्राग न सन्' इति धियः 'इदानीं श्यामः प्राग् न श्यामः' इतिवदुभयैकरूपवस्त्यवगाहित्वात् समवाये मानाभावाच्च ।
[प्रभाव का भाव संभव नहीं है - उपसंहार ] ६५ धौं कारिकामें, 'अभाव भाव नहीं होता' (११ वीं कारिका निविष्ट) इस मूल कपन का उपसंहार किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है -
अभी तत्काल बौद्धमत की पालोचना के प्रसङ्ग में असत्-कार्यवाद स्वीकार करने पर जो असत् का सद्भबन रूप अनिष्ट प्रापादित हुआ है वह जसे युक्ति से प्रापादित हुमा है उसी प्रकार की युक्ति से विचार करने पर पूर्वमावात्मक अवधि के सर्वथा प्रभाव में प्रसद का समवन युक्तिसङ्गत नहीं हो सकता। प्राशय यह हा कि यदि असत् कार्य को सत्तात्मक उत्पत्ति मानो जायेगी तो प्रसत शशसींगादि की सत्ता का भी प्रसङ्ग होगा। क्योंकि, उत्पत्ति के पूर्व कार्य को यदि कोई भावात्मक अवधि नहीं होगी तो उसके प्रसत्व और शासोंगादि के प्रसत्त्व में कोई अन्तर नहीं होगा। प्रतः प्रसत् कार्य का सद् भवन उपपन्न नहीं हो सकता । प्रत एवं पूर्व में जो यह बात कही गई कि 'प्रमाव भाव नहीं हो सकता' वह सर्वथा संगत है । निष्कर्ष यह है कि नियत कारण से नियत कार्य की ही व्यवस्थित उत्पत्ति का दर्शन होनेसे यह मानना आवश्यक होता है कि कार्य से अभिन्न कारण ही कार्य का उपादाम कारण होता है। एवं च, जब उपादान में कार्य का प्रमेद प्राप्त हुन्मा तो कारणात्मना कार्य का प्राक् सत्त्य अनिवार्य होने से सत्कार्यवाद का साम्राज्य प्रखण्डित हो जाता है ।।६५॥
( समयायिकारखोपावानतावादी नेयायिक का पूर्वपक्ष ) कार्यसे अभिन्न कारण ही कार्य का उपादान कारण होता है इसलिये सत्कार्यवाद का साम्राज्य अखण्डित है' इस निष्कर्ष के विरोध नैयायिकों का कहना यह है कि सत्कार्यवाद का कल्पित साम्राज्य क्षणमर भी नहीं दीक सकता । क्योंकि उसका जो आधार बताया गया है 'कार्य से अभिन्न कारण हो
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
[शा०या० समुच्चय स्त० ४-श्लोक ६५
कार्य का उपादान कारण है, वहीं निराधार है । क्योंकि कारण में समवेत प्रर्थात स्वसमवेत कार्य का कारण होने से ही स्वमें उस कार्य को उपादान कारणता को उपपत्ति हो सकती है। प्रत एव सत् कार्य का कारण होने से हो स्योपादानत्व को मानने की जरूरत नहीं होती, अर्थात् यह नियम नहीं है कि जो स्वमें प्रथमतः विद्यमान कार्य का कारण होता है वही कार्य का उपादान होता है। इसी प्रकार कार्प-सत्ता को उपपत्ति के लिये मी कार्य-कारणमें अभेद मानना प्रावश्यक नहीं है। क्योंकि कार्य की सत्ता भी सत्तासमवाय से ही उपपन्न हो सकती है और कार्य में सत्ता का समवाय कार्य की उत्पत्ति से ही होता है, अनत्पत्ति क्शामें सशा का समवाय नहीं श्रोता। क्योंकि, उस शामें कार्यका प्रागभाव रूप प्रसस्व मानने पर मो कार्य में सत्तासमवाय का प्रभाष मानने में कोई विरोध नहीं है। अर्थात् घटप्रागभाव और घटमें सत्तासमवाय का प्रभाव एक कालमें सम्मय है। क्योंकि घटप्रागमाय दशामें घटको सत्ता मानने में ही विरोध है, सत्तासमवायाभाव मानने में कोई विरोध नहीं है। क्योंकि घरप्रागभाव का घटत्वावच्छिन्न के साथ विरोध होता है और सत्तासमवायामाव में घटत्वायच्छिन्नस्य का प्रभाव होता है अतः घटत्वायच्छिन्न के साथ विद्यमान विरोध घटत्वावच्छिन्नत्व से शून्य होने के कारण सत्तासमवायाभाव में मामला शक्य नहीं है?' -विमुदायिक बागान ठीक नहीं है। क्योंकि विरोध की कल्पना विशेष रूप से ही होती है। अतः यह कहना ठीक नहीं है कि घट प्रागमाव का विरोध घटस्वावच्छिन्न के साय ही है और घरवत्ति सत्तासमवायामाय के साथ नहीं है -क्योंकि जब घट हो नहीं है तब उसमें सत्तासमवायाभाव के रहने को सम्भावना युक्तिविरुद्ध है। इस प्रकार जैसे घट के साथ घटप्रागभाव का विरोध होता है वैसे ही घटनिष्ठ सत्तासमवायाभाव के साथ भो विरोध हो सकता है। एक, जैसे "इदानों श्यामः प्रागन श्यामः इस समय जो श्याम है वह पहले श्याम नहीं था" यह बुद्धि श्याम-प्रश्याम उमयरूप एक वस्तु को विषय करती है उसी प्रकार "इवानी घटः सन् प्राग न सन्-इस समय घट सत् है वह पहले सत् नहीं था"-यह बुद्धि भी काल भेद से सत्-असत् उमय रूप एक हो वस्तु को विषय करती है। प्राशय यह है कि 'इदानीं सन्....'यह प्रतीति घटमें एतत्कालावच्छेदेन सत्व और प्राक्कालावच्छेदेन प्रसत्व को विषय करती है। तो नसे एतत्काल के साथ घट का सम्बन्ध होने से ही एतरकाल घटनिष्ठ सत्व का प्रवच्छेदक होता है उसी प्रकार प्राक काल मी घटका सम्बन्धी होने से हो घनिष्ठ असत्त्व का प्रवच्छेदक हो सकता है। क्योंकि यह नियम है कि तत्सम्बन्धि हो तनिष्ठ का अवच्छेवक होता है। प्रतः प्राफ काल के साथ घटका घटात्मना सम्बन्ध न होने पर भी कारणद्रव्यात्मना सम्बन्ध मानना प्रावश्यक है। अन्यथा प्राककालावच्छेदेन घर में प्रसत्त्व प्रतीति को सत्यता यानी प्रमाणरव का उपपादन शक्य नहीं हो सकता । तया समवाय सम्बन्ध में कोई प्रमाण न होने से स्वसमवेत कार्य के उत्पादक होने से स्व में कार्य की उपावान कारणता की उपपत्ति हो सकती है -यह कथन भी सारभित नहीं है। क्योंकि, स्वसमधेत का अर्थ होता है-स्व में समवायसम्बन्ध से विद्यमान, किन्तु समयाय में कोई प्रमाण न होने से यह दुर्वच है।
* टोका में 'सत्ताभावायोगेन' इस शब्द का अर्थ है सत्त्व के सम्पादक सम्बन्ध का अभाव । "सत्ता भावयति-सम्पादयति यः स सत्ताभावः एवंभूतो योगः सम्बन्धः =सत्ताभावयोग: अर्थात सतासमवायः, तस्य प्रभावः मत्ताभावाऽयोगः" इस व्युत्पत्ति से 'सत्ताममवायाभाव' यह अर्थ फलित होता है । टोका में तस्य पद का अर्थ है 'सत्तासमवायाभावस्य' और इसका सम्बन्ध है 'घटत्वावच्छिन्नेन मह विरोधस्य' के साथ, और उसका अर्थ हैं घटत्वावच्छिन्न के साथ ही सम्भवित विरोध बाले घट प्रागभाव का विरोध कहा नहीं जा सकता 1
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्या० का टीका और हिन्दी विवेचना
[११३
न हि 'गुण-क्रिया-जातिविशिष्टयुद्धयो विशेषणसम्बन्धविषयाः, विशिष्टबुद्धिन्वात दण्डीति बुद्धिवत्' इत्यनुमानात् तसिद्धिः, अभावज्ञानादिविशिष्टबुद्धिभियभिचाराव । नच तासामपि स्वरूपसबंधविषयत्वाद् न व्यभिचारः, तर्हि तेनैवार्थान्तरत्वात् ।
न च लाघवात् पक्षधर्मताचलेनैकसमवायसिद्धिः, पक्षबाहुल्यलाघवस्यानुपादेयत्वात् , अन्यथा द्रव्यमपि पक्षेऽन्तर्भाव्य समवायसिद्धिप्रसङ्गात् । न चानुभवसिद्धसंयोगाद् बाधा, प्रमासमाहारे प्रमेयसमाहाराऽविरोधात् ।
[ समवासिद्धि के लिये विशिष्टबुद्धि में संसर्गविषयता का अनुमान ]
नैयायिकों को प्रोर से यदि कहा जाय कि-"गुण क्रिया और जाति विशिष्टबुद्धिं विशेषण और विशेष्य के सम्बन्ध को विषय करती है, क्योंकि वे विशिष्ट विषयक बुद्धियां है । जो मो विशिष्ट बुद्धि होती है वह विशेषण-विशेष्य के सम्बन्ध को विषय करने वाली होती है। जैसे 'दंउवाला पुरर्ष' यह बुद्धि विशिष्टबुद्धि होने से दण्ड और पुरुष के मंयोगसम्बन्ध को विषय करती है ।"-इस प्रर्नु मान से सिद्ध होता है कि उक्त विशिष्टबवियां विशेषण और विशेष्य के किसी सम्बन्धको विषय करती हैं। वह सम्बन्ध समवार से अतिरिक्त नहीं हो सकता इसलिये उपतानुमान से गुण-क्रिया और जाति का उनके आश्रय के साथ समवाय सम्बन्ध सिद्ध होता है"-किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि "भूतलं घटाभावयत्' इत्यादि बुद्धि एवं 'घरज्ञान' पटजान' इत्यादि बुद्धि में उक्त हेतु व्यभिचार दोईग्रस्त है। क्योंकि, ये बुद्धियां भी नम से प्रमावविशिष्ट बुद्धिरूप और घटादिविशिष्टज्ञानविषयक बुद्धिरूप होने से विशिष्ट बुद्धि है किन्तु ये बुद्धियां विशेषण-विशेष्य को ही विषय करती हैं उनके सम्बन्ध को विषय नहीं करती।
यदि यह कहा जाय कि-"उक्त बुद्धियों में व्यभिचार नहीं है क्योंकि बुद्धियों की विशेषणस्वरूप को ही सम्बन्ध के रूपमें विषय करती है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि पूक्ति पक्षभूत बुद्धियों के लिये भी यह कह सकते हैं कि वे भी विशेषण के स्वरूप को सम्बन्धविधया ग्राहक है. इसलिये अर्थान्तर दोष हो जायगा अर्थात् , उन बुद्धियों में विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध विषयकरव सिद्ध हो जाने पर भी विशेषण विशेष्य का नयाधिक को अभिमत एक अतिरिक्त समवाय सम्बन्ध सिद्ध नहीं होगा। ....( अनंत स्वरूप को संगगता में गौरव और एक समवाय में लाघव असंगत ) .. यदि यह कहा जाय कि पक्षधर्मता बल से उक्त अनुमान द्वारा एक समवाय की सिद्धि होगी प्रर्थात् उक्त बुद्धियों को विशेषण के स्वरूप को सम्बन्धविधया ग्राहक मानने पर विशेषणस्वरूप अनंत होने से अनंत स्वरूप निष्ठ संसर्गताऽऽण्य विषयताशालित्व मानना पडेगा तो गौरव होगा और यदि उन्हें विशेषण-विशेष्य से अतिरिक्त एक सम्बन्ध का ग्राहक माना जायेगा तो उस सम्बन्ध में रहने वाली एक ससर्गताख्य विषयता मानने में लाघव होगा । इस लाघव नान के बल से एक समवाय की सिद्धि होगी-"सोयह ठीक नहीं है । पयोंकि उक्त गौरव-लाघव का मूल पक्षबाहल्य के लाघव को प्राधीन हैं और पक्ष के बाहुल्य का लाघव प्रावरणीय नहीं है।... ......
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४ ]
[शा०पा० समुरचय स्त० ४-इत्तोक ६५
प्राशय यह है कि गुणविशिष्ट बुद्धि क्रियाविशिष्ट बुद्धि जातिविशिष्ट बुद्धि. इन अनेक बुद्धियों को पक्ष बनाकर अनुमान करने पर यह गौरव लाघव उपस्थित होता है कि विशेषण स्वरूप को सम्बन्ध मानने पर प्रमेक विशेषणों के स्वरूप में संसर्यताख्यविषयता माननी पडेगी और विशेषण विशेष्य से अतिरिक्त समवाय को सम्बन्ध मान लेने पर एक समवाय में ही संसर्गता मानने से लाघव होगा। किन्तु यदि किसी एक ही विशेषण से विशिष्ट वृद्धि को पक्ष करके अनुमान किया जाय तो उक्त गौरव-लाघव नहीं उपस्थित हो सकता । क्योंकि उस एक बुद्धि को संसर्गताहय विषयता विशेषण के एक ही स्वरूप में माननी होगी। अत एव पक्षबाहुल्य के प्राधार पर होने वाले गौरव-लाघव के बल से समवाय की सिद्धि नहीं की जा सकती । अन्यथा, यदि इस प्रकार के मी लाघव-गौरव के विचार का आदर किया जायेगा ता 'भूतल घटयत् पटवत् दण्डवत् ' इत्यादि विमिन्न बुद्धियों को भी पक्ष बनाकर उनमें विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध विषयकत्व के अनुमान द्वारा भूतलावि के साथ घट-पटादि के भी एक सभवाय की सिद्धि हो जायेगी। क्योंकि, उन बुद्धियों को
योगविषयक मानने से घट-पटादि के अनेक संयोगों में उन बद्धियों की संसगताख्य विषयता माननी होगो, अनेक में संसर्गताख्यविषयता मानने में गौरव होगा किन्तु सभी धुद्धियों को समवाय में एक संसर्गतात्यविषयता मानने में लाघवहोगा । प्रतः भतल के साथ घटादि का संयोग सम्बन्ध सिद्ध न होकर घटपटादि के समवाय सम्बन्ध की सिद्धि का प्रतिप्रसङ्ग होगा।
यदि यह कहा जाय कि 'भूतलं घटवत्' इत्यादि बुद्धियों का 'घटसंयुक्तं भूतलं पश्यामि' इस रूप से अनुभव होता है । प्रतः इस अनुभव से उन बुद्धियों में संयोगविषयकत्व की सिद्धि होने से समवायविषयकत्व की सिद्धि का प्रतिबन्ध हो जायेगा।
* प्राशय यह है कि-'घटबढ् भूतलं' इत्याविबुद्धयः विशेषणविशेष्यसम्बन्धविषया:-यह अनुमान करने जायेंगे तब उक्त वृद्धियों में संयोगविषयकत्व अनुभव सिद्ध होने से सिद्धसाधन होगा प्रतः उक्त अनुमान प्रवृत्त न हो सकने से भूतलादि के साथ घटादि के समयाय सम्बन्ध के साधन को प्राशा असम्भव होगो । इस प्रकार भूतलाव के साथ घटादि के समवाय संबंध की सिद्धि का उत्यान प्रशक्य है ।-किंतु यह ठीक नहीं है क्योंकि
-समवायसाध्यक विशिष्ट बुद्धित्व हेतुक प्रसिद्ध अनुमान के विषय में यह शङ्का होतो है कि विशिष्टबुद्धित्व निर्विकल्पक ज्ञान में साध्य का व्यभिचारी है । व्यभिचार दोष की प्रसक्ति सिद्धसाधन दोष के निवारण करने पर होती है । इसलिये पहले सिद्ध साधन दोष को समझना जरुरी है। जैसे कि,
क्रियादि विशिष्ट वृद्धि में गुरग क्रियादिविषयकत्व है और गुरग क्रियादि भी सामान्य लक्षण सत्रिकर्षविधया सम्बन्ध रूप ही है । अतः गा-क्रियाविषयक बद्धि में विशेषण-विशेष्य सम्बन्धविषयकत्व सिद्ध होने से सिद्धसाधन है। यदि यह कहा जाय कि- "गुग क्रियादि जब सामान्य लक्षण सन्निकर्ष के रूप में सम्बन्ध होता है तो वह विशेष्य विशेषण इन दोनों का सम्बन्ध न हो कर अर्थ के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है । अतः उसे विशेष्य-विशेषण सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता । इसलिये तद्विषयकत्व को लेकर सिद्ध साधन नहीं हो सकता"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कहीं न कहीं किसी काल में किसीको भी अर्थ और इन्द्रिय विशेषण-विशेष्य विधया ज्ञात हो सकने के कारण अर्थ विशेष्य और इन्द्रिय भी विशेषण होता है।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्या: का टीका-हिनी विवेचना ]
'भूतलं घटबत्' इत्यादि बुद्धि में यदि संयोग विषयकस्व का साधक अनुभव है तो उसमें समवायविषयकत्व का साधक लाघवज्ञान सहकृत अनुमान भी है । प्रतः दोनों प्रमाण से दोनों की सिद्धि हो सकती है, जो समवायवादी को मान्य नहीं है।
प्रतः विशेषगा-विशेष्य सम्बन्ध विषयकत्व को विशेष्यता-विशेषणताव्यतिरिक्त सम्बन्ध निष्ठ विषयताकत्व रूप से परिष्कृत करना होगा । फिर भी इतने से ही सिद्धसाधन का परिहार नहीं हो सकता । क्योंकि, गणक्रियादि विशिष्ट बुद्धि में जो विशेष्यतावच्छेदक या प्रकारतावच्छेक होता है उसम अवच्छेदकताख्य विषयता होती है जो विशेष्यता-विशेषणता से भिन्न सम्बन्धनिष्ठ विषयता है । क्योंकि विशेष्यतावच्छेदक और प्रकारतावच्छेदक भी सामान्य लक्षण सन्निकर्ष विधया सम्बन्ध है । इसलिये 'विशेष्यता-विशेषणता भिन्न समगताख्यविषयतानिरूपकत्व'का साध्य बनाना होगा। उसमें विशेष्यताविशेषणाताभिन्नत्व तो केवल संसर्गता का परिचायक मात्र होगा। क्योंकि संगर्गता विशेष्यतादि रूप न होने से व्यावर्तक नहीं है । अत: समर्गताख्यविषयतानिरूपकत्व को ही साध्य मानना होगा और यह विषयता निविज्ञापन बुद्धि में नहीं होती अतः विशिष्ट बद्धित्व उसमें व्यभिचरित हो जायेगा । क्योंकि उसमें बुद्धित्व भी है और उसका बिषय घट एवं घटत्वादि, विभिन्न धर्मों से विशिष्ट होता है अत: विशिष्ट विषयकत्व भी है । यदि विशिष्ट बुद्धित्व का अर्थ विशेष्यविशेषरगविषयकबुद्धित्व किया जाय तो भी व्यभिचार का परिहार शक्य नहीं, क्योंकि घट और घटत्व उसी समय पुरुषान्तर के सविकल्पक बुद्धि का विषय होने से विशेष्यविशेषण भी है, अत एव निर्विकल्पक में भी विशेष्यविशेषरग विषयक बुद्धिस्व विद्यमान है। यदि 'विशेष्यतानिरूपकत्वे सति विशेषणतानिरूपकबधित्व को हेतु किया जायेगा तो हेतु व्यर्थ विशेषण घटित हो जायगा क्योंकि हेतु के शरीर में विशेष्यता-विशेषगाना में से किसी एक का प्रवेश करने पर भी व्यभिचार का निवारण हो सकता है। यदि विशेष्यता निरूपक बद्धित्व-विशेरातानिरूपक बुद्धित्व हेतु द्वय में बिशिटि बुद्धित्व शब्द का तात्पर्य माना जायगा तो एक हेतु मात्र का ही प्रयोग पर्याप्त होने से अन्य हेतु के प्रयोग में भी तात्पर्य मानने पर 'अधिक' नाम का निग्रहस्थान प्राप्त होगा। ___इस शंका का निवारण शक्य हो सकता है-विशिष्ट बुद्धित्व का तुरीय विषयताशून्य बुद्धित्व मर्थ कर देने से । तुरोयविषयता का अर्थ है विशेष्यता-प्रकारता-संसर्गता से भिन्न विलक्षण विषयता । निर्विकल्पज्ञान में वह न होने से व्यभिचार की प्रसक्ति नहीं होगी।
इस प्रकार, पक्ष को भी यथाश्रुत रखने पर 'दण्डवाला पुरुष' यह बुद्धि भी पक्षान्तर्भूत हो जाने से सिद्ध साधन होगा क्योंकि, दण्ड और पुरुष मक्रियादि विशिष्ट होने से वह भी गुणक्रियादि विशिष्ट विषयक बद्धि है, यदि उसका 'गणक्रियादि विशिष्ट बद्धि' अर्थ किया जायेगा तो 'पुरुष रक्त दण्डबाला' अथवा 'चंचल दण्डवाला' इस बद्धि का भी पक्ष में अन्तर्भाव होगा और इन सब बुद्धियों में संसर्गतानिरूपकत्व सिद्ध होने से सिद्धसाधन दोष प्रसक्त होगा । तथा गुणक्रियादिविषयक निर्विकल्पक बुद्धि भो पक्षान्तर्गत होने से और उसमें संसर्गतानिरूपकत्व न होने से बाघ तथा तुरीयविषयताशून्यत्त्व न होने से भागाऽसिद्धि भी होगी।
प्रत: पक्ष को गणक्रियादिनिष्ठप्रकारताशालि बद्वित्त्वरूप से परिष्कत करना चाहिये। यद्यपि पक्षको इस प्रकार परिष्कृत करने पर भी 'रक्त दण्डवाला पुरुष' इत्यादि बुद्धियां पक्षान्तर्गत होगी
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
-
११६ ] ।
[ शा वा० समुच्चय स्त० ४-मो०६५ नव नानाविशेषणसम्बन्धे एकत्वाऽनेकत्वादर्शनात् तत्र लघु-गुरुविषयताऽसंभवेऽपि संबन्धेकत्वाऽनेकत्वयोर्दर्शनेन तत्र तत्संभवात् , प्रत्येकविशिष्टघुद्धिपक्षीकरणे लाघवात्समवायसिद्धिः, स्वरूपसंबंधस्य संबंधिद्वयात्मकत्वेन गौरवात् , धर्मातिन्यायस्याप्येककल्पनालाघवमृलत्वेनात्रानयतारादिति वाच्यम् , द्रव्येऽपि तत्सिद्धयापत्तेः । न च संयोगत्वावच्छेदेन संबंधत्वकल्पना सब सन्मान्तरकल्पने लाघवपरीत्यम् , गुण-गुण्यादिद्वय तु नवमनुगतं धर्मान्तरमस्ति, येन क्लप्तलाघवाद् वैपरीत्यं स्यादिति वाच्यम् , तत्रापि वस्तुत्वसवाद्यवच्छेदेन संवन्धन्वकल्पनात् ।
----- -- [ संबन्ध के एकत्व-प्रनेकत्व में लाघव अवतार-पूर्वपक्ष ] यदि यह कहा आय कि-"जहां विशेषण के अनेक होने पर भी उसके सम्बन्ध में एकत्व अनेकत्व का दर्शन नहीं होता है वहाँ सम्बन्धनिष्ठ विषयता में न्यूनाधिक्य रूप लाघव गौरव का सम्मम न होने पर भी जहां सम्बन्ध में एकत्व-अनेकत्व का दर्शन होता है वहां सम्बन्धनिष्ठ विषयता में लाघव-गौरव हो सकता है। जैसे-'भतलं घटाघमावत' इस वृद्धि में घटपटाद्यमावरूप विशेषण अनेक है । किन्तु उसका प्रधिकरणस्वरूपात्मक सम्बन्ध एक है । मत: उसमें एकत्य-अनेकत्व का वर्शन न होने से उस बुद्धि के विषयमूत घटामावादि सम्बन्ध को विषयता में उस बुद्धिको अतिरिक्त सम्बन्ध विषयक मानने पर अतिरिक्त सम्बन्ध निष्ठ विषयता में लाघव और पलप्त स्वरूप सम्बन्ध निष्ठ विषयता में गोरव नहीं है। क्योंकि स्वरूप सम्बन्ध निष्ठविषयता भी एकहा है। किन्तु 'गणवाद घट:' इत्यादि अधियों को यदि स्वरूपसम्बन्ध विषयक मानेगे तो गुण और गुणी दोनोंके स्वरूप में अनेकत्व है और यदि समवायविषयक माने तो समवाय में एकरव है, अनः उक्त बुद्धिको स्वरूप सम्बन्ध विषयक मानने पर सम्बन्ध में दो संसर्गताख्य विषयता की कल्पना करनी होगी और समवायविषयक मानने पर सम्बन्ध में एक ही विषयता को कल्पना करनी पडेगी। इस प्रकार सम्बन्धनिष्ठ विषयता में गौरव लाघव विचार सम्भव है। प्रतः प्रत्येक विशिष्टद्धि को पक्ष करके लाधव के बल से समवाय की सिद्धि की जा सकती है। क्योंकि स्वरूपसम्बन्ध को विनिगमता विरह से सम्बन्धिवृथात्मक मानना प्रावश्यक होने से गौरव होगा। प्रतः 'धर्मी का लाघव बाहुल्य अनुपादेय है' इस न्याय की प्रवृत्ति प्रस्तुत अनुमान में नहीं हो सकती। क्योंकि प्रत्येक विशिष्ट बुद्धि को पक्ष बनाकर उक्तानुमान करने से उक्त बुद्धि को स्वरूपसम्बन्ध विषयक मानने पर सम्बन्धिद्वयविषयकत्य को कल्पना में लाघव है"
[ लाघवकल्पना में द्रध्यद्वय के समवाय को प्रापत्ति ] किन्तु यह कयन ठीक नहीं हैं। क्योंकि 'भूतलं घटवत्' इस एक प्रकार की वृद्धि में यदि विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध विषयकत्व का विचार किया जायेगा तो उसे संयोगविषयक मानने पर और उनमें संसर्गतानिरूपकत्वरूप साध्य सिद्ध होने से सिद्धसाधन तदवस्थ रहेगा, तथापि उक्त बुद्धिवावच्छेदेन माध्यमिद्धिको उद्देश्य मानसे से सिद्धसाधन का परिवार होगा। क्योंकि उक्त द्धियों ध्य में 'नौलघट चल रहा है। इस प्रकार की घट में नोलवणं और चलन क्रिया को विषय करने वाली द्धि भो अन्तर्भूत होगी। किन्तु उन बुद्धिमों में समवाय के विना संसर्गतानिरूपकत्व सिद्ध नहीं है ।
--
-
-
--
---
--
-- ..
- -
- -
-- - -
-.- -.-
-- --
- -
-- - -
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
-
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० २० टीका-हिन्दी विवेचना ]
किञ्च, प्रतीतेविषयभेदोऽनुभवात् सामग्रीभेदाद वा न तु लाघवात् , अन्यथा सविषयवानुमानात् सम्बन्धाऽविषयत्वमेय मिष्यदिति । अनेक सम्बन्धविषयक मानना होगा क्योंकि भूतल में अनेकवार घटका प्रानयन- अपनयन करने पर घटका संयोग बदल जाता है, किन्तु सभी दशा में 'मूतलं घटयत्' इस एक हो प्राकार की बुद्धि होती है। किन्तु यदि उक्त बुद्धिको भूतल के साथ घटसमायविषयक माना जायेगा तो घटके अनेक बार प्रानयन-अपनयन करने पर भी उसमें परिवर्तन न होने से 'घटवद् भतल' इस प्राकार की सभी बुद्धियों में एकसम्बन्धविषयकब होने से लाघव होगा। इस प्रकार द्वस्य का अपने संयोगी प्रधिकरण के साथ भी समयाय सम्बन्ध सिद्ध होने को प्रापत्ति होगी।
यदि यह कहा जाय कि "संयोग अनेक होने पर भी उसमें संयोगत्वावच्छिन्न एकसम्बन्धता की हो कल्पना होता है । संयोग सम्बन्ध कल्पनीय नहीं होता, वह तो प्रत्यक्ष सिद्ध रहता है केवल उसमें संसर्गता की कल्पना करने की जरुरत रहती है, किन्तु सम्बन्धान्तर समवाय को कल्पना करने पर सम्बन्ध और सम्बन्धता दोनों की कल्पना करनी पड़ती है। इसलिये भूतलादि के साथ घटादि का समयायसम्बन्ध मानने में लाधव न होकर प्रत्यक्षसिद्ध संयोग को हो सम्बन्ध मानने में लाघव है।
लाधव वैपरीत्य के कारण भतलादि के साथ घटादि का समवाय सम्बन्ध नहीं सिद्ध हो सकता, फिर भो गुण-गुणो के बोध समयाय सम्बन्ध सिद्ध होने में कोई बाध नहीं है । क्योंकि वहां लाघव परीत्य नहीं है। क्योंकि, गुण गुणी के मध्य स्वरूपसम्बन्ध मानते पर गुण-गुणी दोनों के स्वरूप का कोई अनुगत धर्म न होने से भिन्न भिन्न रूपसे दो सम्बन्धता माननी पडेगी और गुण-गुणी के बीच समवायसम्बन्ध मानने पर एक मात्र समाय को ही कल्पना करनी होगी। उसमें संसर्गता सिद्ध करने का पृथक प्रयास नहीं करना होगा, क्योंकि वह गुण-गुणो के सम्बन्ध रूपमें ही सिद्ध होता है । अत: उसकी संसर्गता धर्मी ग्राहक प्रमाण से सिद्ध है-"।
तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि गुण-गुणी दोनों के स्वरूप में वस्तुत्व सत्तादि अनुगत धर्म विद्यमान है। प्रतः उन दोनों के स्वरूपमें वस्तुत्वादि अवच्छिन्न एक संसर्गता की कल्पना हो सकती है । इसके विरुद्ध यह शङ्का नहीं की जा सकती कि 'सम्बन्धता तो केवल गुण-गुणी के स्वरूप में है और वस्तुत्य अन्योन्य अनंत स्वरूप में रहता है इसलिये प्रतिप्रसक्त है । अत एव वह संसर्गतावच्छेदक नहीं हो सकता क्योंकि सम्बन्धता विषयतारूप है और विषयता प्रतिप्रसक्त धर्म से मो प्रवछिन्न होतो है । जैसे घट और भूतल का संयोग एक होने पर भी 'घटवाला भूतल' इस ज्ञानको संयोग निष्ठ विषयता संयोगत्वरूप प्रतिप्रसक्त धर्म से भी प्रवच्छिन्न होती है।
[ विषयमेव को सिद्धि में लाघव अप्रयोजक ] इसके अतिरिक्त यह मी ज्ञातध्य है कि प्रतीति के विषयका भेद या तो अनुभव से सिद्ध होता है या सामग्रीवैलक्षण्य से सिद्ध होता है । जैसे 'घट-घटत्वे 'पट-पटत्वे' इस निर्विकल्पकों में विषय भेद की सिद्धि उन निविकल्पकों की सामग्री के मेव से होती है, अनुमयभेद से नहीं क्योंकि निविकल्पक अतीन्द्रिय होता है। अनुभवमेद से विषयभेद उन प्रतीतियो में सिद्ध होता है जो समान सामग्री से उत्पन्न होकर भी विभिन्न विषयों को ग्रहण करती है । जैसे जहां एक देश में अवस्थित दो घटों का कमसे प्रत्यक्ष होता है तब “एक घट को देखकर दूसरे घट को देखता हूँ" ऐसा अनुभव
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
११]
[शा. वा. समुच्चय स्त.-४ श्लोक-६५
अथ विशेषणमंबन्धनिमित्तका इति साध्यं, हेतौ च सत्यत्वं विशेषणम् , तेन विशिष्ट भ्रमे न व्यभिचारः, बुद्धिपदं च प्रत्यक्षपरम् , तेन नांशतो वाघ-व्यभिचाराविति समवासिद्धिरिति चेत् ? न, गुणादिविशिष्टप्रत्यक्षे विशेषणसंबन्धत्वेन न हेतुत्वम् , संवन्धत्वस्य विषय
होता है। इस अनुभव से पूर्वजात घट प्रत्यक्ष की अपेक्षा उत्सरजात घटप्रत्यक्ष में विषयमेवकी सिद्धि होतो है क्योंकि वहां सामग्री का लक्षण्य नहीं है । दोनों घटो को प्रत्यक्ष सामग्री अंतर्गत जितने कारण हैं ये सब समान रूपसे ही कारण है. अतः वहां सामग्री वलक्षण्य प्रसिद्ध है । सामग्रीवलक्षण्य सामग्रीचटकतावच्छेदक के लक्षण्य से होता है। प्रतः जैसे विभिन्न घट की सभी सामग्री में वण्डस्वचक्रत्व प्रादि रूपसे विभिन्न दण्ड-चक्रादि का प्रवेश होने पर भो उनमें बलक्षण्य नहीं माना जाता । उसो प्रकार घटद्वय के प्रत्यक्ष में चक्षसनिकर्ष-मालोक घट इन समी के समान रूपसे कारण। सन दोनों घट की प्रत्यक्ष सामग्री में मी वलक्षण्य नहीं माना जा सकता । प्रतः जिस प्रतीति में विषयभेद का साधक अनुभव या सामग्रीवल प्य नहीं है उनमें केवल लाघव से विषयमेव नहीं सिद्ध हो सकता है।
[ विशिष्ट बुद्धि में सम्बन्धाऽविषयकता को आपत्ति ] यदि साघव से मुकियादिविशिष्ट बुद्धिको विशेषण-विशेष्य मतिरिक्त सम्बन्ध विषयक माना जायेगा तो जिस अनुमान से इस सिद्धि की प्राशा की जाती है , उसी अनुमान से लाधव के प्राधार पर उक्त बुद्धि में सम्बन्धाऽविषयकत्व की ही सिद्धि हो जायगी । प्राशय यह है कि कोई विशिष्दबुद्धि विशेषण-विशेष्य प्रतिरिक्त सम्बन्धविषयक होती है, जसे 'घटवाला भतल' इत्यादि बुद्धि,
और कोई विशेषण-विशेष्य अतिरिक्त सम्बन्ध विषयक नहीं भी होती जैसे-'घटामात्रवाला मतल' इत्यादि बुद्धि । उसो प्रकार गुणक्रिपाविशिष्ट बुद्धि सम्बन्धाऽविषयक होकर भो विशिष्टबुद्धि हो सकती है।
कहने का प्राशय यह है कि विशिष्टद्धित्व में विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध विषयकत्व के व्याप्ति का ग्राहक अनुकूल तर्क न होने से उक्त व्याप्ति प्रसिद्ध है। प्रत्युत्त, विशिष्ट द्धित्व को विशेषण विशेष्य सम्बन्ध विषयकत्व का व्यभिचारी मानने में लाघव है। क्योंकि गुण-क्रियादि विशिष्टबद्धि सम्बन्धाऽविषयक होने पर भी विशिष्ट बुद्धि हो सकती है। अतः गुण-क्रियादि विशिष्टबुद्धि में विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध विषयकत्व साधक प्रयास उक्त बुद्धिमें सम्बन्धाऽविषयकस्व की सिद्धि में पर्यवसित होता है -यह मानना अनिवार्य है।
('विशेष्य-विशेषण सबंधनिमित्तकस्व-साध्य में नेयायिक परिष्कार) यदि यह कहा जाय कि"साध्य विशेष्यविशेषणसम्बन्धनिमित्तकत्व है-अर्थात् यह अनुमान अभिप्रेत है कि गुराक्रियादिविशिष्टद्धि विशेषण-विशेष्यसम्बन्धजन्य है। चूंकि वह विशिष्टबुद्धि है। मो भी विशिष्ट बुद्धि होती है ह विशेषणविशेष्य संबन्धजन्य होती है । जेसे 'दण्डवाला पुरुष' यह विशिष्टबुद्धि दण्ड और पुरुष के संयोग सम्बन्ध से अन्य होती है। यदि विशिष्ट बुद्धि को विशेषणविशेष्य सम्बन्धजन्य न माना आयगा तो दण्ड और पुरुष के बीच संयोगसम्बन्ध को प्रसत्त्व दशा में मी 'दण्डवाला पुरुष इस बुद्धि को प्रापत्ति होगी। प्रतः विशिष्टबुद्धि में विशेषरणविशेष्यसम्बन्ध मन्यत्म का नियम होने से उक्त अनुमान से यह सिद्ध होगा कि गुर्णाकयादि विशिष्टबुधि भी
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
pat० क० टीका और हिन्दी - विवेचना ]
[ १६
aer के साथ गुण-क्रिया के सम्बन्ध से जन्य है। जो सम्बन्ध उक्त बुद्धि के जनक रूप में सिद्ध होगा वह समवाय से मित्र सिद्ध नहीं हो सकता । अतः उक्त अनुमान से समवाय की सिद्धि अनिवार्य है । यदि यह कहा जाय कि उक्त हेतुक अनुमान का सम्भव नहीं है कि उक्त हेतु 'वह्निवाला हृद' इत्यादि भ्रम में व्यभिचारी है। चूंकि वह भ्रमात्मकविशिष्टबुद्धि हृव और वह्नि के संयोग की प्रसव दशा में भी उत्पन्न होती है। तो इस व्यभिचार के बारण के लिये हेतु में सत्यत्य विशेषण ना आवश्यक है । यद्यपि वह भ्रम बुद्धि मो स्वरूपतः सत्य है और वियतः सत्य कहने पर भी व्यभिचार का परिहार नहीं हो सकता नूं कि उसका विषय वह्नि श्रौर हृद सत्य है एवं जो संयोग सम्बन्ध उस बुद्धि में भासित होता है वह भी कहीं न कहीं सत्य है। तथापि सत्यत्व का अर्थ है प्रमात्व और प्रमात्व का अर्थ है सर्वशे भ्रमभिन्नत्व । ऐसा अर्थ करने से उक्त बुद्धि में व्यभिचार का परिहार हो सकता है। क्योंकि उक्त ज्ञान हृव में भासमान वह्नि अंश में भ्रम है, इसलिये उस बुद्धि में सर्वाशि में भ्रममित्य नहीं है।
* सर्वांश में भ्रमभिन्नत्वका अर्थ है जो बुद्धि किसी अंश में भी भ्रमरूप न हो। अर्थात् प्रकारताविशिष्टविशेष्यता से शून्य हो । सात्पयें, जिस बुद्धि की कोई विशेष्यता 'स्वनिरूपकत्व सम्बन्ध से और 'स्थापकसम्बन्धेन स्वाश्रय शून्यवृत्तित्य सम्बन्ध से इन दो सम्बन्ध से प्रकारताविशिष्ट न हो । 'अग्निषाला हृद' यह ज्ञान ऐसा नहीं है चूंकि उस ज्ञान में जो अग्निनिष्ठप्रकारता निरूपित निष्ठविशेष्यता है वह अग्निनिष्ठप्रकारता से विशिष्ट है, क्योंकि उक्त ज्ञानीय हुइनिष्ठविशेष्यता में अग्निनिष्ठप्रकार का निरूपकत्व सम्बन्ध भी है और स्वावकछेदक संयोगसम्बन्ध से स्वामय अग्नि शूय हृदवृत्ति होने से प्रकारता का उक्त द्वितीय सम्बन्ध मी है। इस पर यह शंका हो सकती है किम भ्रम का उक्त अर्थ करने पर 'गुणकर्माभ्यत्वविशिष्टसत्तावान्' यह बुद्धि भी सर्वां भिन्न हो जायगी क्योंकि उस बुद्धि की गुणनिप्रत्रिशेष्यता गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्तानिष्ठप्रकारता से विशिष्ट नहीं है क्योंकि विशिष्ट और शुद्ध में भेद न होने से उन प्रकारता का आश्रय शुद्ध सत्ता भी होगी और गुण उससे शून्य नहीं है। अतः उक्तप्रकारता का द्वितीयसम्बन्ध गुणनिष्ठ विशेष्यता में नहीं है। यदि द्वितीय सम्बन्ध के स्थान में 'स्वावच्छेदक सम्बन्धावच्छिन्न स्वावच्छेदक धर्मा आयता निरूपित अधिकरणत शून्यवृत्तित्व को सम्बन्ध रखा जाय तो इस दोष का परिहार हो सकता है, क्योंकि उक्त प्रकारता का अवच्छेदक धर्म 'गुणक्रमन्यित्व विशिष्ट सत्तात्य' है और 'समवायसम्बन्धाछतधर्माभिधेयता निरूपित अधिकरणता' गुण में नहीं है। किन्तु ऐसा करने पर 'घट समवायेन आकाशवान्' अथवा 'घटः संयोगसम्बन्धेन रूपवान् ' इत्यादि बुद्धियां भी सर्वांशे भ्रममित्र हो जायगी। क्योंकि उक्तबुद्धियों की प्रकारता का द्वितीय सम्बन्ध अप्रसिद्ध होने से उन बुद्धियों मे प्रकाराविशिष्टविशेष्यता नहीं रहेगी। इसी प्रकार शुक्ति में स्वरूपतः रजतस्वप्रकारक भ्रम भी सर्वांश में भ्रममित्र हो जायगा, क्योंकि उस ज्ञान की रजवत्वनिष्ठप्रकारता निश्वच्छिल होने से उसका भी द्वितीय संन्ध प्रसिद्ध है। अतः उस में भी प्रकाश्वाविशिष्टविशेष्यता नहीं है। यदि इन दोषों का परिहार करने के लिये द्वितीयसम्बन्ध के स्थान में 'स्वावकछेदकसम्बन्धावच्छिन्न स्वायछेदकधर्माछिन्नधिकरणत्व सम्बन्धावछिन्न प्रतियोगिता का स्वामाषवद् निरूपितवृष्तित्वसंबन्ध' रखा जाय तो उक्त दोषों का परिहार हो सकता है क्योंकि समवायसम्बन्धावच्छिनाकाशनिष्ठप्रकारता का एवं संयोगसम्बन्धामि रूपादिनिष्ठप्रकारता का तथा रजतस्वनिष्ठ निश्व प्रकारता का उक्ता
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२० ]
[ शा० वा० समुचय स्त० ४ श्लो० ६५
पक्षबोधक वाक्य में बुद्धिपद के स्थान पर प्रत्यक्षपद का सन्निवेश करना होगा अन्यथा स्मृति प्रनुमिति प्रादि भो पक्षान्तर्गत होगी किन्तु उस में विशेषण- विशेष्य सम्बन्धजन्यत्व न होने से बाघ होगा। यदि पक्षतावच्छेवक सामान की उद्देश्य रखेंगे तो 'दण्डवाला पुरुष इस बुद्धि में साध्य सिद्ध होने से सिद्धसाधन होगा । इसी प्रकार हेतु में भी बुद्धि के स्थान में प्रत्यक्ष का निवेश करना होगा अन्यथा विशिष्टविषयक सत्यबुद्धित्व स्मृति श्रनुमिति प्रावि में साध्य का व्यभिचारी हो जायगा। इसलिये उक्त अनुमान इस रूप में पर्यवसित होगा कि गुणक्रियावि विशिष्टविषयक प्रत्यक्ष विशेषण विशेष्यसम्बन्ध जग्य है, क्योंकि वह विशिष्ट विषयक सत्यप्रत्यक्ष है, जो भी विशिष्टविषयक सत्य प्रत्यक्ष होता है यह विशेषण विशेष्य सम्बन्धजन्य होता है जैसे 'दण्ड वाला पुरुष' यह विशिष्ट विषयक सत्यप्रत्यक्ष है । यतः इस अनुमान से विशिष्ट विषयक बुद्धि के सम्बन्धविधया जनक रूप में समवाय की सिद्धि अपरिहार्य है ।"
(साध्य में सम्बन्धजन्यत्व का परिष्कार प्रसंगत - )
नैयायिकों का उपरोक्त वक्तव्य भो ठोक नहीं है, क्योंकि गुणादिविशिष्ट विषयकप्रत्यक्ष में विशेषणसम्बन्ध को विशेषणसम्बन्धस्वरूप से कारण नहीं माना जा सकता चूंकि सम्बन्धत्व यह विषयत्वादि अनेक पदार्थों से घटित होने के कारण जनकतावच्छेदक नहीं हो सकता यह बात मिश्र (सम्भवतः पक्षधर मिश्रा ने कही हैं ।
धिकरणता सम्बन्ध व्यधिकरण है अत एव उस सम्बन्ध से उक्त प्रकारताओं का अभाव विशेष्यता में रहेगा अतः ज्ञानों की विशेष्यता उक्त उमयसम्बन्ध से प्रकारता विशिष्ट हो जायगी। किन्तु यह मी ठीक नहीं है चूंकि ऐसा करने पर रजत में स्वरूपतः रजतत्वप्रकारक प्रमा में भी उक्तउभयसम्बन्ध से प्रकारता विशिष्ट विशेष्यता रहेगी क्योंकि उक्तज्ञान की रजतत्व निष्ठप्रकारता भी स्वावच्छेदकसम्बन्धाबच्छिन्न स्वाषच्छेदकधर्मावलिन्नाधिकरणता व्यधिकरण सम्बन्ध होगा अत एव वक्त सम्बन्ध से उक्त प्रकारता के अभाव का अधिकरण रजत होगा फलतः उक्त ज्ञान की रजतनिष्ठविशेष्यता रजतत्वनिष्ठप्रकारता से विशिष्ट हो जायगो भतः तादृशविशेष्यताशून्यस्य न होने से वक्त प्रमालाक ज्ञान मी सर्वांश मेम न हो सकेगा ।" किन्तु इन सब दोष का सर्वांशे भ्रम भिन्नत्व का निम्नप्रकार से निर्वचन करने से परिहार हो सकता है। प्रकारता विशिष्टविशेष्यता शून्यत्व ही सर्वांशे भ्रममित्व का अर्थ है | प्रकारता शिष्टय अपेक्षित है स्वनिरूपकत्व और स्वपिशिष्ट आधेयतानिरूपिताधिकरणत्वसम्बन्धावकिन्न प्रतियोगिता कस्वा मानवनिरूपितवृत्तित्वमयसम्बन्ध इन दो संबन्ध से। आधेयता में स्ववैशिष्ट चार सम्बन्ध से सामानाधिकरण्य, स्वावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नत्व, स्वानवच्छेदकधर्मावच्छिन्न और स्त्राrत्रकलेवक धर्मानत्रच्छिन्नत्वसम्बन्धान्नस्ववृतित्व इस चतुष्टय सम्बध से । इसप्रकार निर्वच करने से रजतन में स्वरूपतः रजतत्वप्रकारक प्रभा में सवांश में भ्रम मिन्नत्व की उत्पत्ति होने में कोई बाधा न होगी, क्योंकि उस ज्ञान की रजतत्वनिष्ठसमवायसम्बन्धावच्छिन्न निश्कारता से विशिष्ट समवायसम्बन्धावकिन्नर ज तत्वनिष्ठ निरवच्छिन्न आवेषता होगी। तन्निरूपित अधिकरणता रजत में विद्यमान है, अत एव स्वविशिष्ट आवेयता निरूपित अधिकरणता सम्बन्ध से उस प्रकारता का भ्रमाव रजत में नहीं रहेगा। अतः उक्तवान में उक्त उभय सम्बन्ध से प्रकारता विशिष्टविशेष्यता शून्यत्व है ।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
ear० क० टीका और हिन्दी विवेचना ].
[ १२१
:
स्वादिगर्भतथा जनकतावच्छेदकत्वादिति मिश्रेणैवोक्तत्वात् । न चात एव गुणादिविशिष्ट - प्रत्यक्षे गुणादिसमवायत्वेन हेतुत्वम् न च समवायत्वमपि नित्यसंबन्धत्वरूपमित्युक्तदोषाऽनिस्तार इति वाच्यम्, समवायस्याखण्डतथा तव्यक्तित्वेनैव हेतुत्वात् । तद्यक्तित्वं च तादारम्येन सा व्यक्तिरेव इति वाच्यम् गुणादिसमवायत्वापेक्षया गुणत्वादिनैव हेतुत्वौचित्यात् ।
+
उनका प्राय यह है कि सम्बन्धस्य विशेषणविशेष्य दोनों से मिल होते हुये विशिष्टबुद्धि को जन्म देने की योग्यतारूप है । अर्थात् विशिष्टबुद्धिजननयोग्यत्व रूप है। इस में विशिष्टबुद्धिजननयोग्यश्व का अर्थ विशिष्टबुद्धिस्वरूपयोग्यत्व ही हो सकता है और तत्स्वरूपयोग्यता का अर्थ होता है सत्रिरूपित कारणतावच्छेवकधर्मवत्त्व | इसकी उपपत्ति सम्बन्ध में तभी हो सकती है जब सम्बन्ध में किसी अन्य रूप से विशिष्टबुद्धिकारणता सिद्ध हो । किन्तु यह कारणता सामान्य रूप से सिद्ध नहीं है। यह कार साता अर्थात् कार्य-कारण भाव तो संयोगादिनिष्ठ संसर्गताक बुद्धित्व -संयोग आदि रूप से ही सिद्ध है प्रतः समवाय में उक्त सम्बन्धत्व नहीं माना जा सकता । चूंकि समवाय में विवाद होने से समबाय निष्ठसंसर्गता कबुद्धित्व और समवायत्य रूप से कार्य कारण भाव प्रसिद्ध है । यदि समस्त संसर्ग में विशिष्ट धित्य और सम्बन्घत्वरूप से कारणता मानी जाय तो यह भी सम्भव नहीं है। क्योंकि, सम्बन्धत्व का संसगंताख्यविषयतारूप में निबंधन करने पर विशिष्टबुद्धि के पूर्व ससर्गता विशिष्ट की सत्ता अपेक्षित होगी बूं कि कार्योत्पत्ति के पूर्व कारणतावच्छेदक विशिष्ट कारण की सत्ता अपेक्षित होती है और संसगंताख्यविषयता विशिष्ट बुद्धि के पूर्व हो नहीं सकतो चूंकि विषयता ज्ञानसमानकालिक होती है | अतः सम्बन्धश्व विशिष्ट बुद्धि का जनकतावच्छेदक नहीं हो सकता ।
( व्यक्तित्व रूप से समवाय काररणता का समर्थन - नैयायिक)
यदि नैयायिक की और से कहा जाय कि सम्बन्धत्व जनकतावच्छेदक नहीं हो सकता, इसी कारण गुणादि विशिष्टविषयक प्रत्यक्ष में विशेषणसम्बन्ध को गुणादिसमवायस्वरूप से कारण माना जायगा । इसके विरुद्ध प्रतिवादी यदि यह कहें कि - 'समवायत्य नित्यसम्बन्धत्वरूप है अतः उसको कारणतावच्छेदक मरनने पर उक्त दोष का निस्तार नहीं हो सकता' तो यह ठीक नहीं है, चूंकि समवाय एक है अत एव उसे तद्यक्तित्वरूप से हो कारण माना जा सकता है। तवृष्यक्तित्व तादात्म्य सम्बन्ध से तद्व्यक्तिरूप ही है । तादात्म्यसम्बन्ध से तद्व्यक्तिरूप में तद्व्यक्तित्व के निर्वाचन का प्राशय यह है कि तद्ध्यक्तिगत प्रसाधारण धर्मस्वरूप मानने पर समवाय सद्after रूप से कारण नहीं हो सकेगा क्योंकि समवाय में समवायत्य से भिन कोई प्रसा धारण धर्म है नहीं । श्रतः समवायनिष्ठतव्यक्तित्व मी समवायत्वरूप होगा और समवायत्व नित्यसम्बन्धत्य रूप है और सम्बन्धस्व मिश्रमतानुसार विशिष्टबुद्धि का कारणतावच्छेदक होता नहीं । अतः समवाय को तद्व्यक्तित्वरूप से कारा मानना सम्भव नहीं हो सकता । प्रतः तादात्म्येन तद्वयक्ति को तक्तिस्वरूप मान कर समवाय के कारणत्व का समर्थन किया जा सकता है और यही उचित भी है क्योंकि व्यक्तित्व को तव्यक्ति का असाधारण धर्म रूप मानने पर तद्घट तद्रूपस्पर्श तदेकत्व प्रावि श्रनेक प्रसाधारण धर्म होने से विनिगमना विरह से तघटनिष्ठत व्यक्तित्व को अनेक रूप मानना होगा । अतः सव्यक्तित्व को तादात्म्यसम्बन्धेन तद्वचक्ति रूप मानने में लाघव
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२ ]
[ शा या समुन्नयन० ४-ग्लो ६५ न घामावादिविशिष्टबुद्धिव्यावृत्तानुभवसिद्धवलक्षण्यविशेषवद्युद्धिवावछिन्न प्रति समचार्य विना नान्यद् नियामकम् , गुणत्वादिना हेतुत्वे व्यभिचारादिति वाच्यम् , वै लक्षण्यस्य जातिरूपम्य स्मृतित्वाऽनुमितित्वादिना सांकात , विषयितारूपस्य च समवायाऽसिद्भया है श्योंकि इस नियंचन के अनुसार तद्व्यक्तित्व एकरूप होगा | प्रतः समवायनिष्ठतव्यत्तित्व भी समवायरूप ही है नित्यसम्बन्धास्वरूप नहीं है। मत एव तद्वयक्तित्वरूप से समवाय को कारण मानने में कोई बाधा नहीं हो सकती"
[ गणत्वादि रूपसे गुरगादि को कारणता का औचित्य-जन ] किंतु नैयायिक का यह प्रयास मी उचित नहीं है, क्योंकि गुणादिविशिष्टविषयक बुद्धि के प्रति गणादिके सम्बन्ध को कारण नहीं माना जा सकता। क्योंकि परमत में गणादि का सम्बन्ध गुणाविसमवाय रूप होगा जिसमें गुणाविप्रतियोगिक समवायत्वरूप से कारणत्व नहीं हो सकता। तव्यक्तित्वरूप से कारण मानने पर गुरगशून्य गुणादि में भी जाति का समवाय रहने से समवाय तद्वपक्तित्वरूप से विद्यमान है अत: गुण में मो गुणविशिष्टबुद्धि का प्रसंग होगा। प्रतः गुणादिप्रतियोगिक तवयक्तित्वरूप से कारण मानना होगा । किन्तु वह भी उचित नहीं हो सकता, 'कि उक्तरूप से समयाय को कारण मानने की अपेक्षा गुणत्वाविरूप से गुणादि को ही कारण मानना उचित है। इस प्रकार जब गुणादिविशिष्टविषयक बुद्धि में गुणादि ही कारण है तो गुणादिविशिष्टबुद्धि के कारणरूप में समवाय सम्बन्ध की सिद्धि को प्राशा दुराशा मात्र है।
[ क्रिया में गुणवैशिष्टय बुद्धि को आपत्ति नयायिक ] यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि-"प्रभावादि की विशिष्ट बद्धि में न रहने वाला वैजात्य गुणादिविशिष्ट विषयक बुद्धियों में अनुभवसिद्ध है और उन विजातीय बुद्धियों की उपपत्ति समवाय के बिना नहीं हो सकती, क्योंकि उन बुद्धियों के प्रति गुणत्वादिरूप से कारण मानने पर यदि उस कारणता को सम्बन्ध विशेष से नियन्त्रित नहीं किया जायगा तो कालिक सम्बन्ध से किया में मी गुण के रहने से 'क्रिया गुणवती' इस प्रकार क्रिया में गुणविशिष्टविषयकबुद्धि को आपत्ति होगी। इस प्रकार उक्त कारणता में अन्धय व्यभिचार होगा। उस कारणता को स्वरूपसम्बन्ध विशेष से भी नियन्त्रित नहीं किया जा सकता. क्योंकि कालिक सम्बन्ध मी स्वरूप सम्बन्ध ही है और यह विनिगमनाबिरह से प्रतियोगी-अनुयोगी उभयस्वरूप है । अतः गुरगादिस्वरूप को भी कारणतावच्छेदक मानने पर उक्त व्यभिचार का वारण नहीं हो सकता । सर्वाधारतानियामक सम्बन्ध से अतिरिक्त सम्बन्ध को भी गुणादिनिष्ठकारणता का प्रवच्छेदक मान कर उक्त व्यभिचार का परिहार नहीं किया जा सकता क्योंकि गुणादि का तादात्म्य भी सर्वाधारतानियामकसम्बन्ध से अतिरिक्त सम्बन्ध है, उस सम्बन्ध से गुणादि गुणादि में रहता है किन्तु 'गुणादिः गुणाविमात्' इस प्रकार गुणादि को विशिष्टबुद्धि नहीं होती। अतः समवायसम्बन्ध स्वीकार कर गुणादिविशिष्टबुद्धि के प्रति गुणादि समवाय को गुणादिसमवायत्वरूप से या गुणादिसियोगिसव्यक्तित्वरूप से कारण मानना प्रावश्यक होने से उक्त बुद्धियों द्वारा समवाय की सिद्धि अनिवार्य है"।
[ बुद्धि का बलक्षण्य जातिरूप या विषयतारूप ? -जैन । किन्तु नयायिक का यह कथन भी ठोक नहीं हो सकता। क्योंकि गुण-क्रियाविधिशिष्ट बुद्धि
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० १० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ १२३
दुर्वचत्वात् । एतेन 'संबन्धाशे विलक्षणविषयताशालिगुणादिविशिष्टप्रत्यक्षे तद्धेतुत्वम्" इति परास्तम् वस्तुनस्तथाज्ञेयत्वस्वभावविशेषादेव ज्ञानविशेषाच्च; अन्यथा समूहालम्बन-विशिष्टबुद्धधारविशेषापातात् , भासमानवैशिष्ट्यप्रतियोगित्वरूपप्रकारताया 'दण्ड-पुरुष संयोगा' इत्यत्रापि सत्वात , स्वरूपतो भासमानं यद् वैशिष्ट्यं तत्प्रतियोगित्वोक्ती संयुक्तसमवायादेः संबन्धत्वे 'स्वरूपतः' इत्यस्य दुर्वचत्वाद् , संयोगितादात्म्यसंयोगादिसंसर्गकबुद्धेरचललण्याऽ-- पत्त्या संबन्धतावच्छेदकज्ञानस्वीकारात, सांसर्गिकज्ञानस्यानुपनायकन्वेन निरुक्तप्रकारत्वस्यानुव्यवसायग्राह्यत्वाऽसंभवात , विषयविशेषं विना ज्ञाननिष्ठप्रकारिताविशेषाभ्युपगमे च साकारवादापातादिति दिग।
में प्रभावादि विशिष्ट विषयक बुद्धि की अपेक्षा जिस बलक्षण्य की चर्चा की गई उसे जातिरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि न्यायमत में सांकर्य जाति का बाधक होता है और उस वलक्षण्य में स्मृतित्वप्रनुमितित्व का सोकर्य है । उसे विषयतारूप भी नहीं माना जा सकता क्योंकि विषयतारूप वैलक्षण्य समवाय को सिद्धि के पूर्व दुर्वच है । प्राशय यह है कि गुरणविशिष्टबुधि अंले द्रव्य में होती है, उसी प्रकार प्रभावो गुणीयः' इत्यादि रूप से प्रभाव में मी होती है और जो गुण जिस द्रव्य में नहीं रहता उस द्रव्य में मो कालिक सम्बन्ध से गुणविशिष्टबुद्धि होती है। अतः समवायसम्बन्ध को सिद्ध करने के लिये इन सभी बुद्धियों से विलक्षण जो गुणाविविशिष्टविषयक बुद्धि है उसी को पक्ष मानना होगा किन्तु उस बुधि में विषयतारूप लक्षण्य समवाय के बिना शक्य नहीं है, क्योंकि यदि उसे संसा:विषयक मानकर उसमें अन्य बुद्धियों से विलक्षणविषयता की उपपत्ति की जायगी तो उससे समवाय सिब्ध नहीं होगा। यदि उसे समवायविषयक मानकर समवाय की सिधि को जायगी तो तादश विषयताशाली बधि को समवायसाधक प्रनुमान मे पक्ष नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि उस का प्रयोग समवायविरोधी के प्रति करना होगा और उसे समवायमलकविलक्षणविषयताशालीबोध अभिमत नहीं है और पक्ष यही हो सकता है जो वादो प्रतिवादी उमय सम्मत हो । प्रतः गुण-क्रियादि विशिष्टबुद्धि के कारण रूपमें भी समवाय सम्बन्ध को सिद्धि प्रसंमत्र है।
[ सम्बन्धांश में ......इत्यादि परिष्कार को व्यर्थता ] उपरोक्त हेतु से यह कथन भी निरस्त हो जाता है कि-'गुणस्वादिरूप से गुणादि को गुणादिविशिष्ट विषयक प्रत्यक्ष के प्रति कारण माना जा सकता है, किन्तु सम्बन्धांश में दिलक्षणविषयताशाली गुणादिविशिष्टविषयक प्रत्यक्ष में गुणादि को गुणस्वादिरूप से कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि गुणादिविविध सम्बन्धोश में साधारणविषयताशाली गुणाविविशिष्ट का प्रत्यक्ष अर्थात् कालिकादि विविध पनियत सम्बन्ध से गुणादिविशिष्ट विषयक प्रत्यक्ष गुणादिहेतु से तत्तत्सम्बन्ध रूप ग्राहक के सहयोग से उत्पन्न होता है किन्तु सम्बन्ध अंश में विलक्षणविषयताशाली राणादिविशिष्टविषयकप्रत्यक्ष में गृणादि को कारण नहीं माना जा सकता, प्रत: ताशप्रत्यक्ष कारणरूप में समवाय की सिद्धि प्रावश्यक है। -श्योंकि जिस गुणादिविशिष्ट विषयक प्रत्यक्ष के कारणरूप में समवाय का अनुमान अभिप्रेत है उस बुधि में समवाय सिद्धि के पूर्व सम्बन्धशि में
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४ ]
[ शा.वा.समुकचय स्त० ४
० ६५
विलक्षणविषयताशालित्य का उपपावन संभव नहीं है। अतः तद्विषयताशाली गुणादिविशिष्टविषयक प्रत्यक्ष को समवायविरोधो के प्रति प्रयोक्तव्य अनुमान में पक्षरूप से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता कि यह प्रावश्यक नहीं होता है।
तात्त्विक बात तो यह है कि झानों में जो बैलक्षण्य होता है यह विशेषण विशेष्य या सम्बन्धपादि के भान प्रभान पर निर्भर नहीं होता प्रपितु वस्तु के तत्तद्रूप से ज्ञेय होने के स्वभावविशेष से होता है। प्राशय यह है कि प्रत्येक वस्तु में विभिन्न रूपों से झेप होने का सहज स्वभाव होता है । उस स्वभाव के अनुसार ही वस्तु ज्ञेय होती है । तत्तद् द्रव्यात्मक वस्तु तत्तद्गुणविशिष्टतया ज्ञेय स्वभाव से सम्पन्न होने के कारण तत्तद्गुणविशिष्ट बुद्धि का विषय बनती है। अतः उस बुद्धि में जो प्रन्यबुद्धियों की अपेक्षा बलक्षण्य है वह उसके स्वभावाधीन ही है उसके लिये उसके विषयरूप में अथवा उसके कारण रूप में समवाय का अनुमान आवश्यक नहीं है । यही उचित भी है कि ज्ञानों में अनुसूयमान वलक्षण्य को वस्तुस्वभावाधीन हो माना जाय, क्योंकि यदि उसे विषयाधीन माना जायगा तो 'दण्ड और पुरुष समूहालम्बन बुद्धि और 'दण्डवाला पुरुष' इस विशिष्ट बुद्धि में बलक्षण्य न हो सकेगा क्योंकि दोनों समान है।
[भासमान संबंध प्रतियोगित्व रूप प्रकारता में अतिप्रसंग] यदि यह कहा जाय कि-"वण्ड और पुरुष' इस बुद्धि में वण्ड में प्रकारता नहीं है और वण्ड वाला पुरुष' इस बुद्धि में दण्ड में प्रकारता है । क्योंकि प्रकारता केवल वैशिष्टय (सम्बन्ध) प्रतियोगित्वरूप नहीं है किन्तु तत्तज्ज्ञान की प्रकारता तत्तज्ज्ञान में भासमान सम्बन्ध का प्रतियोगित्व रूप है। 'दण्ड और पुरुष' इस ज्ञान में दण्ड और पुरुष का सम्बन्ध भासमान नहीं होता । प्रत एव तज्ज्ञान में भासमान सम्बन्ध को प्रतियोगिता दण्ड में नहीं है किन्तु दण्डवाला पुरुष' इस ज्ञान में दण्ड-पुरुष का संयोग सम्बन्ध भासमान है और उसको प्रतियोगिता दण्ड में है"-किन्तु
कायन ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर मो 'बण्ड-पुरुष-संयोगा:' और 'दण्डो पुरुषः' इन बुद्धियों में वलक्षण्य नहीं हो सकेगा, क्योंकि जैसे द्वितीय अद्धि में दण्ड पुरुष का संयोग भासमान होता है और उसको प्रतियोगिता दण्ड में होती है और इसलिये यह बुधि दण्ड प्रकारक होतो है उसी प्रकार 'वण्डपुरुषसंयोगाः' इस बुधि में भी दण्डपुरुषसंयोग भासमान है और उसकी प्रतियोगिता वण्ड में है अतः वह बुद्धि भी दण्डप्रकारक हो जानेकी आपत्ति होगी फलत: उक्त दोनों बुद्धियों में वलक्षण्य नहीं हो सकेगा।
[स्वरूपतः भासमान संबंध प्रतियोगित्व में भी अनिष्ट]
इसके प्रतिकार में यदि यह कहा जाय कि-'तसज्ज्ञान को प्रकारता तत्तज्ज्ञान में स्वरूपतः मासमान जो सम्बन्ध तत्प्रतियोगित्वरूप है तो उक्त प्रापत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि दण्डी पुरवः' इस बुद्धि में संयोग का स्वरूपतः भान होता है। प्रत एव उस ज्ञान में स्वरूपतः मासमान सम्बन्ध की प्रतियोगिता बण्ड में होने से वह बुद्धि दण्डप्रकारक होता है, किन्तु 'दण्डपुरुषसंयोगा।' इस बुद्धि में संयोग का स्वरूपतः नहीं किन्तु विशेष वधया अर्थात् संयोगरवरूप से ही भान होता है,
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १६५
स्था० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
यत्तु प्रथमानुमानादेव समवायसिद्धिः समवाययाधोत्तरकालकल्पनीयेन स्वरूप संबन्धेअत एव उस ज्ञान में स्वरूपतः मासमान सम्बन्ध को प्रतियोगिता दण्ड में नहीं है । अत एव वह बुद्धि दण्डप्रकारक भी नहीं है। इस प्रकार दण्डप्रकारकत्व और दण्डप्रकारकत्वाभाव द्वारा बण्डी पुरुष:' और 'दण्डपुरुषसंयोगाः इन बुद्धियों में वैलक्षण्य हो सकता है' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर चतुःसंयुक्तसमवायेन घटरूपं चक्षुष्मत्' यह बुद्धि और 'घटरूपं चक्षुः संयुक्तसमवायश्च' इन वृधियों में वैलक्षण्य नहीं होगा क्योंकि जैसे द्वितीय बुद्धि में संयुक्तसमवाय का स्वरूपतः मान न होकर संयुक्तसमवायत्वेनैव भान होता है उसी प्रकार पूर्व बुद्धि में भो संयुक्तसमवाय का संयुक्तसमवायत्व रूप से हो भान मानना अनिवार्य है, अन्यथा 'घटरूपं समयायेन चक्षुष्मत्' और 'घटरूपं संयुक्तसमवायेन चक्षुष्मत् इन बुद्धि में मेद न होगा। फलतः 'घटरूपं संयुक्तसमवायेन चक्षुष्मत्' इस बुद्धि में स्वरूपत: मासमान सम्बन्ध की प्रतियोगिता चक्षु में न होने से उन बुद्धियों में बैलक्षण्य नहीं हो सकेगा। क्योंकि, प्रकारता के उक्त निर्वाचन में स्वरूपत:' इस पद के ऐसे किसी प्रका निर्वाचन कठिन है जिस से संयुक्तसमवायादि सम्बन्धग्राहिणी बुद्धि और शुद्ध समवायाविग्राहिणी बुद्धि दोनों में स्वरूपतः संसर्गग्राहित्व को उपपत्ति की जा सके।
इसके अतिरिक्त संयोगितादात्म्य सम्बन्ध से 'पुरुषः दण्डवान्' श्रीर संयोग सम्बन्ध से 'पुरुष: ण्डवान्' इस बुद्धि में विशेषण, विशेष्य और उनका सम्बन्ध तीनों के समान होने से अवलक्षण्य की प्रापति होगो । प्रत: इस प्रापत्ति का परिहार करने के लिये पहलो बुद्धि में संयोगितादात्म्यस्वरूप सम्बन्धावच्छेदक का मान एवं दूसरी बुद्धि में संयोगत्वरूप सम्बन्धतावच्छेदक का भान मानना श्रावश्यक है ।
यह
मी ज्ञात है कि प्रकारता यदि भासमान वैशिष्ट्य प्रतियोगित्व रूप होगी तो धनुष्यवसाय में उसका ग्रहण नहीं होगा क्योंकि अनुव्यवसाय में प्रास्मा और प्रारमा के योग्य विशेषगुण श्रादि से भिन्न बाह्यविषयों का मान ज्ञानलक्षण : उपनय ) संनिकर्ष से होता है । उक्त प्रकारता विशेषणविशेष्य के वैशिष्टय से घटित है। यह वैशिष्ट्य बाह्य पदार्थ है अत एव श्रनुव्यवसाय में उसका भान ज्ञानलक्षण संनिकर्ष से ही हो सकता है । किन्तु उसका भासक ज्ञानलक्षणसंनिकर्ष अनुष्यवसाय से पूर्व नहीं रहता क्योंकि व्यवसायात्मक ज्ञान में, जिसे ज्ञानलक्षणसंनिकर्ष के रूप में मान्यता दी जा सकती है उसमें वैशिष्टय का मानसंसर्गविधया होता है और संसर्ग ज्ञान उपनायक नहीं होता अर्थात् ज्ञानलक्षण संनिकर्षविधया अपने विषय का ग्राहक नहीं होता। क्योंकि यदि संसर्ग ज्ञान को उपनायक माना जायगा तो 'घटवद् भूतलम्' यह लौकिकप्रत्यक्ष संयोगविषयक होने से वह संयोग का भी उपनायक होगा । फलतः 'घटवद् भूतलम्' इस ज्ञान के बाद 'संयोगवत्' इस प्रकार संयोग प्रकारक ज्ञान की आपत्ति होगी । यदि अनुव्यवसाय में उक्त प्रकारतारूप विषयविशेष का मान माने बिना भी उक्त सम्बन्ध से अनुव्यवसायात्मक ज्ञान में 'व्यवसाय में प्रकारविधया भासमान पदार्थ निरूपित प्रकारिता' मानी जायगो तो सरकारवाद की प्रापति होगी। अर्थात् विषय विशेष के बिना भी ज्ञान में साकारता सम्भव होने से साकारज्ञान को मानकर विषयविशेष के प्रस्वीकार को प्रापत्ति होगी ।
"
( स्वरूपसंबंध समवाय का उपजीवक नहीं हो सकता )
इस सन्दर्भ में समवाय सम्बन्ध को सिद्ध करने के लिये पक्षधर मिश्रने यह कहा है कि-'गुणक्रियाविविशिष्ट बुद्धि में विशेषरण- विशेष्य सम्बन्धसाध्यक विशिष्टबुद्धिस्थहेतुक प्रथम अनुमान से हो
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६ ]
[ शा. वा समुच्चय स्त० ४-रलो० ६५
नार्थान्तराभावात् इति मिश्रेणामिहितम् , तदसत्-स्वरूपसंवन्धत्वस्य परिणामविशेषरूपत्वात् , एकक्षेत्रावस्थिसधर्मिद्वयस्वरूपसंयोगस्थलेऽपि स्वरूपस्यैव संवन्धत्वात् , अन्यथा 'कुण्ड एव बदरविशिष्टधीः, न तु बदरे कुण्डविशिष्टधीः' इति नियमायोगात् , स्वरूपसंवन्धत्वस्य संयोगसमवायातिरिक्तत्वाघटितत्वात , समवायसंवन्धतयाऽप्यस्येवोपजीव्यत्वादिति ।
यदपि तदुघट रूपयोर्विशिष्टबुद्रा विनिगमनाचिरहादभयोः संबनिधनो संवन्धत्वं कम्पनीयम् , तथा च लाघवादेक एव समवायः सम्बन्धत्वेन कल्प्यते, अभावस्थले स्वधिकरणाना नानात्वेऽप्येकम्यवाभावस्य संबन्धत्त्वं युक्तम् , इति न तत्र संबन्धान्तरकल्पनप्रतिवन्धवकाश इति । तदपि न, 'समवायः, तत्र समवायत्वम् , क्लूप्तभावभेदः, नानाधिकरणवृत्तित्वम् इत्यादिकल्पनायां महागौरवात् ।
समवाय की सिद्धि हो सकती है। उक्त बुद्धि को स्वरूप संबंध विषयक मान कर जो प्रर्थान्तर को मापत्ति दी गई है. वह ठीक नहीं है, क्यों कि उक्त बुद्धि में समवायविषयकत्व का बाध होने पर हो स्वरूप सबन्ध को कल्पना हो सकती है। प्रतः स्वरूप सबन्ध को कल्पना समवायसापेक्ष हो जाने से वह उपजीवक और समवाय उसका उपजीध्य होता है और उपजीवक से उपजोव्य का साथ नहीं होता'-किन्तु यह ठीक नहीं है । 'कि स्वरूपसम्बन्धस्व परिणामविशेषरूप होता है और परिणामविशेष स्वकारणाधीन होता है । प्रतः स्वरूपसम्बन्धस्थ की कल्पना में समवाय बाध की अपेक्षा नहीं है। जहां एक क्षेत्र में विद्यमान धर्मोद्वय का संयोग होता है यहाँ भो उन दोनों धमियों का संयोग नामक अतिरिक्तसम्बन्ध न होकर स्वरूप हो सम्बन्ध होता है क्योंकि यदि संयोग संबन्ध माना
आयगा तो संयोग उभयवृत्ति होने के कारण जैसे कण्ड में बदर की विशिष्ट बद्धि होती है-उसी प्रकार बबर में कुण्य विशिष्टबुद्धि की आपत्ति होगी । अत: कुण्ड में ही बदरविशिष्टबुद्धि होती है और बदर में कुण्डविशिष्टबुद्धि नहीं होती है यह नियम अनुपपन्न हो जायगा । परिणामधिशेषात्मक स्वरूप सम्बन्ध मानने पर कुण्ड का बदर विशिष्ट कुण्डात्मना परिणाम का प्रभ्युपगम और बदर का कुण्डविशिष्टबवरात्मना परिणाम का प्रनभ्युपगम करने से हो उस नियम को उपपत्ति हो सकती है। स्वरूपसम्बन्ध की कल्पना समवायनिरपेक्ष इसलिये मी है कि स्वरूपसम्बन्धस्व संयोगसमवायातिरिक्तत्व से घटित नहीं है। साथ ही समयाय का मी सम्बन्ध स्वरूप होता है इसलिये समवाय को सम्बन्धता स्वरूप सम्बन्ध सापेक्ष है। प्रत. स्वरूप संबन्ध हो समवाय का उपजीव्य है । अतः स्वरूपसंबन्ध से समवाय का बाध मानने में उपजीव्य विरोध को आपत्ति नहीं हो सकती है।
(समवाय मानने में लाघव होने की बात निःसार है) इस सम्बन्ध में नयायिकों की ओर से यह बात भी कही जाती है कि-'स्वरूप सम्बन्ध मानने पर तद्घट और तप को जो 'तद्घटः तद्रपवान्' इस प्रकार विशिष्टबुद्धि होती है उसमें विनिगमनाविरह से सद्घट और तप दोनों को ही सम्बन्ध मानना होगा। उसकी अपेक्षा एक समवाय को सम्बन्ध मानने में लाघव है और इस दृष्टान्त से प्रभाव स्थल में मी स्वरूप से प्रतिरिक्स सम्बन्ध की
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० क० टीका - हिन्दी विवेचना ]
[ १२७
एतेन 'गुण- गुण्यादिस्वरूपये संबन्धत्वम्, अतिरिक्तसमवाये वेति विनिगमनाविरहादप्यन्ततः समवायसिद्धि:' इति पदार्थमालाकृतो वचनमपहस्तितम् जातेरनुग तत्वेन व्यक्तिसंबन्धत्वौचित्ये जाति व्यक्त्योः समवायोच्छेदापत्तेश्च ।
,
किञ्च, रूपि नीरूपिव्यवस्थानुरोधेन रूपादीनां संबन्धत्वकल्पनावश्यकत्वाद् न समवायस्य संबन्धत्वम्, वाय्वादेर्नीरूपत्वस्य रूपीयतद्धर्मताख्यसंबन्धाभावादेव पक्षधर मिश्रैरुपपादितत्वात् तद्धर्मतायाथ तद्रूपानतिरिक्तत्वात् । यत्सु 'रूपसमवायसत्वेऽपि वायौ स्वभावतो
,
कल्पना को प्रतिबन्दी रूप में नहीं प्रस्तुत किया जा सकता क्योंकि अधिकरण अनेक होने पर भी प्रभाव एक ही होता है अतः वहां प्रभाव के हो स्वरूप को सम्बन्ध मानने में लाघवरूप विनिगमक मिल जाता है' - किन्तु नैयायिक की यह बात उचित नहीं है क्योंकि स्वरूपसंबंध न मानने पर समवाय और उसमें समवायश्व, समवाय में क्लृप्त अनन्त पदार्थों के अनन्त भेद और समवाय की अनेक श्रधिकरणों में वृत्तिता की कल्पना आवश्यक होने से समत्राय की कल्पना का पक्ष हो महान् गौरव से ग्रस्त है ।
(विनिगमनाविरह से सम्बवाय को सिद्धि अशक्य )
पवार्थ मालाकार ने इस सम्बन्ध में यह कहा है कि गुण और गुणी के स्वरूप द्वय को सम्बन्ध माना जाय अथवा अतिरिक्त समवाय सम्बन्ध माना जाय इसमें कोई विनिगमना नहीं है, क्योंकि समवाय मानने पर समवाय और उसमें ससगंता की कल्पना करनी पडती है, जैसे यह वो कल्पन करनी पडती है, उसी प्रकार गुण और गुणी के भिन्न स्वरूप द्वय में दो संसगंता की कल्पना करनी पड़ती है श्रतः कल्पनाद्वय में साम्य होने से समवाय को सिद्धि अपरिहार्य है ' - किन्तु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि समवाय की कल्पना के पीछे जो अन्य कल्पनाएं बतायी गई हैं वे समयाय के पक्ष में अप्रतिकार्य है । इसके अतिरिक्त यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि समवाय एक होने के कारण उसे गुणक्रियादि का सम्बन्ध मानना है तो जाति श्रनुगत होने से जाति स्वरूप को ही व्यक्ति के साथ जाति का सम्बन्ध मानना उचित होगा । अतः जाति-व्यक्तिसमवाय का उच्छेद हो जायगा । यदि यह शंका की जाय कि 'यह श्रापति एक जाति और व्यक्ति के सम्बन्ध को दृष्टि से है किन्तु जातियाँ अनन्त है श्रत एव जाति को सम्बन्ध मानने में गौरव होगा । श्रतः समस्त जातियों का एक समवाय मानने में लाघव होने से जाति व्यक्ति के समवाय का उच्छे नहीं हो सकता है तो यह शंका भो उचित नहीं है, क्योंकि समवाय पक्ष में मी समवाय की संसगंता, तत्तज्जातिप्रतियोगिक समवायत्य रूप से ही है इसमें तत्तज्जाति को सम्बन्ध अन्तर्गत मानना आवश्यक होता है अन्यथा, समस्त जातियों का एक समवाय सम्बन्ध होने से गुणादि में द्रव्यत्व का सम्बन्ध रह जाने के कारण गुणावि में द्रव्यस्वबुद्धि के प्रामाण्य की प्रापत्ति हो सकती है। तो फिर जैसे समवाय में भी सत्ताति को तत्तज्जातिप्रतियोगिक समवायत्वावच्छिन संसगंता अनेक है उसी प्रकार तत्तजातिस्वरूप में अनेक संसर्गता मानने में भी कोई गौरव नहीं हो सकता, प्रत्युत कलुप्त तत्तज्जातियों में सतजाति की सम्बन्धता की कल्पना होने से समवाय की अपेक्षा लाघव है, क्योंकि समवाय पक्ष में प्रक्लृप्त समवाय की मो कल्पना करनी पडती है, उसमें अनेक पदार्थों के सम्बन्ध की भी कल्पना करनी पडती है ।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२]
[ शा. वा. समुच्चय रत०-४ श्लोक-६५
रूपाभावादेव नीरूपत्वम् इति चिन्तामणिकृतोक्तम्, तदसत् प्रतियोगि संबन्धसत्त्वे तत्संबन्धावच्छिन्नाभावायोगात् ।
अथ प्रतियोमिसंबन्धयेऽपि तद्वत्ताया अभावात् तत्र तदभावाऽविरोधः । न च तत्संबन्धस्तद्वत्तानियतः गगनायसंयोगे व्यभिचारात् । न च 'वृत्तिनियामक' इति विशेषणाद् न इति वाच्यम् करवृत्तितानियामककपालसंयोगवति कपाले कपालामा सन्वेन व्यभि चारात् । यत्र तद्वृत्तितानियामक: संबन्धः तत्र तद्वत्वनियम' इति चेत् १ तर्हि रूपसमत्रायस्य वायुवृत्तित्वानियामकत्वादेव वाय न तद्वयम् इति चेत् १
2
"
(रूपो - प्ररूपी व्यवस्था की समवायवाद में श्रनुपपत्ति)
उसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि पृथिव्यादि द्रव्य रूपवान् है और वायु प्रादि श्रव्य नीरूप है। इस व्यवस्था की उपपत्ति समवाय से नहीं हो सकती उसके लिये रूपादि के स्वरूप को ही सम्न्बध मानना श्रावश्यक है। इसमें पक्षवरमिश्र की भी सम्मति का संकेत प्राप्त होता है क्योंकि उन्हों ने वायु आदि में नीरूपत्व का उपपादन रूप के तद्धर्मतानामक सम्बन्ध के प्रभाव से किया है। तद्धर्मता की "स घर्मो यस्य स तद्धर्मा, तस्य भावः तद्धर्मता" इस व्युत्पत्ति के अनुसार तद्धर्मता तद्धर्म से भिन्न नहीं होती । रूप की तद्धर्मता का अर्थ होता है रूपात्मकधर्म । फलतः रूप में हो रूपसम्बन्धता पर्ययसित होती है। तो इस प्रकार उक्तव्यवस्था के लिये रूपादिस्वरूप को रूपादि का सम्बन्ध मानना ही है तो फिर रूपादि के सम्बन्ध रूप में समवायसिद्धि की प्राशा दुराशा मात्र है। उक्तव्यवस्था के सम्बन्ध में तत्वचिन्तामरिशकार गङ्गेशोपाध्याय ने यह कहा है कि वायु में यद्यपि रूप स्पर्श आदि का समवाय एक ही होता है फिर मी बायु नीरूप होता है क्योंकि उसमें रूप का प्रभाव स्वाभाविक है । श्रतः समवायपक्ष में भी रूपी और नीरूप की व्यवस्था होने में कोई बाधा नहीं है किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि वायु में जब रूपाभाव के प्रतियोगी रूप का सम्बन्ध है तो वहाँ समवायसम्बन्धावच्छिन्न रूपाभाव नहीं हो सकता क्यों कि प्रतियोगी का सम्बन्ध प्रभाव का विरोधी होता है ।
[ सम्बन्ध होने पर प्रधिकररगता का नियम नहीं है ]
यदि यह कहा जाय कि प्रतियागो सम्बन्ध होने पर भी प्रतियोगी को अधिकरणता का प्रभाव होता है। अतः प्रतियोगी के सम्बन्ध के साथ प्रभाव का विरोध नहीं होता क्योंकि तत्सम्बन्धी में तदधिकरणता का नियम नहीं है, जैसे कि. गगन का संयोग घटपटादि भूर्त द्रव्य में होने पर मौ संयोग सम्बन्ध से गगनादि की श्राधिकरणता उसमें नहीं होती। यदि कहें कि 'प्रतियोगी का वृसि नियामकसम्बन्ध जहाँ रहता है वहाँ प्रतियोगी की प्रधिकरणता श्रवश्य रहती है' तो यह ठीक नहीं, क्योंकि कर में कपाल का संयोग वृत्तिनियामक सम्बन्ध है और वह कपाल में भी है किन्तु कपाल में कपाल के उस वृत्तिनियामक सम्बन्ध के रहने पर भी उस संयोग से कपाल में कपाल को अधिकरणता नहीं होतो । प्रत्युत उस सम्बन्ध से कपाल कपाल का प्रभाव ही होता है। छतः तद्वस्तु के वृत्तिनियामक सम्बन्ध में तवधिकरणता का नियम व्यभिचारग्रस्त है । यदि यह कहा जाय कि जिसमें जिस वस्तु का वृत्तिनियामक सम्बन्ध होता है उसमें उस वस्तु की अधिकरणता का
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्या० क० टीका-हिन्दीविवेचन ]
[१२९
__न, तत्र तवृत्तितानियामकत्वं हि तत्र तद्विशिष्टबुद्धिजनकत्वम् । अम्ति व वायावपि 'इह रूपा' इति धीः, सदभावनामवादिनापि नत्रावश्यं तत्स्वीकारात् । 'साऽऽगेपरूपा, न तु अमेति चेत् ? न, 'तदभावधियः भत्यत्वाऽसिद्धौ तदप्रमात्वाऽसिद्धः' इति मिश्रेणेवोक्तत्वात् । प्रतियोगित्वादेग्नतिरेकेण तदनुयोगितानिरूपिततत्प्रतियोगिताकवैशिष्ट्यस्य तत्र नवृत्तिनियामकत्वस्य चक्तुमशक्यत्वात् ।
नियम है तो इससे समवाय की सिद्धि में कोई बाधा नहीं हो सकती क्योंकि रूप समवाय वायु में रूप वृत्तिता का नियामक नहीं है। इसलिये वायु में रूप समवाय के रहने पर भी रूपाधिकरणता की मापत्ति नहीं हो सकती"--
[तवृत्तितानियामकत्व का अर्थ है तद्विशिष्टबुद्धि का जनकत्व] किन्तु नैयायिक का यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि वायु में रूपाधिकरणता का वारण करने के लिये नैयायिक को यह मानना होगा कि जिसमें जिस वस्तु की वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध रहता है उसो में वह वस्तु होती है और तद्वस्तु में तद्वस्तु की वृत्तित्तानियामक का अर्थ होता है तद्वस्तु में तविशिष्टबुद्धि का जनक । फलतः, वायु में भी 'इह रूपम्' इस प्रकार रूप की विशिष्टबुद्धि होती है अतः समवाय वायु में रूपविशिष्टबुद्धि का जनक होने से वायु में रूपवृत्तिता का नियामक होगा, इसलिए समवायपक्ष में वाय में रूपाविधिकरणता को आपत्ति का परिहार नहीं हो सकता।
(वायु में 'इह रूपं बुद्धि के प्रामाण्य की उपपत्ति) यदि यह कहा जाय कि 'नयायिक के मत में वायु में -इह रूपम्-यह प्रतीति प्रसिद्ध है तो यह कहना ठीक नहीं हो सकता क्योंकि नैयायिक वायु में रूपाभाव का प्रत्यक्ष मानते हैं और उस अमाव के प्रत्यक्ष में योग्यानुपलब्धि सहकारिकारण होता है। योग्यानुपलब्धि का अर्थ होता है योग्यताविशिष्टानुपलब्धि और योग्यता का अर्थ है जिस प्रधिकरण में प्रभाव का प्रत्यक्ष करना है उस अधिकरण में प्रतियोगो के प्रारोप से प्रतियोगी की उपलब्धि का आरोप । अत: वायु में रूपाधिकरणता को प्रापसि का वारण शक्य नहीं है। इसके उत्तर में नैयायिक को प्रोर से यह कहा जाय कि"वायु में होनेवाली 'इह रूपम्' यह प्रतोति प्रारोपात्मक है और तद्वस्तु में तस्तु की विशिष्ट प्रमा का जनक सम्बन्ध ही तस्तु को वृत्तिता का नियामक होता है। प्रतः समवाय वायु में रूपवृत्तिता का नियामक नहीं हो सकता" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पक्षधरमिने यह कहा है कि प्रभाव को धुद्धि में प्रमात्य की सिद्धि न होने पर हो तबुधि में अप्रमाद को सिद्धि होती है। समवायसाधन के पक्ष में वायु में रूपाभाव सिध नहीं रहता अत एव वायु में रूपाभाष की बुद्धि को प्रप्रमा नहीं कहा जा सकता। जब वायु में रूपाभाव की बुद्धि में अप्रमात्व प्रसिद्ध है तो वायु में 'इह रूपम्' इस बुद्धि को अप्रमा कहना उचित नहीं हो सकता। ___यदि यह कहा जाय कि-'तनिष्ठानुयोगिता निरूपितसन्निष्ठप्रतियोगिताक वैशिष्टच ही तद्वस्तु में तद्वस्तु की वृत्तिता का नियामक होता है । समयाय में वायुनिष्ठ अनुयोगिता निहपित हनिष्ठ प्रतियोगिताकत्व नहीं है । अत एव समवाय वायु में रूपवृत्तिता का नियामक नहीं हो सकता' तो यह
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३० ]
[शा.पा.समुच्चय स्त-४ श्लोक-६५
यत्तु 'एकस्यैव समवायस्य किश्चिदधिकरणावच्छेदेन रूपसंबन्धत्वकल्पनेनैव व्यवस्थोपपत्तिः, इति-तन्न, रूपसंवन्धत्वं हि रूपप्रकारकविशिष्टज्ञानीयसंसर्गताख्यविषयताशालित्वम् , तच्च तत्तदधिकरणावच्छेदेन तत्तदधिकरणान्तर्भावेन विशिष्टधीहेतुनयैव निवहतीति महागोस्वात् , अस्माकं तु रूपप्रकारकविशिष्टयोधे रूपसंबन्ध एव तन्त्रमिति लाघवात् । किञ्च, एवं 'रूपसंबन्धे न रूपसंबन्धत्वम् इति व्यवहारः प्रामाणिकः स्यात् ।
___ अन्ये तु-'रूपि-नीरूपिठ्यवस्थानुरोधाद् नानव समवायः, समनियतकाल-देशावच्छे. भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रतियोगिता अनुयोगिता अतिरिक्त पदार्थ नहीं है। प्रतः वायुनिष्ठ अनुयोगिता वायुरूप और रूपनिष्ठप्रतियोगिता रूपात्मक है। अब वायु रूप और समवाय तीनों ही सिद्ध है तब समवाय में वायुनिष्ठानुयोगिता निरूपित रूपनिष्ठप्रतियोगिताकत्व नहीं है यह कहना कठिन है।
[निरवच्छिन्न सम्बन्ध अधिकरणतानियामक नहीं हो सकता] बहुत से विद्वानों का यह कहना है कि-'समवाय एक ही है-बही रूपस्पर्शादि सभी का सम्बन्ध है किन्तु उसमें रूपसम्बन्धत्व पृथिव्यादिद्रव्यावच्छेदेन है वायु प्रादि व्यावच्छेदेन नहीं है, और जो जिसका निरवच्छिन्न सम्बन्ध होता है वही उसमें उसको प्रधिकरणता का नियामक होता है । अतः समवाय में वायु प्रादि द्रव्यावश्लेबेन रूपसम्बन्ध न होने से समवाय वायु में रूप प्रादि का वृत्तिता नियामक नहीं हो सकता। अत एव पृथिव्यादि में रूपित्व और वायु प्रादि में नीरूपत्व की व्यवस्था समवाय सम्बन्धवादी के पक्ष में भी विना किसी बाधा के उपपन्न हो सकती है किन्तु यह ठोक नहीं है क्योंकि रूपसम्बन्धस्व का अर्थ है रूपप्रकारक विशिष्टज्ञानीय संसर्गता, यह वायु प्रादि द्रव्यावच्छेवेन समवाय में नहीं है और पृथिव्यादिद्रव्यावच्छेदेन समवाय में है यह मानना तभी सम्भव हो सकता है जब तत्तवधिकरणावच्छेदेन तत्तत्सम्बन्ध को तत्तद् अधिकरणावच्छेदेन तत्तद्धर्म की विशिष्ट बुद्धि के प्रति कारण माना जाय। किन्तु ऐसा मानते में रूपादिविशिष्ट बुद्धि के कार्य-कारण माय के शरीर में तत्तवधिकरण का अन्तर्भाव होने से महान् गौरव होगा, जब जैन मत में रूपप्रकारकविशिष्टबुद्धि के प्रति रूपसम्बन्ध को कारण मानने में लाघव है। क्योंकि, कार्य कारण भाव के गर्भ में रूप के प्राधिकरण का अन्तर्माव नहीं करना होता है। उसके अतिरिक्त समवाय में पृथिव्याक्तिव्यावच्छेवेन रूपसम्बन्धस्व और वायु प्रादि द्रव्यावच्छेदेन रूपसम्बन्धत्यामाय मानने पर 'रूपसम्बन्धेन रूपसम्बन्धत्वम्' इस व्यवहार में प्रामाण्य की प्राप्ति होगी।
(अनेक समवायवादी का पूर्वपक्ष) अन्य विद्वानों का कथन है कि रूपवान् और निरूप को व्यवस्था के अनुरोध से समवाय भी अनेक ही है, जिसमें रूप का समवाय होता है वह रूपवान् जसे पृथ्व्यादि द्रध्य, जहां रूपसमवाय का प्रभाव होता है वह नोरूप होता है जैसे वायु प्रादि । वायु में गुणान्तर का एवं जाति प्रादि का समवाय होने पर मो उसमें रूप का समवाय नहीं होता, क्योंकि रूप का समवाय गुणान्तर के समवाय से मिन्न है। अत: वायु प्रादि में गुणान्तर का समवाय होने पर भी रूपसमवाय का प्रभाव हो सकता है । इस पक्ष में यह प्रश्न हो सकता है कि समयाय अनेक है तो उसकी कल्पना मी
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ १३१
दकानां संख्या-परिमाण-पृथक्त्वादीनां चैक एवायम् , तदभिप्रायेणैव समवायकत्वावादा, युक्तं चैतत् , इत्थमेव चक्षुःसंयुक्तघटादिसमवायात् पटत्वादेः प्रत्यक्षानापसेः' इति वदन्ति । तदपि न, गुणत्वावच्छेदेन गुणिस्वरूपसंबन्धत्वकल्पनादतिरिक्तसंबन्धकल्पनानौचित्यात् । 'जले स्नेहस्य समवायः, न गन्धस्य' इति प्रतीतिवद् 'घट-रूपयोः संबन्ध एव न घट-रसयोः संबन्ध' इति प्रतीतेरषि सत्वात् , अतिरिक्तसमवायाननुभवात् अपृथग्भावस्यैव समवायपदार्थत्वात् ।
क्यों की जायेगी ! और तब 'समवाय एक ही होता है' इसप्रकार का प्रवाद जो दार्शनिक जगत् में प्रसिद्ध है उसको उपपत्ति से होगी ? इस प्रश्न का उत्तर रूपादि के समवाय को अनेक माननेवालों की ओर से यह दिया जाता है कि जिन गुणों का देश काल और अवच्छेदक समनियत है ऐसे संख्या परिमाण पृथक्त्व प्रादि जो अनेक गुण हैं उन सभी का एक ही समवाय संबन्ध होता है
गोंकि उनके समवाय सबन्ध को एक मानने पर इस प्रकार को प्रापत्ति सम्भव नहीं हो सकती कि 'उक्त गुणों में से जहाँ एक गुण है वहीं मी गुणान्तर को अधिकरणता हो जायेगी या जिस काल में एक गुण अहां है उसी काल में वहाँ गुणान्तर को अधिकरणता हो जायेगो अथवा पढ़ेशावच्छेवेन जहाँ एक गुण है वहाँ तत्देशावच्छेदेन गुणान्तर की अधिकरणता की प्रापत्ति मा जायेगी'-क्योंकि परमवाय पो ही गुणों के सामान्य रूप नो मान्य है जिन का प्राधय प्रौर ऐश काल रूप प्रयच्छेचक समान है और ऐसे गुणों के समवाय संबन्ध की एकता को दृष्टि से हो दार्शनिक जगत में समवायसम्बन्ध के एक होने का प्रवाद प्रचलित है। तथा उचित भी यही है कि रूप स्पर्शादि गुण और घटत्व पटत्वादि जातियों का समवाय अनेक माना जाय क्योंकि ऐसा मानने पर ही घट मात्र के साथ चक्षु संयोग होने पर चक्षुसंयुक्त घटसमवायरूप संनिकर्ष से पटरवादि के प्रत्यक्ष की अनुत्पत्ति का समर्थन हो सकता है। अन्यथा घटत्व, पदत्यादि का समवाय एक होने पर पट के साथ चक्षु का संयोग न होने पर भी घट के साथ चक्षुसंयोग होने से पटत्व के साथ चक्षु का संयुक्तसमषाय संमिकर्ष सम्भय होने से पटत्व के प्रत्यक्ष को प्रापत्ति का परिहार दुष्कर होगा।
[अनेक समवाय पक्ष में प्रतिगौरव दोष-उत्तर पक्ष] किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं क्योंकि इस पक्ष में भी जिन गुणों का प्राश्रय, देश और कालरूप प्रयच्छेदक समनियस नहीं है तथा जो जातियां समनियत नहीं है उन सब का विमिन्न समचाय और संख्या परिमाण प्राधि का एक समवाय ऐसी कल्पना होती है। ऐसी स्थिति में गरणी के साथ सभी गुणों का और व्यक्तियों के साथ जाति का स्परूप संबन्ध मानना ही उचित है क्योंकि स्वरूप संबन्ध पक्ष में किसी अतिरिक्त पदार्थ की कल्पना करनी नहीं होती बल्कि गुण जाति प्रावि के प्रमाणसिद्ध स्वरूपों में संबन्धत्व मात्र को कल्पना करनी होती है और समवाय पक्ष में अतिरिक्त अनेक समवाय एवं संख्या परिमाण प्रावि समनियत प्राश्रय और देश-कालयाले गुणों के समवाय की कल्पना करनी पड़ती है और उन सब में सम्बन्धस्य की कल्पना और अनन्त पदार्थ के भेद को कल्पना करनी पड़ती है जो प्रतिगौरवग्रस्त होने से अनुचित है । एवं यह भी ध्यान देने
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२ ]
[शा वा० समुकचय स्त० ४-श्लोक ६५
यदि पुनरेवमप्यनुगतसंबन्धधीनिर्वाहायाऽप्रामाणिकसमवायाभ्युपगमो न त्यज्यते, तदा लाघवादभावादिसाधारण वैशिष्टयमेव किमिति नाम्युपैपि । न चैवं पटवति भृतले पटाभावधीप्रसाः , तदानीं तदधिकरणतास्वाभाव्याभावस्य वक्तुमशक्यत्वात् , स्वभावस्य यावद्रव्यमादित्वात् ; रक्ततादशायाँ घटे श्यामाधिकरण तास्वामाव्येऽपि श्यामाभावेन तदेशे लोकिकप्रत्यक्षाभावादिति वाच्यम् , शाखाचच्छिन्नसंयोगसमवायस्य मृलावच्छेदेनेव वैशिष्ट्यस्य तत्काले तदधिकरणावच्छेदेन पटाभावं प्रत्यसंवन्धत्वात् । योग्य बात है कि समनिपत गुणों के समयाय में ऐक्य का अम्युपगम भी निर्दोष नहीं हो सकता, क्योंकि जैसे 'जन में स्नेह का समदाय होता है किन्तु गन्ध का नहीं होता' यह प्रतीति होती है उसी प्रकार 'घट एवं रूप का जो सम्बन्ध है वह घट और रस का संबन्ध नहीं है' यह भी प्रतीति होती है। किन्तु घटगत रूप-रस के समनियत होने से यदि घट के साथ उन दोनों का एक ही समवाय माना आयगा तो इस प्रतीति को उपपत्ति नहीं हो सकती।
दूसरी बात यह है कि गुण-गुणो, जाति-व्यक्ति, अवयव-अधयक्षी, क्रिया कियावान् आदि के मध्य अतिरिक्त समवाय का अनुभव भी नहीं होता इसलिये सस्य बात यह है कि समवाय अतिरिक्त पदार्थ नहीं है जिसे अतिरिक्त सम्बन्ध के रूप में स्वीकार किया जाय। अपितु अपृथकभाव यानी प्रयुसिद्ध (मिलित) का अस्तित्व ही समवश्य है । इसलिये. 'गुण द्रव्य में समवेत होता है एवं 'जाति व्यक्ति में समवेत होती है' इत्यादि व्यवहार वचनों का तात्पर्य केवल इतना ही है कि द्रव्य से असंबद्ध होकर एवं व्यक्ति से असंबद्ध होकर गुण और जाति का अस्तित्व नहीं होता किन्तु अपने लोकसिद्ध द्रव्य और व्यक्ति रूप प्राश्रयों से सम्बद्ध होकर ही उनका अस्तित्व हाता है और वह सम्बन्ध प्राश्रय के परिणाम विशेषात्मक स्वरूप सम्बंध से मिन्न नहीं होता।
(अनुगतसंबंधाप्रतीति के बल पर समवायसिद्धि अशक्य) यदि नयायिक की अोर से यह कहा जाय कि-'जिन बातों के लिये अब तक समवाय संबंध की प्रावश्यकता बतायो गई थी उनकी अन्य प्रकार से उपपत्ति हो जाने के कारण समवाय की कल्पना पदि अनावश्यक प्रतीत होती है तो उन बातों के अनुरोध से समवाय की कल्पना न भी हो. किन्तु गण-किया-जाति आदि की विशिष्ट बुद्धिों में गुण-किया-जाति प्रादि के अनुगत सम्बन्ध का भान अनुभवसिद्ध है । प्रतः उसकी उपपत्ति के लिये प्रमाणान्तर का प्रभाव होने पर भो समवाय का त्याग नहीं किया जा सकता'-तो नैयायिक के इस कथन के प्रतिवाद में यह कहा जा सकता है कि तब तो गुण-क्रियानि की विशिष्ट बुद्धि में, एवं प्रभावावि की विशिष्टबुद्धि, इन सभी बुद्धिनों में लाधव की दृष्टि से एक हो अनुगत संबंध का हो भान मानना चाहिए और उसका वैशिष्टच नाम से व्यवहार करना चाहिए। फिर नेयायिक गुणादि का समवाय सम्बन्ध और प्रभावादि का स्वरूप संबन्ध ऐसो विभिन्न कल्पना क्यों करते हैं ? सभी का वैशिष्टय एक ही सम्बन्ध क्यों नहीं स्वीकारते?
(वशिष्ट्य संबन्ध में पटाभाव प्रत्यक्ष को प्रापत्ति नैयायिक) यदि इस के उत्तर में मंयायिक की ओर से कहा जाय कि सभी गुणादि का और सभी प्रभावों का एक ही वैशिष्ट्य सम्बन्ध मानने पर जिस काल में मूसल में पट होता है उस काल में भो भूतल
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० क० टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ १३३
न च तत्र शाखासमवायोभयमेव संबन्धः न तु समवायस्य संबन्धत्वे शाखावच्छे दिकेति वाच्यम्, शाखावच्छेदेन समवायसंबन्धावच्छिन्नसंयोगाभावग्रहेऽपि ' शाखायां संयोग' इति बुद्धयापत्तेः, तत्र शाखासमवायोभयसंबन्धावच्छिन्नसंयोगाभावग्रहस्यैव विरोधि स्वात् तत्रोक्ताभावग्रहप्रतिबन्धकत्वस्यापि कल्पने गौरवात् । अस्तु वा 'इदानीं पटाभाव: ' इत्यत्रापि तत्कालवैशिष्ट्योभयसंबन्धेन पाभाव एव विषय इति न किञ्चिदनुपपन्नम् । न च समवायेन जन्यभावत्वावच्छिन्नं प्रति द्रव्यत्वेन हेतुत्वात् तत्सिद्धिः, कालिकविशेषणताभिन्नवैशिष्ट्येनैव तदुपपत्तेः ।
"
में पाभाव के प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी क्योंकि उस काल में भी भूतल, उसके साथ पटाभाव का वंशिष्ट्य सम्बन्ध और प्रत्यन्ताभाव के नित्य होने से पटाभाव ये तीनों ही विद्यमान होते हैं । इस प्रत्यक्षापत्ति का परिहार यह कह कर नहीं किया जा सकता कि 'भूतल में पट सकाल में पटामानाधिकरणत्व स्वभाव नहीं रहता, इसलिये उस समय मूतल में पटाभाव के न रहने से उसके प्रत्यक्ष को प्रापत्ति नहीं हो सकती क्योंकि पट के प्रसत्त्वकाल में भूतल मैं पटाभाव प्रत्यक्ष के अनुरोध से पटामावाधिकरणत्व को भूतल का स्वभाव मानना श्रावश्यक है और स्वभाव यावव् प्राश्रयभावी होता है इसलिये पट सरवदशा में भी सूतल में पटाभावाधिकरणत्य स्वभाव होना अनिवार्य है। पाक से श्याम घट रक्त हो जाने पर घट में उस दशा में श्यामरूपाधिकरणत्व स्वभाव रहता है किन्तु श्यामरूप नहीं रहता । श्रतः उस दशा में श्याम रूप का प्रत्यक्ष नहीं होता क्योंकि लौकिक प्रत्यक्ष के लिये विषय का सद्भाव प्रावश्यक होता है ।
( कपिसंयोग के दृष्टान्त से उक्त प्रपत्ति का परिहार - जैन )
किन्तु नैयायिक का यह उत्तर प्रयास मो निरयक है क्योंकि संपूर्ण प्रभावों का वैशिष्ट्य नामक एक सम्बन्ध मानने पर भी भूतल में पट सत्त्वदशा में पटाभाव के प्रत्यक्ष की प्रापति का परिहार सरलता से हो सकता है । यह कहा जा सकता है कि जैसे वृक्षों में कपिसंयोग का समवाय शाखा. वच्छेदेन वृक्ष के साथ कपिसंयोग का संबन्ध होता है मूलावच्छेदेन नहीं होता है और इसलिये शाखावच्छेदेन कपिसंयोगवाला भी वृक्ष मूलाबच्छेदेन कपिसंयोगवाला नहीं होता। उसी प्रकार वैशिष्ट्य के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि जिस काल में पट होता है उस काल में वंशिष्ट्य भूतलावच्छेदेन पटाभाव का सम्बन्ध नहीं होता इसलिये उस काल में 'भूतले पटो नास्ति' इस प्रकार का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इसके प्रतियाद में यदि नंयायिक का ओर से यह कहा जाय कि 'वृक्ष के साथ कपिसंयोग का शाखा और समवाय दोनों सम्बन्ध होता है, समवाय की संसर्गता स्वरूपसम्बन्ध से और शाखा की संसर्गता प्रवच्छिन्नत्व सम्बन्ध से होती है, किन्तु समवाय के कपिसंयोग सम्बन्धत्व में शाखा प्रयच्छेदक नहीं होती है। अतः समवाय के दृष्टांत से वैशिष्ट्य में घटाभावादि सम्बन्धत्व के श्रव्याप्यवृत्तित्व की कल्पना नहीं हो सकती' तो यह ठीक नहीं हैं क्योंकि ऐसा मानने पर वृक्ष में 'शाखावच्छेदेन समवायसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक कपिसंयोगाभाव के प्रत्यक्ष काल में भी 'शाखायां वृक्षः कपिसंयोगी' इस बुद्धि को आपत्ति होगी, क्योंकि शाखा प्रौर समवाय दोनों को afaiयोग का सम्बन्ध मानने पर उस बुद्धि में शाखा समवाय उमयसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४ ]
[ शा०वा समुच्चय स्त०४ श्लो०६५
अथ प्रतियोगितया घटादिसमवेतनाशं प्रति स्वपतियोगिममवेतत्वस्वाधिकरणत्योभयसंबन्धेन घादिनाशस्य हेतुत्वात् समवायपिद्भिः, स्वप्रतियोगियत्तित्वेन तथात्वे घटादिधृत्तिध्वंसध्वंसापत्तेः । न च द्वित्रिमणस्थायिघटादिसमवेतनाशे स्वप्रतियोगिसमवेतत्वेनैव तथात्वात् मन्वेन नाशहेतुत्वकल्पनाद् न तदापत्तिरिति वाच्यम् , तत्रापि कालावच्छिन्नस्वप्रतियोगिसमवेतत्वेनैव तथात्वेऽनतिग्रसङ्गात् इति चेत् ? न, उक्ते हेतुतावच्छेदकेरलप्तसमवायनिवेशापेक्षया क्लुप्तपञ्चनिवेशस्यैयोचितत्वात् । 'द्रव्यजात्यन्यचाक्षुषे महदुद्भतरूपयद्भिश्नसमवेतत्वेन प्रतिबन्धकत्वात् समवायसिद्विः' इत्यपि वार्नम् , द्रव्यान्यसच्चाक्षषावच्छिन्नं प्रति महदुद्भनरूपवद्भिन्नवृत्तित्वेन तस्वसंभवादिति न किश्चिदेतत् । अधिकं ज्ञानार्णव-स्यावादरहस्य-न्यायालोकादौ ॥१५॥ प्रमाव का ज्ञान हो विरोधी होगा और यदि शाखावच्छेवेन समवायसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक कपितयोगाभाव के ज्ञान को भी प्रतिबन्धक माना जायेगा तो 'शाखायां वृक्षः कपिसंयोगी' इस बृद्धि के प्रति उक्त दो प्रकार के प्रमाद ज्ञान में प्रतिबन्धकत्व की कल्पना में गौरव होगा। साथ ही नयायिक को इस तथ्य को प्रोर भी दृष्टि देनी चाहिए कि जिस काल में भूतल में पटामाव का प्रत्यक्ष होता है तत्काल और वशिष्ट्य इन सम्बन्धों से ही पटाभाव उक्तप्रत्यक्ष प्रतीति का विषय होता है। भूतल में पट सत्वकाल में पटाभाव का वैशिष्टय सम्बन्ध होने पर भी तत्काल रूप सम्बन्ध नहीं रहता। अत एव उस दशा में भूतल में पटामाव के प्रत्यक्ष को प्रापत्ति नहीं हो सकतो । प्रतः संपूर्ण प्रभाव का एक वैशिष्टय सम्बन्ध मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं है ।
(नाश की व्यवस्था के लिये समवाय पावश्यक-नैयायिक) यायिक को प्रोर से यदि यह कहा जाय कि-'घटादि के नाश से जो घटादि गत रूपादि का नाश होता है वह प्रतियोगितासम्बन्ध से घटाविगत रूपादि में ही उत्पन्न होता है, पादिगत रूपादि में अथवा घटादिगत जाति में नहीं होता । इस व्यवस्था की उपपत्ति के लिये यह कार्यकारण भाष मानना आवश्यक हुमा कि प्रतियोगिता सम्बन्ध से घरादि समवेत प्रतियोगिक नाश के प्रति स्वप्रतियोगिसमवेतस्थ और स्थाधिकरणत्व उभय सम्बन्ध से घटा विनाश कारण है। ऐसा कार्य कारणभाव बनाने पर उक्तापत्ति नहीं होती क्योंकि घटादिनाश का प्रतियोगी घटादि होता है और उसका समवेतत्व घढाविगत रूपादि में ही होता है. पटादिगत रूपादि में नहीं । अत एव धाविनाश उक्त उभय सम्बन्ध से पटादिगत रूपादि में नहीं होता। एवं घटादिगत जाति के साथ घटाविनाश का कोई सम्बन्ध न होने से उसमें घटादि नाश स्वाधिक रगत्व घटित उक्त उमय सम्बन्ध से नहीं रहता। प्रत एव घटाविगत जाति में भी प्रतियोगिता सम्बन्ध से घटादि समवेत प्रतियोगिक नाश को प्रापत्ति नहीं होगी। किन्तु घटादिसमवेत प्रतियोगिक नाश की प्रतियोगिता संबन्ध से उत्पत्ति घटादिगत रूपादि में ही हो सकती है क्योंकि, घटादिगत रूरादि में घटा विनाश का स्वप्रतियोगिसमवेतत्व संबन्ध मी है और घटादि नाश के उत्पत्तिकाल में घटादिगतरूपादि के विद्यमान रहने से उसमें घटादिनाश का स्वाधिकरणत्व सम्बन्ध भी है। तो इस प्रकार अब पटाविगत रूप और घटा
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० . टीका-हिन्दीविधेघना ]
[ १३५
विगत जाति में प्रतियोगिता सम्बन्ध से घटादिसमवेत प्रतियोगिक नाश के प्रति घटादिनाश को कारण मानना आवश्यक है तो फिर इसके लिये समयाय सम्बन्ध को कल्पना करनी हो होगी, क्यों कि-उक्त प्रापत्ति का परिहार प्रतियोगिता सम्बन्ध से घटादिवृत्ति प्रतियोगिक नाश के प्रति स्वप्रतियोगि वृत्तित्व और स्वाधिकरणत्व उभय सम्बन्ध से घटादिनाश को कारण मान कर नहीं किया. जा सकता क्योंकि इस प्रकार का कार्य-कारणभाव मानने पर घटादिति ध्वंस के ध्वंस की भी मापत्ति होगी।'
(स्वप्रतियोगिवृत्तित्वविशिष्ट सत्तावत्य रूप से कारणता-का प्रापादन) यवि समवायप्रतिपक्षी की ओर से यह कहा जाय कि-"प्रतियोगिता सम्बन्ध से घटादि समवेत प्रतियोगि के नाश के प्रति स्वप्रतियोगि समवेतत्व स्वाधिकरणस्वीमयसम्बम्ध से घटनाशको कारण मानने में कारणतावच्छेदक सम्बन्ध में स्वध्वंसाधिकरणत्व का निवेश, घटादिसमवेत जाप्ति में उक्त नाश को उत्पत्ति होने को प्रापत्ति का परिहार करने के लिये किया जाता है । उसको अपेक्षा कारणतावच्छदक सम्बन्ध ऐसा बनाना चाहिये जिससे घटादिसमवेतप्रतियोगि नाश प्रतियोगिता सम्बन्ध से द्वि-त्रिक्षणस्थायो प्रर्यात ध्वंसप्रतियोगी पदार्थ में हो उत्पन्न हो सके। इस प्रकार का जो कार्यकारणभाव बनेगा उसो से घटावित्तिध्वंस को ध्वंसापत्ति का परिहार मी हो जायगा और ६
कार्यकारणभास इस प्रकार बन सकता है कि प्रतियोगिता सम्बन्ध से घटादिवत्ति प्रतियोगिकमाश के प्रति घटादिताश स्वप्रतियोगिवत्तित्व विशिष्ट ध्यसप्रतियोगिरवसम्बन्ध से कारण है, अर्थात् स्वतियोगि वृत्तित्वविशिष्ट सत्तावत्वेन कारण है। कारणतावच्छेदक सम्बन्ध में स्वध्वमाधिकरणत्व के निवेश को प्रावश्यकता नहीं है क्यों कि जाति आदि में ध्वंसप्रतियोगित्व अथवा सत्ता न होने से उसमें घटाविनाश रूप कारण नहीं रहेगा, इसीलिये घटादिवृत्तिध्वंस में भी प्रतियोगिता सम्बन्ध से घटादिवृत्तिप्रतियोगिकध्वंस की भापति न होगी, चूंकि उसमें भी ध्वंस प्रतियोगित्व और सत्व न रहने से घदाविनाशरूप कारण उक्त सम्बन्ध से नहीं रहेगा-"तो यह ठोक नहीं है क्योंकि जाति में उक्तनाशापत्ति का परिहार करने के लिए स्वध्वंसाधिकरणत्व को कारणता प्रयच्छेवक सम्बन्ध न मान कर कालावच्छिन्न स्वप्रतियोगिसमवेतत्वमात्र को भी कारणता अवच्छेदक सम्बन्ध मान लेने से उक्त प्रतिप्रसंग का परिहार किया जा सकता है ।
* न च द्वित्रिक्षण' से लेकर वाच्यम्' पयन्तप्रन्थ यतः समवायप्रतिपक्षी की भोर से उक्त है इललिये उस भाग में माये हुए 'समवेत' पद का 'वृत्ति' मात्र अर्थ है। तथा घटादिसमवेत में द्वि. त्रिक्षणस्थायित्व का कथन इस बात की सूचना के लिये किया गया है कि पदादिवृत्तिप्रतियोगिक नाश और घटादिनाश में कार्यकारणभाव इस रीति से बनाया जाना चाहिये जिससे घटावृत्ति प्रतियोगिक नाश द्वि-णिस्थायि अर्थान बंसप्रतियोगिपदार्थ में ही उत्पन्न हो सके । जैसा कि कार्यकारण मात्र विवेचन में प्रदर्शित किया गया है। उक्तप्रन्थ में' सत्वेन का अर्थ है 'मत्त्वघटितेन' और वह स्वप्रतियोगिसमवेतत्व मार्यात स्वप्रतियोगिवृत्तित्व में विशेषण है इस प्रकार स्वप्रतियोगि विशिष्ट सत्त्वसम्बन्ध से घटापिनाश की कारणता के प्रतिपादन में उक्त ग्रन्थ का तात्पर्य है । सप बात तो यह जान पद्धती है कि 'न ध द्वि' से लेकर वाच्यम' पयन्त का अन्य अपने मूल रूप से अत्यन्तपरिवर्तित प्रतीत होता है । किन्तु आशय उसका उक्त कार्य-कारण माघ के प्रदर्शन में ही है।
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६ ]
[ शा. व. ममुरचय स्त०४ श्लो० ६५
किन्तु नैयायिक का यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि उक्त कारणतावच्छेदक में प्रक्लुप्त (प्रमाणान्तर से प्रसिद्ध समवाय के निवेश की अपेक्षा प्रमाणान्तरसिद्ध सत्त्व का निवेश ही उचित है, क्योंकि अतिरिक्तसमवाय की कल्पना पूर्वोत्तरीति से अत्यन्त गौरव ग्रस्त है।
(द्रव्य-जाति भिन्न के चाक्षष को प्रतिबन्धकता से समवाय सिद्धि ?) कुछ लोगों का तो यह कहना है कि द्रव्य और जाति से मिन्न वस्तु के चाक्षुष प्रत्यक्ष में महत और उमृतरूपवत् से मिन्न में समवेत पदार्थ तादात्म्य संबंध से प्रतिबन्धक है । यह प्रतिबध्यप्रतिबन्धकमाव मानना आवश्यक है क्योंकि ऐसा न मानने पर चक्षुः इन्द्रियगत रूपादि के साक्षुष की आपत्ति होगी क्योंकि वह भी वक्षसंनिकृष्ट है, उसमें भी चाक्षष प्रत्यक्ष को सामग्री विद्यमान है। उक्त प्रतिबध्य-प्रतिबंधक भाव मानने पर यह प्रापत्ति प्रब नहीं हो सकेगी क्योंकि अक्षुरादिगत रूपादि उद्भूतरूपनि महत् में समवेत होने से प्रतिबन्धक होगा । यदि स्पर्शादि के चाक्षुषप्रत्यक्ष की प्रापत्ति का वारण करने के लिये जैसे स्पर्शादि को तावात्म्य सम्बन्ध से प्रतिबन्धक माना जाता है उसो प्रकार चक्षु प्रादि गत रूपादि को भी प्रतिबन्धक भाव मानने की अावश्यकता क्या ? ऐसा प्रश्न उपस्थित हो तो इस प्रश्न का यह उत्तर है कि इसे न मानने पर चक्षु आदि में जितने भी ऐसे गुरग हैं जिनके चाक्षुष प्रत्यक्ष की प्रापत्ति हो सकती है उन सभी को पृथक पृथक प्रतिबन्धक मानने में प्रतिबध्य प्रतिबन्धक भाव मानने में प्रानन्स्य होगा | अतः चक्षुरादिगत रूप संस्था परिमाण संयोग विभाग को पृथक प्रतिबन्धक न मानना पड़े इसलिये प्रस्तुत प्रतिबध्य-प्रतिवन्धकमाव की का प्रावश्य स प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक भाव में प्रतिबध्यतावच्छेदक कोटि में ध्यान्यत्व का निवेश न करने पर सरेणु के प्रत्यक्ष का प्रतिबन्ध हो जायगा क्योंकि यह भी महत् उद्भूतरूपद्भिन्न में समवेत होता है। एवं जातिभिन्नत्व का निवेश न करने से व्यत्व प्रादि के प्रत्यक्ष का प्रतिबन्ध हो जायगा क्योंकि वह भी महमूतरूपनिन में समवेत होता है । एवं प्रतिबन्धकतावच्छेदक कोटि में समवेतत्व का निवेश न कर वृत्तिस्व का निवेश किया जायगा तो वायु में रूपामाव का प्रत्यक्ष न हो सकेगा क्योंकि वह भी महबुभूतरूपद्भिन्न में वृत्ति है । यदि रूप में उद्भूतत्व का निवेश न किया जायगा तो चक्षुरादिगतरूपादि के प्रत्यक्ष का प्रतिबन्ध न होगा क्योंकि वह रूपनि में समवेत नहीं है । इस प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक भाव को उपपत्ति के लिये समवाय की सिद्धि प्रावश्यक है क्योंकि समवाय न मानने पर प्रतिबन्धकतावच्छेदककोटिप्रविष्ट समवेतत्व को ध्याख्या नहीं हो सकती।"
(प्रतिबन्धकता में 'समवेत' पद की अनावश्यकता) किन्तु यह कथन मी तुच्छ है-क्योंकि द्रव्यान्यसद्विषयक चाक्षुष के प्रति महदुइभ्रतरूपद्भिश्नपत्ति को प्रतिबन्धक मानने से चक्षु प्रावि गत रूपावि के चाक्षुष प्रत्यक्ष के प्रतिबन्ध की और वायु में रूपामाव के चाक्षुष प्रत्यक्ष की उपपत्ति हो सकती है, इसलिये प्रतिबन्धकतावच्छेदक कोटि में समवेतत्व के निवेश को प्रायश्यकता नहीं है । यदि यह कहा आय कि-'प्रतिबध्यतावच्छेदक कोटि में प्रविष्ट सत् का यदि सम्बन्ध सामान्य से सत्तावत्' प्रर्य किया जायगा तो रूपामाव भी व्यमिचारित्व सम्बन्ध से सत्तावान हो जायगा इसलिये उसका भी चाक्षुष प्रत्यक्ष प्रतिबध्यतावच्छेवक से प्राकान्त हो जायगा, प्रतः समवायसम्बन्ध से सत्तावत् यही प्रथं करना होगा, इस प्रकार पुनरपि समवाय की सिद्धि गले पतित हो जायगी।"-तो इसका उत्तर यह दिया जा सकता है कि सत् का अर्थ हो सत्तावत् नहीं है किन्तु 'नपदजन्यप्रतीति का विषय है । अथवा उत्तर में यह भी कहा जा सकता है कि
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ १३७
सामग्रीपशमपि स्फुटतरं विक्षिपतिमूलम्-यापि रूपादिसामग्री विशिष्टप्रत्ययोद्भवा ।
जकनत्वेन बद्धयादेः कल्प्यते साऽप्यनर्थिका ॥६६॥ यापि रूपादिसामग्री-रूपा-ऽऽलोक मनस्कार-चक्षासंनिधानरूपा, विशिष्टप्रत्ययोद्भवा-स्वहेतुसंनिधिपरम्परोपजनितविशेषा, बुद्ध्यादेः कार्यजातस्य, जनकत्वेनाऽन्त्येवर कल्प्यते, समर्थस्य कालशेपाऽयोगेन कार्याजनकानां सामरधामननुप्रवेशात् । साऽपि स्वोपक्लुप्ता सामग्रयपि, अनर्धिका--प्रयोजनविकलकल्पनाविषया ॥६६॥ तथाहि
मूलं-सर्वेषां बुद्धिजनने यदि सामर्थ्य मिष्यते ।
रूपादीनां ततः कायभेदस्तेभ्यो न युज्यते ॥६७) प्रतिबन्धकतावच्छेवक कोटिप्रविष्ट समवेतत्व का समझायसम्बन्ध से वृत्तित्व' ऐसा अर्थ न करके सम. वायस्थानीय वर्शनान्तरस्वीकृससम्बन्ध से युतित्व' यह प्रर्थ किया जा सकता है । इस विषय में अधिक विस्तृत विचार व्याख्याकारकृत ज्ञानार्णव स्याद्वावरहस्य-न्यायालोक प्रावि ग्रन्थ में हष्टव्य है ॥६५॥
पाठयो कारिका में किये गए निर्देश अनुसार ६ वी कारिका से ६५ वी कारिका तक सन्तान पक्ष की दृष्टि से प्रस्तुत समाधानों को समीक्षा पूर्ण हुई। अब ६६ वी कारिका से इस सामग्री पक्ष को आलोचना की जाने वाली है कि कार्य की उत्पत्ति सम्मपो से होती है। सामग्री को कार्य का उत्पादक मानना सभी को आवश्यक होता है क्योंकि एक एक कारण मात्र से कार्य की उत्पत्ति नहीं होतो और सामग्री सभी के मत में क्षणिक होती है। अतः प्रक्रियाकारित्य क्षणिक में ही होता है, स्थिर में नहीं।'
[सामग्री पक्ष को कल्पना प्रयोजनशून्य है] रूपादिघटित सामग्री जो रूप-पालोक-मनस्कार और सहश प्रत्यय चक्षुः प्राधि के सन्निधान रूप है और जिसका उद्भव विशिष्ट प्रत्ययों के, अर्थात रूप पालोक प्रादि हेतुत्रों के सन्निधान की परम्परा से कार्योत्पत्ति के प्रयोजक विशेष के साथ होता है, और जो बुद्धचादि कार्यों के अन्तिम उत्पावक रूप में स्वीकार की जाती है. और जिस में कार्य के प्रजनक का प्रवेश नहीं होता, क्योंकि समर्थ कारण द्वारा विलम्ब से कार्योत्पत्ति मानने में युक्ति नहीं है, वह सामग्री भी निरर्थक है। अर्थात् ऐसी सामग्री की कल्पना का कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि इस सामग्री में जब कार्यानुत्पावक का प्रवेश नहीं होता किन्तु उसके प्रत्येक घटक कार्य के अव्यवहित पूर्व क्षण में हो सन्निहित होते हैं तब उसमें से एक मात्र को हो कायोत्पादक मान लेना पर्याप्त हो जायगा 11EETA ६७ वीं कारिका में मो बौद्धसम्मत सामग्री पक्ष की मालोचना की गई है
[बुद्धिविजातीय कार्यों को उत्पत्ति का असंभव ] रूपावि समस्त कारणों को यदि बुद्धि जैसे एकजातीय कार्य के हो उत्पादन में समर्प माना जायगा तो उनसे विजातीय कार्यों की उत्पत्ति नहीं होगी। जब कि सौत्रान्तिक और माषिक के
* अन्त्या-यदव्यवहितोत्तरक्षणे कार्य संपद्यते तत्क्षणवतिनी।
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८]
[ शा. वा. समुच्चय रह० ४-श्लो० ६८ सर्वेषां रूपादीनां बुन्हिजनने-चुद्धिलक्षणेकजातीयकार्योत्पादने, यदि सामथ्य शक्तिः, इष्यते-अङ्गीक्रियते । एक कार्य तु सौत्रान्तिक-वैभाषिकमते रूपादिजन्यमप्रसिद्धम् , तन्मते संचितेभ्यः परमाणुभ्यः संचितानां परमारनामेवोत्पादात , संवृत्तिसत एकस्य घटादे. ऽस्तदजन्यत्वात् , ज्ञानस्यापि ग्राह्य-ग्राहकाऽऽकारद्वयप्रतिभामनादिति बोध्यम् । ततः तेषामेकाजिनकत्वात् तेभ्यः सकाशात् कायभेदा-रूपादिकार्यविशेषः न घटते, किन्तु बुद्धिरेवैका स्यात् ।।६।।
न चैवमेवास्तु, इत्याह-- मूलं--- रूपालोकादिक कार्यमनेक चोपजायते ।
तेभ्यस्ताचय एवेति तदेतच्चिन्त्यतां कथम् १ ॥६८॥
मत में सामग्रो से बुद्धि और विषय दोनों की उत्पत्ति मानी जाती है। इतना ही नहीं किन्तु यह भी ध्यान में रखने की बात है कि बाहह्मार्थवादी बौद्धों के मत में जो बाह्यार्य उत्पन्न होता है वह मी एक व्यक्ति रूप नहीं होता किन्तु क्षणिक परमाणुओं के समूह रूप होता है । क्योंकि उनका यह सिद्धान्त है कि 'पुङजात् पुजोत्पत्ति:' अर्थात् पूर्वक्षरण में सन्निहित क्षणिक परमाणुसमूह से उत्तरक्षण में नये क्षणिक परमाणु समूह की उत्पत्ति होती है, क्योंकि वे निराकार ज्ञान को ही पारमार्थिकसत्ता मानने वाले योगाचार, अथवा शून्यता ही पारमार्थिक मानने वाले बौद्धों के अनुसार-संवृति अविद्या अथवा वासनामूलक एक घटादि को उत्पत्ति नहीं मानते हैं । अत: उनके मतानुसार सामग्रो से विभिन्न कार्यो का उदय होता ही है । किन्तु सामग्री में अथवा सामग्री घटक रूप प्रादि में ज्ञान जैसे एकजातीय कार्य के उत्पादन का सामर्थ्य मानने पर अनेक कार्यों का उत्पादन जो उन्हें अभिमत है-वह कभो भो न हो सकेगा, इतना ही नहीं जान को भी उत्पत्ति संकटग्रस्त हो जायगी क्योंकि ज्ञान का भी ग्राह्य और ग्राहक दो प्राकारों में प्रतिभास होता है । अतः सामग्री को किसी एक प्राकार के प्रति समर्थ मानने पर अन्य प्रकार का उलय न हो सकेगा और ऐसा कोई ज्ञान प्रानुभविक नहीं है जो ग्राहा और ग्राहक दो प्राकारों में प्रतिभासित न होता हो । फलतः, सामग्री से कोई कार्य का सम्भव न होने के कारण उस को निरर्थकता अनिवार्य होमी । यदि बुद्धि के माकारद्वय म भेद न मान कर दोनों को बखिजातीय हो माना जाय तो बाद्धको तो उत्पत्ति हो सकती है किन्तु बाह्यार्थवादी बौद्धों को अभिमत बुद्धिभिन्न वस्तु को उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, अतः उन कार्यों के प्रति सामग्री का नरर्थक्ष्य अपरिहाय है ।। ६७॥
(सामग्री और उसके घटक से विभिन्न कार्यों का असंभव) ६८ वीं कारिका में बौद्ध द्वारा प्राशकित उक्त दोष के परिहार की चर्चा कर उसका खण्डन किया गया है
'लपादिघटितसामग्रो को ज्ञान के उत्पादन में समर्थ मानने पर विभिन्न कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती।' इसके प्रतियाद में बौद्धों को प्रोर से यह कहा जा सकता है कि-'रूप पालोक प्रादि
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था. क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ १३
रूपाऽऽलोकादिकं कार्य स्थम्बसंततिगतम , अनेक च-विभिन्नं च उपजायते । तदेतत् विभिन्नकार्यभवनम् तेभ्या रूपादिभ्यः, तावद्य एवतावत्संख्याकेभ्य एवं कथम् इति चिन्त्यताम् , सर्वेषामेव बुद्धिजननसमर्थत्वात् , रूपादौ जननीयेऽतिरिक्ताऽनागमनात् ॥३८॥ दोषान्तरमाह--
प्रभूतानां च नैकत्र साध्वी सामर्थ्यकल्पना।
तेषां प्रभूतभावेन तदेकत्वविरोधतः ॥६९।। प्रभूनानां च-विभिन्नानां च रूपादीनाम् , एकत्र एकजातीये बुद्धयादिकार्ये सामर्थ्यकल्पना शक्तिममर्थना, साध्वी न-न्याय्या न । कृतःः १ इत्याद-तेषां समर्थाना प्रभूतभावेन विभिन्नत्वेन, तदेकत्वविरोघतः कार्यकत्वविरोधात् ॥६॥
कार्य अपने सन्तान में विभिन्न रूप से उत्पन्न हो सकते हैं क्योंकि रूप-पालोक आदि प्रत्येक रूपप्रालोक प्रादि का भी कारण होता है अत: सामग्रो घरक रूप पालोक प्राबि से रूप पालोक प्रादि की उत्पत्ति, और सामग्री से वृद्धि की उत्पत्ति, ऐसा मानना संमय है।'-इस बौद्धों के प्रतिवाद के उत्तर में ग्रन्थकार का कहना है कि रूप-पालोकादि विभिन्न कार्यों का जनन ज्ञानसामग्री के सन्निधान के पूर्व जसे पालोकादि के प्रसंनिधानक्शा में भी होता है, उसी प्रकार सदा हो।
ना है। तर चिन्तन प्रावश्यक है-ज्ञानसामग्री काल में रूप-ग्रालोक आदि की उत्पत्ति उतनी संख्या में सन्निहित रूप प्रादि से क्यों होती है ? चिन्तन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञानसामग्री दशा में रूप-पालोक प्रावि भिन्न कार्यों की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ज्ञान सामग्री का घटक होने पर रूप पालोकादि समी में झानोत्पादन का ही सामर्थ्य होता है, अतः उनसे ज्ञान की उत्पत्ति तो हो सकती है, किन्तु रूप आदि उत्पत्ति कैसे समवित है ? उनको उत्पति को सम्भावना तब होती जब उनके उत्पादन के लिये अतिरिक्त रूप प्रादि का भी संनिधान होता। क्योंकि जो रूप मावि शान का उत्पादक हो गया उसका ज्ञान से भिन्न रूप प्रावि का उत्पादक होना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि एकजातीय कारण से विभिन्न जातीय कार्यों की उत्पत्ति मानी जायगी तो विभिन्न कारणों की कल्पना हो समाप्त हो जायगो । यह सोचना कि-सामग्री घटक प्रत्येक रूप प्राधि से रूप प्रादि की उत्पत्ति और सामग्री से ज्ञान को उत्पत्ति हो सकती है-ठीक नहीं है क्योंकि सामग्रीघटकों से अतिरिक्त सामग्री का कोई अस्तित्व हो नहीं है ।।६८।।
६६ वी कारिका में सामग्रीपक्ष में एक अन्य दोष का निदर्शन किया गया है जो कारिका की व्याख्या से ज्ञातव्य है
रूप आदि विभिन्न पदार्थों में बुद्धि जैसे एकजातीय कार्य के उत्पादन शक्ति की कल्पना न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि विजातीय कारणों से एफजातीय कार्यको उत्पत्ति विरुद्ध है ॥६६॥
७० वीं कारिका में भी इसी तथ्य की पुष्टि की गई है
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४.]
[ शा० वा. समुच्चय स्व०४-श्लो०७०
एतदेव भावयभाह---
तानशेषान प्रतीत्येह भवदेकं कथं भवेत् । ।
एकस्वभावमेकं यतन्तु मामेकमावताः ॥७॥ तान् समर्थान् प्रतीत्य आश्रित्य, इह-लोके भवत् कार्यम् एकं कथं भवेत् ! नैव भवेदित्यर्थः । अत्रोपपत्तिमाह-यद्य स्मात् , एकस्वभावमेकम् 'उच्यते' इतिशेषः, 'तत्त एकस्वभावं तु अनेकभावत: अनेकेभ्यो रूपादिम्यो हेतुभ्य उत्पत्तेः न घटते ||७|| कथम् ? इत्याह
यतो भिन्नस्वभावत्वे सति तेषामनेकता ।
तापत्सामर्थ्यजत्वे च कुतस्तस्यैकरूपता? ७१॥ यतः यस्मात् , भिन्नस्वभावत्वे-नानास्वभावत्वे सति, तेषां रूपादीनाम् अनेकता नान्यथा; तावत्सामर्थ्यजत्वे च तावत्कारणशक्तिजन्यत्वे च, तस्य बुद्धयादेः, कथमेकरूपता-एकस्वभावता, रूपादिशक्तिजन्यत्वस्वभावमेदात् ? ॥७१।। एतदेव समर्थयमाह
यज्जायते प्रतीत्येकसामर्थ्य नान्यतो हि तत् ।
तयोरभिन्नतापत्ते दे भेदस्तयोरपि ॥७२॥ विजातीय अनेक कारणों को पाकर उत्पन्न होने वाला कार्य एकजातीय कैसे हो सकता है ! क्योंकि जो वस्तु एकस्वमाय होती है उसको उत्पत्ति अनेक स्वभाव धारण करने वाले कारणों से नहीं हो सकती ॥७॥
७१ वीं कारिका में इस कथन की युक्तता प्रतिपादित की गई है--
रूप-प्रालोक प्रादि में जो भिन्नता है यह उनके स्वभावभेद के कारण भिन्नता है अन्यथा नहीं और जब वे सब मिन्नस्वभाव वाले हैं तब उन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान रूप कार्य में एक. स्वभावता नहीं हो सकती क्योंकि रूप प्रादि पदार्थ भिन्न स्वभाव सामर्थ्य से जन्य होने पर बुद्धि में स्वभाव भेद प्रावश्यक है । ७१॥ ७२ वौं कारिका में भी इस का समर्थन किया गया है
[कारणगत सामर्थ्य में स्वभावभेद कल्पना प्रयुक्त] ___ जो कार्य कारणगत एकसामर्थ्य को प्राप्त कर उत्पन्न होता है वही कार्य कारणगत अन्य सामर्थ्य से उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि एक कार्य के उत्पावक सामन्यों में भेद नहीं हो सकता। यदि यो समझे जाने वाले सामर्थ्य एक ही कार्य को उत्पन्न करेंगे तो वास्तव में उन में भिन्नता ही होगी भले वे दो समझे जाते हों । क्योंकि, एक कार्य के जनक में एक स्वभाव मानना ही उचित है। यदि यह कहा
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था का टीका-हिन्दी विवेचना ]
[१४१
यत् कार्यम् एकसामर्थ्य कारणगतं प्रतीत्य जायते तडितदेव, अन्यतः कारणासामर्थ्यान्तरात् न जायते । कुतः १ इत्याह-तयोः कारणसामर्थ्ययोः, अभिनतापत्तेःएकत्यप्रसङ्गात् , एककार्यजनकत्वेनै कस्वभावत्वौचित्यात् । भेदे तयोः-सामर्थ्ययोः कुतश्चिदन्यतो निमित्तात् स्वभावभेदेऽभ्युपगम्यमाने, तयोरपि तदुभयजन्यबुद्धथादेरपि भेदः स्यात् , *प्रत्येकजन्यत्वस्वभावभेदात् ॥७२॥
पराभिप्रायमाशय परिहरतिमूलं-न प्रतीत्यैकसामर्थ्य जायते तत्र किंचन ।
__ सर्वसामर्थ्यभूप्तिस्वभावत्यात्तस्य चेन्न तत् ।।७३॥ एकसामर्थ्य प्रतीत्य आश्रित्य, तत्र कार्ये न किश्चन-तज्जन्यतानियतं रूपं (जायते), कुतः ? इत्याह तस्य अधिकृतकार्यस्य सर्वसामध्यभृतिस्वभावत्वात् अधिकृतसकल हेतुशक्त्यपेश्नोत्पत्येकस्वभावत्वात , इति चेत् ? न तत्त दुक्तं युक्तम् ॥७३॥ जाय-कारणगत सामों में किसी निमित्त विशेष से स्वभाव भेव माना जायगा, असे रूपादिस्वरूप कार्य के अनुरोध से तथा बुद्धिरूप कार्य के अनुरोध से कारणमत सामर्थ्य में भेद की कल्पना हो सकती है अर्थात यह कहा जा सकता है कि रूपावि में वो सामर्थ्य है, एक रूपादिकार्यों का उत्पादक स्वभाव है और दूसरे में बुद्धि का उत्पादक स्वभाव है। किन्तु यह कथन उचित नहीं हो सकता क्योंकि भिन्नस्वभाव सम्पन्न भिन्न सामर्थ्यशाली एक रूपादि से जन्य होने के कारण बुद्धि में भी स्वमायभेद हो जायगा । आशय यह है कि यदि रूपात्मककारण में बुद्धधनुगुण स्वभाव से उपेत सामर्थ्य और रूप के अनुगुण स्वभाव से उपेत सामर्थ्य बोनों हो रहेगा तो एक सामय से उत्पन्न होने वाले कार्य के प्रति दूसरे सामर्थ्य के तटस्थ रहने में कोई युक्ति न होने के कारण दोनों सामयों से भिन्न स्वभावोपेत एक कार्य को ही उत्पत्ति होगी। फलतः रूप भी बुद्धिस्वभावोपेत होगा और बुद्धि भी रूपस्वभावोपेत होगी, अतः बुद्धि में शुद्धबुद्धि-विषयाऽनात्मकबुद्धि का भेद हो जायगा जब कि बुद्धि का विषयानात्मक स्वरूप ही सौत्रान्तिक प्रादि धौद्धों को मान्य है । बुद्धि में इस आपशि के उत्पादक स्वमावभेद का होना इसलिये अपरिहार्य है कि वह कारणगत विमिनस्वभावोपेत प्रत्येक सामथ्र्य से उत्पन्न होगी भौर मिन्नस्व मावोपेत प्रत्येक सामथ्र्य से जन्य होने पर स्वभावभेद का होना आवश्यक होता है ।।७२।।
७३ वीं कारिका में उक्त दोष के सम्बन्ध में बौब के परिहाराभिप्राय को उपस्थित कर इस के निराकरण का संकेत किया गया है
बौद्धों का उक्त वोष के परिहार के सम्बन्ध में यह अभिप्राय हो कि जिस सामग्री से जो कार्य उत्पन्न होता है उस कार्य में उस सामग्री के घटक किसी एक सामर्थ्य से अन्य होने के कारण उस में कोई स्वभावभेद नहीं होता, किन्तु कार्य का केवल इतना ही स्वभाव होता है कि वह सामग्रीषटक
* 'प्रत्येकजन्यत्वस्वभावभेदात्' इस पाठ के स्थान में 'प्रत्येकजन्यत्वे स्वभावभेदात्' यह पाठ उचित प्रतीत होता है।
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२ ]
[ शा० वा. समुनय स्त० ४ श्लोक ७४
कुतः ? इत्याह
प्रत्येक तस्य तद्भावे युक्ताय क्तस्वभावता।
न हि यत्सवसामयं तत्प्रत्येकत्ववर्जितम् ॥७॥ तस्यबुद्धयादः कार्यम्य प्रत्येक रूपादिकमेकैकमपेक्ष्य मावे तेभ्य उत्पतिस्त्रभावत्वे, हि-निश्चितम् , उक्तस्वभावता-सर्वमामयभृतिस्वभावता युक्ता। अत्रोपपत्तिमाह-न हि यन् सर्वसामर्थ्य नाम सत् प्रत्येकत्ववर्जितमः प्रत्येकसामर्थ्यमिन्नम् । प्रत्येकाऽवृत्तेः समुदायाऽवृत्तित्वनियमादिति भावः । ७४॥ प्रत्येकसामयं च परिहतमेवेति दर्शयति
अम्र चोक्तं न चाप्येषां तरस्वभावत्वकल्पना । साध्वीस्पतिप्रसङ्गादेरन्यथाप्युक्तिसंभवात् ॥७॥
कारणों के सम्मिलित सामर्थ्य से उत्पन्न होता है । उत्पत्ति के अतिरिक्त उस में कारणसामथ्र्य मूलक कोई वलक्षण्य नहीं होता। इस सम्बन्ध में ग्रन्थकार का संकेत है कि बौद्धका यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं हो सकता ॥७३॥
७३ वी कारिका में जिस युक्ति से बौद्ध के अभिप्राय की असंगति का संकेत किया गया है उस युक्ति का ७८ वो कारिका में उपन्यास किया गया है
बीन्द्रों का यह कहना कि 'कार्य का स्वभाव है कि वह सामग्रीघटक कारणों के सम्मिलित सामध्य से उत्पन्न होता है तमी संगत हो सकता है जब सामग्रीघटक कारणों के सम्मिलित र से उत्पन्न होने वाले कार्य में सामग्रोघटक एक एक कारण के सामर्थ्य से भी उत्पन्न होने का स्वभाव हो । कहने का प्राशय यह है कि सामग्री में उसी कार्य के उत्पादन का सामर्थ्य या स्वभाव माना जा सकता है जिस कार्य के उत्पावन का स्वमाष सामग्रीघटक प्रत्येक कारण में हो। क्योंकि, सामग्री सपने घटक एक एक कारण से मिन्न नहीं होती। इसी प्रकार सामग्रोघटक कारणों का सामथ्र्य-समूह मी सामग्रीघटक प्रत्येक कारण के सामर्थ्य से भिन्न नहीं होता | अतः कार्यविशेष की उत्पादकता यदि सामग्रोघटक प्रत्येक कारण में या प्रत्येक कारणगतसामर्थ्य में नहीं रहेगी तो कारणसमुदायरूप सामग्री अथवा कारणसामध्यसमदाय में भी नहीं रह सकती, क्योंकि यह नियम है कि जो प्रत्येक में नहीं रहता यह समुदाय में भी नहीं रहता ॥७४। ___सामग्रीघटक प्रत्येक कारण अथवा प्रत्येक कारणगत सामर्थ्य को सामग्री से उसन्न होने वाले कार्यविशेष का उत्पादक मानने पर जो वोष ७२ वी कारिका में कहा गया था, ७५ वीं कारिका में उस दोष का स्मरण कराने के साथ उस पक्ष में अन्य दोष का उद्भावन किया गया है___ सामग्रीजन्य कार्य में सामग्रीघटक प्रत्येकजन्यत्व मानने पर 'यज्जायते' इत्यादि ७२ वीं कारिका में दोष बताया जा चुका है । कार्य को सामग्रीअन्तर्गत प्रत्येक घटक से जन्य म मान कर केवलसामग्रीजन्य मानने में यह दोष है कि जैसे कार्य के प्रजनकव्यक्तियों के एकसमूहरूप सामग्री से किसी कार्य को उत्पत्ति हो सकती है उसी प्रकार कार्य के प्रजनक अन्य व्यक्तियों के समूह से भी उस कार्य को
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० का टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ १४३
अत्र च प्रत्येकजन्यत्वस्वभावपक्षे च उक्तं 'यज्जायते' (का० ७२) इत्यादि । दोपान्तरमाह न चापि एषाम् अधिकृतसमनहेतूनाम् सरस्वभावत्वकल्पना-प्रकृतफलजननम्वभावत्वकल्पना, अतिप्रसंगादेर्दोषान् साध्वी न्याय्या; समग्रान्तराण्यपि तज्जननस्वभावानि भवन्त्रित्यतिप्रसङ्गः । आदिशब्दादक एव तज्जननस्वभावोऽस्तु, शेपा उपनिमन्त्रितकन्या इत्यादि दोषसंग्रहः । एवमपि तत्स्वभावत्योक्तौ दोपमाह--अन्यथाऽप्युबिमसं मचातसमयान्तराणामपि तत्स्वभावत्ववचनसंभवात् , युक्तिवैकल्यस्य चोभयसाधारणत्वात् । 'इतिः' आद्यपक्षसमाप्त्यर्थः ॥७॥ उत्पत्ति की प्रापत्ति होगी । जैसे, दंउ चक्क-चीवरादि घटित सामग्री से घट उत्पन्न होता है, किन्तु सामग्रोघटक दंडादि प्रत्येक भाव अपने सन्तान में अपने सजातीय दंडावि का ही जनक होता है घट का जनक नहीं होता है । फलतः घट के प्रजनक व्यक्तियों के समूह से हो घट की उत्पत्ति होती है। तो जब घट को घर के प्रजनक व्यक्तियों के समूह से ही उत्पन्न होना है तब तुरीतन्तु वेमादि के समूह से भी घट को उत्पत्ति होनी चाहिये क्योंकि घट को अजनकता प्रत्येक दंडकादि और प्रत्येक तुरीतन्तुमादि में समान है।
मूल कारिका में प्रतिप्रसंगादि' में आदि शब्द से और अन्य प्रकार के दोषों को सूचना दी गई है जैसे यह कि-सामग्नीघटक व्यक्ति जब सामग्री काल में ही सन्निहित होते हैं उससे पूर्व उसका अस्तित्व नहीं होता तो उनमें से किसी एक को हो कार्य विशेष के उत्पादक स्वभाव से सम्पन्न माना जा सकता है और दूसरे कारण उपनिमन्त्रित-मुख्य अतिथि के साथ प्राये हुये अन्य के समान अन्यथासिद्ध हो सकते हैं। इन सब त्रुटियों की ओर ध्यान न देते हुये भो यदि एक समूह विशेष को कार्यविशेष के उत्पादक स्वभाव से सम्पन्न माना जा सकता है तो जिस समूह से यह कार्य विशेष नहीं उत्पन्न होता उसमें भी उस कार्य के उत्पादक स्वभाव का प्रतिपादन हो सकता है। क्योंकि कार्य विशेष के प्रजनक व्यक्तियों के एकसमूह में कार्यविशेष के उत्पादन का स्वभाव है और उसी प्रकार के दूसरे समूह में उसके उत्पादन का स्वभाव नहीं है ऐसा मानने में कोई विनिगमना नहीं है, क्योंकि दोनों ही समूहों में युक्तिविरह समान है। कारिका में 'साध्यो' शब्द के अनन्तर 'इति' शब्द का प्रयोग प्रब तक विचार्यमाण प्रथम पक्ष के विचार को समाप्ति का द्योतक है ॥७५॥
असत् कार्यवादी के सम्बन्ध में बौद्धों द्वारा प्रस्तुत 'सामम्रो पक्ष' के दो विकल्प प्रस्तुत किये गये हैं (१) एक विकल्प यह कि जिन व्यक्तियों के एकत्र सह सनिधान के अनंतर किसी कार्य को उत्पत्ति होती है उत व्यक्तियों की एक देश और एक काल में संनिधान रूप सामग्रो उस कार्य को उत्पादक होती है, सामग्रीधटक व्यक्ति उत्पादक नहीं होते । यह सामग्रो पक्ष का प्रथम विकल्प है जिसे 'सामग्री पक्ष' शब्द से भी कहा जाता है। (२) दूसरा विकल्प यह है कि सामग्री घटक प्रत्येक व्यक्ति सामग्री के प्रनतर उत्पन्न होने वाले कार्य के उत्पादक होते हैं। कार्य को उत्पत्ति में उन सभा व्यक्तित्रों को समान अपेक्षा होती है। क्योंकि उन में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो अन्य व्यक्तियों से असन्निहित होकर उस कार्य का प्रादुर्भाव करें।
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४]
[ शा० वा० समुरुचय स्त. ४-श्लोक ७६
मौलं विकल्पमधिकृत्य पक्षान्तरमाह
अथान्यत्रापि सामर्थ्य रूपादीनां प्रकल्प्यते ।
न तदेव तदित्येवं नाना चैकन्न तत्कुतः । ॥७६॥ अन्यत्रापि बुद्धधादिव्यतिरेकेण स्वसंततापि, सामर्य-रूपादिजननी शक्तिः, रूपादीनां समग्राणां प्रकल्प्यते । अत्र दोषमाह-न तदेव-युद्धथादिजननसामर्थ्य मेव, तत् अन्यत्रापि सामर्थ्यम् , अन्यस्यापि बुद्धयादित्वव्याप्तेः, इति उक्तहेतोः नाना=अनेक बुद्धिरूपादिजननसामर्थ्यम् । एव च-नानात्वे च, एकत्र एकस्वभावे रूपादौ, तत्-सामर्थ्यम् , कुतः ? नानासामथ्यस्वभावत्वेन सर्वथैकत्वविरोधात् ? ॥७॥
यह ज्ञातव्य है कि इन दोनों विकल्पों की चर्चा के प्रसङ्ग में जो सामग्रीघटक कारणों का एक देश में सन्निधान होना बताया गया है, उसका तात्पर्य किसी एक स्थानविशेष में प्राश्रित होना नहीं है क्योंकि क्षणिक वादी बौद्ध के मत में यह मानना संभव नहीं हो सकता कि कोई एक ऐसा स्थान होता है जहाँ किसो कार्यविशेष के विभिन्न कारण सन्निहित या उत्पन्न होते हैं। अत एव बोज दृष्टि से एक देश में विभिन्न कारणों के सन्निहित होने का अर्थ है देशकृतव्यवधान के विना विभिन्न मन्त्रावर्ती व्यक्तियों का भूतान होना । अत: प्रस्तुत प्रतिपादन में एक देश में सन्निधान होने के उल्लेख के सम्बन्ध में प्रसंगांत को शंका नहीं हो सकती।।
६६ वों कारिका से ७५ वीं कारिका तक सामग्री पक्ष के प्रथम विकल्प की प्रालोचना की गई है। अब ७६ वीं कारिका से दूसरे विकल्प को दृष्टिगत रख कर पक्षान्तर की चर्चा की जाती है । व्याख्याकार ने इस कारिका का व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए इस विकल्प को मोल विकल्प कहा है जिससे निराकृत विविध पक्षों से इस विकल्प को दृष्टिगत रख कर निराकरणीय पक्ष का भेद स्पष्ट हो सके । का०७६ का अर्थ इस प्रकार है
(एक व्यक्ति में अनेक सामर्थ्य का असंभव) बौद्धों की और से यदि यह विकल्प प्रस्तुत किया जाय कि-रूप-मालोक-मनस्कार-वक्ष प्रादि के संनिधान रूप सामग्नी जिससे रूप विषयक बुद्धि का उदय होता है उस सामग्री घटक रूपावि प्रत्येक व्यक्ति में रूपादि के जनन का भी सामर्थ्य है और बुद्धि के जनन का भी सामर्थ्य है इसलिये उन कारणों के संनिधान रूप सामग्री के अनतर रूपविषयकबुद्धि का भी उद्भव होता है और रूपादि द्वारा अपने सन्तान में उत्तरवतों रूपादि का भी उद्भव होता है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि रूपादि में जो बुद्धयादिजनन का सामर्थ्य होगा यदि वही रूपाविजनन सामथ्र्य रूप मी है तो उस सामर्थ्य से उत्पन्न होने वाला कार्य तो बुद्धिरूप होता है अत: उस सामथ्र्य से उत्पन्न होने वाले रूप आदि में भी बुद्धिरूपता को प्रसक्ति होगी । अतः तद्वारणार्थ रूपादि कारणों में वृद्धि एवं रूपादि कार्यों के जनन का भिन्न भिन्न सामर्थ मानना होगा। और जब वे सब सामर्थ्य भिन्न भिन्न होंगे तो वह रूपादि एकेक व्यक्ति में कैसे रह सकेंगे ? क्योंकि सामर्थ्य रूप स्वभाव का मनेकत्व उन स्वभावों के प्राश्रय के ऐक्य का विघटन कर वेगा । वह इसलिये कि एकवस्तु का मनेक स्माष से सम्पन्न होना
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० का टीका और हिन्दी विवेचना ]
परपक्ष एव दोषान्तरमाह--
सामग्रीभेदतो यश्च कार्यभेदः प्रगोयते ।
नानाकार्यसमुत्पाद एकस्याः सोऽपि बाध्यते । ७७।। यश्च परैः सुगतसुतैः सामग्रीभेदतः सामग्रीविशेषात् कार्यभेद: कार्यविशेषः प्रगीयते प्रतिज्ञायते, सोऽपि एकस्या एव सामन्रथा रूपा-ऽऽलोकादिनानाकार्यसमुत्पादेऽभ्युपगम्यमाने बाध्यते, सामग्रथविशेष कार्याऽविशेषादिति भावः ॥७७|| अत्रैव पराभिप्राय निषेधति
उपादानादिभावेन न चैकस्यास्तु संगता ।
युक्त्या निनामापोह प्रदनेकन्नकालाना !! न च, एकस्यास्तु-सामान्यत एकस्या एव सामग्रथाः उपादानादिभेदेन ज्ञानादौ मनस्कारादेरुपादानत्वेन; इतरेषां च सहकारित्वेन कारणताघटितेनावान्तरसामग्रीभेदेन, युक्त्या विचार्यमाणा, इह-प्रस्तुतविचारे, तदनेकत्वकल्पना-सामग्रथनेकत्वकल्पना, संगता-युक्ता ॥७८। तथाहियुक्तिसंगत नहीं है । कारण, स्वभाव और स्वभाव के धर्मी में परस्पर भेद होने में कोई युक्ति नहीं होने से स्वभाव के अनेक होने पर उसके धर्मों में अनेकता अपरिहार्य है अर्थात् स्वभावभेद मिभेद का पापादक है ॥७६॥
७७ वौं कारिका में बौद्ध के उक्त पक्ष में ही एक अन्य दोष भी बताया गया है
बौद्ध मत में भी सामग्री के भेद से कार्य भेद माना जाता है तो फिर जब रूप-प्रालोकादि कारणों के संनिधान रूप सामग्री से, रूपादि अनेक कार्यों की तथा बुद्धि को उत्पत्ति मानी जायगी, तो एकसामग्री से भी कार्यमेव (विभिन्न कार्य) की उत्पत्ति होने से 'सामग्री मेव से कार्यभेद होता है इस सिद्धान्त का व्याघात होगा ||७||
७८ वीं कारिका में इसी संदर्भ में बौद्ध के एक समाधान परक अभिप्राय का प्रतिषेधकिया गया हैबौद्ध पक्ष में प्रनंतर उद्भावित दोष के सम्बन्ध में बौद्ध का यह कथन है कि रूप-पालोकाविघटित एक सामग्री से रूप-पालोकादि अनेक कार्यों की उत्पत्ति अभिप्रेत नहीं है किन्तु जिस सामग्री को प्रतिवादी एक सामग्री समझते हैं, वह उपादान भेद से भिन्न सामग्री है । अर्थात् उक्तसामग्री पालोक प्रादि सहकारी प्रौर रूपात्मक उपादान से घटित होकर रूप की सामग्री है और मनस्कारात्मक उपादान एवं अन्य सहकारियों से घटित होकर जान की सामग्री है अतः उपर उपर से एक प्रतीत होने वाली सामग्री भी वस्तुतः अनेक है। प्रतः अनेक सामग्री से ही अनेक कार्योत्पत्ति होती है न कि एक सामग्री से ही अनेक कार्योत्पत्ति होती है। प्रतः प्रनंतरोक्त बोष के लिये कोई अवसर नहीं है। इस बौद्ध कथन के सम्बन्ध में ग्रन्थकार का यह सकेत है कि बौद्ध की यह कल्पना युक्ति संगत नहीं है ॥७॥
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४६ ]
[ शा. वा. समुच्चय स्त०-४ श्लोक-७६
रूपं येन स्वभावेन रूपोपादानकारणम् ।
निमित्तकारणं ज्ञाने तत्तनान्येन वा भवेत् १॥७९॥ रूपं येन स्वभावेन रूपोपादनकारणम् तेनैव स्वभावेन ज्ञाने निमित्तकारणं, अन्येन वा स्वभावेन भवेत् ? इति पशद्वयम् ॥७९|| आये आह
यदि तेनैव विज्ञानं बोधरूपं न युज्यते ।
अथान्येन, बलाद' रूपं विस्वभाव प्रसज्यते ॥३०॥ यदि तेनैव-रूपोपादनस्वभावेनैव ज्ञानजननस्वभावं रूपं, तदा विज्ञानं बोधरूपं न युज्यते, कार्ये सकलस्वगतविशेषाधायकत्वं युपादानत्वम् , तत्स्वभावत्वं च रूपादेयदि ज्ञानेऽपि जननीये, तदा तद्पादिस्वरूपतामास्कन्देव-बोधरूपता जहादिति भावः । द्वितीये आह-अथान्येन-उपादेयजननस्वभावभिन्नस्वभावेन रूपं बोधजनक, तदा बलात्-त्वदिच्छाननुरोधान , द्विस्वभावं रूपं प्रसज्यते । अनिष्टे चैतद् भवतः, उपादानसहकारिशक्तिभेदेऽपि स्वसंविद्येकत्वेनावभासनात , एकत्वाभ्युपगमे जनकत्वाऽजनकत्वाभ्यामप्यक्षणिकस्य तत एव तथात्याभ्युपगमे वाधकाभावात् । अथ न स्वभावभेदाद् भावभेदः, अपि तु विरुद्ध स्वभावभेदात् ,
७९ वी कारिका में उसी संकेत के उपपादन का उपक्रम किया गया है। रूप को रूप के प्रति उपादान कारण और ज्ञान के प्रति निमित्तकारण मानने पर दो पक्ष प्रश्नरूप में प्रस्तुत होते हैं। एक यह कि रूप जिस स्वभाव से रूप का उपादान कारण होता है क्या उसो स्वभाव से वह ज्ञान का निमित्त कारण होता है ? प्रथया (२) किसी अन्य स्वभाव से ?
८० वीं कारिका में इन दोनों पक्षों को प्रयुक्तता बतायी गयी है। यदि रूप जिस स्वभाव से ज्ञान का उपादान कारण होता है उसी स्वभाव से ज्ञान का निमित्त कारण होगा तो ज्ञान बोधरूप न हो सकेगा। क्योंकि उपावान कारण वही होता है जो अपने कार्य में अपने सम्पूर्ण वैशिष्टय का प्राधान करता है। अत: रूप से अपने रूपात्मक कार्य में अपनी रूप स्वभावता का प्राधान करता है उसी प्रकार यह ज्ञान में भी अपने उस स्वरूप का प्राधान करेगा । क्योंकि यद्यपि वह ज्ञान का उपादान कारण नहीं है किन्तु ज्ञान का जनन करते हुए भी वह अपने उस स्वभाव से मुक्त तो नहीं हो सकता । प्रतः रूप से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को रूपस्वभाषता प्राप्त कर बोधरूपता का त्याग करना होगा।
कारिका के उत्तरार्ध में रूप अन्य स्वमाव से ज्ञान का निमित्त कारण है-इस दूसरे पक्ष का निराकरण किया गया है। प्राशय यह है कि यदि रूप जिस स्वभाव से अपने उपादेय कार्य रूप का जनक होता है, यदि उस स्वभाव को छोड कर भिन्न स्वभाव से बोध का जनक होगा तो रूप हठ पूर्वक बौद्ध की इच्छा के विपरोत दो स्वभावों का पास्पद-प्राधय हो जायेगा जो बौद्ध को हष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि उनके मत में स्वभावभेद प्राश्रय के ऐक्य का विरोधी होता है । यदि यह कहा जाय कि-"स्वभाव भेद से आभय का मेद तभी होता है जब प्राश्रय के ऐक्य को सिद्ध करने
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वा० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ १४७
तत्कार्यजनकत्वा- जनकत्वे चाक्षणिकस्य विरुद्धौ स्वभाव, उपादानत्व-सहकारित्वशक्त्योच न विरोध इति न दोष इति चेत् १ न, तथाप्यनेकशक्तितादात्म्यानुविद्धैकरूपक्षणाद्यभ्युपगमेऽनेकान्तप्रसङ्गात् । शक्तिनां शक्तिमतोऽभेद एवेत्यभ्युपगमे च इदमुपादानम् इदं च सहकारिकारणम्' इत्यादिविभागाभावप्रसङ्गात् ||८०||
कल्पनयाऽयं विभागो भविष्यतीति पराभिप्रायमाशङ्क्य परिहरन्नाह - अवुद्धिजनकव्यावृत्त्या चेद् बुद्धिप्रसाधकः । रूपक्षणो बुद्धित्वात्कथं रूपस्य साधकः ? ८१
बाली कोई युक्ति न हो किन्तु रूप में ऐक्य सिद्ध करने वाली युक्ति है । अत: रूप के स्वभाव भेद से रूप में रूप के ऐक्य का विरोध नहीं हो सकता, जैसे उपादान शक्ति और सहकारि शक्ति रूप स्वभाव के मेद होने पर भी रूपज्ञान में रूप का एक ही रूपाकार में अवभास होता है, अतः यह स्वभाव उसके ऐक्य का साधक है। इसलिये स्वभावभेद ले उसका ऐक्य प्रतिहत नहीं हो सकता"तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर कार्य के जनकत्व और प्रजनकत्व रूप स्वभावभेद से स्थिरवस्तु में मी ऐक्य की सिद्धि का विरोध न हो सकेगा क्योंकि कुशूलस्थित दशा में अंकुर का प्रजनक और क्षेत्रस्थ दशा में अंकुर का जनक जो बीज उसके ज्ञान में बीज का एक हो बीजाकार रूप में मान होता है। प्रतः कुशूलस्थ बीज और क्षेत्रस्थ बीज में भी ऐषय का साधक उक्त ज्ञान रूप युक्ति विद्यमान है इसलिये उक्त स्वभाव मेद से खोज की भी भिन्नता नहीं सिद्ध होगी, क्योंकि दोनों को एकता में कोई बाधक नहीं है। फलतः अर्थक्रियाकारिश्व के बल से नाव की क्षणिकता का साधन असम्भव हो जायगा ।
यदि बौद्ध की और से यह कहा जाय कि उन्हें स्वभावमात्र के भेव से प्राश्रयभेद मान्य नहीं है अपितु विरुद्ध स्वभाव के भेद से प्राश्रयभेद मान्य है। तत्कार्यजनकत्व और तरकार्याजनकत्व ये दोनों सा श्रभाव रूप होने से विरुद्ध स्वभाव है अतः इन स्वभावों से युक्त एक स्थिर वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती किन्तु उपादानशक्ति और सहकारिशक्तिरूप विभिन्न स्वभाव युक्त क्षणिक एक रूप प्रादि की सिद्धि हो सकती है और इन स्वभावों में विरोध नहीं है। अतः रूप में स्वभाव - भेव प्रयुक्त जो प्रनेकस्वापत्ति रूप दोष उद्भावित किया गया है वह नहीं हो सकता" - तो यह ठीक नहीं है शक्तियों के सादात्म्य से युक्त रूपाद्यात्मक एक क्षणिक भाव का प्रस्तित्व मानने पर प्रनेकान्तवाद के शरण में पड जाना होगा ! शक्ति और शक्तिमान में प्रमेव मान कर यदि इस संकट से बचने की चेष्टा की जायगी तो यह भी सफल नहीं हो सकती है क्योंकि उस वशा में यह उपादान कारण है और यह सहकारी कारण है इस प्रकार का विभाग न हो सकेगा । क्योंकि उपादानशक्ति और सहकारी शक्ति रूप स्वभाव भी श्राश्रय से प्रभिन्न होने के कारण तब्से भिन्न होता है इस न्याय से एक हो जायगा ||८०||
८१ वीं कारिका में उपादान और सहकारी कारण के बौद्धाभिमत काल्पनिक विभाग का परिहार किया गया है
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८ ]
[ शा. वा० समुहषय स्त०४-रलो. ८२
अबुद्धिजनकव्यावृश्या-'अबुद्धिजनकेभ्यो व्यावृत्तः' इति कृत्वा, चतु-यदि बुद्धिप्रसाधकः थु बुद्ध्यु पधायकः रूपक्षणो विकल्प्यते, तदा हि निश्चितम् , अबुद्धित्रात्-बुद्धिभिन्नत्वात् , कथं स रूपस्य साधकः ? । न ह्यबुद्भिजनकव्यावृत्तमयुद्धिजनक भवतीति ॥८२॥ पर आह
पा शियावृशिदे मालिको मधु ।
उच्यते व्यवहारार्थमेकरूपोऽपि तत्वतः ॥२॥ स हि-रूपक्षणः, 'ननु' इति निश्चये, तत्त्वत:=परमार्थतः, एकरूपोऽपिएकस्वभावोऽपि, व्यवहारार्थं व्यावृत्तिभेदेन अरूपजनकादिव्यावृत्तिविशेषेण, रूपादिजनक उच्यते, विरुद्धरूपस्यैकवाभावेऽपि विभिन्नरूपेण कल्पनाया अप्रतिरोधात् , कल्पनायां विषयसत्यस्याऽनियामकत्वादिति भावः ॥८२॥ अवाह
अगम्धजननव्यावृत्त्यायं कस्मान गन्धकृत ।
उच्यते, तदभावाच्चद्भायोऽन्यस्याः प्रसज्यते ||८३॥ अगन्धजननव्यावृत्त्या अयं रूपक्षणः, व्यवहारार्थमेव कस्माद् न गन्धकृदुच्यते ? अगन्धजननच्यावृत्यभावात् चंद्-यदि नोच्यते, तदाऽन्यस्याः -अबुद्धिजनकव्यावृतेः भाव:पारमार्थिकसत्त्वं प्रसज्यते ॥३॥ ततः किमित्याह
बौद्ध का अभिमत यह है कि रूपक्षण में प्रवद्धिजनकव्यावृत्ति है जिसका अर्थ है-बुद्धिभिन्नजनकच्यावृत्ति, प्रत एव बुद्धिभिन्न रूप को उत्पन्न करने में कोई बाधा न होने से वह रूपमित्रबुद्धि का उत्पादक होता है।'-किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि वह बुद्धि भिन्न जनक व्यावृत्त होगा तो वह बुद्धिभिन्न रूप का जनक कैसे होगा क्योंकि बुद्धिभिन्नजनकच्यावृत्त बुद्धिभिन्नजनक नहीं हो सकता ॥१॥
८२ वों कारिका में बौद्ध की और से उक्त प्रतिषेध का समाधान प्रदर्शित किया गया है
बौद्ध का समाधान यह है कि रूपक्षण वस्तुतः एकस्वभाव ही है । केवल व्यवहार के लिये उस में व्यावृत्तिभेद को कल्पना है, अतः जैसे उस में अबुद्धिजनकल्यावृत्ति कल्पित है उसी प्रकार उस में प्ररूपजनकव्यावृत्ति भी कल्पित है। इस दूसरी प्यावृत्ति से वह रूप का भी जनक कहा जाता है । एकस्वमाद वस्तु में परस्पर विरुद्ध विभिन्न रूप से कल्पना करने में कोई बाधा नहीं होती, क्योंकि कल्पना में विषय की सत्ता नियामक नहीं होती। ८२॥
८३ वीं कारिका में बौद्ध के उपयुक्त समाधान का निरसन किया गया है
बौद्ध के उक्त समाधान के सम्बन्ध में ग्रन्थकार का कहना है कि जैसे रूप क्षण में अरूपजनकव्यावति को कल्पना कर के उसे रूपजनक कहा जाता है उसी प्रकार प्रगन्धजनक घ्यावृति की कल्पना कर के उसे गन्धजनक क्यों नहीं कहा जाता? यदि इस के उत्तर में बौद्ध को मौर से यह
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० ० टीका-हिन्दीविवेचना ]
। १४६
एच न्यावत्तिभेदेऽपि तस्यानेकस्वभावता।
भावानापने सा चायुक्ताभ्युपगमक्षनेः ॥८॥ एवम् उक्तग्रकारेण, त्यावृत्तिभेदेऽपि विभिन्न कारणतावच्छेदके भेदविशेषेऽप्यङ्गीक्रियमाण, तस्य-वस्तुनः, बलादनेकस्वभावताऽऽपद्यते । सा चाऽभ्युपगमक्षतेः प्रतिज्ञातविरोधात , अयुक्ता । अथ 'आरोपे सति०'...इत्यादिन्यायेन रूपक्षणस्याऽगन्धजनकल्यव्यावृत्या गन्धजनकत्वाकल्पनायामप्यबुद्धिजनकव्यावृत्यादिना बुद्धयादिजनकत्वकल्पनाद् न दोष इति चेत् ? न, रूपत्वादिनाऽन्वय-व्यतिरेकग्रहेण रूपत्वादिनैव रूपादेवु द्वयादिहेतुन्चौचित्यात् । इतरव्यावृत्ते? ग्रहत्त्वाद् , कल्पनातः कारणतावच्छेदकत्वांश इव कारणतांशेऽप्यनाश्वासान् , स्वलक्षणाऽसंस्पर्शेऽपि कल्पनाप्रसरात , व्यावृत्तिभेदस्थापि स्वलक्षणसंस्पर्श च व्यावृत्तिभेदानुम. तनानाक्षणवृत्तित्वस्यापि स्वलक्षणसंस्पर्शप्रसङ्गात् । व्यावृत्तिभेदेन कारणक्षणानां कार्यक्षणानां चानुगमे एकैकाहविनिर्मोकाम्यामविनिगमात् , विशिष्य हेतुताग्रहे चोपायाभावादिति अन्यत्र विस्तरः ॥४॥
कहा जाय कि रूपक्षण में अगन्धजनकम्याधत्ति का प्रभाव होने से उसे गन्धजनक नहीं कहा जाता तब तो ऐसा कहने का अर्थ यह हुमा कि उस में प्ररूपजनकल्यायत्ति ग्रादि का माव है, यानी इन दोनों का पारमार्थिक अस्तित्व प्रसक्त होगा ॥३॥ ८४ वो कारिका में उक्त प्रसक्ति से बौद्ध को होनेवाली अनिष्टापत्ति का प्रदर्शन किया गया है
[ एकान्त एकस्वभावता मानने में विरोध ] उक्त रोति से रूपक्षण में यदि अबुद्धिजनकल्यावृत्ति प्रौर अरूपजनकच्यावत्ति जैसे विभिन्न कारणतावच्छेदक की पारमार्थिक सत्ता मानने पर रूपक्षण में अनेकस्वभावता को बलात् प्रापत्ति होगी, जो बौद्ध के लिये प्रयुक्त है। क्योंकि एकवस्तु में अनेकस्वभावता को प्रसक्ति होने पर बौद्ध के इस अभ्युपगम-इस प्रतिज्ञा का-कि 'वस्तु एकान्तत: एकस्व माव ही होती है अथवा सर्वस्वभावविनिमुक्त स्वलक्षण होतो है'-विरोध होगा। इसके उत्तर में पुनः बौद्ध की पोर से यदि यह कहा जाय कि-"प्रारोपे सति निमित्तानुसरणम् , न तु निमित्तमस्तीति प्रारोप;" यह न्याय है, इसके अनुसार जो प्रारोप प्रामाणिक एवं सप्रयोजन हो उसके लिये तो निमित्त की कल्पना उचित है, किन्तु निमित्त की कल्पना करके नैमित्तिक (प्रारोप) को कल्पना नहीं की जा सकती । अतः रूपक्षण में अगन्धजनकव्यावृत्ति की कल्पना करके गन्धजनफस्व की कल्पना करना न्याययुक्त नहीं है फिर भी अबुद्धिजनकल्यावत्ति की कल्पना करके बुद्धिजनकत्व और रूपजनकल्यावृत्ति को कल्पना करके रूपजनकत्व को कल्पना करने में कोई दोष नहीं है । प्राशय यह है कि रूपक्षण में बुद्धिजनकत्व और रूपजनकत्व का व्यवहार लोकसिद्ध है प्रत एव उसकी उपपत्ति के लिये अबुद्धिजनकव्यावृत्ति और अरूपजनकव्यावृत्ति की कल्पना तो न्यायसंगत है, किन्तु रूपक्षण में गम्घ
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५. ]
[ शा.बा समुच्चय स्त० ४.लो०५४ .
जनकत्व व्यवहार लोकसिद्ध नहीं है प्रतः उसमें प्रगन्धजनकव्यावत्ति रूप निमित्त की कल्पना करके गन्धजनकत्य की कल्पना न्याय संगत नहीं हो सकतो"-तो यह ठीक नहीं है
[ अरूपजनक व्यावृत्ति प्रादि रूपसे कारणता का प्रसंभव ] क्योंकि बुद्धि प्रादि के साथ रूपादि का अन्वय-यतिरेक ज्ञान रूपत्वादि धर्मों से ही है । अर्थात् 'रुपे सति बद्धि रूपं च अश्यते-रूपेऽसति ते न जायते' इसी प्रकार का प्रन्वयव्यतिरेक झान होता है, इसलिये बुद्धि प्रादि के प्रति रूप प्रावि को रूपत्वादि धर्मों से ही कारणता मानना उचित है. मरूपजनकल्यावृत्ति प्रयवा अबुद्धिजनकच्यावृत्ति रूपेण कारणता उचित नहीं है । क्योंकि उक्तव्यावृत्तियां प्ररूपजनक और अबुद्धिजनक प्रादि जो साध्य ज्ञान उनको सापेक्ष होने से दुर्जेय है । दूसरी बात यह है-यदि उक्त ध्यात्तियों में काल्पनिक कारणतावच्छेदकत्व को माना जायगा तो कारणता-अंश में प्रविश्वास हो जायगा । तात्पर्य यह है कि कारणता का ज्ञान कारणतावच्छेदक के ज्ञान के प्रधान होता है प्रत:कारणतावच्छेदक का ज्ञान प्रगर काल्पनिक होगा तो कारणता का भी ज्ञान काल्पनिक ही होगा। इसलिये रूपक्षण में रूप और बुद्धि प्रादि को कारणता मी काल्पनिक हो जायगी. क्योंकि पाप के मत में स्वलक्षण यथार्थ वस्तु के सम्बन्ध के बिना भी कल्पना हो सकती है। अत: रूपक्षण से असम्बद्ध होने पर भी कारणता कल्पित हो सकती है । यदि स्वलक्षण वस्तु के साथ कारणता के सम्बन्ध की उपपत्ति करने के लिये स्वलक्षण के साथ व्यावृति विशेष का भी सम्बन्ध माना जायगा तो स्वलक्षणवस्तु में व्यावृत्तिभेदों द्वारा अनुगत किये हुए अनेकक्षणवृत्तित्व का सम्बन्ध हो जायगा। फलतः स्वलक्षण वस्तु में अनेकक्षणसम्बन्ध रूप स्थायित्व को प्रसक्ति होने से क्षणिकत्व सिद्धान्त को हानि हो जायगो । प्राशय यह है कि बौद्ध को स्थलक्षण सत्य वस्तु को क्षणिकता अर्थात् एकक्षणमात्र का सम्बन्ध ही मान्य है अनेक क्षणों का सम्बन्ध मान्य नहीं है । काल्पनिक रूपजनमध्यावति प्रादि से स्वलक्षणरूप क्षण में प्ररूपजनकत्व मान्य होता है उसी प्रकार प्रतद्ववृत्तिव्यावृत्ति अर्थात् तद्वस्तु से भिन्न वस्तु के प्रधिकरण क्षरण में वर्तमान तडिन्न का मेव' रूप से स्वलक्षण तवस्तु में अनेकक्षणत्तित्व मानकर स्थिरत्व का पापादान हो सकता है। किन्तु जिस स्वलक्षण बस्तु में जिस क्षण का सम्बन्ध मान्य है उस क्षण और उससे भिन्न अनेक क्षणों में एक व्यावृत्ति भेव-एक प्रतवघ्यावृत्ति मान कर यह कहा जा सकेगा कि स्वलक्षण तद्वस्तु में प्रतद्वयावृत्तक्षरवृत्तित्वरूप अनेकक्षणवृत्तित्व है जो बौद्ध को मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि क्षरणों का कोई अनुगमक धर्म मान्य न होने से स्वलक्षणवस्तु में बौद्धको प्रननगतक्षण का सम्बन्ध हो स्वीकार्य है।
इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि कारणक्षण और कार्यक्षरणों का मिन्न भिन्न च्यात्तियों से अनुगम करके कार्य-कारण भाव बनाने पर उन व्यावत्तियों से अनुगत होने वाले प्रव्यबहित कार्यक्षणों और कारणक्षणों को ग्रहण कर और उन व्यावृत्तियों से अनुगत होने वाले व्यवहित कार्यक्षण और कारणक्षरण का विनिर्मोक स्याग कर कायंक्षण और कारणक्षणों में उत्पाद्य-उत्पादक मात्र की कल्पना में कोई विनिगमना नहीं हो सकेगी क्योंकि प्रत्यहित कार्यकारण क्षणों में विशेष रूप से कार्यकारणभाव के शान का कोई विनिगमक नहीं हो सकेगा क्योंकि प्रध्यवाहित कार्यकारण क्षणों में विशेष रूप से कार्यकारणभाव के ज्ञान का कोई उपाय नहीं है। यदि उत्पाध-उत्पादक व्यवितों से विशेष रूप से कार्यकारणभावग्रह का कोई उपाय होता तो यह कार्य कारण भाव ही उनके उत्पा-उत्पादक माब में विनिगमक हो जाता, किन्तु ऐसा कोई उपाय नहीं है ।1८४॥
बौद्ध के साथ प्रस्तुत चर्चा में ८५ वी कारिका में बौद्ध के प्रति एक अन्यदोष बताया गया है
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० क० टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ १५१
विभिन्नार्यजस्वभावाशक्षणातयः
I
यदि ज्ञानेऽपि भेदः स्वान्न चेद् भेदो न युज्यते ॥ ८५ ॥ दोषान्तरमाह - विभिन्न कार्य जननस्वभावाश्रक्षगदयः कारणविशेषा यदीष्यन्ते तदा तज्जन्ये ज्ञानेऽपि भेदः स्यात् । न चेद् भिन्नकार्यजनन स्वभावत्वं तदा रूप- बुद्धयादेरपि भेदो न युज्यते । 'प्रत्येक' विभिन्नकार्यजननस्वभावत्वादयमदोष' इति चेत् न, तथाप्येकत्र कार्ये प्रत्येकं विभेदापत्तेः ||२५|| प्रस्तुतपक्षमुपसंहरति
सामग्रयपेक्षयाप्येवं सर्वथा नोपपद्यते । यहेतुहेतुमद्भावस्तदेषाऽप्युक्तिमात्रकम् ॥८६॥
सर्वथा हेतुहेतुमद्भाव
एवम् उक्तयुक्त्या सामाग्रयपेक्षयापि, यद्यस्मात् कारणात्। नोपपद्यते, तत् = तस्मात् एषा =साममयपि, उक्ति मात्रकं प्रकृतपसाऽसाधिका ॥८६॥
"
[ चक्ष आदि में भिकार्य जननस्वभाव होने में प्रपत्ति ]
बौद्ध चक्षु-रूप-प्रालोकादि को अपने सन्तान में चक्षु-रूप श्रादि का जनक और अन्य सन्तान में बुद्धि का जनक मानते हैं । अतः उनकी मान्यता का यह निष्कर्ष है कि चक्षु-रूप प्रावि कारणों में विभिन्न कार्यों को उत्पन्न करने का स्वभाव है। फलतः उनके मत जन कारणों से उत्पन्न होने वाला ज्ञान भी एक न होकर विभिन्न हो जायगा। प्रर्थात् उनसे एक ज्ञानव्यक्ति को उत्पत्ति न होकर विभिन्न ज्ञानव्यक्तियों की उत्पत्ति का प्रसंग होता । यदि इस प्रापत्ति के भय से वे चक्षु रूप आदि में विभिन्न कार्यों को उत्सन्न करने का स्वभाव मानना अस्वीकार कर देंगे तो इसका अथ होगा कि उन कारणों में प्रभिन्न काय को ही उत्पन्न करने का स्वभाव है और उनसे उत्पन्न होने वाले रूपबुद्धयावि में मी भेद न हो सकेगा ।
इसके उत्तर में बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि चक्षु रूप प्रादि में विभिन्न जातीय एक कार्य को उत्पन्न करने का स्वभाव है अतः न अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति का प्रसंग होगा और न रूप-बुद्धि आदि में एकजातीयता का ही प्रसंग होगा । अतः उक्त दोष को श्रषसर नहीं मोल सकता' तो यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि कारण में विभिन्न जातीय एक-एक कार्य को उत्पन्न करने का स्वभाव माना जायगा तो प्रत्येक कार्य में भी विभिन्नजातीयता की प्रसवित होने से भिन्नता की श्रापत्ति होगी और उसका पर्यवसान या तो श्रनेकान्तवाद में होगा या तो शून्यवाद में होगा ।
कहने का आशय यह है कि यदि कारण भिन्न जातीय कार्य को उत्पन्न करेंगे तो उनसे जो भी कार्य उत्पन्न होगा उनमें विभिन्न जातियां होगी, जैसे उन कारणों से रूप एवं ज्ञान उत्पन्न होता है। तो ये दोनों उमयजातीय होंगे अर्थात् रूप ज्ञानजातीय होगा और ज्ञान रूपजातीय होगा क्योंकि ऐसा मानने पर ही उनमें मिश्रजातीयता होगी । ऐसो स्थिति में यदि उन जातियों में कश्वित् अविरोध मान कर उन जातीयों से अनुविद्ध एकैक कार्य व्यक्ति को सता मानी जायगी तो अनेकान्तवाद का प्रसंग होगा और यदि उन जातियों में सर्वथा विरोध ही होगा तो दोनों जातियाँ किसी भी एक कार्य व्यक्ति में नहीं बैठ सकेगी। फलतः शून्यवाथ का प्रसंग होगा ६५॥
६६ वीं वारिका में ६६ वीं कारिका द्वारा प्रस्तुत सामग्री पक्ष का उपसंहार किया गया है—
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२ ]
[ शा. या. समुच्चय स्त० ४ श्लो०८७ अभ्युपगम्यापि हेतु-हेतुमद्भावं दोषमाह
नानात्यायाधनाच्चेह कुतः स्वकृतवेदनम् ? ।
सत्यप्यस्मिन्मियोऽत्यन्तत दादिति चिस्यताम् ॥८॥ च-पुनः इह-मणिकत्वपक्षे सत्ययस्मिन्-हेतु हेतुमद्भावे पूर्वोत्तरक्षणरूपकत. भोक्त्रोः, मिथ: परस्परम् , अन्वयाभावेनाऽत्यन्तभेदात् , स्वकृतवेदनम् स्वार्जितहिताहित. का फलानुभवः कुतः ? इति चिन्त्यताम्-माध्यस्थ्यमवलम्ब्य विमृश्यताम् ।।८७॥
उक्त युक्ति से सामग्री को अपेक्षा कार्य कारण भाव नहीं बन सकता । इसलिये सामग्री की चर्चा मो कोरी चर्चा ही है । अतः वह मो प्रकृतपक्ष-असत् कार्थवाद एवं भायमान के क्षरिएकतावाद की साधक नहीं हो सकती ।।६।।
८७ वी कारिका में कार्य कारण क्षणों में विशेष रूप से कार्य कारण भाव का अभ्युपगम करने पर भी बौद्ध पक्ष में दोष प्रशित किया गया है
(विशेष रूप से कार्य कारण भाववादी बौद्ध के मत में दोष) बौद्धबादी:-अव्यवहित पूर्वोत्तरक्षणों में विशेष रूप से कार्य कारण भाव का हम अभ्युपगम करते है और इस अभ्युपगम में यह युक्ति है कि उपधेय-उपधायक वस्तुओं में विशेष रूप से कार्यकारण माव प्राय: सभी स्थिश्वावियों को भी मानना प्रावश्यक होता है । अन्यथा, केवल सामान्य कार्य: कारण भाव के बल से ही विशेष कारण से विशेष कार्य की उत्पत्ति मानने पर यह प्रश्न ऊठ सकता है कि जिन तन्तु व्यक्तियों से एक पट व्यक्ति की उत्पत्ति होती है उन तन्तु व्यक्तियों से दूसरे पट व्यक्तियों की उत्पत्ति क्यों नहीं होती ! क्योंकि पटत्व-तन्तुत्व रूप से कार्य कारण भाव के आधार पर समी तन्तु में सभी पट की जनकता सिद्ध होती है। इस प्रश्न के उत्तर में यही कहना होगा की तत्तत्पर के प्रति तत्तत्तन्तु को विशेषरूप से कारणता है। प्रतः केवल सामान्य कार्य कारण भाव के बल पर उक्त आपत्ति नहीं ऊठायी जा सकती। अतः इस विशेष कार्य कारण भाव का ज्ञान कैसे हो सकता है-इस प्रश्न का उत्तर देने का मार केवल बौद्धों पर ही नहीं किन्तु कार्य कारण वादो सभो दार्शनिकों पर है और यह उत्तर यही है कि विशेष कारण के रहने पर विशेष कार्य का उदय और विशेष कारण के प्रभाव में विशेष कार्य का अनुवय इस प्रकार विशेष कार्य-कारणों में अन्वययतिरेक ज्ञान से विशेष कार्य कारण भाव का ज्ञान होता है । मले यह कार्य कारण मात्र कार्यार्थी के कारणोपादान में प्रवृत्ति का नियामक न हो किन्तु इसके होने में बाधा नहीं है । अत एव जो वोष बौद्ध पक्ष में दिया गया वह उचित नहीं है ।"-बौद्ध के इस अभ्युपगम को दृष्टिगत रखते हुये ग्रन्थकार का यह कहना है कि-क्षणिकत्वपक्ष में विशेष रूप से कार्य कारण भाव सम्भव होने पर मो पूर्व क्षण रूप कर्ता और उत्तरक्षणरूप भोक्ता में प्रत्यन्त भेद होगा, क्योंकि उनमें प्रत्यन्त भेव का बाधक किसी प्रकार का अन्वय क्षणिकत्ववादी के मत में नहीं होता और जब कर्ता और भोक्ता में प्रत्यन्त मेद होगा तो कर्ता को अपने अजित शुभ अशुभ कर्मों के फल का अनुभव कैसे हो सकेगा ? इस विषय पर तटस्थ होकर बौद्ध को विचार करने की प्राथश्यकता है । तात्पर्य यह है कि बौद्ध मत में इस प्रश्न का समाधान सम्भव न होने से वह मत उपादेय नहीं हो सकता ॥२७॥
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० ० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ १५३
वास्यवासकभावाच्चन्नतत्तस्याप्यसंभवात् ।
असंम्भवः कथं न्वस्प, विकल्पानुपपतितः ॥८८|| पर आह-वास्यवासकभावात् स्वकृतवेदनं युज्यते, 'स्वत्रासककृतं स्वेन भुज्यते' इति नियमात् स्ववासककृते स्वकृतत्वव्यवहाराच्च । अत्रोत्तरम् इति चेत् ? नतदेवम् ,
तस्यापि वास्यबासकमावस्यापि असंभवात् । पर आह-'नु' इति चित,कधमस्य:वास्यबासकभावस्य, असम्भवः । अत्रोत्तरम्-विकल्पानुपपत्तित: विकल्प्यमानस्य सतस्तत्वनीत्याऽघटमानत्वात् ॥८८||
वासकाद्वासना भिन्नाभिन्ना * वा भवेणदि ।
भिन्ना स्वयं तया शून्यो नैवान्यं वासयत्यसौ ।।८९|| तथाहि-वासकात सकाशाद् वासना भिन्ना वा भवेत् , अभिन्ना वा १, इति द्वयी गतिः । तत्र यदि वासका वासना भिन्ना, तदा स्वयं तया शून्योऽसौ वासका क्षण: नैवान्यं बासयेत् , अन्पक्षणाऽविशेषात् ॥६॥
८८ वीं कारिका में उक्त अनुपपत्ति के विरुद्ध बौद्ध अभिमत समाधान को प्रस्तुत कर उसके निराकरण का संकेत किया गया है
[ वास्य-वासक भाव में विकल्पों को अनुपपत्ति ] उक्त सम्बन्ध में बौद्ध की यह मान्यता है कि पूर्वोत्तर कर्तृ और मोक्तृक्षणों में वास्य-वासक भाव होता है और उसी के बल पर स्वकृत कर्मों का फलोपमोग होता है। अर्थात् जो जिस से वासित होता है वह उस के किये कर्मों का भोक्ता होता है और उसका किया हुमा कर्म मोक्तृकृत कहा जाता है ।
कहने का प्राशय यह है कि "जब कोई क्षणजीवी प्राणी कोई शुभ या अशुभ कर्म करता है तो उन कर्मों का भला या बुरा संस्कार पुण्य-पाय उत्पन्न होता है, जिसे वासना कहा जाता है। इसी से उस कर्ता प्राणी के उत्तर क्षण में उत्पन्न होनेवाला दूसराप्राणी वासित हो जाता है । इसप्रकार यह संस्कार उत्पत्ति के माध्यम से प्रवाहित होता हुया उस क्षणजीवी प्राणो तक पहुंचता है जिसे उन कर्मों का फल भोग होता है । एवं उन कर्मों के फल का भोक्ता होने से ही उसे उन कर्मों का मोक्ता और उन कर्मों को उसो के द्वारा किया हुआ माना जाता है" । बौद्धों के इस कथन का उत्तर देते हुए ग्रन्थकार ने यह कहा है कि-भाव मात्र के क्षणिकता पक्ष में वास्य-वासक माय भी सम्भव नहीं है । यदि बौद्ध प्रश्न करे कि ऐसा क्यों ? तो इसके उत्तर में ग्रन्यकार ने सम्मायित पक्षों की अनुपपत्ति को बताया है। अर्यात् यह कहा है कि माव को क्षणिकता पक्ष में वास्य-वासक माव की उपपत्ति के लिये जो भी विकल्प सम्भावित हो सकते हैं-युक्तिपूर्वक उस का उपपावन प्रशक्य है ।।८।।
८६ यों कारिका में पूर्वकारिका में संकेतित अनुपपत्ति का उपपादन किया गया है --
* क्रियमाणेऽत्र संधी सप्ताक्षरत्वप्रसङ्गेन छन्दोहानि:, संधेरविधाने च संहितैकपदबत् 'पादेन्तिवजम्' इति काध्यसमयातिकमः इति 'मा वाभिन्ना' इति पाटपचेत् स्यात् सुसंगतः स्यात् ।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४ ]
[ शा. वा. समुचय स्तः ४ श्लोक १०
अथाभिना न संक्रान्तिरस्या वासकरूपवत् । वास्ये सत्यां च संसिडिई व्यांशस्य प्रजायते ||१०||
अथाभिन्ना वासकरणादु वासना तदा तस्या वासकरूपवद् निरन्वयविनष्टत्वेन चास्ये संक्रान्तिरन्ययरूपा न स्यात् । सत्यां च अभ्युपगतायां च संक्रान्तौ द्रव्यांशस्य संसिद्धिः जागते अन्य कान्ति विनैव वासना भविष्यतीत्यत आह
·
द्र असत्यामपि संक्रान्तौ वासयत्येव चेदसौ । अतिप्रसङ्गः स्यादेवं स च न्यायवहिष्कृतः ॥ ९१ ॥
असत्यामपि सक्रान्तौ वासकसंवेधरूपायाम् चेदसौ=वासकक्षणः वासयत्येव वाम्यम्, दैवं सति अतिप्रसङ्गः स्यात् अन्यस्यापि वासनप्रसङ्गात् सत्र न्याय बहिष्कृतः =
1
युक्तिवाधितः ॥९१॥
H
"
[ वासक से वासना भिन्न होने पर दोष ]
बौद्ध- पूर्णक्षणजीवी प्राणी अपने द्वितीयक्षण में उत्पन्न होनेवाले दूसरे क्षणजीवी प्राणी को अपने कर्मों के संस्कार से वासित करता है। इस प्रकार पूर्वक्षण वासक और उतरक्षण वास्य होता है और यह वास्यवासक भाव जिस वस्तु से होता है उसे वासना कहा जाता है। पुण्य-पाप श्रादि श्रन्य शब्दों से भी उसका व्यवहार होता है । बौद्ध को इस मान्यता के सम्बन्ध में दो विकल्प प्रस्तुत किये जा सकते हैं । (१) एक यह कि पूर्वक्षण जिस वासना से उत्तरक्षण को वासित करता है वह वासना वासक क्षण से भिन्न है अथवा (२) वासकक्षण से अभिन्न है ? इन विकल्पों में प्रथम विकल्प स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि यदि वासना वासक से भिन्न होगी तो वासक स्वयं उस वासना से शून्य होगा, ऐसी दशा में जब स्वयं उसके पास ही वासित करने का साधन न रहेगा तो वह दूसरे को बासित कैसे कर सकेगा ? क्योंकि वह भी वासनाहीन अन्य क्षणों के समान हो होगा ||८||
६० व कारिका में दूसरे विकल्प को अनुपपत्ति बतायी गई है।
[ बासक वासना प्रभेव पक्ष में द्रव्य की सिद्धि ]
afa वासना वासकक्षण से प्रभिन्न होगी तो वासक का नाश होने पर स्वयं भी निरम्य नष्ट हो जायगी। इसलिये वास्य के उत्तरक्षण में उसका ( वासना का ) अन्वय रूप संक्रमण न हो सकेगा । धतः उस से उत्तरक्षण का वासित होना सम्भव न होगा । यदि उत्तरक्षण में वासना की संक्रान्ति मानी जायगी तो उस में कोई अंश ऐसा मानना होगा जो पूर्वोत्तर दोनों क्षणों में अनुगत हो, जिस के द्वारा वासना की संक्रान्ति हो सकेगी । यह अंश अन्वयात्मक होगा, क्योंकि इस की अनुगति पूर्वक्षण और उत्तरक्षण दोनों में है । इसीलिये वह द्रव्य नाम से भी संज्ञात हो सकेगा । क्योंकि 'द्रवति= विभिलक्षणेषु षावति यत्, तद् द्रव्यं' और 'धनु' = पूर्व क्षणसम्बन्धानन्तरं उत्तरक्षणे 'एति गच्छति' इस व्युत्पत्ति से द्रव्य और प्रन्वय दोनों शब्दों का अर्थ समान होता है ।
६१ वीं कारिका में संक्रान्ति के बिना भी वासना की सम्भावना का निरसन किया गया है
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० का टीका-हिन्दीविवेचन ]
[ १५५ अथ नेयं वासना वासकसंसर्गरूपा, किन्तु मृगमदक्षण परम्परावत् स्वहेतुप्रसूततत्तक्षणपरम्परारूपैच, इत्यभिप्रायमाकलय्याभ्युपगतमप्यसंगतत्वात् परित्यजभाह
वास्यवासकभावश्च न हेतुफलभावतः ।
तत्त्वतोऽन्य इति न्यायात्स चायुक्तो निदर्शितः ॥१२॥ चास्यवापकभावश्चार्य भवत्कल्पितो न हेतुफलभावतः सकाशात तत्वतोऽन्यः, किन्तु स एव । स च न्यायात-सतर्कात् , अयुक्तो निदर्शितः ॥१२॥
[ संक्रमण के विना वासना को परम्परा का प्रसंभव ] यदि वासना का संक्रमण अर्थात् वासक पूर्वक्षण का उत्तरक्षण में किसी प्रकार का संवेध अन्वय के प्रभाव में भी माना जायगा कि वासपूर्वक्षण उत्तरक्षण को वासित कर सकता है तो ऐसा मानने पर प्रतिप्रसंग होगा, क्योंकि फिर 'वह अपने सन्तानवर्तो क्षण को ही दासित करेगा और दूसरे को नहीं इसमें कोई युक्ति न होगी । फलत: एक क्षरणजीवीप्राणी के द्वारा किये गये कर्म से जन्य वासना से अन्य सन्तानवर्ती क्षणों भी वासित होने से एक सन्तान द्वारा कृत कर्म के फल भोग की दूसरे सन्तान जी प्रसारित होगी।
वों कारिका में वास्य-वासक भाव के सम्बन्ध में बौद्धोक्त एक अन्य कथन का निराकरण किया गया है
(परम्परा के आधार पर वास्य यासक भाव की अनुपपत्ति) बौद्धों का यह कहना है कि वासना 'चास्य में वासना का अन्वय' रूप नहीं है, किन्तु जैसे मगमव (कस्तुरीक्षण प्रपने उपर रखे हुये पट के विभिन्न स्तरों में नये नये मृगमद क्षण को उत्पन्न कर सभी को बासित करता है, और उससे उत्पन्न होने वाली कस्तुरीक्षणों की परम्परा ही कस्तुरी द्वारा की जाने वाली वासना कही जाती है, उसी प्रकार एक सन्तान का घटक पूर्वक्षणजीयो प्राणी जब कोई कर्म करता है और उस कर्म से कोई शुभाशुभ वासना उत्पन्न होती है तो उस वासना से मी वासना क्षयों की परम्परा प्रादुर्भूत होती है और यह तब तक होती रहती है जब तक उस सन्तान के प्राणो द्वारा उस कर्म के फल का अनुभव नहीं हो जाता । इस प्रकार पूर्वोत्तर क्षणों में वासनाक्षणपरम्परा रूप वासना के द्वारा उनमें वास्य-वासक भाव सम्मय हो सकता है। इसके लिये किसी अंश को अपेक्षा भी नहीं है। किन्तु इसके विरुद्ध ग्रन्थकार का कहना यह है कि बीजों द्वारा कल्पित यह वास्यवासक भाव पूर्वोत्तर क्षणों के कार्य कारण भाव से वस्तुत: भिन्न नहीं है। और पहले तर्कसिद्ध प्रतिपादन किया जा चूका है कि पूर्वोत्तर क्षणों में कार्यकारणभाव युक्तिसंगत नहीं है । १६॥
९३ वीं कारिका में कार्य कारण मात्र के सम्बन्ध में बौद्ध ने सिंहावलोकन न्याय से अपने मन्तव्य को प्रर्थात् जैसे सिंह प्रागे बढने से पूर्व कमी कमी पीछे देख लेता है उसी प्रकार कार्य कारण भाव के सम्बन्ध में जो चर्चा की जा चुकी है और उसमें जो दोष बताया जा चुका है उस प्रोर दृष्टि जाने पर कार्य कारण भाव के समर्थन में बौद्ध का एक नया मन्तब्य प्रस्तुत होता है। प्रस्तुत कारिका में उसो का प्रतिपादन किया गया है
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६ ]
[शा.वा. समुच्चय स्त०४-रलो०६३
परः सिंहावलोकितेन स्वाभिप्रायमाह
तसज्जननस्वभावं जन्यभावं तथा परम् ।
अतः स्वभावनियमान्नायुक्तः स कदाचन ॥९॥ तत्-कारणं मृदादि, तज्जननस्वभाव-घटादिजनमम्वभावम् , तथा परं-घटादि, जन्यभावं-मृदादिजन्यस्वभावम् । अतः स्वभावनियमाद् हेतु-फलयोः सः हेतु-फलभावः न कदाचनाऽयुक्तः, अन्त्यावस्थायां सर्वेषां प्रत्येकमभिमतकायोत्पादकत्वात् , अन्यमंनिधेस्तु स्वहेतुप्रत्ययसामर्थ्यनिमित्तत्वेनोपालम्मानहत्वात् । न च भिन्नकार्योत्पत्तिः, सर्वेषां तस्यैव जनने सामर्थ्यात् । अथवा, मृदादिक्षण एव शक्तिरूपा घटादिहेतुना वास्तवी, अन्यत्र तु पौर्वापर्यनियममात्रम्, इति न विभागाभावादिदोप इति ।।६३॥
उभयोग्रहणाभाव न तथाभावकल्पनम् ।
सयोाग्य न चकेन द्वयोहणमस्ति वः ॥१४॥ (स्वभाव से हो घट-मिट्टी के जन्य जनक भाव की सिद्धि-बौद्ध) बोद्ध का कहना है कि मिट्टी प्रादि कारणों में घटादि कार्यों को उत्पन्न करने का स्वभाव होता है और घटादि कार्यों में मिट्टी आदि कारणों से ही उत्पन्न होने का स्वभाव होता है । इस स्वभावमूक नियम से कार्य और कारणों में कार्य-कारणभाव उपपन्न हो सकता है प्रतः क्षणिकतापक्ष में कार्य कारण भाव को प्रयुक्त बताना ठीक नहीं है । जिन कारण क्षणों के संनिधान होने पर किसी अभिमत कार्य की उत्पत्ति होती है वे समी कारण क्षण अपनी अन्तिम अवस्था में अर्थात् अपने पूर्व सन्तानों से पृथक होने की अवस्था में सब मिलकर अभिमत कार्य को उत्पन्न करते हैं। 'दण्ड-चकादि कारणों का संनिधान मृत्तिका में ही क्यों होता है, तन्तुमादि में भी क्यों नहीं होता जिस से वे तन्तु के संनिधान में पट के भी उत्पादक हो सके ?' इस प्रकार का उपालम्म नहीं दिया जा सकता, क्योंकि दंड चनादि अन्य कारणों का सन्निधान प्राकस्मिक नहीं होता किन्तु हेतु (उपादान कारण) प्रौर प्रत्यय (निमित्त कारण) के सामथ्र्य से होता है। दंड-चक्रादि के खेत मौर प्रत्ययों में ऐसा सामथ्र्य है जिससे उनका संनिधान मिट्टी में ही होता है तन्तु प्रादि में नहीं होता है। मिट्टी-दंड-चकादि विभिन्न कारणों से घटादिरूप कार्य की उत्पत्ति मानने पर विभिन्न घटादि रूप कार्य-उत्पति की मापत्ति मो नहीं दी जा सकती, क्योंकि उन सभी कारणों में उस एक ही कार्य के उत्पादन का सामभ्यं होता है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि शक्तिरूप घट को कारणता मिट्टी में ही होतो है-दंड चक्रादि के साथ उसके पौर्वापर्य का नियम मात्र होता है, इसीलिये मिट्टी घट का उपादान कारण है और दंडादि निमित्त कारण है' इस विभाग के प्रभाषादि दोषों की प्रसक्ति नहीं हो सकती क्योंकि शक्तिरूप कारणता उपादानव्यवहार का और पौर्वापर्य नियम मात्र निमित्तकारण व्यवहार का सम्पादक है ॥६॥
६४ वीं कारिका में बौद्ध के पूर्व कारिका उक्त सामाधान का प्रत्याख्यान किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० ३० टीका और हिन्दी विवेचना ]
अत्राह-उभयोः हेतु-फलयोः, ग्रहणाभावे न तथाभावकल्पन-तज्जननस्वभावादिकल्पनम् । तयो; हेतु-फलयोः न्याय्यम् , उभयघटितत्त्वात् तम्य । न चैकेन ग्राहकेण द्वयो. भिनकालयोः ग्रहणमस्ति, वः युष्माकम् ।।९४|| एतदेव दर्शयति
एकमर्थ विजानाति न विज्ञानद्वयं यथा ।
विजानाति न विज्ञानमंकमर्थद्रयं तथा ॥१५॥ यथा विज्ञानद्वयं भिमकालं क्षणिकत्वादेकमर्थ न विजानाति, तथा विज्ञानमेकमर्थद्वयं भिन्नकालं क्षणिकत्वादेव न विजानाति । 'नाऽननुकृतान्वय-व्यतिरेक कारण, नाकारण विषयः' इति हिं सौगताना मतम् , न च ज्ञानद्वय एकस्यार्थस्येव ज्ञानेऽर्थद्वयम्यापि हेतुत्वम् , इति नकेनोभयग्रहणमिति भावः ।। ||
कार्य और कारण का ग्रहण न होने से यह कल्पना नहीं की जा सकती कि जिन कारणों के सह सन्निधान के अनंतर मिस कार्य का उदय होता है उन सभी कारणों में उस एक ही कार्य के जनन का स्वभाव है और कार्य में उन कारणों से हो उत्पन्न होने का स्वभाव होता है। ऐसी कल्पना न हो सकने का कारण यह कि उक्त कल्पना कार्यकारण दोनों से घटित है और कार्यकारण दोनों ही भिन्नकालिक है। बौद्ध मत में ग्रहोता भी क्षणिक है, इसलिये कार्य-कारण का ग्रहण किसी एक द्वारा नहीं हो सकता ।।९४|| ६५ वीं कारिका में इसी तथ्य को अन्य प्रकार से स्पष्ट किया गया है--
(एक और दो का ग्राह्य-ग्राहक भाव प्रसंभव) मिनकालिक दो विज्ञान जैसे एक प्रथं को नहीं ग्रहण करते क्योंकि क्षणिक होने से कोई अनुसंधान करने वाला एक अर्थ भिन्न कालिक दो विज्ञानों के समय नहीं रहता. इसी प्रकार एक विज्ञान भी भिन्न कालिक दो अर्थों को ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि क्षणिक होने से यह भी दो क्षण तक नहीं रह सकता।
बौद्धों का यह मत है कि जिसका अन्वयव्यतिरेक कार्य द्वारा अनुकृत नहीं होता बह कारण • नहीं होता, और जो अकारण होता है वह विषय नहीं होता । भिन्न कालिक ज्ञानद्वय के द्वारा एक अर्थ के अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान नहीं होता है क्योंकि पूर्व कालोपन में ज्ञान द्वितीयक्षण में होने वाले अर्थ का व्यतिरेक होने पर भी उत्पन्न होता है और उस अर्थ के काल में पूर्व ज्ञान होता नहीं। इसी प्रकार द्वितीय विज्ञान द्वारा पूर्वकालोत्पन्न अर्थ के अन्वय-व्यतिरेक का अनुकरण नहीं होता, क्योंकि वितीय विज्ञान द्वितीयक्षण में पूर्वोत्पन्न प्रर्थ के प्रभाव में भी उत्पन्न होता है और पूर्वोत्पन्न प्रर्थकाल में उत्पन्न नहीं होता। इसलिये एक प्रर्थ ज्ञानद्वय का कारण नहीं होता । उसो प्रकार एक ज्ञान प्रर्यद्वय का भी कारण नहीं होता क्योंकि प्रर्य द्वय से किसो एक ज्ञान के अन्वरध्यतिरेक का अनुकरण नहीं होता, जसे द्वितीय ज्ञान के दूसरे क्षण में ज्ञान के प्रभाव में मो दूसरे अर्थ को उत्पत्ति होती है, और ज्ञान-काल में उस प्रर्थ को उत्पत्ति नहीं होती । इस प्रकार स्पष्ट है कि बौद्ध मत में एक मान से दोनों का महरा नहीं होता है ॥१५॥
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८]
पराभिप्रायमाह -
--
[ शा० वा० समुच्चय स्त०४-०९६
वस्तुस्थिपा तयोस्तव एकेनापि तथाग्रहात् ।
नो वाकं न चैकेन द्वयोर्ग्रहणमस्त्यदः ||६६॥
"
1
वस्तुस्थित्या पौर्वापर्यभावेन तयो:- हेतु-फलयोः, तत्त्वे = तज्जननादिस्वभावत्वे, एकेनापि धर्मिग्राहकेण तथाग्रहान् = तदभिन्नतद्धर्मप्रकारकग्रहात् नो बाधकं प्रागुक्तम् । न वादः = एतत्, एकेन द्वयोर्ग्रहणमस्ति, धर्म-धर्मिणोरनर्थान्तरत्वात्, एकेनैकस्यैव ग्रहात् ||६६ || एतत् परिजिहीर्ष माह-
तथाग्रहस्तयोर्नेतरेतरग्रहणात्मकः
I
कदाचिदपि युक्तो यवतः कथमबाधकम् ॥९७॥
तयो:--हेतु-फलयोः, तथाग्रह: - तज्जननस्वभावत्वादिना ग्रहः इतरेतरग्रहणात्मकः= घटकग्रह सापेक्षग्रहरूपः, धर्मिमात्रग्रहात न कदाचिदपि युक्तः, अतः कथमबाधकं प्रागुक्तम् १ | aft स्वलक्षणाध्यक्षं स्वस्य याथात्म्ये प्रमाणम्, क्षणिकत्व-स्वर्गप्रापणशक्त्यादावपि तथास्वप्रसङ्गात्, "यत्रैव जगवा" राय व्यापावाले ॥६७॥
( कारण और उसका स्वभाव अभिन्न रूप से गृहीत होगा- बौद्ध) ६६ वीं वारिका में पूर्वोक्त दोष का बौद्धसम्मत समाधान प्रदर्शित किया गया है
बौद्ध का कहना है कि कार्य और कारण का एक ज्ञान से ग्रहण नहीं होता है यह ठीक है किन्तु इससे कार्य कारण भाव के ग्रहण में कोई बाधा नहीं हो सकती। क्योंकि दोनों में पाँवापर्य होता है अर्थात् कार्य-कारणभाव समकालीन में नहीं किन्तु पूर्वापरकालीन में होता है। इसलिये कारण में कार्यजनन स्वभाव और कार्य में कारणजन्यस्वभाव रहता है। वह स्वभाव कारण कार्य का धर्म होता है. अत एव कारणरूप धर्मी के ग्राहक ज्ञान से उसके कार्यजननस्वभावरूप धर्म का और कार्य के ग्राहक ज्ञान से उसके कारणजन्य स्वभाव का ग्रहण हो सकता है। यह कारण एवं कारणस्वभाव और कार्य एवं कार्यस्वभाव का ग्रहण एक ज्ञान से दो का ग्रहण रूप नहीं है, क्योंकि धर्म और धर्मो में मेद न होने से उनके ग्रहण को उभयग्रहण नहीं कहा जा सकता है क्योंकि उपरोक्त प्रतिपादन के अनुसार एक से एक का ही ग्रहण फलित होता है ||६|
6 वीं कारिका में इस बौद्ध अभिप्राय का परिहार किया गया है
( धर्मिग्राहक से धर्मग्रह होने में क्षणिकत्व प्रत्यक्ष की प्रापत्ति )
ग्रन्थकार का कहना है कि कारण और कार्य का उक्त स्वभाव से जो ग्रहण होता है वह इतरेतरग्रहण रूप है, अर्थात् कारण-स्वभावों के ग्रहण में उस स्वभाव की कुक्षि में प्रविष्ट कार्यज्ञान की और कार्य के उक्त स्वभाव में घटक कारणज्ञान की भी अपेक्षा है । अतः कारणरूप धर्मी मात्र के ज्ञान से तथा कार्यरूप धर्मोमात्र के ग्रहण से उनके स्वभाव का ग्रहण कदापि नहीं हो सकता । अतः कार्यकारण भाव के ग्रहण में जो बाघक बताया गया है वह प्रबाधक नहीं हो सकता उसका बाधara प्रक्षुण्ण है क्योंकि प्रध्यक्ष यानी प्रत्यक्ष स्वलक्षणशुद्धवस्तु का ग्राहक होता है । वह वस्तु के
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था • टीका और हिन्दी-विवेचना ]
[
५४
सयाग्रहे च सर्वत्राऽधिनाभावग्रहं विना ।
न धूमादिग्रहादेव बनलाविगतिः कथम् ! ॥१८।। न च हेतुफालमात्र स्वरूपहा हेतु फलभाषिकल्प इति सांप्रतम् अतिप्रसङ्गात् ।
इत्याह-सर्वत्र तथाग्रहे च-सर्वत्र धार्ममात्रग्रहात् तत्स्वभावत्वविकल्पने च, अविनाभावस्य ग्रहो यस्मादिश्यविनाभावग्रहः सहचारादिज्ञानं तद् विना, धूमादिग्रहादेव धूमादिस्वरूपमात्रग्रहादग्न्यादिव्याप्तिविकल्पनादेव हि निश्चितम् , अनलादिगतिः अग्न्यायनुमानम् कथं न भवेत् ? । 'भवेदेवाभ्यासपाटयादिना क्वचिदिति चेत् ? अगृहीतसहचारस्य नालिका द्वीपबामिनोऽपि धूमदर्शनमात्रादग्निव्याप्तिविकल्पादग्न्यनुमानं किं न स्यात् ? ||८||
याथात्म्य-वस्तु को तपता में प्रमाण नहीं हो सकता । अन्यथा क्षणिकता भी अध्यक्ष से ही सिद्ध हो जायगी क्योंकि प्रध्यक्ष क्षणिकाव के धर्मो स्वलक्षण का ग्रहण करते हुये क्षणिकता का मी ग्रहण कर लेगा। एवं स्वर्ग प्रापक शुभ कर्म का ग्राहक अध्यक्ष उस कर्म में विधमान स्वर्ग प्रापण शक्ति का भो ग्राहक हो जायगा । जब कि यह बौद्ध को भी इष्ट नहीं है, क्योंकि वस्तु के क्षनिकत्व और शुभ कर्म के स्वर्ग प्रापणशक्तिमत्व को वे भी अनुमेय ही मानते हैं । साथ यह भी ज्ञातव्य है कि धर्मो ग्राहक जान से धर्म का भी ग्रहण मानने पर बौद्ध के इस सिद्धान्त का व्याघात भी होगा कि प्रध्यक्ष जिम विषय में गुण धर्म संज्ञा प्रादि के सम्बन्ध की कल्पनात्मिका-सविकल्प प्रत्यक्षाश्मिका बुद्धि को उत्पन्न करता है उस विषय में ही वह प्रमाण होता है क्योंकि धर्मग्राहक अध्यक्ष से यदि धर्मी के परिकल्पित रूप का मो प्रहण होगा तो परिकल्पित रूप की कल्पनारिमका बुद्धि का जनक न होने पर भी उस में प्रमाण हो आयगा । अतः उक्त सिद्धान्त का व्याघात स्फुट है ||७||
वौं कारिका में कार्य और कारण के स्वरूप ज्ञानमात्र से कार्य कारणभाव का ज्ञान होता है.इस बौध मत का प्रकारान्तर से भी अनौचित्य बताया गया है।
(नालिकेर द्वीपदासो को धूम से अग्निज्ञान नहीं क्यों 1 ) यदि सर्वत्र धर्मीमात्र के ज्ञान से उसके स्वभाव का मी प्रहण माना जायगा तो अविनामाव का ज्ञान जिससे होता है उस सहचारादि मान के न रहने पर भी धूम के मात्र स्वरूपज्ञान से धूम के अग्निव्याप्तिरूप स्वभाव का मी ज्ञान हो जायगा । तो यह प्रश्न हो सकता है कि जिसे धूम-अग्नि का सहबार मान एव तन्मूलक प्रविनाभाव का ज्ञान नहीं है उसे भी घूममात्र ज्ञान से अग्नि का अनुमान क्यों नहीं होता ? उसे भी धूम के ग्राहक ज्ञान से नौबमतानुसार उसके अग्निव्याप्तिरूप धर्म का ज्ञान हो ही जाता है । इसके उत्तर में यह कहना पर्याप्त नहीं है कि 'मम्याप्त पटुता प्रावि से प्रर्थात जिसे धूम ज्ञान से वह्नि को अनुमिति करने का अभ्यास हो जाता है और जसे देखते हो बलि के ज्ञान करने को पटुता उत्पन्न हो जाती है उसे धूम के स्वरूपमान मात्र से बलि का अनुमान होता ही है। क्योंकि प्रयासपार से मो अहाँ श्रम के स्वरूपज्ञान मात्र से वह्नि अनुमान का होना ज्ञात है वहां भी अनुमाता को ध्म में वहि व्याप्ति का ज्ञान हो कर के ही
हि का अनुमान होता है। व्याप्ति ज्ञान के बिना भी अगर उस स्थल में भी धूम स्वरूप के ज्ञान मात्र से वह्नि का अनुमान माना जाय तो यह प्रश्न स्वामाविक होगा कि नालिकेरखीप जहां धूम
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६. ]
[शा०1० समुच्चय ४०४ श्लो०६९
अत्रेवाक्षेपं समाधानं चाह---
समनन्तरवैकल्यं सत्यनुपपत्तिकम् ।
तुल्ययोरपि तद्भावे हन्त ! क्वचिददर्शनात् ॥१९॥ 'सत्र-नालिकेरद्वीपवासीधूमादिज्ञानादग्न्याद्यगतिस्थले समनन्तरचैकल्यं स्यात् , एतदप्यनुपपत्तिकं नियुक्तिकम् । कुतः ! इत्याह-तुल्ययारप-समनन्तरयोः उत्तरं सद्भावे धूमादिग्रहोत्पादे, हन्त !! क्वचित-अगृहीताऽविनाभावे पुसि, तददर्शनातु-अनलाद्यननुभवात ||
ननु न समनन्तरत्वमात्रेण समनन्तरतौल्यमपेक्षितम् , किन्तु मह्यमाणकारणताश्रयकारणविषयत्वेन, इत्यभिप्रेत्य परः शङ्कते
और अग्नि के सहचारदर्शन का अवसर नहीं होता वहां के मनुष्य को मी [जिसे धूम-अग्नि का सहचार कमी ज्ञात नहीं हुआ है.) द्वोपान्तर में जाने पर धूम के स्वरूप दर्शन मात्र से अग्निव्याप्ति का ज्ञान होकर अग्नि का प्रनमान क्यों नहीं होता। क्योंकि जब धर्मों का प्रारक धर्म का भी ग्राहक होता है तब उस पुरुष को घूमरूप धर्मों के दर्शन होने पर उसके प्रग्निव्याप्तिरूप धर्म का भी ज्ञान प्रवश्य होना चाहिये ॥६८।।
६६ वी कारिका में उक्त वोष के सम्बन्ध में बौद्ध के आक्षेप का और उसके समाधान का उपदर्शन किया गया है
समनन्तर वैकल्य का उत्तर प्रयुक्त है] उक्त दोष के सम्बन्ध में बौद्ध का यह कहना है कि-'नालिफेर द्वीप के निवासी पुरुष को धूम के जान से जो अग्नि का अनुमान नहीं होता उसमें समनन्तर बैंकल्य कारण है।'
कथन का प्राशय यह है कि उक्त पुरुष का जो धमज्ञान समनन्तरअग्निज्ञान रूप कारण से उत्पन्न होता है यही वूम में उसके अग्निव्याप्तिरूप धर्म का ग्राहक होने से अग्नि का अनुमापकं होता है । उक्त पुरुष के बूम जान में अग्निज्ञानरूप समनन्तर कारण का वैकल्य है अर्थात् वह अग्निज्ञानरूप समन्तर कारण से उद्भूत नहीं है अतः उससे धूम में अग्निव्याप्ति रूप धर्म का ज्ञान न होने से उस धूम ज्ञान से अग्नि का अनुमान नहीं होता। इस पर ग्रन्थकार का कहना है कि बौद्ध का यह कहना भी उपपत्तिशून्य यानी नियुक्तिक है। क्योंकि जहाँ अग्निज्ञान के उत्तरकाल में धूमझान होता है यहाँ समनन्तर अग्निज्ञान का संनिधान रहने पर भी जिस पुरुष को धूम में अग्नि का प्रविनामाव ज्ञात नहीं होता उसे धूमजान मात्र से प्रग्नि का मान नहीं होता । जैसे किसी नालिकेरद्वीपबासी पुरुष को तपे हुए लोहगोलक-प्रकार प्रादि में या समुद्र में धूम के बिना केवल अग्नि का दर्शन हुना और जसके बाद धूम का दर्शन हुना, उसका नमदर्शन समनन्तर अग्निज्ञान पूर्वक है, फिर भी उसे धूम में वह्निव्याप्तिग्रह न होने के कारण धूम के स्वरूपदर्शन मात्र से अग्नि का अनुमान नहीं होता। प्रतः पूर्वोक्त दोष के सम्बन्ध में बौद्ध का उक्त प्राक्षेप प्रयुक्त है ॥६
१०० बों कारिका में उक्त समाधान के सम्बन्ध में बौद्ध का एक अन्य अभिप्राय प्रदर्शित किया गया है। उसका कहना है कि दो समनन्तर प्रत्यय में मात्र समनन्तरत्व की तुल्यता का कोई
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ १६१
न तयोस्तुल्यतैकस्य यस्मात्कारणकारणम् ।
ओघारातुविषयं न त्वेवमितरस्य तु ॥१००|| न तयोः गृहिताविनाभावनालिकरद्वीपयासिसमनन्तरयोः तुल्यता, यस्मादेकस्य गृहीताविनाभावस्य कारणकारणं धूमज्ञानोपादानम् ओघात सामान्यतः, तथाविकल्पानुपरागणेति यावत् , तहेतुविषयं गृह्यमाणधृमहेत्वग्निविषयम् , न तु एवम्-उक्तवत् , इतरस्य तुम्नालिकेरद्वीपवासिनस्तु, तेन सदा तदग्रहणात् ॥१००। अत्रोत्तरम्
यः केवलानलग्राहिज्ञानकारणकारणः ।
सोऽप्येवं न च ततोस्तज्ज्ञानादपि तद्गतिः॥१०१॥ यः क्वचिद् नालिकेन्द्वीपगसिप्रत्ययः, केवलानलपाहिज्ञानकारणकारण: देवादयोगोलकाङ्गारादिनानसमुत्थः, सोऽपि एवं गृह्यमाणधूमहेत्वग्निगोचरसमनन्तराऽविकलः । न च महत्व नहीं है किन्तु ज्ञायमान धम को कारणता के प्राश्रयभूत अग्निरूप कारण को विषयता से समनन्तर प्रत्यय की महत्ता है जो नालिकेर द्वोपवासी के धूमज्ञ ' में नहीं है-शंका:
(समनन्तर प्रत्यय होने पर भी एक कारण, दूसरे नहीं) बौद्ध का कहना यह है कि जिस नालिकेर द्वोपचासी पुरुष को पूर्व में धूमज्ञान कभी नहीं है उस पुरुष को धूमज्ञान के पूर्व जो अग्निज्ञान होता है वह अग्निज्ञान, और जिस व्यक्ति को धूम एवं अग्नि का अविनामाव पूर्व में गृहीत हो चुका है उस व्यक्ति को जो घूमशान से पूर्व-अग्निज्ञान होता है वह अग्निज्ञान, ये दोनों ही अग्निज्ञान यद्यपि धूम ज्ञान के समनन्तर पूर्व है फिर भी उनमें तुल्यता नहीं है, क्योंकि पूर्व व्यक्ति का प्रग्निजान जायमान धूम की कारगता के श्राश्रयभूत अग्नि को विषय नहीं करता है और दूसरे व्यक्ति का अग्निज्ञान, अग्नि के अनुमान रूप कार्य के कारणभूत धूमज्ञानरूप कार्य का कारणभूत है, क्योंकि वह सामान्य रूप से प्रर्थात् धूमहेतुत्व को विषय न कर के भी दृश्यमान धूम के वस्तुगत्या हेतुमूत अग्नि को विषय करता है । किन्तु इतरव्यक्ति-नालिकेर द्वीपवासो का उक्त अग्निजान दृश्यमान धूम के हेतुभूत अग्नि को विषय नहीं करता, क्योंकि उस ध्यक्ति को धूम और अग्नि उससे पूर्व सवा अज्ञात रहे हैं । अतः इसके अग्निज्ञान को प्रमहेतुभूत अग्निविषयक नहीं कहा जा सकता । कहने का तात्पर्य यह है कि धूम के कारण भग्नि को विषय करने वाले समनन्तर ज्ञान के उत्तर काल में उत्पन्न होने वाला घूमज्ञान ही धर्म ग्राहक विषया धम के अग्निव्याप्तिरूप धर्म का ग्रहण कर अग्नि का अनुमापक होता है । नारिकेल द्वीपकासी को धमज्ञान
प में उत्पन्न भी प्रग्निशान अमजमक अग्नि को विषय न करने से उसका धमज्ञान धमजनक अग्निविषयक समनन्तर ज्ञानपूर्वक नहीं हुआ है । अतः उस धूम शान से अग्निव्याप्ति का ग्रहण न होने के कारण उससे अग्नि के अनुमान को प्रापत्ति नहीं हो सकती ॥१००।। १०१ वी कारिका में बौद्ध के उक्त अभिप्राय का निराकरण किया गया है'नज्ञाने प्रो' इति प्रत्यन्तरे।
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२ ]
[ शा० वा० समुच्चय ० ४ श्लो १०३-१०३
तद्धेतोरप्येवं निमित्तसमनन्तर हेतोरपि तज्ज्ञानात्-नालिकेरद्वीपवासिधूमज्ञानाद, सद्गतिः = अनलादिगतिः, तथा च व्यभिचार एवेति भावः ॥ १०१ ॥ परः समाधानान्तरमाह
तज्ज्ञानं यत्र वं धूमज्ञानस्य समनन्तरः I तथाभूदित्यती नेह तज्ज्ञानादपि तद्गतिः || १०२||
1
तज्ज्ञानम्=अग्निज्ञानम्, यद्यस्मात् वै निश्चितम् धूमज्ञानभ्य समनन्तरः = उपादानहेतुः, न तथाऽभूत् इत्यतो हेतोः इह = नालिकेरद्वीपवासिनि, तज्ज्ञानादपि -देवादग्निविषयक ज्ञानोत्थ धूमज्ञानादपि न तद्गतिः - नाडनलादिगतिः, तथा चाग्निज्ञानत्वेनाग्निगमकत्वात् न दोष इतिभावः ॥ १०२॥ अत्रोत्तरम् -
तथेति हन्त ? को न्वर्थस्तन्तथाभावतो यदि । इत रकम वेत्थं ज्ञानं तदूग्राहि भाव्यताम् ॥१०३॥
'न तथाऽभूत्' इत्यत्र ' तथा ' इति हन्त को न्वर्थः ? वाक्यार्थमविचार्यैव वाक्यं प्रयुञ्जानस्य महदनौचित्यमिति 'हन्त' इत्यनेन सूच्यते । यदि तत्तथाभावतः तस्यैः 15विज्ञानस्यैव तथाभावतो = धूमज्ञानमावेन परिणामो नाभूदिति नाग्न्यादिगनिरित्यभिमतम्,
[नालिकेर द्वीपवासी का समनन्तर प्रत्यय भी अन्य के समान ही है ]
नारिकेल द्विपवासी को धूमज्ञान के पूर्व जो केवल श्रग्निस्वरूप को ग्रहण करने वाला ज्ञान उत्पन्न होता है जैसे प्रयोगोलकीय प्रग्नि का या अंगार- श्रग्नि का प्रथवा सामुद्रिक वडवानल का ज्ञान उत्पन्न होता है. तज्ज्ञानरूपकारणकारक अर्थात् देववश तज्ज्ञानरूप कारण से उत्पन्न होनेवाला धूरुज्ञान शे दृश्यमान धूम के हेतुभूत अग्नि को विषय करनेवाले समनन्तर ज्ञान से विकल नहीं होता किन्तु उससे संनिहित ही होता है । प्राशय यह है कि नारिकेल द्वीपवासी का धूमज्ञान से पूर्व होने वाला निशान भी धूम के हेतुभूत अग्नि को ही विषय करता है भले उस व्यक्ति को अग्नि में धूमहेतुता का ज्ञान न हो किन्तु इतने मात्र से उसे ज्ञायमान अग्नि धूम का कारण नहीं है यह नहीं कहा जा सकता, श्रत एव उसका श्रग्निज्ञान भी धूमकारण प्रग्निविषयक ही है । तो इस प्रकार प्रग्निज्ञानरूप समनन्तर निमित्त हेतुक भी जो नारिकेल द्वीपवासी पुरुष का धूमज्ञान है उससे भी अग्नि का अनुमान नहीं होता। इसलिये बौद्ध कथित धूमहेतु प्रग्निज्ञानरूप समनन्तर कारण पूर्वक जो धूमज्ञान होता है वह अग्नि के अनुमान का हेतु है-' इस कार्य कारणभाव में व्यभिचार अनिवार्य है ।। १०१ ।।
१०२ कारिका में उक्त व्यभिचार का बौद्धाभिमत समाधान प्रस्तुत किया गया हैनारिकेल द्वीपवासो पुरुष का अग्निज्ञान धूमज्ञान का समनन्तर होते हुये भी तथा उपादान कारणात्मक ) समनन्तर नहीं है इसलिये उस पुरुष का धूमज्ञान यद्यपि देववश अग्नि विषयक ज्ञान से उत्पन्न है तो भी उससे अग्नि का अनुमान नहीं होता, क्योंकि अग्नि ज्ञानरूप समनन्तर उपादानपूर्वक धूमज्ञान हो अति के अनुमान का जनक होता है। अतः व्यभिचार रूप दोष नहीं हो सकता ।। १०२ ॥
१०३ वीं कारिका में बौद्ध के उक्त समाधान का उत्तर दिया गया है
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्या० का टीका और हिन्दी धिवेषना ]
[ १६३
तदा भवत्विदं समाधानम् । परमितरत्र अविनाभावग्रहस्थले, इत्यम् उक्तप्रकारेण एकमेव ज्ञानं एकाकारपरित्यागान्याकारोपादानेन तद्ग्राहि-धृमानलग्राहि, भाव्यतां विमृश्यताम् ।। पक्षान्तरनिरासेनाधिकनमेव समर्थयन्नाह -
तदभावेऽन्यथा भावस्तस्य सोऽस्यापि विद्यते।
अनन्त रचिरातोत तत्पुनर्वस्तुनः समम् ॥१४॥ अन्यथा तत्तथामावेन विशेषानभ्युपगमे, तदभावे अग्निज्ञानाभावे, तस्य-धूमज्ञानस्य भाव उत्पादः अन्धुपगतो भवति, गत्यन्तराभावाद । न चैवं विशेष इत्याह सः
बौद्ध मत में परिणामवाद की प्रापत्ति) ग्रन्थकार का कहना है कि नारिकेल वीपवासी का धमजान से पूर्व होनेवाला अग्निशान तथा समनन्तर नहीं है-बौद्ध के इस कथन के सम्बन्ध में यह कहते हुये खेद होता है कि बोध को अपने कथन के तथा शब्द का अर्थ ज्ञात नहीं है । और वाक्याय को विना समझे वाक्य का प्रयोग करना अत्यन्त प्रचित होता है । यदि बौद्ध की ओर से तथा न होने का प्रर्थ 'अग्नि ज्ञान का धमज्ञानरूप में परिणत होना' किया जाय, प्रभाव की प्रोसे पहप्राशय पित किया आप कि नारिकेल द्वोपवासी का धमज्ञान अग्निशान के परिणामरूप में नहीं उत्पन्न होता और जो धमज्ञान प्रग्निज्ञान के परिणाम रूप में उत्पन्न होता है वही अग्निशान रूप समनन्तरोपादान पूर्वक होता है और वहीं अग्नि का अनुमापक होता है तो यह सनाधान कश्चित् शक्य होने पर भी चौद्ध के लिये अनुकुल नहीं हो सकता क्योंकि नारिकलपवासी के घूमज्ञान के सम्बन्ध में इस प्रकार का प्रतिपादन करने पर जिस पुरुष को धूम-अग्नि का अविनाभाव ज्ञात है उस पुरुष के धमज्ञान के सम्बन्ध में बौध को यह कहना होगा कि वह धमज्ञान प्रग्नि जान का परिणामरूप है और इस कयन पर विचार करने पर यहो निष्कर्ष स्वीकार करना होगा कि एक हो ज्ञान पूर्व प्राकार का परित्याग कर अन्य प्राकार को ग्रहण करके धूम और अग्नि का ग्राहक होता है । यदि नारियल द्वीपवासी के धमज्ञान और अधिनाभावग्रहस्थलोय धूमज्ञान का उक्त विभिन्न रूप से प्रतिपावन नहीं किया जायगा तो दोनों में बेलक्षण्य सिद्ध न होने से एक से अग्नि के अनुमान का लक्ष्य न होने का और दूसरे से अग्नि के अनुमान के उदय होने का समर्थन नहीं किया जा सकेगा ।।१०३॥
१०४ धीं कारिका में उक्त उत्तर के सम्बन्ध में बौद्ध के एक और समाधानात्मक पक्ष का निरास करते हुये उस के विरुद्ध विचाय
चार्यमाण पक्ष का समर्थन किया ग
[अग्निज्ञान के प्रभाव में धूमज्ञान-उद्भव तुल्य है] बौद्ध की ओर से उक्त उत्तर के प्रतिवाद में यदि यह पक्ष प्रस्तुत किया जाय कि 'अविना. मायग्रहस्थ लोय धमज्ञान अग्निज्ञान का परिणाम नहीं होते हुये भी अग्निज्ञानोपादानक है और नारिकेल द्वोपधासी का धमज्ञान अग्निशामोपाचानक नहीं है तो यह पक्ष मी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि अधिनाभावग्रहस्थलीय धूमज्ञान को अग्नि ज्ञान उपादानक न कहने का अर्थ यह होगा कि वह बमझान अग्निज्ञान के अभाव में उत्पन्न होता है। क्योंकि उस कथन की इस निष्कर्ष से अतिरिक्त कोई गति नहीं है । अब ऐसा मानने पर नारिकेलद्वीपवासी के धुमशान भौर अयिनामावग्रहस्थलीयमशान
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४ ]
[ शा० शा० समुच्चय स्त० ४-रको० १०४
तदमावे भावः, अस्गापि-नालिकेरद्वीपत्रासिधूमज्ञानस्य विद्यते, तत्काले यथोक्ताग्निज्ञानामावादानन्तर्याद् विशेषः स्यादित्यत आह-अनन्तरचिरातीतं तत्पुनरग्निज्ञानम् , वस्तुतः= परमार्थतः तदानीमसचात् समम् अनुपयोगाऽविशेषात् , हेतुसत्त्वस्यैव कार्ये उपयोगात् । वस्तुनो नाग्निज्ञानजधूमज्ञानत्वेनाग्निगमकन्वम् , अनग्निज्ञानादपि धूमं झात्या मानसाध्यक्षेण ऊहारख्यप्रमाणेन वा व्याप्तिग्रहेऽग्निज्ञानोदयात् , अग्निज्ञानकुद्रपत्वं च न धृभज्ञानहेतुतार्या पक्षपाति, पिशाचस्यापि तथाहेतुत्वसंभवादिति न किञ्चिदेतत् ।।१०४॥ में कोई बेसक्षल्य न हो सकेगा, क्योंकि अग्निज्ञान के अभाव में उत्पन्न होना दोनों धूमज्ञानों में समान है।
यदि यह कहा जाय कि-'अविनाभावग्रहस्थलीय घमशान से नारिकेल द्वीपचासी पुरुष का घमज्ञान पिसक्षम इसलिए है, कि उसमें अग्निज्ञानाभाव का प्रानन्तर्य होने से वह अग्निज्ञानहेतुक नहीं है और अधिनाभावग्रह स्थलीय धमज्ञान में अग्नि का प्रानन्तर्य होने से वह अग्निज्ञान हेतुक है'-तो यह मो ठोक नहीं है क्योंकि अविनामावग्रहस्थलीय धमज्ञान के पूर्व भी अग्निज्ञानरभाव ही रहता है। प्रतः अग्निज्ञान की अनुपयुक्तता दोनों धमज्ञान में समान है, क्योंकि हेतु को सत्ता ही कार्य में उपयोगी होती है अतः जब अग्निज्ञान प्रतीत हो चुका है तब वह भो धमज्ञान के प्रति अनुपयुक्त ही है । इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि अविनामायग्रहस्थलीय धूमज्ञान अग्निज्ञान हेतुक है और नारिकेल द्वीपवासो का धूमज्ञान अग्निज्ञानहेतुक नहीं है। ____ सत्य तो यह कि अग्नि के अनुमान के प्रति अग्निज्ञानजन्य धमज्ञान कारण ही नहीं होता, क्योंकि अग्निशान न रहने पर मो धमज्ञान होकर मानस प्रत्यक्ष से प्रयया ऊह प्रमाण से धूम में वह्निव्याप्ति का ज्ञान होकर अग्नि के अनुमान का उदय होता है । इससे स्पष्ट है कि धम में अग्नि की व्याप्ति का ज्ञान जो घमज्ञान अन्य यति के अनमान का बीज है वह घमहप ध ग्राहक से नहीं होता किन्तु धमज्ञान हो जाने के बाद दूसरे ज्ञान अर्थात् मानसप्रत्यक्ष अथवा ऊह नामक प्रमाण से होता है । अत एव नारिकेलद्वीपदासो को मानसप्रत्यक्ष या ऊह प्रमाण से धूम में वहिन का व्याप्तिग्रह न हो सकने के कारण धमज्ञान से वह्नि का अनुमान नहीं होता है।
[अरितज्ञानकुर्वद्र पत्य पिशाच में भी हो सकता है] बौद्ध पुन: नारिकेल द्विपवासो में धमजान और उस पुरुष के अग्निज्ञानको जिसे धम वह्नि का सहचार-प्रधिनाभाव का ज्ञान पूर्व में हो चुका है उसका धूमज्ञान में इस प्रकार वलक्षण्य बतावे कि पूर्व पुरुष के धूमज्ञान में अग्निज्ञानकुर्वव्यत्व नहीं होता है और द्वितीयपुरुष के धमज्ञान में अग्निज्ञानकुर्वपत्व होता है इसलिये पूर्व पुरुष के धमज्ञान से अग्नि का अनुमान नहीं होता और द्वितीय पुरुष के बमज्ञान से पग्नि का अनुमान होता है क्योंकि घूमज्ञान कुर्वदूपत्वेन अग्नि का अनुमान का जनक होता है-तो इस प्रकार भो घूमज्ञान का विशेषोकरण युक्तिसंगत नहीं हो सकता क्योंकि धमज्ञान के प्रति अग्निज्ञान कुर्वदूपत्व के पक्षपात का कोई कारण नहीं है कि जिससे यह धमज्ञान में हो रह कर उसी में अग्नि अनुमापकता का उपपादन करें। क्योंकि तब तो यह कहने में भी कोई बाधा नहीं दीखतो कि अग्नि का अनुमान घूमशान से नहीं अपितु अग्निज्ञानकुर्वत्रूपत्व विशिष्ट पिशाच से होता है ।
धमाके
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था क० टीका-हिन्दीविवेचना ]
एते तद् निरस्तमित्याह--
अग्निज्ञानजमेतेन धूमज्ञानं स्वभावतः।
तथाधिकल्पकृतान्यदिति प्रत्युक्तमिष्यताम् ॥१०॥ एतेन परमते तत्स्वभावत्यापरिज्ञानप्रतिपादनेन, अग्निज्ञानजं धूमज्ञानं तथाविकल्पकृत='अग्निजन्योऽयं धूमः' इति विकल्पहेतुः, नान्यत् , इति प्रत्युक्तं निरस्तम् , इष्यताम् अङ्गीक्रियताम् ॥१०॥ प्रस्तुतं निगमयति
अतः कथंचिकेन तयोरग्रहणे सति ।
तथा प्रतीतितो न्याय्यं न तधाभावकल्पनम् ॥१०६॥ अतः उक्तयुक्तः, कथश्चित-अन्वयाऽविच्छेदात् , एकेन-ग्राहकेण, तयोः हेतुफलयोः अग्रहणे सति, तथाप्रतीतितः तदितरावधिकत्वेनाऽप्रतीतेः, तथाभावकल्पनंप्रक्रमान् हेतु-फलयोस्तज्जननस्वभाववादिकम्पनं, न युक्तम् ।।१०६।।
पूर्व पुरुष को प्रग्निज्ञान कुचंदूपत्व विशिष्ट पिशाच का सहयोग नहीं प्राप्त है अतएव जसे अग्नि का अनुमान नहीं होता और द्वितीय पुरुष को अग्निज्ञान कुर्वपत्वविशिष्टपिशाच का सहयोग प्राप्त है इसलिये उसको अग्नि का अनुमान होता है । फलतः धूमज्ञान में अग्नि को अनुमापकता का हो लोप हो जायगा । अतः बौद्ध का यह प्रयास मो प्रकिञ्चित्कर है ॥१०४॥
१०५ वीं कारिका में धर्मों के ग्राहक से ही धर्म का ज्ञान होता है इस बौद्ध मत का प्रतिकार किया गया है। कारिका का प्रम इस प्रकार है
घूमनिष्ठाग्निजन्यता के निश्चय में केवलधूमज्ञानहेतुता असंगत] बौद्ध मत में एक शान से कार्य-कारण दोनों का प्रहण न हो सकने के कारण, कारण में कार्यजन्य स्वभाव का और कार्य में कारणजन्य स्वभाव का ज्ञान नहीं हो सकता-इस तथ्य का पर्याप्त प्रतिपादन किया गया। प्रतः 'अग्निज्ञानजन्य धूमजान ही धम में अग्निजन्यता के निश्चय का हेतु है' इस निश्चय के लिये 'धूमज्ञान से अतिरिक्त किसी को अपेक्षा नहीं है।' यह बौद्ध कथन निरस्त हो जाता है और इस पराजय को बौद्ध को भी अवश्य स्वीकार करना होगा क्योंकि अग्निशान पोर धूमशान एवं अग्नि और धूम इन दोनों का जब किसी एकज्ञान से ग्रहण नहीं हो सकता तो न घूममान में अग्निज्ञानजन्य का निश्चय हो सकता और न धूम में अग्निजन्यस्व का ही निश्चय हो सकता। तथा इसीप्रकार प्रग्निशानजन्य धूमशान और 'अग्निजन्य धूम' यह जान ये दोनों भी एक ज्ञान से विदित नहीं हो सकते । अत: 'अग्निजन्य यह धूम'-यह निश्चय 'अग्निज्ञान अन्यधूमज्ञान' इस निश्चय से उत्पन्न होता है ऐसा निश्चय भी नहीं हो सकता ॥१०५॥
१०६ वीं कारिका में उक्त विषय का ही निगमन-उपसंहार किया गया है ! कारिका का अर्थ इस प्रकार है
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६ j
[शा. वा. समुच्चय स्त-४ श्लोक-१०७
-
एवं चाभ्युपगमक्षतिरित्याह--
प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां हन्तवं साध्यते कथम् ? ।
कार्यकारणता तस्मात्तभावादेरनिश्चयात् ॥१०७॥ 'हन्त' इति खेदे, एवं-तत्तनासमाजवगतो मासुपसाया या कार्यकारणता कथं माध्यते ? कुतः ? इत्याइ-तस्मात् तावादे: तदन्वयानुकतान्वयप्रतियोगित्यादेः, अनिश्चयात-अनुपलम्मात , आदिना तव्यतिरेकानुकृतव्यतिरेकप्रतियोगित्वग्रहः ॥१७॥
- उक्त युक्ति से अर्थात् कार्यकारण और उन का ग्राहक इन तीनों का [क्षणिक होने से धौद्ध मत में ] एककाल में प्रयस्थान नहीं होता । अतः कार्य में कारण का और कार्य के ग्राहक में कारण के ग्राहक का अविच्छेदन स्वीकार करने पर एक ग्राहक से कार्य और कारण का प्रहण नहीं हो सकता। प्रत: कारण को कार्यावधिकरण रूपसे मोर कार्य की कारणावधिकत्य रूप से प्रतीति नहीं हो सकती। एवं 'कारण कार्य को पूर्वावधि है और कार्य कारण को उत्तराधि है यह ज्ञान हुए बिना हेतु में कार्यजनन स्वभाव और कार्य में कारण-जन्यत्व स्वभाव का निश्चय मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता ॥१०६॥
१०७ वीं कारिका में 'प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से कार्यकारणभाव का ग्रहण होता है इस बौद्ध के पम्युपगम में क्षति बताई गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
[कारणताग्राहक प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ को अनुपपत्ति ] बौद्धमत में कार्य कारण का कोई एक प्राहक से ग्रहण न हो सकने से खेद होता है कि उनकी इस मान्यता का मो समर्थन नहीं हो सकता कि कार्यकारणमाव का ग्रहण प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से होता है । क्योंकि बौद्धमत में कार्यकारण भाव जानने के लिये अपेक्षित प्रत्यक्ष और अनुपलम्म उपपन्न
नहीं हो सकता। क्योंकि, कारण की सत्ता होने पर कार्य की सत्ता के निश्चय कोही कार्य कारण भाव ग्राहक प्रत्यक्ष कहा जाता है । तथा 'कारण के प्रभाव में कार्य का प्रभाव होना' इस निश्चय को अनुपलम्म कहा जाता है। ये दोनों हो निश्चय एक प्राहकशान से कार्य-कारण जमय का ग्रह समवित न होने से दुर्घट है। व्याख्याकार ने कारिका में आये 'तस्माद् तनाव की व्याख्या की है 'तदन्वयानुकृत अन्वय प्रतियोगित्व' इसका अर्थ है तदन्वय यानी कारण का मन्वय जिस के अन्वय से अनुकृत होता हो उस अन्धय का प्रतियोगित्व । जैसे मृत्तिका का अन्वय घट के अन्वय से अनुकृत होता है प्रस: घट का अन्वय मृत्तिका के अन्धय का अनुकर्ताहमा और घर में उस प्रन्यय का प्रतियोगित्व है। कारिका में 'तद्भाव' शब्द के उत्तर में पठित 'प्रादि' शब्द से व्याख्याकार ने 'तव्यतिरेकानकृत व्यतिरेक प्रतियोगिस्व' का ग्रहण किया है। उस का अर्थ है-ततिरेक यानी कारणामाव जिस के ध्यतिरेक यानी प्रभाव से अनुकृत हो उस अनुकर्ता व्यतिरेक का प्रतियोगित्व, जैसे मत्तिका का व्यतिरेक घट के व्यतिरेक से अनुकृत होता है । घट में उस अनुकर्ता व्यतिरेक का प्रतियोगित्व है॥१.७॥
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था० १० टीका भौर हिन्धी विवेचना ]
[ १६७
एतदेव स्पष्टयनाह
न पूर्वमुत्तरं येह तदन्याऽग्रहणाद् ध्रुधम् ।।
गृह्यतेऽत इदं नातो नन्वतीन्द्रियदशनम् ॥१०८।। ३६-दादी, पूर्व कामता श्रयः, उत्तरं च-तत्प्रतियोगि न गृह्यने, ध्रुव निश्चितम् , तदन्याऽग्रहणातू-अधिकृतदर्शनवेलायामन्याऽदर्शनात । ततः अत इदम् अग्न्यादेधूमादि-इत्यन्वयज्ञानम् , नात: जलादेः इदम् अग्न्यादि इति व्यतिरेक ज्ञानम् , ननु अममायाम् , अतान्द्रियदर्शनम-इन्द्रियातीतम् पूर्व प्रत्यक्षम् ! न चान्यय व्यतिरेकाऽग्रहादेव कारणताग्रहः, कार्यानुकतान्वय-व्यतिरेकप्रतियोगित्वरूपकारणतायां तयोघंटकत्वान , घट्यग्रह. स्य च घटकग्रहाधीनत्वाद , अनन्यथामिनियतपूर्ववनित्वरूपनगृहेऽपि सहचारग्रहत्वेन अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां वा तद्ग्रहहेतुत्वावश्यकत्वात् । न च शक्तिरूपकारणतापि धमिग्रहमात्रात सुग्रहा, तस्या अनुमेयत्वादिति दिग् ॥१०८॥
[पूर्वोत्तर ग्रहण का असंभव ] १०८ वीं कारिका में उपर्युक्त विषय को हो स्पष्ट किया गया है
कारिका-प्रर्थ इस प्रकार है-बौद्ध मत में पूर्व यानी कारण और उत्तर यानी कारणप्रतियोगी अर्थात् कार्य एक ग्राहक से गहित नहीं होते यह निश्चित है, क्योंकि एक के ग्रहणकाल में अन्य का ग्राहक नहीं रहता, जैसे कार्य के दर्शन काल में कारण का और कारण के दर्शनकाल में कार्य का दर्शन नहीं रहता । इसलिये अग्नि के रहने पर धूम होता है यह अन्वयज्ञान, प्रौर अग्नि भिन्न अस्लादि के रहने पर अर्थात् अग्नि न रहने पर धूम नहीं होता है यह स्यतिरेक मान नहीं हो सकता । यदि एक ग्राहक से अग्नि और घम का मान न होने पर भी ऐस। प्रत्यक्ष माना जायगा तो यह प्रक्षम्य होगा, क्योंकि यह प्रत्यक्ष एक इन्द्रियातीत प्रपूध प्रत्यक्ष होगा। प्रर्थात् बौद्धमत में प्रत्यक्षज्ञान इन्द्रियसापेक्ष हो होता है और यह प्रत्यक्ष इन्द्रिय निरपेक्ष होगा क्योंकि धूमप्रत्यक्षकाल में अग्नि के न होने से उस काल में अग्नि का प्रत्यक्ष इन्द्रियनिरपेक्ष हो होगा । क्योंकि उस समय अग्नि विद्यमान न होने से उस में इन्द्रिय व्यापार संभव नहीं हो सकता।
इस संदर्भ में बौद्ध की और से यदि यह कहा जाय कि-'कारणता का ज्ञान इस अन्य रयहिक के ज्ञान के बिना ही होता है, अतः अन्वय-व्यतिरेक ज्ञान सम्भव न होने पर कोई प्रापत्ति नहीं है-'तो यह ठोक नहीं है। क्योंकि.कारणता कार्य द्वारा अनुकृत अन्य व्यतिरेक का प्रतियोगिरव रूप है। मत एवं इस के शरीर में कार्य और कारण दोनों ही घटक है । और कारणता उन दोनों से घट्य से य: स घट्यः' इस पुस्पत्ति के अनुसार घटित है, और घटित का मान घटक के ज्ञान के प्रधान होता है। इस पर बौद्ध को और से यदि यह कहा जाय कि 'कारणता उक्त प्रतियोगित्वरूप नहीं है किन्तु अन्यथासिद्ध नियतपूर्ववतित्व रूप है । अर्थात् कार्य के प्रति अन्यथा सिद्ध न होना और कार्य के अव्यवहित पूर्व क्षण में कार्याधिकरण में नियम से रहना ही कारणता है और इस में कार्यनिरुपित
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८ ]
[शा-वा समुच्चय स्त०४-श्लो० १०६
एवं च विकल्पोऽपि न घटत इत्याह
विकल्पोऽपि तथान्यायाधज्यते न श्वनीदृशः।
तत्संस्कारप्रसूतत्वात्क्षणिकत्याच्च सर्वथा ॥१०९॥ विकल्पोऽपि निश्चयोऽपि, तथान्यायात्-उक्तन्यायात , तत्संस्कारप्रसूतत्वातपूर्वोत्तरसंचित्संस्कारजत्वात् , सर्वथा क्षणिकश्वाच्चअन्वया(१य)विच्छेदेन क्षणिकत्वाम्यु. पगमाञ्च, अनीदृशः असंमृष्टविप्रतिषेधः, न हि-नैव युज्यते । न हि पूर्वानुभृतसंस्कारं विना म्मरणात्मा निश्चयः । न च क्षणभंगे प्राच्यसंस्कारावस्थानमिति ॥१०६।। उपसंहरबाद
प्रन्ययासिद्धिशून्य की प्रतियोगी कुक्षिका माता है। आजायज्ञान के लिये प्रतियोगी का प्रत्यक्ष ज्ञान प्रपेक्षित नहीं होता । प्रतः कार्य के न रहने पर भी कार्य का स्मरणात्मक ज्ञान होकर कारण में कार्यानरूपित अन्ययासिद्धिशून्यत्व का ज्ञान हो सकता है। इसी प्रकार कार्यनियतपूर्वतित्व कार्यव्यापकत्वरूप है और कार्यव्यापकत्व कार्याऽव्यवहितपूर्वक्षण में कार्याधिकरणवृत्ति-प्रभाव-प्रतियोगित्वाभावरूप है। इसलिये इस को भी प्रतियोगिकुक्षी में कार्य का प्रधेश है । अत: इस के ज्ञान के लिये भी कार्यप्रत्यक्ष की आवश्यकता न होने से कार्य को विद्यमानता अपेक्षित नहीं है । अतः कारण-दर्शनकाल में कार्य एवं कार्य का प्रत्यक्ष' म होने पर मो इस कारणता के ज्ञान में मी कार्य-कारण के अन्धयअतिरेक का ज्ञान कारण होता है और ये दोनों ही ज्ञान प्रत्यक्षात्मक होने से कार्य-कारण दोनों को सहसत्ता को अपेक्षा रखते हैं। यदि इस पर भी बौद्ध यह कहें कि-'कारणता शक्तिरूप है अत: उस के स्वरूप में कार्य-कारण किसो का प्रवेश नहीं है । अत एव उस के ग्रहण में कार्य-कारण का प्रत्यक्ष प्रथया कार्य-कारण को विद्यमानता अपेक्षित नहीं है, प्रतः कारण के स्वरूपमात्रग्राहक ज्ञान से उस का ग्रहण हो सकता है'-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि शक्तिरूप कारणता प्रनमेय होती है । अतः इस पक्ष में 'कारणता का ग्रह प्रत्यक्ष और अनुपलम्म से होता है' इस बौद्धमान्यता की क्षति अनिवाय है ।।१०८॥ १०६ वी कारिका में विशिष्ट निश्चय की दुर्घटता बताई गई है
[अन्वय के अभाव में विकल्प की अनुपपत्ति ] कारिका का अर्थ इस प्रकार है-भावमात्र की क्षणिकता के पक्ष में बौद्ध संमत विकल्प विशिष्टनिश्चय भी नहीं हो सकता है, क्योंकि बौद्धमत में विशिष्टनिश्चय की प्रक्रिया इस प्रकार है कि सर्वप्रथम वस्तु का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होता है। वह प्रत्यक्ष वस्तु के स्वरूपमात्र को ग्रहण करता है। उस में, वस्तु में गुण-जाति नाम आदि का मान नहीं होता है। उस के बाद उस निर्विकल्प से महोत वस्तु में गुण-जाति नाम श्रादि के सम्बन्ध का कल्पनात्मक विशिष्ट कान होता है। यह
। यह ज्ञान तब हो होता है जब उस वस्तु के गुण-जानि-नाम प्रादि पूर्वानभवजन्य संस्कार रक्षा है, क्योंकि जिस पुरुष को यह संस्कार नहीं होता उसे वस्तु का निधि कल्पक प्रत्यक्ष होकर ही रह जाता है किन्तु इसके बाद उसका सविकल्पक प्रत्यक्ष नहीं होता है। कारण यह कि यह विशिष्ट निश्चय पूर्व संचित-पूर्वानुभव पर उत्तरसंस्कार-उस अनुभव के उत्तर में उस अनुभव से उत्पन्न संस्कार, इन दो कारणों से उत्पन्न
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था का टीका और हिन्दी विवेचना ]
[१६६
नेत्थं बोधान्वयाभावे घटते तद्विनिश्चयः ।
माध्यस्थ्यमवलम्ब्येतच्चिन्यता स्वयमेव तु ।।११०॥ इत्यम्-उक्तप्रकारेण, बोधान्वयाभावे सति तविनिश्चयः तत्तथास्वाभाष्यविनिश्चयः, न घटते । एतत्-उक्तम् माध्यस्थ्यमवलम्ब्य स्वयमेव तु चिन्त्यताम् , नानाकारानुविद्धस्यैकोपयोगस्यानुभूतेरन्यथानुपपत्तेः ॥११०।। पर: शंकते
अग्न्याविज्ञानमेवेह न धूमज्ञानतां यतः ।
बजस्याकारभेदेन कुतो बोषान्वयस्ततः १ ॥१११॥ इह-तत्तथाभावग्रहम्थले अग्न्यादिज्ञानमेवाकारभेदेन धूमज्ञानतां यतो न व्रजति, अन्यथा नीलपीतज्ञानयोरप्यैक्यप्रसङ्गात् , तत् कुतो बोधान्वयः १ इति ।।१११॥ अत्रोत्तरम्होता है और विषम पस्किार पद सभी पदार्थ त्वय-विच्छेद पूर्वक क्षणिक होते हैं । अर्थात् भाव के उत्पत्ति क्षण के बाद भाव का किसी भी रूप में प्रन्यय नहीं होता है। प्रत: बौद्ध मत में विकल्प का ऐसा समर्थन नहीं हो सकता कि जिसे विप्रतिषेध का संपर्क न हो अर्थात् जो प्रत्याख्यात न हो सके। क्योंकि स्पष्ट है कि पूर्वानुभवाधीन संस्कार के विना स्मरणात्मक निश्चय नहीं हो सकता जो गुण-जाति-नाम प्रादि के स्मरण रूप में सधिकल्पक प्रत्यक्ष के लिये अपेक्षित है और क्षणमनवाद में पूर्वानुभवजन्य संस्कार स्मरणात्मक निश्चय के उत्पत्तिपर्यन्त प्रस्थित न होने से उस का जनक नहीं हो सकता ।।१०६॥
(बोधान्वय न होने पर जन्य-जनक भाव को अनुपपत्ति) ११० वी कारिका में प्रस्तुत विचार का उपसंहार किया गया है। प्रर्थ इस प्रकार है-प्रन्यकार का कहना है कि बौद्ध को तटस्थ होकर इस बात का स्वयं चिन्तन करना चाहिये कि भावमात्र के क्षणिकत्व पक्ष में जब उत्तरज्ञान में पूर्व ज्ञान का बोधरूप में अन्वय नहीं हो सकता तब उत्तर ज्ञान में पूर्वज्ञानजन्यस्वभावता का और पूर्वज्ञान में उत्तरज्ञान जनक स्वभावता का निश्चय कथमपि नहीं हो सकता क्योंकि उक्त स्वभाव पूर्वज्ञान और उत्तरशान से घटित है, प्रतः उक्त स्वभावशान उन दोनों के सह ज्ञाम होने पर ही हो सकता है और वह उक्त ज्ञानों में किसी भी प्रकार का अन्वयन होने से संभव नहीं है । व्याख्याकार ने इस वक्तव्य को स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि अनेक प्राकारों से अनुविद्ध एक उपयोग का अनुमब होता हैं । जैसे 'ग्रहमग्निं जानामि' इस प्रकार अग्निज्ञान के अनुभव के बाद 'धूममहं जानामि' इस प्रकार धूमज्ञान का अनुभव होता है । इन दोनों अनुमकों में ज्ञानांश में समानता प्रतीत होती है । यह समानता समो हो सकती है जब दोनों ज्ञान किसी एक बोष की ही विभिन्न अवस्थाएँ हो। ऐसा माने बिना वोनों में प्रत्यन्त भेद होने के नाते वोनों में समानता को प्रतीति का कोई प्राघार न होने से उस प्रतोतिको उत्पत्ति नसे हो सकती है ।।११०॥ - १११ वीं कारिका में 'क्रमिक मानों में एक बोध को अनुगति होती है। इस विषय में बौद्ध को शंका प्रस्तुत की गई है--
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७० ]
[ शा. वा. समुच्चय स्त. ४ श्लो० ११२
तदाकारपरित्यागात्तस्याकारान्तरस्थितिः ।
बोधान्वयः प्रदीर्धकाध्यवसायप्रवत्तकः ॥११२।। सदाकारपरित्यागात् अग्न्याद्याकारतिरोभायात् तस्य बोधस्य आकारान्तरस्थितिः धृमाद्याकारणाविर्भावः योधावयः सर्वथाऽसद्धावविरोधात । स च प्रदीर्घ प्रवाहवान य एकः एकसंततिमान अध्यवसायस्तस्मवतका तनिमित्तम् ; नील-पीताकारयोर्मिनसंततिगनत्वेन विरोधेऽप्यग्नि-धूमाद्याकागणामेकसननिगतत्वेनाविरोधात , एकत्र बसंविदि ग्राह्यग्राहकाकारवत् । न च समानकालीनाकारभेदेनाकारवतोऽभेदेऽपि क्रमिकाकारभेदात् तन्दः,
(नोलज्ञान-पोतज्ञान के ऐक्य को प्राशंका) । बौद्ध का यह कहना है कि- 'यहां कारणज्ञान से कार्यज्ञान के उत्पत्तिस्थल में अग्निज्ञान रूप कारणज्ञान प्राकारभेद से घमशान रूप कार्य बन जाता है-यह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर नीलज्ञान और पोतमान में भी ऐक्य हो जायगा। क्योंकि जहां नीलज्ञान के बाद पीतज्ञान को उत्पत्ति होती है वहां पोतज्ञान कार्यभूत ज्ञान है और नोलज्ञान उस का समनन्तर कारण मूत ज्ञान है अत एव पीतजान भी उक्त रोति से प्राकारभेद से नोलज्ञान माना जा सकेगा । यह ऐक्य किसी को मान्य नहीं है प्रतः कार्यज्ञान में कारणज्ञान का बोधरूप से अन्धय कैसे सिद्ध हो सकता है ?. अर्थात् जब एक स्थान में कार्यशान को कारणजान परिणाम नहीं माना गया तो उसी रीति से अन्यत्र सभी स्थानों में कार्यभान को कारणज्ञान का परिणाम न मानना सम्मव हो सकता है, प्रतः कार्यज्ञान में कारणज्ञान का बोधात्मना अन्यय प्रसिद्ध है ।।१११॥
[नोलज्ञान-पीतज्ञान एक्यापत्ति का परिहार] ११२ बों कारिका में बौद्ध को उक्त शंका का समाधान किया गया है -
बौद्ध को पूर्व प्राकार का परित्याग कर अन्य प्राकार से प्राविर्भाव मानना प्रावश्यक है। क्योंकि ऐसा न मानने पर अग्निज्ञान के बाद जो धमझान को उत्पत्ति होती है वह प्रसत की ही उत्पत्ति मानी जायगी, क्योंकि घुमज्ञान का किसी भी रूप में उस से पूर्व प्रस्तित्व सिद्ध नहीं होता पौर सर्वथा असत् की उत्पत्ति विरोधग्रस्त है-यह कहा जा चूका है।
इस सम्बन्ध में जो बौद्ध को प्रोर से नीलज्ञान और पीतज्ञान के ऐक्य का प्रापादान किया गया है वह ठीक नहीं है क्योंकि बोध का प्रत्यय एक सन्तान में प्रवहमान अध्ययसाय का हो प्रवर्तक होता है। नोलाकार-पीताकार अध्यवसाय भिन्न सन्तति गत है अतः उन का प्रवर्तक किसी एक बोधाचय के अधीन नहीं है। प्रत एव पीतज्ञान के पूर्व नीलाकार में परिणतबोध का पूर्व नोलाकार परित्यागपूर्वक पीताकाररूप में परिणाम नहीं माना जा सकता। किन्तु अग्निकारज्ञान और धमाकारजान एक सन्तानगत है प्रत एव उन में एक बोध का प्रन्यय मानने में कोई विरोध नहीं होता। यह अविरोध स्वग्राही एक ज्ञान के ग्राह्य और ग्राहक के प्राकार के दृष्टान्त से अवगत किया जा सकता है। कहने का प्राशय यह है कि जैसे ग्राह्य प्राकार और प्राहकाकार में अन्यत्र स भेद होता है किन्तु ज्ञान के अपने स्वरूप में ग्राह्याकार ओर ग्राहकाकार में भेद नहीं होता क्योकि एक ही ज्ञान स्वप्रकाश होने से ग्राह्याकार भी होता है, ग्राहकाकार भी होता है। उसी प्रकार भिन्न
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० ० टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ १७१
सद्वदेव तस्याऽविरुद्धन्वेनाऽभेदकत्वात् 'मुहूर्त मात्रमहमेकविकल्पपरिणत एवासम्' इत्यबाधितानुभवात् । न च नयायिकेनाप्येतदनुभवापहः कर्तुं शक्यः प्रदोषाध्यवसायस्प धारावाहिकतया समर्थने स्थूलकालमादाय 'पश्यामि' इति प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वे तदैक्पप्रत्यभिज्ञायाश्च तज्जातीयाऽभेदविषयकत्वे, घटादौ वर्तमानताप्रत्यय-प्रत्यभिज्ञयोरपि तथात्वे बौद्धसिद्धान्तप्रवे
सन्तान में विद्यमान ज्ञान के प्राकारों में विरोध होने पर भी एक सन्तानगत ज्ञानाकारों में प्रक्रोिध हो सकता है । तात्पर्य यह है कि अग्नि और घम पर्यायों का मूलद्रव्य एक है एवं अग्निज्ञान मोर धमज्ञान का मूलभूत बोध भो एक है । मूलभूत व्रव्य का अग्नि-धूमादि रूपमें पूर्वपर्याय परित्याग पूर्वक उत्तरपर्यायात्मना परिणमन होता है और मूलभूतबोध का मी पूर्वाकार परित्यागपूर्वक उत्तर प्राकार में परिणाम होता है किन्तु नील और पोतपर्यायों का एक मूलद्रव्य नहीं है और नोलाकार पोताकार ज्ञानों का एक मूल मूतम्रोष मी नहीं है प्रत एव जैसे नोलपोतपर्यायों में एक मूल द्रव्य का अन्वय नहीं होता उसी प्रकार नीलपीत ज्ञानों में एक मूलभूत बोध का अन्वय नहीं होता। अतः अग्नि और धम के शान में एक बोध के अन्यय के समान नोलपोतज्ञान में एक बोधान्वय कर प्रापावान करना निराधार है।
[भिन्नकालीन प्राकार वस्तके भेदक नहीं है ] इस संदर्भ में बौद्ध की घोर से एक यह शंका हो सकती है कि-'एककालीन प्राकारों के भेद से प्राकारवान में भेद न हो यह तो हो सकता है, किन्तु क्रमिक प्राकारों के भेद से भो प्राकारवान का भेद न हो यह युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि जब कमिक पाकारों में भेष है तो पूर्वकालिक प्रकार से प्रभिन्न प्राकारवान् उत्तरकाल में पूर्णकार के न रहने से उस पूर्वाकार से अभिन्न प्राकारवान् भी नहीं रह सकता। एवं उत्तरकालिक प्राकार पूर्व काल में न रहने से उस से अभिन्न अस्कारवान भी पूर्वकाल में नहीं रह सकता । फलतः क्रमिक प्राकारों को किसी एक का प्राकार नहीं माना जा सकता'किन्तु यह शंका ठोक नहीं है क्योंकि जैसे एककालोन आकार प्राकारवान् के भेवक नहीं होसे उसी प्रकार भित्रकालीन प्राकारों भी परस्पर विरुद्ध न होने के कारण प्राकारधान के भेदक नहीं हो सकते, क्योंकि धर्मी को भिन्नता धर्मों की भिन्नता पर नहीं किन्तु धर्मों के विरोध पर आश्रित होती है। 'क्रमिक प्राकारों में भी विरोध नहीं होता' यह बात 'मैं मुहतपर्यन्त एक विकल्प के रूप में परिणत था' इस अबाधित अनुभव से सिद्ध है । यह स्पष्ट है कि इस अनुभव में एक हो की मुहर्त पयन्त एकाकार ऋमिक विकल्पों के रूप में अवस्थिति प्रवभासित होती है, अतः इस अनुभव से एक व्यक्ति में हो कमिक प्राकारों का भाम होने से क्रमिक प्राकारों का अविरोध व्यक्त है
[ दोर्घ अध्यवसाय को धारावाहिकज्ञान मानने में नैयायिक को प्रापत्ति । व्याख्याकार का कहना है कि नयायिक मी जो क्रमिक ज्ञानों में एक खोध का अन्वय स्वीकार नहीं करते इस अनुभव का अपलाप नहीं कर सकते । अतः इस अनुभव के अनुरोध से उन्हें भी कमिक ज्ञानों में एक बोध का प्रन्यय मानना पड़ेगा। क्योंकि उसे माने विना इस अनुभव की उपपत्ति करना शक्य नहीं है। यदि वे उक्त अनुभव के विषयभूत बोध यध्यवसाय को धारावाही ज्ञान मान कर इस अनुभव का समर्थन करना चाहे तो यह भी शक्य नहीं है, क्योंकि इस मुहूर्तव्यापी दीर्घ मध्यवसाय को 'पश्यामि'
के युगपद् द्वौ नस्त उपयोगी।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२ ]
[ ० मुली
,
,
शात् । न चैवं गोदर्शनकाल एवाश्वविकल्पानुभवात् तयोरप्येकदाभ्युपगमः स्यात्, अनुभवस्य प्रत्याख्यातुमशक्यत्वात् एवं च तवापि * 'जुगवं दो णत्थि उनओगा' इति वचनव्याघात इति वाच्यम् उक्तच चनस्य समान सविकल्पद्वययौगपद्यनिषेधपरत्वात् इन्द्रिय मनोज्ञानयोरेकदाप्युपपत्तेः' इति सम्मनिटीकाकारः । मिन्नेन्द्रियज्ञानयोगपद्यं तु बाधकात् त्यज्यते । प्रकृते च नैकोपयोगानुभये किञ्चिद् बाधकं पश्यामः । न घोत्तरक्षणवर्तिविभुविशेषगुणानां स्वपूर्ववृत्तियाग्यविभुविशेषगुणनाशकतया प्रदीर्घाध्यवसायस्य वाधः सुषुप्तिप्रात्रकालीनज्ञानादेवि सर्वस्यैवोरक्षण वृत्तित्व विशिष्टस्य स्वनाशकत्वेन क्षणिकत्वप्रसङ्गात् स्वत्वस्य नानात्वेन विशिष्यैव नाशकत्वकल्पनाच्चेति । अन्यत्र विस्तरः ।
1
इस प्रकार से वर्तमानकालिक रूप में प्रतीति होती है। किन्तु बर्तमानकाल क्षणों को लेने पर यह प्रतीति प्रत्यक्षात्मक नहीं हो सकती, क्योंकि क्षण का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, और वर्तमानकाल के रूप में मुहूर्तात्मक स्थूलकाल को लेने पर यह प्रतीति भ्रमात्मक होगी। क्योंकि इस प्रतीति का विषयभूतज्ञान मुहूर्त पर्यन्त कोई स्थिर नहीं रह सकता, कारण यह कि उन के मत में ज्ञान क्षणद्वयस्थायि होता है। यदि 'पश्यामि' इस प्रतीति को भ्रमरूपता का स्वीकार कर लेंगे तो धारावाहिक ज्ञानस्थल में जो ऐक्य की प्रत्यभिज्ञा होती है उसे सजातीय प्रभेदविषयक मानना पड़ेगा और यदि यह भी मान लेंगे तो घट घादि के क्षणिक होने पर मो उनकी वर्तमानता के भ्रमरूप प्रत्यय को एवं सजातीय प्रभेद विषयक मानकर उन की प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति भी की जा सकेगी। फलतः घटादि को भी स्थिरता सिद्ध न होने से नैयायिक का बौद्धसिद्धान्त में प्रवेश हो जायगा । अतः उक्त अनुभव [ मुहूर्तमात्र महमेक विकल्पपरिणत एवासम् ] की उपपत्ति के लिये क्रमिक ज्ञानों में एक बोधान्वय मानना श्रावश्यक होगा ।
[ 'एक साथ दो उपयोग नहीं होते' वचन के व्याघात की आशंका ]
यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि यदि उक्त अनुभव के अनुरोध से क्रमिक भिनाकार ज्ञानों को परिणामी बोधरूप में एक कालावस्थायी मानने पर जहाँ गोदर्शन यानी गो के निर्विकल्पक प्रत्यक्षकाल में ही पूर्वक्षणोत्पन्न प्रश्वविकल्प यानी श्रश्वविषयक विशिष्टप्रत्यक्ष का 'प्रश्वं पश्यामि' इस प्रकार अनुभव होता है वहां प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष विषय के समानकालिकत्व नियम के अनुरोध से गोदर्शन और अश्वविषयकविकल्प का एक ही काल में अस्तित्व मानना होगा क्योंकि गोवर्शनकाल में श्वविकल्प के अनुभव का प्रत्याख्यान नहीं किया जा सकता । तथा 'ऐसा मान लेने पर एक काल में दा उपयोग नहीं होते' इस जैन सिद्धान्तसूत वचन का व्याघात होगा। क्योंकि एक ही काल में दर्शनात्मक और विकल्पात्मक वो उपयोगों का एक काल में अस्तित्य उक्त अनुभव के अनुरोध से मान लेना पडता है" तो यह ठोक नहीं है क्योंकि सम्मति ग्रन्थ की टीका में अभयदेवसूरि का यह स्पष्ट कथन है कि एक काल में दो उपयोग नहीं होते इस वचन का तात्पर्य समान सविकल्पक वो उपयोगों के एककालीनत्व के निषेध में है, क्योंकि इन्द्रियजन्य उपयोग और मनोजन्यउपयोग दोनों को एक काल में मो अवस्थिति होती है। मिन इन्द्रिय से दो ज्ञानों का एककालीनत्व नहीं माना जाता, क्योंकि भित्र हन्त्रियों का ज्ञानार्जन में सह व्यापार बाधित होता है । अतः प्रकृत में प्रर्थात् श्रग्निज्ञान और धूमज्ञानमें एक उपयोग यानी एक बोधान्वयका अनुभव माननेमें कोई बाध नहीं है ।
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ १७३
(विभुपदार्थ के विशेष गुणों में क्षणिकता के नियम का विसंवाद ) __यदि यह कहा जाय कि-"उत्तरक्षणवत्ति विभु का विशेषगुण अपने पूर्ववत्ति विभु के योग्य. विशेष गुण का नाशक होता है-यह नियम है इसलिये कोई अध्यवसाय बीर्घकाल तक नहीं रह सकता, क्योंकि, जो भी उस के उत्तरक्षण में विभुविशेषगुण उत्पन्न होगा उससे उसका नाश हो जायगा और जाग्रत अवस्था में प्रति क्षरण कोई न कोई ज्ञान उत्पन्न होता ही रहता है"-किन्त यह ठीक नहीं है क्योंकि, जैसे सुषुप्ति के अव्यवहित प्राककाल में उत्पन्न होनेवाला ज्ञान प्रावि क्षणिक होता है, उसके अव्यवहित द्वितीयक्षण में ही उस का नाश हो जाता है, क्योंकि सुषुप्ति हो जाने पर त्वङ्मन:संयोग न रहने से प्रात्मा में किसी विशेष गुण की उत्पत्ति का सम्भव न होने से उसका नाश उत्तरकालिक विशेषगुण से नहीं होता अपितु पूर्ववर्तीगुण से या स्वयं उसी से उस का नाश होता है-उसी प्रकार समी योग्य विभु विशेषगुण क्षणिक हो जायेंगे । अर्थात् जाने द्वितीयमाण में भी ना हो जगांगे क्योंकि भो स्व शब्द से गृहोत हो सकता है। प्रत एव स्वशब्द से द्वितीयक्षण में होने वाले विशेषगुण को ग्रहण करने पर स्व का पूर्ववत्ति होने से उन में नाश्यता मो हो जायगी। इसी प्रकार प्रत्येक योग्य विभु विशेषगुण में स्वनाश्यता और स्वनाशकता उमय को प्रसक्ति होने से उसका द्वितोयक्षण में नाश हो जायगा । दूसरी बात यह है कि 'सत्व' एक अनुगत धर्म न होकर प्रतिव्यक्ति विश्रान्त हो माना जाता है क्योंकि उसे अनुगत मानने पर सामान्यरूप से स्वाध्यवहितोत्तरत्व प्रथवा स्वाव्यवहितपूर्वत्व को अप्रसिद्धि हो जाती है, क्योंकि स्वाव्यवहितोस रत्व का अर्थ होता है स्वाधिकरणक्षणध्वंसाधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणत्वे सति स्वाधिकरणक्षणध्वंसाधिकरणत्व, अर्थात् स्व के अधिकरणभूत क्षण के ध्वंस का प्रधिकरणभूत जो क्षण, उस क्षण के ध्वंस का अनधिकरण होते हुए जो स्वाधिकरणक्षणध्वंस का प्रधिकरण होता है उसे स्वाव्यवहितोत्तर कहा जाता है। इसीप्रकार स्वाव्यवहितपूर्वत्तित्व का प्रथ होता है स्वाधिकरणक्षणप्रागभावाधिकरणक्षणप्रागभावनाधिकरणत्वे सति स्थाधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणत्व, प्रति स्वाधिकरणक्षण के प्रागभाव का प्रधिकरण जो क्षण, उस क्षण के प्रागभाव का अनधिकरण जो क्षण उस क्षण के प्राग माय का अनाधिकरण होते हुये जो स्वाधिकरणक्षणध्वंस का अनधिकरण हो। यदि स्वशब्दार्थ अनुगत माना जायगा तो स्वाव्यवहितोत्तरत्व के शरीर में स्वाधिकरणक्षणध्वंसाधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणत्व को अप्रसिद्धि हो जायगी। क्योंकि प्रत्येकक्षण के पूर्व का तृतीयक्षण भी किसी न किसी स्व का प्रधिकरणक्षण होगा, उस के ध्वंस का अधिकरण पूर्ववत्ति द्वितीयक्षण होगा और उस के ध्वंस का यह क्षण अधिकरण हो हो जायगा जिस में स्वाव्यवहितोत्तररव स्थापित करना है। इसी प्रकार स्वाथ्यवहित पूर्वत्व के शरीर में दोनो ही दल प्रसिद्ध हो जायेंगे क्योंकि जिस क्षण में स्वाव्यवहित पूर्वत्व स्थापित करना है उस के पूर्व में उत्पन्न होनेवाला पदार्थ भी स्वपद से पकडा जा सकता है इसलिये स्वाधिकरण क्षण शब्द से स्वाव्यवहित पूर्वश्वेनाभिमत क्षरण के पूर्व का भी क्षरण हो जायगा और वह उस के ध्वंस का प्रधिकरण हो होगा । इसी प्रकार स्वशब्द से स्वाऽव्यवहित पूर्वत्वेन अमिमत क्षण के उत्तर तृतीयक्षण में उत्पन्न होनेवाला पदार्थ स्वपर से पकड़ा जा सकता है, उस का प्रधिकरण उत्तरवों ततोयक्षण होगा । और उसके प्रागभाव का वह भरण अधिकरण ही होगा जिस में स्वाध्यवाहित पूर्वस्व अभिमत है । इस प्रकार स्व पदार्थ को अनुगत मानने पर स्वास्यवहित उत्तरत्व और स्वाव्यवहित पूर्वत्व को मप्रसिद्धि हो जायगी। प्रतः स्वत्व को तत्तद्वयक्तित्वरूप मानना पडेगा जिस से कि स्वाव्यवहित उत्तरत्व और स्वाव्यवहित पूर्वत्व तत्तयक्ति के स्वाव्यवहित उत्तरत्व और स्वाव्यवहित पूर्वत्व के रूप में प्रसिद्ध बन सके। इस प्रकार जब स्वस्व विविध हुमा तो पूर्ववर्ती योग्य विभु विशेषगुण
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४ ]
[ शा वा० समुच्चय त०४ श्लो, ११२
न च म्वतन्त्राग्नि धमाधुपयोगभेदवदत्रापि तद्भेद इति कुचोधमाशंकनीयम् , एकमामग्रीप्रभवैकविचागणीभूनाकारभेदेऽप्यजिनो न भेद इन्युक्नत्वात् । न चाऽन्यादिविषयकारणभेदान मामग्रीभेदः, योग्यतातो विषयप्रतिनियमोपपत्ती विषयस्याध्यक्षाऽहेतुत्वात , अन्यथा योगिज्ञानस्याऽवर्तमानार्थवाहित्वानुपपत्तेः । अथैवमेकत्र प्रभातरि एक एकोपयोगः म्यात , तदाकारमेदादखिलव्यवहारोपपत्तेरिति चेत् ? सत्यम् , घटादमृदादिरूपतयेयात्मद्रव्यतयेक्येऽप्यविन्यतिरूपभेदस्यानुभवसिद्धत्वेनाऽविरोधादिति दिन ॥११॥
मौर उत्तरक्षरणत्तियोग्यविभूविशेषगरण में इस प्रकार का नाम्य-नाशक भाव नहीं बन सकता कि विभु विशेष गुण स्वाम्यवहित पूर्ववृत्ति योग्य विभु विशेषगुण का नाशक है अथवा योग्य विभु दिशेषगुण स्वाम्यवाहितउत्तरक्षणवृत्ति विभु विशेषगुण से नाश्य है । फलत: योग्यविभु विशेषगुण और विभु विशेषगण में नाश्यनाशकभाष को कल्पना विशेष रूप से ही करनी होगी, अर्थात् इस प्रकार नाश्यमाशक भाव बनाना होगा कि तत्तद्योग्य विभुविशेषगुण के नाश के प्रति तत्तद्विभुविशेषगुग और विशेषगुणों में सामान्य माश्य-नाशक भाव न बन सकने से किसी योग्य विभु-विशेषगुण का नाश उस के उत्तरवत्ति विशेषगुण से बना नहीं प्रसक्त हो सकता किन्तु जिम योग्यविभुविशेषगुण का स्थय जिस काल तक युक्ति या अनुभव से प्राप्त होता है उस के उत्तरक्षण में होनेवाले विभुविशेष गुण से ही जसका नाश माना जायगा। प्रत एवं 'मुहर्तमानमहमेकविकल्पपरिणत प्रासम्।' इस अनुमय से प्रास्मा में महतं पर्यन्त एकविकल्पात्मक परिणाम की सिद्धि में कोई बाधा नहीं हो सकती। इस विषय का विशेष विचार अन्यत्र दृष्टव्य है।
[ अंगभेद होने पर भी अंगी का भेद नहीं ] यदि यह कुशंका को जाय कि-'जैसे अन्यत्र स्वतन्त्र अग्नि का और धम का उपयोग मिन्न भिन्न होता है उसी प्रकार अनुमाता के अग्नि के और धम के उपयोग में भी भेद प्रावश्यक है- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि एक सामग्रो से उत्पन्न और एक विचार के अंगभूत प्राकारों में भेद होने पर भी अंगो में भेद नहीं होता है यह कहा जा चुका है। प्रकृत में भी अग्निज्ञान-धूमज्ञान एक सामग्नीप्रसव एवं एकविचार का अंग है। इसलिए अग्निप्राकार-धमाकार में भेव होने पर भी उन ज्ञानों के रूप में परिणत होनेवाले उपयोगात्मक अंगो में अमेव हो उचित है । यदि यह कहा जाय कि-'एक व्यक्ति को मो प्रग्नि का और धम का प्रत्यक्षात्मक ज्ञान होता है उस में भी सामग्रीभेद होता है क्योंकि प्रत्यक्ष के प्रति विषय कारण होने से अग्निप्रत्यक्ष की सामग्री में प्रग्ति का प्रवेश और धम प्रत्यक्ष की सामग्री में धम का प्रवेश होता है तो यह ठीक नहीं क्योंकि तत्तत्नध्यक्षीयविषयता का प्रतिनियम तत् तत् अध्यक्ष के विषयीमधन की योग्यता से ही उपपन्न हो जाता है अतः प्रत्यक्ष के प्रति विषय को कारण मानने में कोई युक्ति नहीं रह जाती। प्रतः अध्यक्ष की सामग्री में विषय का प्रवेश प्रसिद्ध होने से पग्निप्रत्यक्ष और धूमप्रत्यक्ष का सामग्रीभेव प्रसिद्ध है। यह भी ज्ञातव्य है कि प्रत्यक्ष के प्रति विषय को कारण मानने में मात्र युक्ति का प्रभाव को नहीं है, अपितु बाधा भी है. क्योंकि प्रत्यक्ष के प्रति विषय को कारण मान लेने पर योगी को भूत और भविष्य, यानी वर्तमान में विद्यमान विषयों का वर्तमानकालीन प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा, क्योंकि जिस काल में योगी को भूत-भविष्य विषयों का
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ १७५
न चायं भ्रान्त इत्याह
स्वरसंवमनUिTE च सालोपनियापि ।
अल्पना युज्यते युक्त्या सर्वभ्रान्तिप्रसङ्गतः ॥११॥ न चायंबोधान्धयः,-भ्रान्तः भ्रान्तिविषयः, इत्यपि कल्पना (युक्त्या) युज्यते । कुतः ? इन्याहः स्वसंवेदनसिद्धस्वात्-म्ब संविदितज्ञानपरिच्छिन्नन्वान् , अध्यक्षप्रमितस्यापि भ्रान्तत्वे, सर्वभ्रान्तिप्रसङ्गना-घटादीनामप्यसवापत्या प्रमाण-प्रमेयादिविभागांमछेदप्रसं. गात् ॥११३॥
प्रत्यक्ष होता है उस काल में उन विषय विद्यमान न होने से उन विषय रूप कारणों के प्रभाव में योगो का प्रत्यक्ष दुघट होगा।
(एक प्रमाता को सदेव एक हो उपयोग स्वीकार्य ) यवि यह कहा जाय कि-'तब तो ऐसा मानने पर एक प्रमाता में एक ही उपयोग सिद्ध होगा क्योंकि उसी का विभिन्नाकार ज्ञानों में परिणाम होता रहेगा और उन्हीं ज्ञानों से सपूर्ण व्यवहार को उपपत्ति हो जायगी'-तो यह कथन अपेक्षया स्वीकार्य है। एक प्रात्मा का उपयोग-प्रात्मद्रव्य रूप में
है किन्तु उस में रूपभेद को षिच्युति यानी 'बना रहमा' अनुभवसिद्ध है, अत एव उस के रूपमेव का अस्वीकार नहीं किया जा सकता और उस अनुभव के कारण हो बिभिन्न रूपों से उपेत अंक उपयोग का अंक प्रास्मा में अस्तित्व मानने में कोई विरोध नहीं है । यह विषय घर और घटादिपर्याय एवं तृष्य के द्रष्टान्त से सुखबोध्य है। प्राशय यह है कि-जैसे घर, कपाल, पिण्ड, प्रादि रूपों में एक हो मिट्री तुक्ष्य का प्रत्यय होता है उसी प्रकार एक प्रमाता में होनेवाले विभिन्नाकार झानों में उस प्रात्मतव्य के प्रभिन्न रूप में बतमान एक उपयोग का ही अन्वय होता है ।।११२॥
११३ वीं कारिका में विभिन्नाकार ज्ञानों में एक बोध के अन्बयप्रतीति को भ्रमरूपता का निराकरण किया गया है
कारका का अर्थ इस प्रकार है-"मुहत्तमात्रमहं एकविकल्पाकारपरिणत एषासम्' इस अनुभव में जो मुहत पर्यन्त होनेवाले कानों में एक बोधान्यय का भान होता है वह प्रनुभव उस अंश में सम है । अतएव भ्रम का विषय होने से विभिन्न ज्ञानों में एक बोध का मन्वय अमान्य है।" बौद्ध को यह कोरी कल्पना है, क्योंकि यिमिन्न झानों में एक बोध का अन्वय स्वसवेदो उक्त प्रत्यक्षात्मक अनुभव से निश्चित है। कहने का प्राशय यह है कि ज्ञान विषय के सवेवन के साथ स्वस्वरूप का भी संवेदन करता है। अतः उक्तअनुभव स्वसंवेदी होने से विभिन्न मानों में एक बोध के प्रन्यय की अपनी प्राहकता का भी ग्राहक है । उक्त अनुभव का उत्तरकाल में बाध न होने से यह प्रमात्मक है इसलिए उस ज्ञान से जो विषय गृहीत होता है वह अमान्य नहीं हो सकता। भ्रमात्मक ज्ञान भो स्वसवेदि होता है किन्तु उत्तरकाल में उस का बाप होने से उस का बाधितमर्थनहिस्वरूप सिद्ध होता है और वह ज्ञान के स्वसवेदित स्वभाव के कारण प्रपने उसी स्वरूप को ग्रहए करता है प्रतः उस का विषय प्रसत्य होने से प्रमान्य होता है, किन्तु अबाधित प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहीत इथं को भ्रम का विषय नहीं माना जा सकता, फिर भी ऐसा मानने पर सपूर्णज्ञान से गृहीत विषयों में भ्रमविषयता को प्रसक्ति
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ शा. वा. समुच्चय स्त० ४-श्लो० ११३
नन्यन्वयग्राहिणो विकल्पस्य भ्रान्तत्वेऽपि स्वलक्षणनिर्विकल्पस्याध्यक्षत्वेनाऽम्रान्तत्वाद् नोक्तदोषः । न च नामाद्युल्लेखपरिष्वक्तमूर्तिविकल्पोऽध्यक्षः, असंनिहितनामादियोजनाकरम्बितत्वात् , प्रत्यक्षम्य च संनिहितमात्रविषयत्वात् । एतेन
'वानरूपता घेदव्युत्कामेदवयोधस्य शाश्वती।
म प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनो ॥१॥ इति वासंस्पृष्टस्यैव सकलार्थस्य संवेदनम', इति शाब्दिकमतं निरस्तम् , अर्थदर्शने तद्वाक्स्मृतेस्तत्संस्पर्शः, तत्संस्पर्श च तत्संस्पृष्टार्थ ग्रहणमित्यन्योन्याश्रयात् , अगृहीतसंकेतस्य च पालस्य वागसंस्पर्शनार्थाग्रहणप्रसङ्गात् . 'किम् ?' इति वाक्मस्पर्श च सामान्यग्रहेऽपि विशेषाऽग्रहात् । किञ्च, खरी वाचं न नायनं ज्ञानमुपस्पृशति, तस्याः श्रोत्रमात्रायत्याभ्युपगमात् । नापि स्मृतिविषयां मध्यमाम् , तामन्तरेणापि शुद्धसंविदो भावान् । संहताशेषवर्णादिविभागा 'पश्यन्ती' च वागेव न भवति, बोधरूपत्वात् , बाचश्च वर्णरूपत्वात् । अतो न तक्ता प्रतिपत्तिः अपि त्वविकल्पिकैवेति । होगी और भ्रम का विषय होने से संपूर्ण ज्ञान के विषय असत् हो जायेंगे ? फलतः घट प्रादि के प्रसिद्ध हो जाने से प्रमाण-प्रमेय ग्राह्य ग्राहकभाव प्रादि व्यवस्था जो बाह्यार्थवादी बौद्धों को भी मान्य है उन सभी का उच्छेद हो जायगा ॥११३।।
यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि-विकल्पात्मक ज्ञान अन्य यत्राही होने से भ्रमरूप होता है, क्योंकि अन्वय यानी एकदूसरे के साथ सम्बन्ध, काल्पनिक वस्तु है। किन्तु अध्यक्ष निविकल्पक होता है। यह स्वलक्षण शुद्ध वस्तु काही ग्रहण करता है । उस में किसी भी कल्पित वस्तु का भान नहीं होता है, अत एव वह भ्रमरूप नहीं होता है। इसलिए उस निर्विकल्प प्रत्यक्ष से स्थलक्षण वस्तु प्रमाण सिद्ध होने से प्रमाण-प्रेमय के विभागादि के उच्छेद का पापादान नहीं हो सकता। विकल्पास्मक ज्ञान के शरीर में नाम आदि के उल्लेख का संबंध होता है, प्रत एव बह अध्यक्ष-निविकल्प प्रत्यक्ष के समान प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि वह नाम श्रादि प्रसन्निहित पदार्थों से मिश्रित होता है और प्रत्यक्षप्रमाण वही होता है जो सन्निहित मात्र को ग्रहण करे ।।
इस संदर्भ में शाब्दिकों का यह कथन है कि-"संपूर्ण पदार्थों का शब्द-संबंद्धरूप में ही शान होता है । अर्थात् ऐसा कोई ज्ञान नहीं होता जो शम्दार्थ के संबंध को विषय न करें, अत: बौद्ध की शम्द से प्रसंस्पृष्ट अर्थ के निर्विकल्प प्रत्यक्ष की कल्पना- युक्तिसंगत नहीं हो सकती । शाग्रिकों का अपने उक्त प्रथ के समर्थन में यह भी कहना है कि-ज्ञान में वागरूपसा वाक् का संस्पश शाश्वत है -सनासन है । यदि ज्ञान बागरूपता का अतिक्रमण करे तो कोई भी शान नहीं सिद्ध हो सकेगा क्यों कि वाफ ही ज्ञान की प्रत्यवर्माशनी अर्थात् ज्ञान के अस्तित्व में साक्षी है।
कहने का प्राशय यह है कि ज्ञान का अस्तित्व प्रमिलाप से हो प्रमाणित होता है, जब तक अभिलाप नहीं होता, तब तक यह नहीं समझा जा सकता कि किसी को कुछ शान है । और संपूर्ण जानों का सब शम्बों से अभिलाप नहीं होता है किन्तु ज्ञानवियोष का शम्द विशोष से अभिलाप होता
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
भ्यक० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ १७७ है इसलिए यह मानना प्रावश्यक है कि ज्ञान में शब्द का अनुवेध होता है और उस अनुवेधक शम्द से ही ज्ञान का प्रमिलाप होता है।"-इस पर बौद्ध कहते हैं कि
__ शाब्दिकों का यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि अर्थ ज्ञान में वाक का संस्पर्श मानने में अन्योन्याश्रय है, और उस का कारण यह है कि-मनुष्य को किसी प्रथं का चक्षु प्रादि से जब ज्ञान होता है तब सर्वदा उस अर्थ का बोधक शब्द श्रुत नहीं रहता। ऐसे स्थलों में यह मानना होगा कि चक्षु से पहले प्रर्थज्ञान होता है, इसके बाद प्रर्थबोधक शब्द का स्मरण होकर अर्थ के साय शब्द का सबंधज्ञान होता है। यदि समी ज्ञान को शब्दानुषिद्ध माना जायया तो प्रन्योन्याश्य होगा क्योंकि शब्द का स्मरण द्वारा संस्पर्श संभव होने पर ही अर्थज्ञान हो सकता है और प्रर्थज्ञान होने पर ही शब्द का स्मरण हो कर इद संस्पश हो सकता है । अत: यह मानना सर्वथा नियुक्तिक है कि संपूर्ण ज्ञान शब्दानुविद्ध ही होता है। उस के अतिरिक्त, इस पक्ष में यह भी दोष है कि-प्रल्पवयस्क बालक को शब्दार्थ का संकेतज्ञान होता नहीं है । प्रतः उस के ज्ञान में वाक संस्पर्श की संभावना न होने से उसे किसी वस्तु का ज्ञान हो न हो सकेगा, जब कि उस की चेष्टानों से उसे अर्थ का ज्ञान होना प्रमाणसिद्ध है । यदि यह कहा जाय कि-'बालक के अर्थज्ञान में शब्दविशेष का अनुषेध न भी हो किन्तु 'किम्' इस शब्द का अनुवेध होता है क्योंकि बालक जिस प्रर्थ को देखता है उस के विषय में किम्-यह क्या है?' इस प्रकार प्रश्न करता है, उस के अनुरोध से उस के ज्ञान में 'किम्' इस शब्द का अनुवेध सिद्ध है, तो यह भी उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर बालक को प्रत्येक प्रथं का सामान्य रूप से हो ज्ञान सिद्ध होगा क्योंकि उस के ज्ञान में 'किम्' इस सामान्य शब्द का हो अनुवेध होता है, विशेष रूप से भी उसे मर्थ का ज्ञान होता है यह नहीं सिद्ध हो सकेगा और विशेष रूप से उसे ज्ञान नहीं होता यह स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि, बालक भी एक वस्तु को देखने के बाद दूसरी वस्तु और दूसरी वस्तु को देखने के बाद तीसरी वस्तु ग्रहण करने के लिए चेष्टा करता है। यदि उसे सभी वस्तुओं का सामान्यरूप से ग्रहण हो एवं विशेष रूप से ग्रहण न हो तो उस की उस चेष्टा को उपपत्ति नहीं हो सकेगी।
इस के प्रतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि-वैयाकरण दाणो के चार भेद मानते हैं. परा, पश्यंती, मध्यमा और यखरी। उन में परा प्रौर पश्यंती में शनिशय सादृश्य होने से यदि उन्हें एक ही गिन लिया जाय तो वाणी के तीन भेद रह जाते हैं। परा या पश्यंती, तथा मध्यमा और वैखरी । उन में पश्यन्ती में वर्ण-पद प्रादि का विभाग न होने से यह तो शुद्धबोधरूपा है अतः अर्थज्ञान में उसका सम्पर्श मानने से ज्ञान में शब्दानुवेष को सिद्धि नहीं हो सकती। तथा मध्यमा धाक स्मरण का हो विषय होती है, शुद्धसंचित का अनुभव उस के बिना भी होता है प्रतः प्रत्यक्षादि ज्ञान में मध्यमा वाक का अनुवेध भी युक्तिसिद्ध नहीं है। बखरी वाक् का संस्पर्श मानकर मो संपूर्ण ज्ञानों में शदानधेध की सिद्धि नहीं की जा सकती, क्योंकि नेत्र से जब घटादि का ज्ञान होता है तब उस में वैधरी वाक् का भान मान्य नहीं हो सकता क्योंकि बखरीवाक का ग्रहण श्रोग्रेन्द्रिय से होता है अतः भोत्रनिरपेक्ष चक्षु से होनेवाले घटादि के प्रत्यक्षात्मक ज्ञान में बखरोवाक का अनुवेध हो नहीं सकता । इन भेदों से प्रतिरिक्त वाक का कोई स्वरूप शान्दिकों को मान्य नहीं है जिस के द्वारा संपूर्ण ज्ञानों में शब्वानुवेध की उपपत्ति की जा सके | इसलिए यह सर्वथा युक्तिसंगत है कि चक्षु प्रादि इन्द्रियों से अर्थ का जो प्रथम बोध होता है उस में शबानवेध नहीं होला है, वह पूर्ण रूप से निर्विकल्पक होता है और वहो वस्तुसत्ता में प्रमाण होता है । उस से घट प्रादि वस्तुओं को सत्ता सिद्ध होने के कारण इस
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८ ]
[ शा० वा समुच्चय स्त० ४ श्लो० ११३
अथाद्यमध्यक्षं वाचकम्मृन्यभावादविकल्पक मेवास्तु, न म्मृतिमहकतेन्द्रियजम्. उत्तरं तु तत् सविकल्पमित्यत्र को दोषः । इति चेत ? न, मृत्युपनीतेऽपि शब्द परिमल इवाऽविषयत्वाद् नयनस्याऽप्रवृत्तेः । न चैवं नामविशिष्टम्याऽग्रहणेऽपि द्रव्यादिविशिष्टग्राहि प्रत्यक्ष सविकल्पमस्तु, बायकासाकादिति वाच्यम् , विशेगा विशेष्यभावस्य वास्तवत्वे दण्ड पुरुषयोरिव प्रतिनियतस्यैव संभवाद 'कदाचिद् दण्डस्यव विशेषणत्वम् , कदाचिच्च पुरुषस्यैव' इति विशेषानुपपत्तः, अर्थक्रियाजनकत्वतत्प्रयोजकत्वापेक्षया प्रधानोपसर्जनभावरूपम्य तम्य कल्पनादोष का उद्भावन कथमपि उचित नहीं है कि विकल्पात्मक ज्ञान को भ्रम मानने पर संपूर्ण ज्ञान भ्रम हो जायेगा प्रत: किसी भी ग्राह्य वस्तु की सिद्धि न होने से प्रमाण-प्रमेय आदि विभाग का उच्छेद हो जायगा।
( सविकल्प को शब्दानुविद्ध अर्थग्राहकता प्रापत्ति ) यदि बौद्ध के उक्त मत के विरुद्ध यह कहा जाय कि-'अर्थ का प्रथम प्रत्यक्ष निविकल्पक हो सकता है क्योंकि उस के पूर्व वाचक शब्द को स्मति न रहने से यह स्मृतिसहकृतेन्द्रिय से अन्य नहीं होता। अतः उस में शब्दानुवेध-प्रर्यतादात्म्येन शम्दभान की सम्भावना नहीं रहती। किन्तु उस के बाद होने वाले प्रत्यक्ष को सविकल्पक शब्दानुबिद्ध प्रर्थवाही मानने में कोई दोष नहीं है'-तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि उस के प्रथम प्रत्यक्ष के उत्तरक्षरण में होने वाला हान यदि चक्षजन्य प्रत्यक्षरूप होगा तो शन्द स्मति से उपनोत होने पर भी उस का उस में भान नहीं हो सकता । क्योंकि, शब्द की स्मति शब्द को ज्ञानलक्षणसंनिकर्ष के रूप में शब्द को चक्षु से संनिकृष्ट बनाती है। किन्तु संनिकृष्टमात्र होने से हो कोई अर्थ इन्जियजन्य प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो जाता किन्तु अर्थ जब संनिकृष्ट होता है पोर इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष के योग्य होता है तमो उस का इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में मान होता है । जैसे पुष्प प्रादि गत मन्ध, पुष्प के साथ चक्षु का संयोग होने पर सयुक्तसमवाय सम्बन्ध से चक्षु संनिकृष्ट तो हो जाता है किन्तु चाक्षुषप्रत्यक्ष के योग्य न होने से अक्षु से गृहीत नहीं होता। उसी प्रकार शब्द भी स्मति द्वारा चा से संनिकृष्ट हो जाने पर भी चक्षु का विषय होने के कारण चक्ष द्वारा गृहोत नहीं हो सकता। अतएव घटादि के चाक्षष प्रत्यक्ष में उस के भान की उपपत्ति नहीं हो सकती।
इस पर यदि यह कहा जाय कि-'चाक्षुषाविप्रत्यक्ष द्वारा नाम विशिष्ट का ग्रहरण भले न हो, किन्तु द्रव्य-गुण-क्रिया-जाति प्रादि से विशिष्ट का ग्रहण तो हो सकता है अत एव सविकल्पक प्रत्यक्ष से प्रर्थ में व्यवैशिष्टयमादि को सिद्धि मानी जा सकती है, क्योंकि द्रव्यादि विशिष्ट ग्राही सधिकल्पक प्रत्यक्ष की सत्ता में कोई बाधक नहीं है।'-तो यह भी ठीक नहीं है. क्योंकि प्रथं के साथ न्यादि का विशेषणविशेष्यभाव यदि काल्पनिक हो तो उस से प्रथं को द्रव्यादिविशिष्टता नहीं सिद्ध हो सकती
और यदि वास्तव हो तो जैसे दण्ड-पुरुष रूप वास्तव अर्थ स्थल में दण्ड का दण्डरूप में हो एवं पुरुष का पुरुष रूप में ही नियत ग्रहण होता है, उसी प्रकार विशेषण-विशेष्य भाव का भी नियत ही ग्रहरण होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर तो "कभी दण्ड हो विशेषण होता है-जैसे 'दण्डी पुरुषः' इत्यादि पद्धिकाल में, पौर कभी पुरूष हो विशेषण होता है जैसे 'पुरुषे व:' अथवा 'पुरूषवान दण्ड: इस बुद्धिकाल में'-इस बात को उपपत्ति न हो सकेगी। विशेषण विशेष्य भाव वास्तविक होने पर वण्ड का सदा विशेषण हो होना और पुरुष का सदा विशेष्य ही होना
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
[१
ऽविषयत्वात् । तस्मादध्यक्ष संविद् निरस्तविशेषणमर्थमचगच्छति, विशेषण योजना तु 'स्मरणादुपजायमानाऽपास्तानार्थसंनिधिर्मानसी' इति प्रतिपत्तव्यम्, बहिरर्थावभासिकाभ्यो विशदसंविद्भयः स्वग्रहणमात्र पर्यवसितानां सुखादिसंविदामिवार्थसाक्षात्करणा-ऽस्वभावा यास्तस्या भिन्नस्वेन बाधकाभावात् । न च जात्यादिविशिष्टार्थप्रतिपत्तेः सविकल्पिका मतिः, जात्यादेः स्वरूप नवभासनात् । न हि व्यक्तिद्वयाद् व्यतिरिक्तवपुर्याद्याकारतो बहिचिंत्राणा विशददर्शने जातिरामाति । न चाम्रत्रकुलादिषु 'तरुस्तरुः' इत्युल्लिखन्ती बुद्धिरामातीति नासती जातिरिति चाच्यम् विकल्पोल्लिख्यमानतयापि बहिग्रयाकारतया जातेरनुद्भासनात् प्रतीतिरेव तत्र तुल्याकारता विमर्तीति । न च शब्दः प्रतीतिर्वा जातिमन्तरेण तुल्याकारतां नानुभवति, 'जातिर्जातिः' इत्यपरजातिव्यतिरेकेणापि गोन्बादिसामान्येषु तयोस्तुल्याकारतादर्शनात् । न च तेष्वप्यपरा जातिः, अनवस्थाप्रसक्तेः घटत्वादिसमान्येषु जातित्ववज्जातित्वसहितेष्वपि तेषु तत्कल्पनानुपरमात्
श्रावश्यक होगा। दूसरी बात यह है कि, दो वस्तुग्रों में होनेवाला विशेषण- विशेष्यमाव वास्तविक तभी हो सकता है जब प्रधान उपसजन ( गौण ) भाव रूप हो । अर्थक्रियाजनकत्व की अपेक्षा विशेष्य में प्रधानता और प्रक्रिया प्रयोजकत्व की अपेक्षा विशेषरण में गौणता होगी, जसे 'दण्डविशिष्ट पुरुष धान्यक्षेत्र से श्रश्व का अपसारण करता है।' यहाँ दंड अश्वापसारण रूप प्रर्थक्रिया का उपकरण होने से प्रक्रिया का प्रयोजक होने के कारण गौण होता है । किन्तु यह वास्तविक विशेषण- विशेष्य भाव कल्पनात्मक बुद्धि का विषय नहीं हो सकता । अर्थात् निर्विकल्प के उत्तरक्षण में जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह कल्पनात्मक होती है, क्योंकि इस में काल्पनिक जात्यादि के सम्बन्ध का भान होता हैं । श्रत: वास्तव विशेषण विशेष्य भाव उसका विषय नहीं बन सकता। इसलिये युक्ति से यही सिद्ध होता है कि प्रत्यक्षात्मक संवित् विशेषणनिर्मुक्ति ही अर्थ को ग्रहण करती है। उस प्रत्यक्ष-गृहीत श्रर्थ में विशेषरणों की योजना जन विशेषरणों के स्मरण से होती है और यह मानस वृद्धि होती है, उसमें अर्थ के साथ चक्षु इन्द्रियों के संनिकर्ष की अपेक्षा नहीं होती । उस बुद्धि का स्वभाव अर्थ के साक्षात्कार करने का नहीं होता । श्रतः उसको बाह्यार्थ को ग्रहण करने वाली प्रत्यक्षात्मक विशद बुद्धि से मिन मानने में उसी प्रकार कोई बाधक नहीं है जैसे बाह्य श्रथं का ग्रहण न करनेवाली और स्वहा प्रान्तरवस्तुमत्र के ग्रहण में ही पर्यवसन्न होने वाली सुखादि विषयक बुद्धियों में बाह्य अर्थ को ग्रहण करनेवाली स्पष्ट बुद्धियों से भेव मानने में कोई बाधक नहीं है ।
[निविकल्प प्रत्यक्ष से जातिसिद्धि की प्राशंकर ]
यदि यह कहा जाय कि निर्विकल्पक प्रत्यक्षरूपा बुद्धि मी वस्तुगत्या जात्याविविशिष्ट घटादिरूप प्रयं को हो ग्रहण करती है। उसी से दूसरे क्षण सविकल्पक बुद्धि उत्पन्न होती है जो जाश्यादि वेशिष्टघ को विषय करती है । तो इस प्रकार जब निर्विकल्पक बुद्धि वस्तुगश्या जात्यादिविशिष्ट अर्थ को विषय करती है तो उससे जात्यादि को सिद्धि अवश्य होगी क्योंकि उसकी प्रमाणता में कोई विवाद नहीं है' तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि, निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में जात्यादि के स्वरूप का ग्रहण नहीं होता और जाति पदार्थ सत् भी नहीं है वह तो काल्पनिक है ।
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८० ]
[ शा०या० ममुच्चय स्त. ४-श्नोक ११३
अथ तुल्याकारापि प्रतिपनिर्यदि निनिमित्ता तदा सर्वदा भवेत् , न वा कदाचित , व्यक्तिनिमित्तत्वे आम्रादिविय घटादिष्वपि तत्प्रमगात , व्यक्तिरूपताया अन्यत्रापि समानस्वादिति चेत् ? न, प्रतिनियतव्यक्तिनिमित्तत्वेनानतिप्रसङ्गात् । यथा हिताः प्रतिनियता एव कुतश्विद् निमित्तान प्रतिनियतजातिभ्यञ्जकत्वं प्रपद्यन्ते, तथा प्रतिनियता तुल्याकारां प्रतिपत्तिमपि तत एव जनयिष्यन्ति, इति किमपरजातिकल्पनया ! यथा वा गडूच्यादयो भिमा एकजातिमन्तरेणापि ज्वरादिशमनात्मक कार्य निर्वतयन्ति, तथाऽऽम्रादयस्तरुत्व. मन्तरेणाति हस्ताइते प्रीति अमपिबन्तीति कि तरुत्वादिकल्पनया ? ततो जात्यादरभावाद् न तद्विशिष्ट्राध्यवसायिनी मतिरिति चेत् ?
यह स्पष्ट है कि अर्थ और ज्ञान इन दो व्यक्तियों से अतिरिक्त शरीर के रूप में ग्राह्याकारता को स्पष्ट रूप से धारण करती हुई जाति बाह्यवर्शन में प्रथमासित नहीं होती है। यदि यह कहा जाय कि 'पाम्रबकुलादि वृक्षों में प्रिय तरुः' इस रूप से तरु शब्द का उल्लेख करती हुई बुद्धि का प्रवभास यानुभविक है, प्रतः इस बुद्धि से तरुत्व जाति को सिद्धि सम्भव होने से जाति को प्रसत् कहना प्रसंगत है'-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'तरुः तरुः' इस विकल्प में तरुत्य का उल्लेख होने पर भो बाह्य न्द्रिय से ग्राह्याकार में जाति का प्रवभास नहीं होता । प्रत. उक्त अनुभव से प्राम्रबकुलादि में होनेयालो प्रतीति की ही तुल्याकारता सिद्ध होती है । उस प्रतीति के विषयभूत पाम्र बकुलादि वृक्षों में तुल्याकारता की सिद्धि नहीं होतो।
[जाति के विना तुल्याकार प्रतोति न होने को आशंका यदि इस पर यह कहा जाय कि-'शव और प्रतीति के विषयभूत अर्थ में जाति को माने विना शब्द और प्रतीति में भी तुल्याकारता नहीं हो सकती-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि गोस्वादि जातियों को प्रतीतियों में 'जाति:' इस प्रकार को तुल्याकारता गोत्वादि जातियों में अन्य जाति को माने विना भी सिद्ध है। यदि यह कहा जाय कि-'जाति:' इस प्रतीति के अनुरोध से गोत्यादि जातियों में मो जातित्व नाम को अन्य जाति मान ली जायगी और उसी से उन प्रतीतियों की तुल्याकारता सिद्ध होगो'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि एसा मानने पर अनवस्था दोष की प्रसक्ति होगी। क्योंकि जैसे घटत्वादि सामान्यों में जाति:' यह प्रतोति उपपन्न करने के लिये जातिस्त्र नाम की जाति मानी जायगी, उसी प्रकार जातित्व में भी जातित्व नाम को जाति माननी होगी क्योंकि जातित्व को जाति मानने पर 'घटत्वादिक जाति:' यह बुद्धि जिस प्रकार होती है उसी प्रकार 'जातित्वं जाति:' यह बद्धि भी होगी। इस बुद्धि को उपपत्ति यदि उसी जातित्व से करेंगे तो प्रात्माश्रय होगा और यदि घटत्वादि में एक जातित्व और घटत्वादि एवं जातित्व में दूसरे जातित्व की कल्पना करके यदि प्रथम जातित्व से घटत्वादि में जाति प्रतीति की और दूसरे जातित्व से जातित्व में जाति को प्रतोति की उपपत्ति करेंगे तो फिर उस दूसरे जातित्व में 'जातिः' इस प्रकार की प्रतीति की उपपत्ति करने के लिये तीसरे जातित्व की कल्पना करनी होगी। इस प्रकार जातित्व की कल्पना का विश्राम ही नहीं होगा।
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्या० का टीका भौर हिन्दी-विवेचना ]
[ १८१
[जाति के बिना बोजादि अवस्थामें 'तरुः प्रतोति होने की प्राशंका] यदि यह कहा जाय कि "प्रतीति के विषयों में एक जाति का स्वोकार न करने पर भी यदि उन विषयों की प्रतीति में तुल्याकारता मानी जायगी तो इस का अर्थ होगा तुल्याकार बुद्धि किसी निमित्त विना हो होती है। यदि उसका कोई निमित्त न होगा तब तहः' इत्याकारक प्रतीति वृक्ष को अपनी अवस्था में हो न होकर उसको बोसाइकुरावस्था में भी उस प्रतीति को प्रापत्ति होगी क्यों कि उसे किसी निमित्त की अपेक्षा है नहीं जिसके सद्भाव से वृक्ष की अवस्था में उस प्रतीति की उपपत्ति का और बोजादि की अवस्था में उस निमित्त के प्रभाव से उस प्रतीति की अनुपपत्ति का उपपादन किया जाय । अयथा जब वह निमित्त के विना होगी तो निमित्तहीन को उत्पति अप्रमाणिक होने से वृक्षावस्था में भी उसकी प्रसोति नहीं होगी, अतः उक्त प्रतीति को तरुत्वजातिनिमित्तक मान कर बोजादि अवस्था में तरुत्व का असम्बन्ध और वृक्षावस्था में तरुत्व का सम्बन्ध मान कर उन विभिन्न अवस्थामों में 'तरु:' इस प्रकार की प्रतीति की उत्पति और अनुत्पत्ति का समर्थन करना आवश्यक है। 'तरु' इस प्रतीति को व्यक्तिनिमित्तक मान कर आपत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता क्योंकि यदि वह प्रतीति व्यक्तिनिमित्तक होगी तो व्यक्तिरूपता आम्रादि वृक्ष और घटादि द्रक्ष्य में समान है अत: घटादि द्रव्य में भी तरुः' इस प्रकार की प्रतीति को प्रापत्ति होगो ।"-किन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि 'ता:' इस प्रतीति के प्रति प्राम्र बकुलादि वृक्षों के प्रतिनियत व्यक्तियों को हो निमित्त मानने से उक्त प्रतिप्रसंग का परिहार हो सकता है।
(व्यक्तियों का प्रतिनियम जाति पर अवलम्बित नहीं है) 'पासबकुलादि व्यक्ति अनेक होने से उनका प्रतिनियमन दुघट होने के कारण उन्हें 'तरुः' इस प्रतीति का निमित्त मानना शश्य नहीं है-यह शंका नहीं की जा सकती, क्योंकि जातिवादी को मो प्रतिनियतजातियों को व्यञ्जक व्यक्तियों को मानना ही पड़ता है। इसलिये व्यक्तिों का प्रतिनियमन किसी न किसी निमित्त से करना हो होगा। अत: जिस निमित्त से अनेक व्यक्तियां प्रतिनियत होकर प्रतिनियतजाति की अभिव्यक्ति करेगो उसी निमित्त से प्रतिनियतव्यक्तियां ही तुल्याकार प्रतिनियत प्रतीति को भी उपपन्न कर सकती है, अतः प्रतीतियों की तुल्याकारता की उपपत्ति के लिये जाति की कल्पना अनावश्यक है। कहने का प्राशय यह है कि प्राम्र-बकुलादि विभिन्न वृक्षों में तरुत्व जाति को अभिव्यक्ति होती है किन्तु घटादि में नहीं होती है, वृक्ष की बोजादि अवस्था में भी नहीं होती है। अतः समस्त वृक्षों में जाति को अभिव्यक्ति और वृक्षभिन्न द्रव्यों में तरुत्व जाति की ग्रनमिव्यक्ति को उपपन्न करने के लिए बोअजन्य व्यरव रूप से सम्पूर्ण पक्षों का अनुगम कर उस निमित्त को ही सम्पूर्ण वृक्षों में तत्वजाति को अभिव्यक्ति का मानना आवश्यक होता है और फिर उस तत्व से 'ग्राम्र यकूलादि में तक: इस प्रतोति की तुल्याकारता का उपपादन होता है । विचार करने पर जातिवादियों की यह प्रक्रिया युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होतो, क्योंकि जो बोजजन्यद्रव्यत्व प्राम्रवृक्षादि में तय की अभिव्यक्ति का निमित्त होता है, उसी को उन वक्षों में 'तरु: तरः' इस तुल्याकार प्रतीति का सीधा कारण मान लेने पर मी प्रतीतियों की तुल्याकारता का उपपादन हो जाता है. प्रतः बीच में तरुत्व जाति की कल्पना का कोई प्रयोजन नहीं रहता।
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२]
[शा. वा. समुच्चय स्त-- ४ श्लोक-११३
अनोच्यते-पष्टधृमाध्यवसायानन्नग्मस्पष्टावमासान्यनुमानाकारस्येव विशददर्शनवपुषोऽर्थीकारादनन्तरमस्पष्टाकारविकल्पधियोऽननुभवादेकहेलयैव स्वलक्षणमंनिधौ जायमानाऽन्नहिश्च स्थूलमेकं स्त्रगुणावयवात्मकं ज्ञानं घटादिकं वावगाहमाना मतिर्न निर्विकल्पिका न चानध्यक्षा, विशदस्वभावतयानुभृतेः । न च (स) विकल्पा-ऽविकल्पयोर्मनमोयुगपदवृत्तेः क्रममाविनोल धुवृत्तरेकत्वमध्यस्यति जनः, इत्यविकल्पाध्यक्षगतं वेशधं विकल्पे वाशस्याध्यवमायिन्याध्यारोपयतीति वै शद्यावतिस्नेति वाच्यम्. एवं ह्यनुभूयमानमेकाध्यवसायमपलप्याननुभूयमानस्यापरनिर्विकल्पस्य परिकल्पने, बुद्धेश्चैतन्यस्याप्यपरस्य परिकल्पनया सारख्यमतमप्यनिषेध्यं स्यान् ।
इसके अतिरिक्त यह भी जातव्य है कि एक कार्य के प्रति उसके कारणों को एकजातिरूप से ही कारण मानना आवश्यक नहीं है क्योंकि गुडूचि (निम्ब के वृक्ष पर फैलने वाली प्रभौम लता) आदि विभिन्न द्रव्य एक जाति के बिना भी ज्वरादि के शमनरूप एक कार्य को सम्पन्न करते हैं। जिस प्रकार थे द्रव्य एक जाति के विना ही एक कार्य को सम्पन्न करते हैं उसी प्रकार प्रान-बकुल प्रादि वृक्ष भी तरुरव जाति के बिना ही 'तरुः तरु: इस तुल्याकार प्रतीति को उत्पन्न कर सकते हैं । अत: इस प्रतीति की उपपत्ति के लिये तरुत्यादि की कल्पना निरर्थक है । इस प्रकार जब प्रमाण भाव से जारयादि का प्रभाव सिद्ध है तो यह नहीं कहा जा सकता कि चक्ष से होने वाला घटादि अर्थ का प्रत्यक्ष-ज्ञान वस्तुगश्या जात्यादि विशिष्ट प्रथं को ग्रहण करता है पूर्वपक्ष समाप्त ।]
[निविकल्प से सविकल्प ज्ञान का उदय संभव नहीं-उत्तरपक्ष] बौद्ध के इस सम्पूर्ण तक के विरुद्ध यह कहना सर्वथा युक्तिसंगत है कि विशव दर्शनात्मक स्वलक्षणवस्तुग्राही निर्विकल्पक से सबिकल्प बुद्धि का उदय नहीं माना जा सकता। क्योंकि विशव दर्शन के बाद उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रविशदाकार होता है जैसे धूम के स्पष्ट अध्यवसाय के बाद होने वाला अग्नि का अनुमान प्रविशदाकार होता है। किन्तु प्रत्यक्ष स्थल में निर्विकल्पक के बाद किसी प्रस्प. टाकार विकल्पात्मक ज्ञान की अनुभूति नहीं होती है, अपितु अर्थ के साथ इन्द्रियसंनिकषं होने पर जो बुद्धि होती है वह स्थूल एक और स्वगुणात्मक प्रवयवों से युक्त घटादिबाह्य अर्थ को और अपने मान्सर ज्ञान स्वरूप को ग्रहण करती हुई ही अनुभूत होती है। इसीलिये न वह स्वयं निर्विकल्पक होतो हैं और न वह निर्विकल्पकपूर्वक होती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह बुद्धि प्रत्यक्ष से भिन्न होती है क्योंकि उस बुद्धि का विशदस्वभाव रूप में अनुभव होता है। यदि यह बुद्धि प्रत्यक्षात्मक न होती तो उसमें विशदस्वभावता का अनुभव न होता।
[सविकल्प बुद्धि विशदाकार न होने की आशंका] इस पर बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि-"को शानों के उत्पादन में मन की युगपत प्रवृत्ति न होने से वो ज्ञानों का जन्म एक साथ नहीं हो सकता। प्रतः नि बिकल्पक और सबिकल्पक दोनों कम से होते हैं । कालव्यवधान के विना शोघ्रता से ही दोनों के उत्पन्न होने से मनुष्य दोनों में एकत्व समझ लेता है इसीलिये वह निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के वंशय का स्वस्वरूप और स्वविषयीभूत
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० ऋ० टीका-इन्दीविवेचना ]
किश्च, कोऽयं मयिकल्पा-ऽविकल्पयो क्याध्यवसायः १ किं तयोर्वस्तुसदभेदपरिच्छेदः ? उन मिथस्तादात्म्याध्यामः १ आये विरोधः । अन्त्ये च निर्विकल्पक 'सविकल्पकम्' इति, सविकल्पकं च निर्विकल्पकम्' इति प्रतीयेत. 'शताविदं रजतम्' इतिवन, न तु विशदाध्यक्षस्वरूपम् । अथ प्रमुष्टनिर्विकल्पकत्वस्य विशदत्वावच्छिन्नस्य निर्विकल्पकस्यैव सविकल्पकेऽध्यागेपाद् न दोपः । एतेन-'अविकल्पकाऽज्ञानाद् न तदध्यारोपा, न प्रतिपन्नरजतः शुक्ताविदं रजतम्' इत्यध्ययस्यति न वेश्वगध्यवसाय ईश्वगाध्या पबदुपपत्तिः, भ्रमविशेषाऽव्यवस्थिते.'इत्युक्तावपि न शनिः, प्रागनुभृतस्यैव विशदस्यात्राभेदाध्यासात् , इति चेत् ? न, वेशद्यावली. ढम्यैव तस्य प्रमीयमाणल्वेन तत्र सदारोगायोगान् । नहि तदप किंचिदनुभूयते यस्य वेंशयं धर्म: कल्प्येत । एवमपि तत्र तत्परिकम्पने ततोऽप्यपरमनुभूयमानं विशदत्वादि धमाधान परिकल्पयतः कस्तव मुखं पाणिना पिधने ?
अर्थ को ग्रहण करने वाले सविकल्पक ज्ञान में उसका मारोप करता है। सविध ल्पक बुद्धि वस्तुतः प्रविशदाकार हो होतो है. उसमें वशका भान प्रारोपात्मक है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जो प्रध्यवसाय अनुभवसिद्ध है उसका अपलाप करके अनुभवबाह्य निविकल्पक प्रत्यक्ष की कल्पना करने पर जैसे सविकल्पक के पूर्व अनुमवबाह्य निविकल्पक की ल्पना की जाती उसी प्रक बुद्धि की और चतन्य को भी कल्पना की जा सकती है। जैसा कि सांख्यो का मत है कि चतन्य के प्रतिबिम्ब को धारण करने वाली बुद्धि से ही निविकल्पक सविकल्प प्रादि परिणामात्मक ज्ञान उत्पन्न होते हैं । फलतः इस सांख्पमत का प्रतिषेध करना बौज के लिए असम्भव हो जायेगा।
मौद्ध को प्रोर से जो यह कहा गया है कि 'सविकल्पक प्रौर नियिकल्पक इन दोनों को अव्यहितोत्पत्ति होने से दोनों में मनुष्य को ऐक्य का निश्चय होता है इस विषय में यह स्पष्ट करना होगा कि उन दोनों में जो ऐक्य का अध्यवसाय होता है वह दोनों के वास्तविक प्रभेद का परिच्छेदरूप होता है या वह दोनों में परस्पर तादात्म्य का प्रध्यास-भ्रमरूप होता है ? इन में से प्रथम पक्ष को मानने में विरोध है क्योंकि सविकल्पक और निर्विकल्पक में वस्तुत: भेद होता है । एवं दूसरे पक्ष में निविकल्पक सविकल्पक है' और 'सविकल्पक मिविकल्पक है इसप्रकार की प्रतीति होनी चाहिए, जैसे इवन्य रूप से दृश्यमानशुक्ति और रजत का परस्पर तादात्म्य अध्यास 'इदं रजतम्' एवं 'रज. तमिवम्' में होता है। किन्तु सविकल्पक का ऐसा ज्ञान नहीं होता है । यह सो विशद अध्यक्ष के रूप में अनुमूत होता है । यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि- निविकल्पक के दो रूप हैं-एक निर्विकल्पकत्व और एक विशवस्व । इन में निर्विकल्पकत्व का प्रमोष यानो त्यागहोकर विशवस्वरूप से निविकल्पक का सविकल्पक में ऐक्यारोप होता है प्रतः मिविकर पकं सहिकल्पकम्' इस प्रकार दोनों का ऐक्यारोप न होकर 'विशदं सविकल्पकम् इस प्रकार होता है । इसलिये दोनों मामो में परस्पर तादात्म्य का प्रध्यासरूप ऐक्य का प्रध्यवसाय मानने में कोई दोष नहीं है। इस पर यदि यह कहा जाय कि-"सविकल्पक काल में निविकल्पक प्रज्ञात रहता है अत: सविकल्प में उसका प्रध्यारोप-तावात्म्यप्रध्यास नहीं हो सकता क्योंकि पूर्वज्ञात वस्तु का हो कालान्तर में प्रध्यास होता है । यह सुस्पष्ट ही है कि जिसको रजत का ज्ञान पहले से नहीं होता
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४ ]
[ शा० वा समुरुचय स्त० ४-श्लो० ११३
'अर्थसामर्यप्रभवं बैंशा नालीकग्राहिणि सविकल्पके, किन्तु निर्विकल्पक एवे' ति चेन ? न, अर्थसामध्यंप्रभवेऽपि दुरस्थितपादपादिज्ञाने चशद्यादेरभावात् , अनीशेऽपि च बुद्धादिज्ञाने नद्भावाद् वैशद्यादेपर्थप्रभवत्वाऽनियमात ।
अथ दृग्त्वादिदोषाभावोऽपि वैशये नियामकः, बुद्धज्ञाने च चिरातीतभाविनामपि विषयाणां हेतुत्वाभ्युयगमाद् न दोष' इति चेत् १ न, चिरातीतादिविषयाणां येन स्वभावेन उसको शुक्ति में रजत को अध्यारोप नहीं होता । इस संदर्भ में यह कहना उचित नहीं हो सकता कि.जसे ईश्वर का अध्यवसाय न होने पर भी ईश्वर का अध्यास होता है उसी प्रकार निविकल्पक का ज्ञान न होने पर भी उसका प्रध्यारोप हो सकता है क्योंकि ईश्वर के प्रयासरूप भ्रम में ईश्वर का विशेष रूप से प्रभास नहीं होता किन्तु सामान्य रूप से तो प्रवमास होता है और वह सामान्य रूप अप के पूर्व भी जात ही रहता है। जैसे नवाधिक के मत में प्रभ्युपगत "जगत सकर्तृकम्' "जगह कर्ता से जाय है" यह ज्ञान अनीश्वरवाधियों को दृष्टि से अबमास रूप है । इस में ईश्वर का प्रधभास कर्तृत्व रूप से होता है और कर्तृत्व भ्रम के पूर्व अज्ञात नहीं है किन्तु घटादि कर्ता कुम्हार में विदित है"-तो इस कथन से सविकल्पक में निर्विकल्पक के तादात्म्याध्यास में कोई क्षति हो नहीं सकती, क्योंकि निर्विकल्पक का निविकल्पकत्व अश अज्ञात है इसलिये उस रूप से सविकल्पक में निविकल्पक का तारात्म्य अध्यास भले न हो किन्तु विशदत्वरूप से उसके तादात्म्याध्यास में कोई बापा नहीं हो सकती क्योंकि विशद अंश पूर्व में अनुभूत है और बौद्ध को सविकल्पक में निर्विकल्पक से विशद अश का हो तादात्म्याध्यास मान्य है ।"-तो यह बौद्ध कथन ठीक नहीं है क्योंकि सविकल्पक प्रत्यक्ष विशव रूप में ही प्रमाणत: निर्णीत होता है । अतः प्रमाण से निर्णीत होने के कारण वैशद्य सबिकल्पक का अनारोपित रूप है । अत: उसमें उसका प्रारोप नहीं हो सकता । सविकल्पक प्रत्यक्ष के अतिरिक्त ऐसी किसी वस्तु का अनुभव नहीं है जिससे वैशच को उसका वास्तविक धर्म मान कर सविकल्पक में उसकी कल्पना (प्रारोप) की जा सके और यदि वंशध सविकल्पक का वास्तविक धर्म होते हुए भी सविकल्पक में उसको कल्पना मानो जायेगी तो विशदत्व को ही प्राशर मान कर इसके अनुसार सविकल्पक में अनुसूयमान अपर धर्म को भी यदि बौद्ध को प्रोर से काल्पनिक कहा आयेगा तो यह कहते हुए बौद्ध के मुख को हाथ से कौन बंध करे ? कहने का प्राशय यह है कि जो जिसका वास्तविक धर्म है उसमें उसका प्रारोप नहीं होता किन्तु उसकी प्रमा होती है। अन्यथा, यदि किसी एक वास्तविक धर्म को प्रारोपित माना जायेगा तो अन्य धर्म को मो उसी इटल से प्रारोपित मान लिये जाने से धर्मों का अस्तित्व ही संकटग्रस्त हो जायेगा।
यदि यह कहा जाय कि-'अर्थसामर्थ्य-यानो हन्द्रियार्थ संनिकर्ष प्रथवा अथ शियाकारि प्रामाणिक अर्थ से वशद्य निष्पन्न होता है, किन्तु सविकल्पक प्रलोक-काल्पनिक प्रर्थ का ग्राहक होता है इसलिये उसमें वेशध नहीं होता केवल निविकल्पक में ही वेशद्य होता है कि वह अर्थसामर्थ्य से प्रादुर्भूत होता है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दूरस्थ वृक्षाव का ज्ञान भी अर्थसामर्थ्यजन्य होने पर भी उस में वैशद्य नहीं होता है और बजादि योगियों का ज्ञान अर्थसामर्यजन्य नहीं होने पर भी उसमें वंशध होता है । प्रतः वंशय का नियामः अर्थसामथ्यं जन्यत्व नहीं हो सकता।
यदि यह कहा जाय कि अर्थवभत्र यह दूरत्वादि दोषाभाव से सहकृत्त होकर वंशय का नियामक होता है-ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि पायपज्ञानस्थल में दूरस्व दोष है,
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या०० टीका-हिन्दीषिवैचना ]
[ १६५
तत्तदनन्तरमाविकार्योत्पादकत्वम् , ते ने वेदानीतनसुगतज्ञानोत्पादकन्वे प्राक पश्चाद् दैतदुत्पाद. प्रसङ्गात् , समनन्तरप्रत्ययस्येदानीमेव हेतुत्वे चोभयहेतुस्वभावविप्रतिषेधात् तदनुत्पत्तिप्रसङ्गात् ।
अथान्येन स्वभावेन, तर्हि साशं तत् प्रसज्यते, इति तद्ग्राहिणोऽपि ज्ञानस्य सशिकवस्तु. ग्राहकत्वेन सविकल्पताप्रमक्तेः । दृष्टविपरीता च चिरातीतादीनां जनकत्वकल्पना, अन्यथाऽव्या. पारेऽपि धनप्राप्तर्विश्वमदरिद्रं स्यात् । जस्मा बुद्धशामा जिल्लाभवत्यापि वैशयम विरुद्रम् 1 उसका प्रभाव नहीं है-और बुखज्ञान में घिरपूर्व विनष्ट और भावि विषय भी हेतु है, प्रत एवं उसमें प्रर्थप्रभवत्व प्रयुक्त हो वंशय है । प्रतः वंशय में अर्थप्रमवत्य को ध्याप्ति मानने में कोई बाधा नहीं है-किन्तु यह टोक नहीं है। क्योंकि चिरातीत और भावि विषयों को यदि उसी स्वभाव से बुद्धज्ञान का कारण माना जायगा जिस स्वभाव से वह अपने उत्तर काल भावि ज्ञान का उत्पादक होता है तो एक निश्चितकाल में होने वाले सुगत ज्ञान की उस काल से पूर्व और पश्चात् भी उत्पत्ति का प्रसंग होगा। क्योंकि चिरातीत और भावि विषय प्रविद्यमान होते हुए भी यक्षिकालविशेष में बुद्धज्ञान को उत्पन्न कर सकते हैं-उस काल के पूर्व और पश्चात् मो बुद्धजान को उत्पन्न करने में कोई बाधा नहीं हो सकती। इस प्रसंग में परिहार रूप में यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'घद्धज्ञान का समनन्तर प्रत्यय यानी अव्यवहितपूर्वत्तिज्ञानरूप कारण काल विशेष में ही बुद्धज्ञान का हेतु है और वह उस कालविशेष के पूर्व प्रथवा पश्चात् हेतु नहीं है, अत एव चिरातीत और मावि विषयों के बुद्धज्ञानोत्पावक स्वभाव अनुवर्तमान होने पर मी निश्चितकाल के पूर्व प्रौर पश्चात् बद्धज्ञान का प्रसंग नहीं हो सकता'-क्योंकि ऐसा मानने पर समनन्तर प्रत्यय और उक्त विषय इन दोनों हेतुनों के स्वभाव में विरोध होने से सुगत ज्ञान की अनुत्पत्ति का प्रसंग होगा। अभिप्राय यह है कि यदि समनन्तर प्रत्यय को सामान्यत: वर्तमानकालीन सुगतज्ञान का ही हेतु माना जायगा तो प्रन्यकालीन सुगत ज्ञान के प्रति वह जनक न होगा। फलतः समनंतर प्रत्ययरूप कारण के प्रमाय में विरातीत-भावि विषयों से अन्य कालीन सुगतज्ञान की अनुत्पत्ति होगी और यदि वर्तमान कालीन सुगतज्ञान के उत्पावक समनन्तर प्रत्ययविशेष को हो वतमानकालीन सुगतज्ञान का कारण माना जायगा तो तन्मात्र से हो वर्तमानकालीन सुगतज्ञान का सम्भव होने से वर्तमानकालोन सुगतान की चिरातीत मावि विषयों से अनुत्पत्ति का प्रसंग होगा। अर्थात् वर्तमानकालीन ज्ञान विरातीत-मावि विषय प्राधीनोत्पत्तिक न होगा । फलतः वर्तमान कालीन सुगत ज्ञान में वैशद्य अर्थप्रभवत्व का व्यभिचारी हो जायगा।
यदि यह कहा जाय कि-'चिरातीत-मावि विषय अन्य स्वभाव से वर्तमान कालीन सगत ज्ञान का उत्पावक है, और जिस स्वभाव से वह वर्तमानकालोन ज्ञान का उत्पादक है उस स्वभाव से वह कार्यान्तर का उत्पादक नहीं है किन्तु भिन्न मिन्न स्वभाव से कार्यान्तर का उत्पादक है । प्रतः न तो चिरातोत भावि विषयों से अन्य कालीन सुगत मान को अनुत्पत्ति का प्रसंग होगा और न वर्तमान कालीन सुगत ज्ञान को ही उन विषयों से अनुत्पत्ति का प्रसंग होगा । प्रत सम्पूर्ण सुगत ज्ञान में चिरातीत-माधिविषयहेतुकाव होने से सुगत ज्ञान में वैशय अर्थप्रमवश्व का मिचारो नहीं हो सकता'-तो यह भी ठीक नहीं है कि ऐसा मानने पर तो घिरातीत और भावि विषयवृन्द सांश
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६ ]
तदुक्तम्
अथ विकल्पस्य स्वभावत एव वैशद्यविरोधः, "न विकल्पानुबन्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासिता | स्वप्नेऽपि समर्पते स्मार्त्तं न च तत्तागर्थहम् ॥ १ ॥ इति चेत् न, स्वप्नदशायामपि स्मरणविलक्षणस्य पुरो वृत्तिहस्त्याद्यवभासिनो बोस्य निर्विकल्पकत्वे, अनुमानस्यापि सशिवस्तुप्राहिणस्तथाप्रसङ्गे विकल्प वार्ताया एत्र व्युपर मप्रसङ्गात् ।
[ शा० वा० समुच्चय स्त० ४ श्लो० ११३
अथ संहृतसकलत्रिकल्पावस्थायां पुरोवर्तिवस्तुनिर्मासिकल्पनाव्युपरमतो विशदमक्ष प्रभवमत्रिकल्पकमेवानुभूयते, तदुक्तम्- "प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति" इत्यादि । तथा"संहृत्य सर्वतश्विन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना ।
स्थितोऽपि चक्षुषा रूपं वीक्षते साक्षजा मतिः ||१||" इति ।
अतो विकल्पे कदाचित् समनन्तम्पृष्टानि देवाप्यत इति चेत् ? मैवम, तम्यामप्यवस्थायां स्थिरस्थूर स्वभाव शब्दसंसर्गयोग्य पुरोऽवस्थित गवादिप्रतिभासस्यानुभूतेः सविक
हो जायगा । इसलिये उस विषय को ग्रहण करने वाला ज्ञान सशि वस्तु का ग्राहक होने से सविकल्पक हो जायगा फलतः चिरातीत भादि विषयों को ग्रहण करने वाला सुगत ज्ञान सविकल्पक हो जाने से सविकल्पक के ही धर्म रूप में वंशय की सिद्धि होगी । जब इस प्रकार वंश सविकल्पक का ही धर्म सिद्ध हो गया, तब सविकल्पक में वंशय का आरोप मानना संगत नहीं हो सकता ।
इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि - विरातीत मावि विषयों में कारणत्य की कल्पना भी दृष्टविरुद्ध है क्योंकि चिरातीत विषयों में कार्योत्पत्ति के अनुगुण कोई व्यापार नहीं हो सकता । व्यापार के विना मी यदि लक्ष्य की प्राप्ति मानी जायगी तो विश्व में कोई दरिद्र न रह जायगा, क्योंकि धनप्राप्ति के लिये निरुद्यमी प्रालसी मनुष्य भी धनवान हो जायगा। श्रतः पूरे विचार का froni यही होता है कि बुद्धशान अर्थप्रभव न होने पर भी जैसे विशद है उसी प्रकार सविकल्पक प्रत्यक्ष भी प्रयंप्रभव न होने पर भी विशद हो सकता है । प्रत एव सविकल्पक में निर्विकल्पक के वैद्य का आरोप बताना कथमपि संगत नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि "सविकल्पक में वैशद्य का स्वाभाविक विरोध है, जैसा कि विद्वानों ने इस एक कारिका में कहा है कि सविकल्पक ज्ञान प्रथ का विशदावभासी नहीं होता है- क्योंकि स्वप्न में भी जो अर्थ का सविकल्पक ज्ञान होता है वह ज्ञान स्मरणात्मक एवं स्मृतिमूलक ही होता है। अत एव वह मो अर्थ का विशवग्राही नहीं होता ।" तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वप्नवशा में मी हस्ती में पुरोवृतित्व का ग्राहक स्मरण से विलक्षण बोध होता है, वह अर्थ का विशदग्राही होता है इसलिये सविकल्पक में वंशद्य का स्वभावतो विरोध होने की उपपत्ति के लिये उस बोध को निधिकल्पक मानना होगा । फलतः सशि वस्तु को ग्रहण करने वाले ज्ञान को जब निर्विकल्पक माना जायगा तो अनुमान में भी निर्विकल्पकत्व को प्रसक्ति होगी और इसका दुष्परिणाम यह होगा कि सविकल्पक ज्ञान का अस्तित्व हो समाप्त हो जायगा । प्रतः सविकल्पक में fafeकल्पक के वंश का ध्यास होता है-बौद्ध का यह धभ्युपगम बाधित हो जायगा ।
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
झ्या क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ १८७
ल्पकज्ञानानुभवम्यापलोतुमशक्यत्वात् । न हि शब्दसंसर्गप्रतिमास एव सविकल्पकत्वम् , सद्योग्यावभासस्यापि कल्पनात्वाभ्युपगमात् , अन्यथाऽव्युत्पन्नसंकेतस्य ज्ञानं शब्दसंमर्गविरहात् कल्पनावद न स्यात् । अवश्यं च शब्दयोजनामन्तरेणाप्यर्थनिर्णयात्मकमध्यममुपगन्तव्यम् , अन्यथा विकल्पाध्यक्षेगा रिजस्याऽगनिर्गमा समानद सकिने स्वस्थानात् अनुमानम्याऽप्पच्छेदप्रमङ्गात् ।
[ बौद्ध विकल्पप्रवस्थानिवृत्ति में निर्विकल्प का उदय होता है ]
यदि यह कहा जाय कि सम्पूर्ण विकल्पावस्था से निवत्त अर्थात किसी भी प्रकार को काल्पनिक अवस्था को ग्रहण न करने वाला और पुरोवत्ति वस्तु मात्र को ग्रहण करने वाला इन्द्रिय जन्य विशदज्ञान ही कल्पना से उपरत यानी कल्पना से रहित होने के नाते निविकल्प होताहोर वह प्रत्यक्षानुभवसिद्ध है। जैसा कि विद्वानों कहा है कि कल्पना से मयत यानी काल्पनिक पदार्थ को ग्रहण न करने वाला ज्ञान ही प्रत्यभ-निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है और वह प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध है । यही बात 'संहृत्य सर्वतः' इस कारिका में इस प्रकार कही गई है कि-मनुष्य सारी चिन्तानों का संहरण करके प्रर्थात् सम्पूर्ण विषयों से चित्त को हटाकर निश्चल चित्त से स्थिरभाव से जय चक्षु मे किसो रूपको देखता है त रूप को वह इन्द्रियजन्य बुद्धि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष कही जाती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष यही होता है जिसमें किसी काल्पनिक अर्थ का भान नहीं होता । सुगत का ज्ञान यत: किसी काल्पनिक अर्थ को विषय नहीं करता प्रतः वह सविकल्पक नहीं है। एवं स्वप्नवशा में जो स्मृतिमूलक ज्ञान होता है असे पुरोतित्व रूप से हस्तीनादि का ज्ञान-वह सम्पूर्ण विकल्प अवस्था से मुक्त नहीं होता, अत एव वह न निर्विकल्पक होता है न विशदायमासी होता है। अतः यह निविवाय है कि वेशद्य निविकल्पक का हो स्वभाव है । अतः जो सविकल्पक निवि. कल्पक के बाद में उत्पन्न होसा है उसमें हो निर्विकल्प के वंशय का आरोप होता है।
[विकल्प अवस्था निवृत्ति में सविकल्प का भी उदय सिद्ध है ]
किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण विकल्पावस्था को प्रभाव दशा में भी सविकल्पक ज्ञान की अनुभूति होती है, जैसे गौ के साथ चक्षु का संनिकर्ष होने के बाद पस्यूल: गौःपुर:स्थितः" इस प्रकार के ज्ञान का होना सर्वानुभवसिद्ध है। इस ज्ञान में विषयमूत कोई भी वस्तु काल्पनिक नहीं है। वयोंकि क्षणिक बाह्यार्थवादी बौद्ध के मत में भी वस्तु उत्पत्तिक्षण में पुरःस्थित होतो है और किसी रूपाति को समष्टि को अपेक्षा अधिक रूपादि की समष्टि रूप होने से स्थूल मी होती है। इस शान में शम्दसंसर्ग का प्रतिभास नहीं होता, क्योंकि इस ज्ञान के समय उस ज्ञान के विषयभूत प्रथं का बोधक शम्ब ज्ञात नहीं होता। किन्तु उस ज्ञान का विषयभूत अर्थ शब्दसंसर्गयोग्य होता है क्योंकि वह पर्थ स्थूलता प्रादि धर्मो से भासित होता है । वस्तु निर्विकल्पकाल में ही शम्द संसर्ग के प्रयोग्य होती है, क्योंकि उस समय वस्तु में कोई भी धर्म गृहीत नहीं रहता ओर अर्थ में शम्द का संसर्ग धर्म द्वारा ही होता है। यह शान विशवायग्राहो है एवं अनुभवसिद्ध है अत: इसका अपलाप शक्य नहीं है इसलिये यह कथन कि पेशद्य निर्विकल्पक शान का ही धर्म है, सविकल्प में उसका मध्यारोप होता हैयुक्तिसंगत नहीं हो सकता।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
[शा. वा. समुच्चय स्त० ४ श्लोक-११३
फिञ्च, एवं तस्य प्रामाण्यमेवानुपपन्नं स्यात् , यत्रैव हि पाश्चात्यं विधि-निषेधविकल्पद्वयं तन्जनयति तत्रैव तस्य प्रामाण्यम् , विकल्पश्च शब्दसंयोजितार्थग्रहणम् , तत्संयोजना च शवासमाधीमा, शच संभाषच्छेदकप्रकारकसंबन्धिग्रहरूपार्थधीजन्यमिति । न चेदेवम् । गवानुभवादु गोशब्दसंयोजनवत् क्षणिकन्वानुभवात् क्षणिकाबशब्दसंयोजनापि स्याव । एतेन
[ सविकल्प ज्ञान में शब्दसंसर्ग भान न होने का कथन विथ्या है ]
यदि यह कहा जाय कि 'उक्तजान सविकल्पक नहीं है क्योंकि सविकल्पक ज्ञान वही होता है जिसमें शब्द संसर्ग का भान होता है। तो यह भी ठीक नहीं है-क्योंकि शब्दसंसगं को ग्रहण न करने वाला किन्तु शब्द संसर्ग योग्य अर्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान सविकल्पक माना जाता है। यदि शब्द संसग को ग्रहण न करने वाले ऐसे शब्ध संसगं योग्य अर्थ के ग्राहक मानको सविकल्पक नहीं माना जायगा तो जिस पुरुष को शस्वार्थ का संकेत ज्ञान नहीं होता है उस पुरुष का ज्ञान शब्द संसर्ग का प्रवभासक न होने से विकल्पक के समान प्रवर्तक-निवर्तक न हो सकेगा क्योंकि सविकल्पक ज्ञान ही प्रवर्तक निवक होता है । यदि शब्दसंसर्गप्रतिभासी शान को हो विकल्पक माना जायगा तो जिस ज्ञान में श-वसंसर्ग का प्रतिभास नहीं होता है वह सविकल्प प्रात्मक न होने से उसके समान प्रवत्तक-निवत्तक भी न हो सकेगा।
[अर्थनिर्णायक न होने पर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की प्रसिद्धि ] यह मो ध्यान देने योग्य है कि शम्खयोजना के बिना भो प्रत्यक्ष को अर्थनिर्णयात्मक मानना प्रावश्यक है, अन्यथा शब्द योजना युक्त हो अध्यक्ष को निर्णयात्मक मानने पर सविकल्पकग्राही निविकल्पक से, निर्विकल्पक होने से शम्दयोजनाहोन होने के कारण, निर्विकल्पक के अनुमापक सविकल्पकरूप लिग का निर्णय न हो सकेगा। आशय यह है कि करूपित नाम जाति प्रादि का ग्राहक होने से सविकल्प कल्पनात्मक-भ्रमरूप है । भ्रमरूप ज्ञान प्रधिष्ठानज्ञान से जन्य होता है, सविकल्प द्वारा गह्यमाण नाम जाति का अधिष्ठानभुत गो आदि अर्थ निर्विकल्प से गहोत होता है, अत: सविकल्पक प्रत्यक्षरूप कार्यात्मक लिग से अधिष्ठानात्मक निर्विकल्पप्रत्यक्षरूप कारण अनुमित होता है, शब्दयोजना युक्त ज्ञान को हो प्रर्य निर्णयात्मक मानने पर शब्दयोजनाहोन निविकल्पक से सविकल्पकज्ञान रूप लिंग का निर्णय न हो सकेगा, फलत: निर्विकल्पक की सिद्धि न हो सकेगो । यदि यह कहा आय कि-'उक्तबाधायशप्रत्यक्ष से सविकल्पक का निर्णय न हो सकने पर भी अनुमान से उसका निर्णय होगा, जैसे गो प्रावि का व्यवहार गो प्रावि के सविकरुपक का कार्य है, अत: गो प्रादि के ग्यवहार रूप कार्यात्मक लिग से उसके कारण सकविकल्पक रूप व्यवहर्तव्यज्ञान का अनुमान सुकर हैतो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से व्यवहारात्मक लिंग का भी निर्णय सम्भव न होने के कारण उसके लिये अन्य अनुमान की अपेक्षा होगी । परिणामत: अनवस्था को प्रापत्ति होगी। इस प्रकार प्रत्यक्ष तथा अनुमान दोनों से सविकल्प रूप लिग का निर्णय प्रशक्य होने से निविकल्पक के अनुमान का मो लोप हो जाने की मापत्ति होगो इसलिये शम्दयोजना के प्रभाव में भी अध्यक्ष को मथंनिर्णयात्मक मानता आवश्यक है ।।
[ प्रत्यक्ष से क्षणिकत्वनिर्णय को प्रापत्ति ] यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि शब्दयोजना के बिना अध्यक्ष को प्रर्थनिर्णयात्मक न माना जायगा तो अध्यक्ष का प्रामाण्य ही अनुपपन्न हो जायगा, क्योंकि यह नियम है कि अध्यक्ष अपने
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० का टीका और हिन्दी-विवेचना ]
[
E
अश्वं विकल्पयतो गोदर्शनेऽपि तदा गोशब्दसंयोजनाभात्राद् युगपद्विकम्पद्वयानुपपत्तश्च निर्विकल्पमेव गोदशनम् इति निरस्तम् , गोशब्दसंयोजनामन्तरेणापि तदर्शनस्य निर्णयात्मकस्वात् , अन्यथा तत्स्मरणानुपपरीश्च तत्प्रकारकनिश्चयस्यैव तत्प्रकारकमंशयविरोधित्वात अन्यथा क्षणिकत्वादावपि स्मरणाऽसंशयप्रसङ्गात् ।
उत्तरकाल में जिस विषय में विधिविकल्प अथवा निषेधविकल्प इन दो विकल्पों का उत्पादन करता है उसो विषय में बह प्रमाण होता है-जैसे गोविषयक प्रध्यक्ष के बाद उस अध्यक्ष द्वारा ग्रहीत गो रूप अर्थ में 'प्रय गौः' इस विधिविकल्प का और गो मिन्न में 'अयं न गौः' इस निषधविकल्प का जन्म होने से गोग्राहि अध्यक्ष गोरूप अर्थ में प्रमाण होता है, गो से भिन्न का प्राही प्रत्यक्ष गौ से इसर रूप अर्थ में प्रमाण होता है और विकल्प वही ज्ञान होता है जो शब्दससृष्टार्थ को ग्रहण करता है । शब्द की योजना शब्दस्मरण से सम्पन्न होती है और शब्द स्मरण उस प्रर्य ज्ञान से होता है जो सम्बन्धिता. वच्छेदकप्रकारकसम्बन्धिविशेष्यक ज्ञानरूप होता है । क्योंकि, एकसम्बन्धि जान अपरसम्बन्धि का स्मारक होता है -इस न्याय से ही प्रथजान शब्दस्मरण का जनक होता है। यदि इस क्रम से अर्थ में शब्द को सयोजना न मानकर मध्यक्ष के बाद हो सीधे अर्थ के साथ शब्द को योजना मानी जायगी तो जैसे गाविषयक अनमव से मोरूप पथं में गो शब्द की संयोजना होती है उसी प्रकार निविकल्प प्रत्यक्षरूप क्षणिकत्व के अनुभव से भी निर्विकल्पक द्वारा गृहीत अर्थ में क्षणिकरव शब्द को योजना हो
लत: प्रत्यक्ष प्रमाण से ही क्षणिकत्य का निर्णय हो जाने से क्षणिकत्व के अनुमान का उत्थान न हो सकेगा।
[ शब्द योजना होन भी अध्यक्ष अर्थनिर्णायक है ] उक्त क्रम से अध्यक्षगहीत अर्थ में शब्द संयोजना मानने के विरुद्ध किसी का यह कथन कि 'अश्व के विकल्पकाल में जब गो दर्शन होता है तब एक काल में विकल्पद्वय की उत्पत्ति मान्य न होने से उस समय गोविकल्प का प्रभाव होने के कारण गो रूप प्रशं में गोशब्द का संयोजन न हो सकेगा। फलतः गो दर्शन निर्विकल्प अर्थात अनिर्णयात्मक ही रह जायगा ।मीक नहीं हैं क्योंकि गो शद की संयोजना के बिना भी गोवर्शन निर्णयात्मक होता है। यदि ऐसा न माना जायगा तो गो शब की संयोजना से हीन गो दर्शन के बाद गौ का स्मरण न होगा, क्योंकि समान प्रकारक अनुभव ही समान प्रकारक स्मरण का हेतु होता है । शब्दसंयोजनाहीन दर्शन को निर्णयात्मक न मानने पर उस दर्शन काल में समानप्रकारक अनुभव का प्रभाव होगा । शब्दयोजनाहोन दर्शन को निर्णयात्मक न मानने पर शब्दयोजनाहीन गोदर्शन के बाद गोस्वप्रकारक संशय की भी प्रापत्ति होगी, क्योंकि शब्दसंयोजनाहोन गो क दर्शन गोत्वप्रकारक निश्चय नहीं है और तत्प्रकारक निश्रय ही तत्प्रकारक संशय का विरोधी होता है । यदि इस दोष का परिहार करने के लिये स्मरण और अनुभव में समान प्रकारकस्वरूप से कार्य कारणभाव न मानकर समानविषयकत्वरूप से ही कार्यकरण मात्र माना जाय
और संशय तथा निश्रय में प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक भाव भी समानप्रकारस्वरूप से न मानकर समानविषयकत्व रूप से ही माना जाय तो क्षणिक अर्थग्राहो निविकरुषक से भो क्षणिकस्वरूप से निर्विकल्पगृहोत अर्थ के स्मरण की तथा निविकरुपकगृहीत अर्थ में क्षणिकत्व के संशयाभाव की प्राप्ति होगी।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
[ शा. वा समुच्चय स्त०-४ श्लोक-११३
अथ "क्षणिकत्वादेनिर्विकल्पककवेद्यन्वात तदगृहीतकल्पयाद् न दोषः, तदाह धर्म कीर्ति:-पश्यन्नपि न पश्यतीन्युच्यते' इति न दोष" इति चेत् ? न, तच्चित्तनाशेऽपि तथात्वप्रसङ्गात् । 'तत्र विकल्पोत्पत्तन दोष' इति चेत् ? न, स्मरणस्पतदनुत्पत्तेरनुत्तरत्वात् । 'तर विस्तीर्णप्रघट्टकानुमवे मालवर्णपदाधम्मग्णवदुपपत्तिरिनि' चेत् ? न, मम विस्तीर्णप्रवकस्थले वर्णादीनां तज्ज्ञानानां च व्यक्तिमेदाद् दृढसंस्कारस्यैव निश्चयस्य स्मृतिजनक
(क्षरिणकत्व के स्मरणादि की आपत्ति का प्रतिकार-बौद्ध) बौद्ध की प्रोर से यदि यह कहा जाय कि-'मणिकत्व केवल निविकल्पक से ही वेद्य होता है प्रत एव वह अनिर्णीतसरश होता है। प्रतः क्षणिकरव के स्मरण और संशयाभाव की आपत्ति नहीं हो सकती चूकि स्मरण निर्णात का ही होता है। अंसा कि धर्मकीति ने कहा है 'पश्यन्नपि न पश्यति' प्रर्थात् “मनुष्य निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से वस्तु को देखते हुये मी वस्तु का निर्णय नहीं कर पाता। अत: उक्त दोष नहीं हो सकता।"- तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि निर्विकल्पक मात्र से वेध होने के कारण यदि क्षणिकत्व अनिर्णीत माना जायगा तो उसी कारण चित्ताश यानी वर्शनांश भी अनिर्णीत होगा। फलतः जैसे निर्विकल्पक के बाद निविकल्प से गीत प्रर्य में क्षणिकत्व का संशय होता है उसी प्रकार निविकल्पक से गहोत घटादि के दर्शनांश का भी 'घटादिष्टो न वा' इस प्रकार संशय की प्रापत्ति होगी। यदि कहा जाय कि 'क्षणिकत्व का विकल्प नहीं होता किन्तु दर्शनाश का विकल्प होता है अत एव दर्शनांश निर्णीत हो जाने से उक्त बोष न हो सकता'-तो यह भी ठोक नहीं है क्योंकि उत्तर काल में दर्शनांश का मरणरूप विकल्प न होने से पूर्वकाल में दर्शनांश के विकल्प की उत्पत्ति होती है। यह उत्तर नहीं माना जा सकता, क्योंकि उत्तरकाल में जिसका स्मरण नहीं होता-पूर्वकाल में उसका निर्णयात्मक विकल्प नहीं सिद्ध हो सकता।
(पद-वर्ण को अम्मति से दर्शनांश के अनुभव का समर्थन अशक्य) यदि बौद्ध को प्रौर से इस पर यह कहा जाय कि-'जैसे प्रतिवादी के मत में प्राय के किसी विस्तीर्ण प्रकरण का जब विकल्पात्मक अनुभव होता है तो उस प्रकरण के अन्तर्गत सम्पूर्ण वर्ण-पद प्रादि का भी विकल्पात्मक अनुभव होता ही है किन्तु उसरकाल में सम्पूर्ण पदार्य का स्मरण नहीं होता है तो असे विस्तीर्ण प्रकरणघटक अनेक वर्ण और पदों का विकल्पानुभव होने पर भी उत्तरकाल में उसका स्मरण नहीं होता है किन्तु स्मरण न होने से उनके पूर्व बिकल्पानुभव का अस्वीकार नहीं किया जा सकता उसी प्रकार कालान्तर में स्मरण न होने पर भी दशनकाल में शनांश के विकल्पानुभव को उत्पत्ति का अस्वीकार नहीं किया जा सकता तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रतिवादी के मत में किसी ग्रन्थ के विस्तृत प्रकरण के अन्तर्गत जो कतिपय वर्ण-पदादि का पूर्व में विकल्पानुभव होने पर भी कालान्तर में सभी का स्मरण नहीं होता है किन्तु कतिपय वर्ण और पदों का हो स्मरण होता है इस स्मरण की उपपत्ति यह मान कर की जा सकती है कि दृढसंस्कार का उत्पादक निश्चय हो स्मृतिजनक होता है । विस्तृत प्रकरण के घटक वर्णपाद और उनके शान मिन्न मिन्न होते हैं प्रस: जो ज्ञान प्रपने विषयभूत पवादि का इहसंस्कार उत्पन्न नहीं करते उनसे उनके विषयमूस पवादि का स्मरण नहीं होता । जो ज्ञान अपने विषयभूत पावि का दृढसंस्कार
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ १६१
वेन नियमसंभवात् । तब तु निरंशानुभवम्यांशे विकल्पजनना-ऽजननम्वभावभेदस्य शक्तिभेदस्य, पाटवा-ऽपादवादेर्वा न संमव इत्युक्तत्वात् । 'यकस्यापि सहकारिसाचिव्येन तद्विकल्पस्यत्र जनकत्वं, नान्य विकल्पस्य इत्यम्युपगमे स्थिरस्थापि सहकारिमाचित्रण-ऽसाधिव्याभ्यां कार्यजनकत्वा जनकत्वाभ्युपगमप्रसङ्गात , कुम्भकारादिसहकृतस्य मृदादेघाद्यन्वय-व्यतिरेकदर्शनवदभ्यासादिसह कृतस्य निर्विकल्पस्य कदापि विकल्पान्वय पतिरकाऽग्रहणेनाम्यासादिसहकनस्य निर्विकल्पस्य कदापि विकल्पान्धय-व्यतिरेकाऽग्रहणेनाभ्यासादिसहकृतस्याऽविकरूपम्य विकल्पजनकत्वकल्पनाया अन्याय्यत्वाच्च ।
अथ तत्फलसाधाद् अमणिकत्वादिममागेपाद् श क्षणिकत्वाद्यनुभवेऽपि न निमः, अनिश्च पर पानक हमलोपातिपन्थित्वात् । तदुक्तम्उत्पन्न करते हैं वे ज्ञानविषयमूत पदावि के स्मरण के हेतु होते हैं 1 बौद्ध की ओर से इस प्रकार का समाधान नहीं किया जा सकता कि निर्विकल्पक प्रत्यक्षात्मक अनुभव निरंश होता है इसलिये यह कल्पना नहीं को जा सकती कि वह अमुक अंश से विकल्प का जनक है और अमुक अंश से विकल्प का प्रजनक है। तथा अंशभेद के बिना विकल्पजनकत्व और विकल्पाजनकत्व ये दो परस्पर विरोधी स्वभाव नहीं उपपन्न हो सकते । अथवा अमुक अंश में विकल्प के जनन की शक्ति है और अमुक अंश में विकल्प के जनन की शक्ति नहीं है, अथवा अमुक अंश में विकल्प उत्पादन में पटुता है और प्रमुक अंश में विकल्प उत्पावन में नहीं है-ऐसा नहीं कह सकते इसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि उक्त अनुभव अपने विषयभूत अमुकअंश के विकल्प का जनक है और अमुक अंश के विकल्प का प्रजनक है ।
(सहकारी के सानिध्य और प्रसांनिध्य का कथन व्यर्थ है। यदि यह कहा जाय कि '-उक्त अनुभव निरंश एक व्यक्ति रूप होने पर भी सहकारी के सानिध्य से विषय के विकल्प की जनकता और सहकारी सानिध्य के प्रभाव में अन्य विषय के विकल्प की प्रजनकता होती है"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर स्थिर भाव में भी सहकारी के सान्निध्य और प्रसानिध्य से कार्यजनकरन और कार्याजनकत्व का अम्युपगम प्रसक्त
* तत्फलसाधात् :
विषयबोधक पद से विषयी का बोध अनेकत्र अभियुक्तों को सम्मत है उसके अनसार उक्त पद में साधर्म्य' शब्द का अर्थ है साधम्य ज्ञान और तत्फल शब्द का अर्थ है मणिकत्व का फलज्ञान प्रऔर ज्ञान को विषयता विषयाोन होने से उसे विषय का फल कहा जाता है और विशेषण में विद्यमान धर्म का विशिष्ट में व्यवहृत होना भी अभियुक्तसम्मत है इसलिये तत्फल शब्द का अर्थ है क्षणिक त्व का फलभूताऽक्षरिणकरकप्रकारक निर्णय विषयीभूत अर्थ-निरगीतक्षणिक । तत्फल शब्द के अर्थ से प्रन्धित साधर्म्य शब्दार्थ का तत्पद के पूर्व में श्रत ना पदार्थ-अभाव के साथ मन्वय होन से उक्त पद का अर्थ है क्षणिकत्वरूप से निर्णीत अर्थ के साधर्म्यज्ञान का अभाव।
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२ ]
Jशा वा० समुच्चय न ४-श्लो० ११३
"एकम्यार्थम्वभावस्य प्रत्यक्षस्य सनः स्वयम् । कोऽन्यो न दृष्टो भागः म्याद् यः प्रमाणे परीक्ष्यते ॥१॥ नो चेद् ? भ्रान्तिनिमित्ते न संयोज्येत गुणान्तरम् ।
शुक्ती चा रजताकारो रूप्यसाधर्म्यदर्शनात् ॥२॥" इति चेत ? न, क्षणिकवादाविय सच्चेतनत्यादायप्यनिश्चयप्रसङ्गात , बस्तुनो निरंशत्वात , अनि. होगा । जिस के फलस्वरूप भावमात्र को क्षणिकता का सिद्धान्त ही धराशायो हो जायगा ।
दूसरी बात यह है कि-निविकल्प के सम्बन्ध में सहकारी के सानिध्य और असानिध्य से कार्यजनकत्व और कार्याः जनकत्व को कल्पना नहीं हो सकती कि यह कल्पना यहां होती है जहां सहकारीसम्पन्न हेतु में कार्य का प्रन्यय-यतिरेक ज्ञात रहता है. असे कुम्भकार प्रादि से सहकृत मदादि द्रव्य में घटादि कार्य के अन्वय-व्यतिरेक का दर्शन होने से कुम्मकारादि सत्कृतं मावि में घटादि को जनकता का निश्चय होता है। किन्तु अभ्यास प्रादि से सहकृत निर्विकल्पक के अन्वय-व्यतिरेक में विकल्प के अन्वयव्यतिरेक का दर्शन सिद्ध नहीं है । अत: अभ्यासादि सहकृत निविकल्पक में विकल्पविशिष्टज्ञान के जनकत्व की कल्पना न्यायसंगत नहीं है।
क्षिरिणकत्व का विकल्पानुभव न होने का कारण-बौद्ध] इस सम्बन्ध में बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि "घटादि के निर्विकल्पकाल में यपि घटादि के क्षरिएकत्व का भी अनुभव होता है, तो मो उसका विकल्प नहीं होता इसके दो कारण हैं । एक तो यह कि क्षणिकत्व के विकल्प का कारण संनिहित नहीं रहता और दूसरा यह कि क्षणिकत्व के विकल्प का विरोधी सन्निहित रहता है, जैसे क्षणिकत्व के विकल्प का कारण है क्षणिकर का फल=निर्णीतक्षणिक के साधर्म्य का ज्ञान । वह निर्विकल्पककाल में नहीं रहता इसलिये कारण के अभाव में रिण करव के विकल्प का न होना उचित ही है। और उसका न होना इसलिये भी उचित है कि उनका विरोधी सन्निहित रहता है जैसे क्षणिकत्व के विकल्प का विरोधी है अक्षणिकत्व का प्रारोप, उस प्रारोप के उपस्थित होने से क्षणिकत्व का विकल्प नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि-'क्षणिकस्वग्राही प्रध्यक्ष हो अक्षणिकत्व के प्रारोप का प्रतिबन्धक हो जायगा अतः अणिकत्व का अारोप नहीं हो सकता क्योंकि प्रक्षणिकत्व के प्रारोप का प्रतिबन्धक क्षणिकत्वक निश्चय होता है और बौनुमत में निधिकल्प प्रत्यक्ष निश्यपरूप नहीं होता।
सो विषय को 'एकस्वार्थ' इस कारिका से भी स्पष्ट किया गया है। "प्रत्येक अर्थ अपने निविकल्प काल में अभिन्न स्वभाव से प्रत्यक्षगृहीत होता है-उस का कोई भी माग ऐसा नहीं होता जो निर्विकल्प प्रत्यक्ष से दृष्ट न होता हो और जिस की परीक्षा अन्य प्रमाणों से अपेक्षित हो।"
नविकल्पक के बाद उस के विषयभूत अर्थ में जो गुणान्तर का संयोजन होता है वह भ्रम के निमित्त से सम्पादित होता है, क्योंकि गुणान्तर संयोजना । गुणान्तरसंबन्ध का ज्ञान) भ्रमरूप होती है। यदि प्रर्थ का निर्विकल्पकप्रत्यक्ष से प्रष्ट मी कोई माग माना आयगा तो वह सविकल्पक काल में
अर्थ में गहीत होनेवाला गुणान्तर होहो सकता है जिसका संयोजन निविकल्पक गहीत अथ में सम्बन्धज्ञानभ्रान्त विकल्प प्रत्यक्ष के निमित्त से उत्पन्न होता है । एवं यह भी कहा जा सकता है कि
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या. फ. टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ १९३
श्चितस्यानुभवे मानाभावाच्च । 'नान्तरीयकत्वादेकानुभवोऽन्यानुभवे मानमिति चेत् १ न, चन्द्रग्रहणेऽपि तदेकन्याऽग्रहणतस्तैमिरिकदर्शनेन व्यभिचारात् , द्वित्त्वे तस्य भ्रान्तत्वेऽपि चन्द्रेऽभ्रान्तत्वात , प्रमाणतरव्यवस्थाया व्यवहारिजनापेक्षयात. "प्रामाण्यं व्यवहारेण शास्त्र मोहनिवर्तनम्" इति त्वयैवाभिहितत्वाद अन्यथैक चन्द्रदर्शनस्यापि चन्द्ररूपे प्रमाणता, क्षणिकत्वे
शप्रमाणता, इति रूपद्व यस्याभ्युपगमविरोधात् । रजताकार शुक्ति का ही एक माग है जो शुक्तिस्वरूप से शुस्तिग्रहणकाल में प्रष्ट रहता है मोर जब शुक्ति का केवल इदम्त्वरूप से ग्रह होता है तब रजतसादृश्यदर्शन से शुक्तित्वग्रहणकाल में प्रष्ट रजताकार का ग्रहण होता है। किन्तु यह वास्तविक स्थिति नहीं हैं, इसलिये तथ्य यह है कि निर्विकल्प काल में गृहीत होने वाले क्षणिक प्रर्य का कोई भी भाग प्रष्ट नहीं रहता। किन्तु हरट होने पर भी अनिर्णीत रहता है।"
[णिकत्ववत सद् अंश के अनिश्चय की बौद्ध को प्रापत्ति ] यह बौद्ध वचन ठीक नहीं है, क्योंकि यदि निर्विकल्प प्रत्यक्ष से इष्ट होने पर भी जैसे क्षणिकस्वादि का निर्णय नहीं होता उसी प्रकार निर्विकल्प से गहोत होने पर भी सवेश का प्रौर वशनांश का भी निश्चय नहीं होगा क्योंकि निर्विकल्पगहीतत्व रूप से उन सभी अंशो में कोई अन्तर नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'क्षणिकत्व, सवंश और दर्शनांश में निविकल्पकगहीतत्व समान होने पर मी क्षणिकरव का निश्चय न होने और सदंश दर्शनांश का निश्चय होने में कुछ बीज है और वह बोज यह है कि अक्षणिकत्व के प्रारोप से क्षणिकत्वनिश्चय का प्रतिबन्ध । तथा सदश एवं दर्शनांश के निश्चय के बीज है उनके विरोधी अंशों के प्रारोप का अभाव । इस अन्तर की कल्पना का साधक है उत्तरकाल में क्षणिकत्व के संशय का होना और सदंश तथा दर्शनांश के संशय काम होना"किन्त इस कथन से भी बौद्ध मत का समर्थन नहीं हो सकता। क्योंकि निर्विकल्पक अनुभव वस्तुगत्या निरंश प्रर्यात अंशाधिशेष का अनाहक होता है या तो वह अपने विषय मूत अर्थ के समी अंशों को उस प्रर्थ के रूप में हो ग्रहण करता है। अत: निविकल्पक द्वारा उस के विषयभूत अर्थ के अंशों का विश्लेषण न हो सकने से इस प्रकार की कल्पना कि 'उस का विषयभूत अमुक अंश निश्चित होता है और प्रमुक अंश अनिश्चित होता है' नहीं हो सकती। यदि इस के समाधान में बौद्ध की और से यह कहा जाय कि-'यह कल्पना निर्विकल्पक के प्रव्यवहितोत्तरक्षण में नहीं हो सकती यह तो ठीक है किन्तु सविकरूपक के बाद इस कल्पना में कोई बाधा नहीं हो सकती क्योंकि सविकल्पक से पूर्वगृहीत प्रर्थ के अंशों का विश्लेषण हो जाता है- तो बौद्ध का यह कथन भी उस के मन को निर्दोष करने में समर्थ नहीं हो सकता क्योंकि बौद्ध मत में क्षणिकस्व का निश्चय न मानने पर भी निर्विकल्पक काल में उस का अनुभव माना जाता है जिस में कोई प्रमाण नहीं है।
यदि इस के उत्तर में बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि-'सत्त्व का अनुभव तो उसके निश्चय द्वारा प्रमाणिक है और सत्त्व यह 'यत् सत् तत् क्षणिकम्' इस व्याप्ति से क्षणिकत्व का नान्तरीयफ है अतः सत्व के अनुभव से क्षणिकत्व के अनुभव का अनुमान हो सकता है जिस का प्रयोग इस प्रकार हो सकता है-क्षणिकत्वं सत्वानुमवकालोनानुभवविषयोमूतं -सत्यनान्तरीयकत्वात् । यत्
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४ ]
[ शा० वा समुख्य स्त० ४ श्लो० ११३
-
-
यस्य तु मतम्-दृश्य-प्राप्ययोरेकत्वेऽविमंरादाभिमानिनः प्रत्यक्षं प्रमाणम् , इतरस्य तयोविवेके सत्यनुभृतेऽपि न प्रमाणम् , तस्य चन्द्रप्राप्यमिमानिनः किमिति चन्द्रमाने तद् न प्रमाणम् ? अथ दोषजन्ये द्विचन्द्रादिझाने चन्द्रम्यापि न परमार्थसतो भानम् , किन्तु प्रातिभासिकसत्तावलीढस्यारोपितम्यैव, इति न तद्ग्रहात्तदेकत्वग्रहः । अध्यक्षस्याशे प्रामाण्याऽप्रामाण्यद्वरूप्यमपि व्यावहारिकमेव, पामार्थतस्तु तत्र सद्विषयन्वरूपं प्रामाण्यमेव । अभ्यासदशाय दृश्य-प्राप्ययोरेकत्वाभ्यवसायात 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्' इत्यपि व्यवहारादेव यत्रालरोयकं तत् तदनुभवकालीनानुभव विषयतावत् पथा रूप-रूपाभयो=क्षणिकत्व सत्त्व के अनुभव काल में अनुभूयमान होता है क्योंकि वह सत्त्व का नान्तरोयक है। जो जिस का नान्तरीयक होता है वह उस के अनुभवकाल में अतुभूयमान होता है जैसे रूप अपने प्राश्रय द्रव्य के अनुमयकाल में अनुभूयमान रहता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि तमिरिक तिमिररोगग्रस्त नेवाले मनुष्य को चन्द्र द्वय का दर्शन होता है किन्तु उस काल में चन्द्रनान्तरीयक चन्द्र के एकस्व का अनुभव नहीं होता इसलिये उक्त नियम में व्यभिचार है। यदि इस के विरुद्ध, जो जिस का नास्तरीयक होता है वह उस के अभ्रान्त अनुभवकाल में अनुसूयमान होता है-यह नियम मानकर इस दोष का समाधान किया जाय-तो यह भी ठीक नहीं हो सकता क्योंकि चन्द्रद्वय का दर्शन द्वित्वअंश में भ्रान्त होने पर भी चन्द्रांश में अभ्रान्त होता है । एक ही ज्ञान में प्रमाण और प्रमाणेसर प्रर्थात् एकज्ञान में प्रामाण्यप्रप्रामाण्य की व्यवस्था को दुर्घट भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जिस व्यवहा पुरुष को चन्द्रद्वय वशन का ज्ञान और चन्द्र में द्वित्व का बाध ज्ञान है वह चन्नद्वयदर्शन में द्वित्वांश में प्रप्रामाण्य और चन्द्रांश में प्रामाण्य की व्यवस्था कर सकता है, क्योंकि बौद्ध का हो यह कथन है कि 'प्रामाण्य व्यवहार प्राधीन होता हैं (जसे भावस्थयवादो माव स्थर्य बुद्धि में प्रामाण्य का व्यवहार करता है) पौर शास्त्र से मोह को व्यवहारमात्र मूलक निवृत्त होती है। यदि एक ज्ञान में अंशभेद से प्रामाण्यअप्रामाण्य न माना जायगा तो एक चन्द्र का दर्शन पन्नांश में प्रमाण होता है और क्षणिकत्व अंश में प्रमाण नहीं होता है कि क्षणिकत्व प्रत्यक्ष से अनिर्णीत रहता है इस प्रकार एक ही शान में प्रामाष्य-अप्रामाण्य इन वो रूपों के बौद्ध प्रभ्युपगम का विरोध होगा।
[विसंवादाभिमानी को चन्द्रद्वय दर्शन चन्द्रांश में प्रमाण हो है] इस सम्बन्ध में किसी का यह मत है कि-'दृश्य और प्राप्य के एकस्व में जिसे प्रयि संवादअविरोध का अभिमान होता है जसो की दृष्टि से दर्शन प्राप्त अर्थ में प्रमाण होता है और जिसको इस प्रकार प्रविसंवाव का अभिमान नहीं होता उसे दृश्य और प्राप्य में विवेक=भेदज्ञान होने से उस की दृष्टि से अनुभूत प्रर्थ में मो प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होता क्योंकि उसे वशन में गहोतार्थ के प्रापकत्वरूप प्रामाण्य का ग्रह नहीं होता प्रतःचन्द्रद्वय का दर्शन चन्द्रश में भी प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि चन्द्रद्वय रूप दृश्य और एकश्चन्द्ररूप प्राप्य इन दोनों के ऐक्य में उष्टा को अविसंवाद अभिमान नहीं है इसलिये यह मान चन्द्रश में भी अप्रमाण हो है-किन्तु यह ठोक महीं क्योंकि चन्द्रदय के दर्शन के बाद जिसे चन्द्रप्राप्ति का अभिमान होता है उसे दृश्यचन्द्र और प्राप्यचन्द्र के एकत्व में अविसंवार का प्रमिमान होने से उस की दृष्टि में चन्द्रवय का दर्शन चन्द्रमात्र में प्रमाण क्यों नहीं होगा?
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्याः ० टीका-हिन्दी विवेचमा ]
[ १६५
प्रज्ञाकरस्याभिमतम् , मण्पादिप्राप्य संसर्गिदृश्यमणिप्रभाद्यवच्छेदेनोपप्लवमहिम्ना मण्याचारोपादद्रदेशप्रवृत्तिदर्शनात तथाव्यवहारप्रवृत्तिरिति चेत् ? न,
चन्द्र द्वित्वस्येव चन्द्रस्य मिथ्यात्वेनाऽननुभवात , तस्य परमार्थतोऽमवे मानाभावात् , अध्यक्षेपार नार्थिकरूप्यस्य संबन्धामात् , तव्यवहाराऽयोगात् , अन्यथाऽतिप्रसङ्गात , आरोपिताध्यक्षे आरोपिततद्धरूप्यस्य विकल्पेन विषयीकरणे च पारमार्थिकस्य तस्याऽ. प्रवर्तकत्वात विकल्पस्यैव प्रवर्तकस्य परमार्थतः प्रामाण्यौचित्यात् ।
चन्द्रद्वय दृष्टा को कल्पित चन्द्र का भान-बौद्ध] यदि बौद्ध को प्रोर से यह कहा जाय कि 'बन्द्रद्वय का ज्ञान दोषजन्य होने से उस में पारमाधिक चन्द्र का ज्ञान नहीं होता है, किन्तु प्रातिमासिक सत्ता युक्त-कल्पित चन्द्र का ही मान होता है। इसलिये सारोपित चन्दशनी चन्वयमान कान में चन्द्र के एकत्व का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि चन्द्र का एकत्व वास्तविकचन्द्र का नान्तरोयक है न कि आरोपिस चन्द्र का, तथा अध्यक्ष में अंश भेव से जो प्रामाण्य अप्रामाण्य ये दो रूप माने जाते हैं वे भी व्यवहारिक नहीं है । बौद्ध के इस कथम पर यह शंका नहीं की जा सकती कि 'जब वह चन्द्रयदर्शन को सर्वाश में प्रमाण बताकर एक ज्ञान मप्रामाण्य-प्रप्रामाण्य को प्रस्वीकार करना चाहता है तो प्रध्यक्ष-विकल्पप्रत्यक्ष को उसने क्षणिकत्वांश में अप्रमाण और सर्वश में प्रमाण, इसप्रकार दो रूप में कैसे स्वीकार किया'?-क्योंकि अध्यक्ष में प्रामाण्य अप्रामाण्य यह रूपय बौख मत में केवल ध्यावारिक ही है पारमा पारमायिक तो केवल प्रामाण्य ही है। व्यावहारिक जो हूँ रूप्य कहा गया है वह तो अभ्यास दशा में "माव स्थिर होता है इस प्रनादि प्रवृत्त संस्कार के कारण हाय-प्राप्य में एकत्व का अध्यवसाय होने से प्रामाण्य का व्यवहार और उस अध्यवसाय के प्रभाव में अप्रामाण्य का व्यवहार होने के कारण । प्रामाण्य प्रामाण्य रूप्य व्यवहारमूलक होने से हो प्रज्ञाकर को भी यही अभिमत है कि प्रत्यक्ष परमार्थतःप्र
[मरिणप्रापक मणिप्रभामरिगदर्शन में प्रामाण्य क्यों नहीं ? ] इस पर प्रश्न हो सकता है कि यवि दृश्य और प्राप्य में एकत्व का अध्यवसाय व्यावहारिक प्रामाण्य का मूल हो तो मणिप्रभा में मणि वर्शन होने के बाद मणिों को मरिणकी प्राप्ति होने पर एश्य और प्राप्य में एकत्व का अध्यवसाय होता है अतः मणिप्रभा में होनेवाले मणिदर्शन में भी ध्यावहारिक प्रामाण्य क्यों नहीं मानना चाहिये ?--इस का उसर यह है कि जब मणिनमा में मणिदर्शन के बाद किसी उपप्लववाधक यश मणिप्रभा में मणिदृष्टा की प्रवृत्ति मरिणवेश तक न होकर थोडे ही दूर तक रह जाती है, वहाँ मणि की प्राशि न होने पर दृश्य-प्राप्य में एकत्व का अध्यवसाय नहीं होता है । प्रत एव मणि-प्रमागत मणिदर्शन में प्रप्रामाण्यव्यवहार की प्रवृत्ति होती है और इस निश्चिताप्रामाण्यक मणिप्रभामणिदर्शन में भी अप्रामाण्य का हो ध्यवहार होता है क्योंकि प्रत्रामाण्यव्यवहार का मूल दृश्य प्रौर प्राप्य में एकत्व के प्रध्यवसाय का अभावमात्र ही नहीं है अपितु निश्चिताप्रामाण्यकशान का साधर्म्य भी है । अत: मणिप्रापक-मणिप्रभा-मणिदर्शन में इस दूसरे निमित्त से अप्रामाण्य का व्यवहार होता है।"
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६ ]
[ शा.पा. समुरुषय स्त० ४-श्लोक ११३
___ 'अर्थाऽप्रभवत्वेनार्थाऽग्राहित्वाद् न विकल्पम्य प्रामाण्यम्' इत्यपि परिभाषामात्रम् , अर्थप्रभवल्याज्ञानम्यार्थग्राहकत्वे इन्द्रियादिप्रभवत्वादिन्द्रियादेपि ग्राहकतापत्तेः, योग्यतातः
किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि चन्द्र में जिसप्रकार द्वित्वके मिथ्यात्व का अनुभव होता है उस प्रकार चन्द्र के मिथ्यात्व का अनमय नहीं होता। अत एव चन्द्रद्रयदर्शन में भासित होनेवाला चन्द्र परमार्थत: असत होता है. इस में कोई प्रमाण नहीं है । तथा अध्यक्ष में जो प्रामाण्य और अप्रामाण्यरूप अपारमाथिक रूप्य का होना बताया गया है वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अध्यक्ष में द्वं रूप्य का सम्बन्ध नहीं है। कारण यह कि किसी वस्तु में उसी रूप का सम्बन्ध मान्य होता है जिस रूर का उस में व्यवहार हो । अध्यक्ष में प्रामाण्य-प्रप्रामाण्य दोनों का व्यवहार प्रसिद्ध है क्योंकि बौद्ध विद्वानों ने सर्वत्र प्रत्यक्ष हो प्रमाण होता है यही उद्घोष किया है। यदि किसी रूप का किसो वस्तु में व्यवहार न होने पर भी उस वस्तु में उस रूप का सम्बन्ध माना जायगा तो अतिप्रसंग होगा। मर्थात् नीलादि में पीतत्व मादि का और पोतादि में नोलत्यादि का भी सम्बन्ध सम्भव होने से नीलस्वावि को पोसादि के अपारमाथिक रूप में स्वीकार की प्रसक्ति होगी।
[प्रारोपित प्रामाण्य-अप्रामाण्य रूपय का कथन अनुचित] कदाचित् यह कहा जाय कि अध्यक्ष में लोकसम्मतव्यवहार के प्रभाव में मी उसमें प्रारोपित प्रामाण्य-अप्रामाण्य रूप हंरूप्य मानने पर नीलादि में पोताविरूपता का प्रतिप्रसंग नहीं हो सकता, क्योंकि नोलादि में पीताविरूपता का न तो कोई लोकसम्मत व्यवहार है और न कोई ग्राहक है, किन्तु अध्यक्ष में प्रारोपितरूप्य का ग्राहक विकल्प विद्यमान है प्रतः अध्यक्ष में नारोक्ति दवरूप्य माना जा सकता है। तो यह कथन भी पक्तिसंगत नहीं हो सकता। किप्रध्यक्ष को आरोपित प्रामाण्यप्रामाण्य रूपद्वय का प्राश्रय मानने पर और उसके इस प्रारोपित स्वरूप्य का विकल्प द्वारा ग्रहरण मानने पर पारमार्थिक होते हुए भी अध्यक्ष अपने द्वारा गृहीत अर्थ में प्रवर्तक न हो सकेगा। चूंकि जिस ज्ञान में अप्रामाण्य गृहोत नहीं होता वही ज्ञान अपने माहित अर्थ में प्रवत्तंक होता है किन्तु अध्यक्ष में विकल्प द्वारा प्रामाण्य-प्रप्रामाण्य द्वरूप्य का ग्रहण होने पर उसका अप्रामाण्य गृहोत हो जाता है। प्रतः अध्यक्ष को परमार्थतः प्रमाण मानना भो युक्तिसंगत नहीं है कि प्रामाण्य का प्रभ्युपगम गहीतार्य की प्रापकता के अधीन होता है और महीतार्थ प्रापकता गहोताथ की प्रवर्तकता के प्रधान होती है। अतः जब अध्यक्ष प्रवत्तंक हो नहीं होगा तो उस में प्रामाण्य का अभ्युपगम निराधार हो जायगा । अतः उचित यही है कि प्रवत्तंक विकल्प को ही परमार्थतः प्रमाण माना जाय ।
(तद्ग्राहकत्व में तत्प्रभवत्व प्रयोजक नहीं है) बौद्ध को प्रोर से यदि यह कहा जाय कि-"विकल्प प्रमाण नहीं हो सकता कि प्रर्थजन्य न होने के नाते वह अर्थग्राहक नहीं होता । ओ ज्ञान प्रर्थनाही होता है वही प्रमाण होता है।'-बौद्ध का यह कथन भी परिभाषामात्र यानी नियुक्तिक है । क्योंकि अगर अर्थजन्य होने से ज्ञान को अथंग्राहक माना जायगा तो प्रत्यक्ष इन्द्रियादि से जन्य होता है प्रत एव उसमें इन्द्रियादि के ग्राहकत्व की प्रसक्ति होगी। यदि तत्तद् अर्थ में तत्तज्ञानविषयता का उपपादन तत्तझानग्रहणयोग्यता मानकर किया जायगा और इन्द्रिय में वह योग्यता होने से प्रत्यक्षज्ञान के प्रविषयत्व का उपपादन किया
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
या कभीर भौदिदी लोमनः ]
[ १९७
प्रतिनियमे च किमनिमित्तमर्थस्य ज्ञानहेतुत्वकल्पना ? ! 'ज्ञाने स्याकागधायकत्वादथों हेतुरिति' चेत् ? न अर्थन सर्वात्मना तत्र स्वाकाराधाने ज्ञानम्य जडनाप्रसक्तेः, उत्तरार्थक्षणवत् एकदेशन तदाधायकत्वे सांशनासक्तेः । 'समनन्तम्प्रत्ययस्य तत्र स्वाकागधायकत्वाद् न जडत्वम् ' इन्युक्तावपि समनन्तरप्रन्यया-ऽर्थक्षण योद्वयोरपि तत्र म्वाकागपकन्वे तज्ज्ञानस्य चेतना-ऽचेतनरूपद्वयापत्तेः । किश्श, तदाकारं तदुत्पन्नं तदुत्पत्तिसारूप्ययोयभिचारित्वादर्थेऽपि न प्रमाणं स्यात् ।
अर्थ यदाकारं यदुत्पन्नं यदध्ययस्यति नत्र तत्प्रमाणम् । नन्वत्र यदाकारं यदुत्पन्न विज्ञान मेवाऽर्थाध्यवमायं जनयतीत्यर्थः, उत तमेवेति, आहोस्चिज्जनयन्येचेति ? आये, विकल्पजायगा तो अर्थ में जानकारणत्व को कल्पना निष्प्रयोजन हो जायगी। यदि यह कहा जाय कि 'अर्थ ज्ञान में स्वाकार का प्राधायक होता है अत एव उसे ज्ञान का हेतु मानना प्रावश्यक है कि यदि तत्तज्ज्ञान के अहेतु से भी तत्तज्ज्ञान में प्राकार का प्राधान माना जायगा तो घटाविज्ञान में पटादि प्राकार के प्राधान को प्रापत्ति होगी। किन्तु यह ठीक नहीं है कि अर्थ से ज्ञान में अपने प्रकार का सर्वात्मना प्राधान माना जायगा तो ज्ञान उसी प्रकार जड हो जायगा जैसे पूर्व अर्थक्षण से उत्पन्न होनेवाला द्वितीय अर्थक्षण । यदि किसो अंश से प्रथं को जान में स्वाकार का प्राधायक माना जायगा तो ज्ञान सांश हो जायगा।
(ज्ञान में जडचेतन उभयरूपता को आपत्ति) यदि यह कहा जाय कि- 'केवल अर्थ हो ज्ञान में अपने प्राकार का प्राधान नहीं करता किन्तु जान का समनन्तर प्रत्यय अव्यवहितपूर्वत्तिज्ञान भी प्राकार का प्राधान करता है अतः उस प्राकार के प्राधान से ज्ञान की चेतनता सुरक्षिस रहने से उस में जश्त्व की आपत्ति नहीं होमो' यह ठीक नहीं है। कि ऐसा मानने पर समनन्तर प्रत्यय और अर्थक्षण दोनों के वेतन और प्रचेतन दोनों प्राकार प्राप्त होने से ज्ञान में जड-चेतन उभयरूपता की आपत्ति होगी।
दूसरी बात यह है कि 'जो तवाकार और तदुत्पन्न ज्ञान होता है वह तवयं में प्रमाण होता है। यह व्याप्ति भी नहीं है क्योंकि तदुत्पत्ति और तत्सारूप्य दोनों शुक्ति-रजत ज्ञान में व्यभिचारी है,
कि शुक्ति में रजतज्ञान रजताकार होता है एवं रजतविषयक संस्कार प्रथवा रअतस्मरण द्वारा रजतोत्पन भी उसी प्रकार होता है जैसे योगी का ज्ञान योगजधर्म द्वारा प्रसन्निहित प्रतीत अनागत विषयों से उत्पन्न होता है किन्तु रजत रूप अर्थ में वह शुक्तिरजतज्ञान प्रमाण नहीं होता।
(यदाकार, यदुत्पन्न, यदर्थनिश्चयजनक ज्ञान प्रमारण-यह प्रसंगत है) यदि यह कहा जाय कि-'जो ज्ञान यदाकार यदुत्पन्न होते हये जिस अर्थ के प्रध्यवसाय=निश्चय का जनक होता है यह उस अर्थ में प्रमाण होता है यह नियम है । शुक्ति में रजतज्ञान र जताकार रजतोत्पन्न होने पर भी रजत के अध्यवसाय का जनक न होने से रजतार्थ में प्रमाण नहीं होता । प्रतः इस नियम में व्यभिचार नहीं है'-तो यह ठीक नहीं है कि इस नियम को कल्पना तीन स्थितियों में की जा सकती है, किन्तु तीनों ही स्थितियां सम्भव नहीं हो सकती । जैसे, पहली स्थिति
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८ ]
[शा वा समुच्चय स्त-४ श्लो. ११३
वासनापि तत्कारणं न भवेत् । एवं च निर्विकल्पकचोधाद् यथा सामान्यावभासी विकल्पः, तथाऽर्थादेव तथाभूताद् भविष्यति इति किमन्तगलपर्तिनिर्विकल्पककल्पन या न चाविकल्पताऽविशेषेऽपि दश नादेव विकल्पोन्पत्तिः, नार्थात , वस्तुम्बामाव्यादिन्युत्तरम् . तम्य स्वरूपे
वामिद्धेः, 'स्तम्भः स्तम्भोऽयम्' इतिवत् । कस्तम्भावगाहिज्ञानस्य सामान्यविषयन्यान् , ऊर्षतामामान्यापलापे लियसामान्यस्याप्यपलापाजगतः प्रनिभामचे कल्यनसतात , निरंशक्ष. णिकानेकपग्मायाकारम्य तस्य मावेनाभ्युपगन्तुमशक्यत्वात् , प्रतिनिश्क्तिपरमाणुनन्दस्य दुःश्रद्धानत्वात । किञ्च, यथाऽविकल्पादादविकल्पदर्शनप्रभवः, तथा दर्शनादपि तथाभृनाद. विकल्पम्यैव प्रभव इति विकल्पकथाऽप्युच्छिन्ना । द्वितीये, धारावाहिकनिर्विकल्पकसंततिर्न स्यात् । तृतीयेऽपि, अत्यन्तायोगव्यवच्छेदः स्वभाव भेदं विना दुर्घट इति न किञ्चिदेतत् । तम्मात् तदुत्पत्ति-सारूप्यार्थग्रहगमन्तरेणापत्यवमा रम्य प्रामाण्यं युक्तम् , अनायसत्यविकल्पवासनान एव तदुत्पत्यभ्युपगमे दर्शनस्याप्पहेतुत्वात "तत्रैव जनयेदेना" इत्याद्यभ्युपगमव्याघानात् ।
.
_
-
-
-
यह है कि तदाकार तदुत्पन्न ज्ञान हो तदर्थ के अध्यवसाय का जनक होता है दूसरो स्थिति यह है कि तदाकार सदुत्पन्न ज्ञान तदर्थ के प्रध्यवसाय का हो जनक होता है। तीसरी स्थिति यह है कि त दशकार तदुत्पन्न ज्ञान तदर्थ के अध्यवसाय का जनक होता ही है । इसमें पहलो स्थिति स्वीकार्य नहीं हो सकती, क्योंकि उस स्थिति में पूर्वविकल्पमन्य वासना भी प्राध्यवसाय का कारण न हो सकेगी। दूसरी बात यह है कि निर्विकल्पक ज्ञान से जैसे सामान्यग्राही विकल्प की उत्पत्ति होगी उसी प्रकार निविकल्पक के समान काल्पनिक रूपों से मुक्त शुद्ध प्रर्थ क्षरण से ही उसकी उत्पत्ति हो सकती है अत: अर्थ और सविकल्प के मध्य विकल्पक को कल्पना निष्प्रयोजन है। इसका यदि यह उ उत्तर दिया जाय कि यद्यपि वर्शन और अयं को विकल्पहीनता में कोई अन्तर नहीं है तो भी विकल्प अपने स्वभाववश दर्शन से हो उत्पन्न होता है। प्रर्थक्षरण से उत्पन्न नहीं होता है तो यह उत्तर मी ठोक नहीं है. कि सामान्यप्राही विकल्प स्वरूप से हो प्रसिद्ध है । क्योंकि बौद्ध के मत में सामान्य का अस्तित्व संभव नहीं है, सामान्य उस वस्तु को कहा जाता है जो क्रमिक अनेक व्यक्तियों में अनुगत होकर सहश प्रतीति का उत्पादक होता हो और इस प्रकार की कोई अनुगत-स्थिर वस्तु क्षणिकत्वधादी बौद्ध को मान्य नहीं है ।
(अध्र्वतासामान्य न मानने पर तिर्यक्सामान्य के अपलाप को आपत्ति) यदि यह कहा जाय कि-'अयं स्तम्भः प्रयं स्तम्भ:' इस प्रकार विभिन्न स्तमध्यक्तिनों में स्तम्माकार प्रमुगत प्रतीति होने से प्रतदयावृत्तिरूप में सामान्य बौद्ध को भी मान्य हैं तो यह कहना भी उसके हित में नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर उस ज्ञान के समान 'एक स्थिर स्तम्भ' का अवगाहन करने वाले ज्ञान में भी सामान्यविषयकत्व की सिद्धि होगी, अर्यात् यह मानना होगा जैसे एककालिक विभिन्न व्यक्तियों में अनुगत प्रतीति के अनुरोध से प्रतद्वधावृत्ति रूप में
* यत्रब जनयेदेनां तत्रैबाऽस्य प्रमाणता. इत्यभ्यपगम: बौद्धस्य ।
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वा०क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ tee
सामान्य को मानना आवश्यक है उसी प्रकार एक स्तम्भ का जोग्रनेक काल तक एकाकार अनुगत ज्ञान होता है उस ज्ञान को ही विभिन्न क्षणों में परिवर्तित होने वाली स्तम्भ की विभिन्न अवस्थाओं में एक अनुगत सामान्य का ग्राहक मानना होगा जिसे ऊध्वंतासामान्य कहा जा सकता है, जो क्रम से उत्पन्न होनेवाले विभिन्न पर्यायों में द्रव्यरूप से अनुगत होता है। यदि इस ऊयंता सामान्य का अपलाप किया जायेगा तो एककालिक विभिन्न गो श्रादि व्यक्तियों में समान प्रतीति के उत्पादक गोarfa तिर्यक् सामान्य का भी अपलाप हो सकता है, जिसके फलस्वरूप जगत् के प्रतिभास का प्रभाव अर्थात् जगत् में होने वाली प्रतोतियों के बंधस्य के प्रभाव की प्रसक्ति होगी । इसके समाधान में
यह मो नहीं कहा जा सकता कि रतिर्यक सामान्य न होने पर भी जगत् सांश होने से अंशों के वैषम्य के कारण प्रतोतिषम्य की उपपत्ति हो सकती है' - बूँकि बौद्धमत में जगत् निरंश क्षणिक अनेक परमाणुस्वरूप है । बौद्ध मत में परमाणु समूह से अतिरिक्त प्रवयवीरूप जगत् का अस्तित्व नहीं है ।
( प्रतोति के बल पर लोकसिद्ध पदार्थों के स्वीकार की प्रापत्ति)
यदि यह कहा जाय कि 'जगत् परमाणु समूह से अतिरिक्त भले न हो किन्तु प्रत्येक परमाणु स्वयं-स्वभावतः एकदूसरे से विषित-मित्र है । प्रतः परमाणुओं के वैषम्य से प्रतीतिषम्य की उपपत्ति हो सकती है तो यह कथन मो युक्तिहीन होने से श्रद्धेय है। चूँकि यदि स्वतः परस्पर विलक्षण प्रनंत परमाणुत्रों की सत्ता स्वीकार की जा सकती है तो जिन विभिन्न रूपों में जगत् के विभिन्न पदार्थों को प्रतीति लोकसिद्ध है उन रूपों में उन पदार्थों के अस्तित्व का भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता । इस सम्बन्ध में यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि जैसे विकल्पमुक्त प्रर्थ से विकल्पमुक्त दर्शन का जन्म होता है उसी प्रकार कार्यकारण में साहत्य का नियम होने से reeder वर्शन से foकल्पमुक्त हो विशिष्ट ज्ञान की भी उत्पत्ति होनी उचित है। ऐसा होने पर, विश्व में विकल्पात्मक ज्ञान को कथा ही समाप्त हो जायगी।
उक्त नियम के अभ्युपगम की दूसरी स्थिति यह है कि तवाकार तदुत्पन्न ज्ञान तदर्थ का प्रध्यवसाय ही उत्पन्न करता है। किन्तु यह स्थिति भी स्वीकार्य नहीं हो सकती क्योंकि उसे स्वीकार करने परवागवाहिक निविकल्पक के सन्तान को उपपत्ति न हो सकेगी। चूंकि इस स्थिति को मानने पर निविकल्पक अर्थाव्यवसाय सविकल्पज्ञानमात्र को ही उत्पन्न करेगा, अतः द्वितीय तृतीय प्रादि निर्विकल्पक ज्ञान की उत्पति न हो सकेगी।
( स्वभावभेद के बिना श्रत्यन्तायोग को अनुपपत्ति )
उस नियम के अगम को सीसरी स्थिति यह है कि तदाकार तदुत्पन्न ज्ञान प्रर्थविषयक अध्यवसाय का अनक होता है । यह स्थिति तदाकार तदुत्पक्ष ज्ञान में तदर्थविषयक श्रध्यवसाय की जनता के प्रत्यन्तायोग के व्यवच्छेद पर निर्भर है किंतु यह व्यवच्छेव तदाकार- तदुत्पन्न मानों में स्वभाव भेद मानने पर हो सम्भब हो सकता है क्योंकि स्वभाव मेव के ही प्राधार पर यह कहा जा सकता है कि अमुक स्वभावोपेत तदाकार तदुत्पन्न ज्ञान तदर्थाध्यवसाय का जनक है और अमुक स्वमायोपेत उक्तज्ञान तदर्थाध्यवसाय का प्रजनक है इसलिये तदाकार तदुत्पन्न ज्ञान में अर्थाध्यवसायजनकता का प्रयोग तो हो सकता है किन्तु अत्यन्तायोग नहीं हो सकता है। स्वभावमेव से तदाकार तदुत्पन्न ज्ञान को तदर्थ के प्रध्यवसाय का अजनक मानने पर सदाकार, तदुत्पन्न, तदर्थ के
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०० ]
[ शा. बा. समुच्चय स्त० ४ श्लो० ११२
न च वासनाप्रबोधविधायकत्वेन तम्यापि हेतुत्वम् , इन्द्रियार्थमनिधानम्यैव तत्प्रबोधहेतुत्वात , 'तद्धेतो.' इति न्यायात् । न च वामनाप्रभवत्वेनाऽमजस्यैवं भ्रान्तता स्यात्, अर्थप्रमवन्येनानुमानरत् प्रमाणत्वात् सामान्यादिविषयत्वम्य तुल्यत्वात् । न च स्वग्राह्यम्याऽवस्तुत्वेऽप्यध्यवमायम्य स्वलक्षणन्त्राद् दृश्य-विकल्प्यायवेकीकृत्य प्रवृत्तग्नुमानम्यअध्यवसाय का जनक हो नान तदयं में प्रमाण होता है। इस नियम का भङ्ग हो मायगा । इसलिये तदुपसि-तत्सारूप्य और तदर्थाध्यवसाय इनके विना मो अध्यवसाय को प्रमाण मानना युक्तिसंगत है। यदि तिर्यक सामान्य तथा जगत् को सांशता इन दोनों को म स्वोकार करके भी प्रमादि-प्रसस्य विकल्पवासना से हो जगत् के विविधप्रतिमास की उत्पत्ति की जायेगी लो विकल्पवृद्धि में दर्शन भी कारण न हो सकेगा। कि उक्त वासना से हो समो सविकल्पक प्रतीतियों का उच य हो जाएगा। फलतः 'दर्शन जिस अर्थ में सविकल्प बुद्धि को उत्पन्न करता है उसी प्रथं में प्रमाण होता है बौद्ध का यह अभ्युपगम बाधित हो जायगा।
वासनाप्रबोधक कौन ? दर्शन या इन्द्रियर्मनिकर्ष बौद्ध की अोर से यदि यह कहा जाय कि-'पूर्वविकल्पजन्य वासना से नूतन विकल्प की उत्पत्ति मानने पर भी उस वासना का प्रबोधक होने से दर्शन को भी विकल्प का हेतु मानना प्रावश्यक है।' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दर्शन के हेतु इन्द्रियार्थसंनिकर्ष को ही वासनाप्रबोध का हेतु माना उचित है क्योंकि यह न्याय है-'तषेतोरेवास्तु किं तेन ?' जिसका तात्पर्य यह है कि जो कार्य जिस कारण के कार्यरूप से अभिमत है उस कार्य को उस कारण के हेतु से ही उत्पन्न मानना चाहिये न कि उससे । क्योंकि उसके सन्निधान के लिये उसके हेतु का सन्निधान अनिवार्य होगा। तो यदि उस कारण का हेतु उस कारण के अभिमत कार्य का हेतु हो सकता है तो उसी को उसके कार्य का सोधा हेतु माना लेना चाहिए । बीच में उसकी उत्पत्ति की कल्पना गौरवग्रस्त है। जैसे-मंगल से विध्नध्वंस पूर्वक मङ्गल जन्य अपूर्व को समाप्ति का कारण मानने वाले के मत में अपूर्व के का णीभूत विनध्वंस से अपूर्व के कार्य रूप में प्रमिमत समाप्ति को सोधो उत्पत्ति हो सकमे से बीच में में अपूर्व में को कल्पना अनावश्यक यानी गौरवापावक होती है।
[वासनाजन्यत्व मात्र से विकल्प अप्रमारण नहीं हो सकता] यदि यह कहा जाय कि “इन्द्रिय जन्य विकल्प को वासनाजन्य मानने पर वह प्रमाण न होकर भ्रमात्मक हो जायगा"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वासनाजन्य होने पर भी वह अर्थजन्य भी है। इसलिये अनुमान के समान वह भो प्रमाण हो सकता है । वासना से उपस्थापित सामान्यादि विषयक होने से उस में प्रामाण्य की अनुपपत्ति को शंका नहीं की जा सकती क्योंकि सामान्याविविषयक अनुमान में भी समान है। इस पर यदि यह कहा जाय कि-"यपि अनुमानात्मक अध्यबसाय से ग्राह्य सामान्यादि अवस्तुभूत है तो भी स्वलक्षण होने के कारण दृश्य पर से ब्यपदेश्य-वास्तव विशेष रूप अर्थ और विकल्पविषयीभूत सामान्य को एकीकृत रूप में ग्रहण करके प्रवृत्त होता है प्रत एव प्रनुमान प्रमाण होता है। प्राशय यह है कि अनुमानात्मक अध्यवसाय का मूल मूत व्याप्तिज्ञान सामान्याश्रयी होता है अर्थात सामान्यमात्र का अवलम्बन करके प्रवृत्त होता है क्योंकि सम्पूर्ण धम और सम्पूर्णवह्नि का ज्ञान होने से घूमत्व और वह्नित्व के रूप मे हो धूम मौर वहिव्याप्ति का
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
भ्या० का टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ २०१
प्रामाण्यम् , प्रकृतविकपेऽपि समानत्वात् । न च गृहीतमादित्वाद् विकल्पो न प्रमाणम् , क्षणक्ष यानुमानस्याप्यप्रामाण्यप्रसक्तेः । अनिर्णीतमनुमेयं निश्चिन्वत् प्रमाणं यअनुमानम् , तनिश्चितं नीलं निश्चिन्धन विकल्पोऽपि किं न तादृशः ? । अथ समारोप व्यवच्छेदकरणादनुमानं प्रमाणम् , तर्हि विकल्पोऽपि तत एव किन तथा ! शुक्तिका-रजवादिषु रजतसादिममारोपाणां तथाभूतविकल्पाद् निवृत्तिदर्शनात् । अथ विकल्पस्य प्रामाण्येऽपि नानुमानबहिर्भावः, अनभ्यामदशायां बनुमानं प्रमाणम् ; अभ्यासदशायां तु दर्शनमेव, न च तृतीया दशास्ति यम्मा विकल्पः ग्वातन्त्रण प्रमाण माश्मनुभवेदिति चेत? न, विकल्पं विना ज्ञान होता है किन्तु उससे उत्पन्न होने वाला अनुमानात्मक अध्यवसाय सामान्य रूप से विशेष को ग्रहण करता है। इनमें विशेष वास्तव होता है और सामान्य कल्पित होता है। अत: कल्पित मात्र का ग्राहक न होकर कपिल और वास्तव के संमिलित स्वरूप का ग्राहक होने से यह प्रमाण होता है। यह ज्ञातस्य है कि व्याख्याकार ने इस संदर्भ में प्रमानसेनहोत होने वाले वास्तव विशेष कोही बौद्ध के दृष्टिकोण से दृश्य शब्द से व्यवहृत किया है और उसको वास्तविकता स्वल क्षरण शब्द से सूचित की है"-किन्तु बौद्ध धारा अनुमानप्रामाण्य का उक्त रीति से समर्थन ठीक नहीं है । क्योंकि वास्तव और विकल्प्य अथों का एकोकरण जैसे अनुमान में होता है वैसे प्रकृतबिकल्प-सविकल्प प्रत्यक्ष में भी समान है। तात्पर्य यह है कि सविकल्पक प्रत्यक्ष, वासना जन्य होने से वासना के विषयभूत सामान्यादि कल्पिता और विद्यमान अर्थक्षण से जन्य होने से वास्तव अर्थ क्षरण, इन योगों
कृत रूप में ग्रहण करता है। अत: जिस निमित्त से अनुमान को प्रमाण कहा गया है यह निमित सविकल्पक प्रत्यक्ष में भी विद्यमान है अत: अनुमान को प्रमाण प्रौर सविकल्पफ को अप्रमाण कहना उचित नहीं हो सकता ।
(गृहीतग्राही होने से विकल्प प्रमाण यह नहीं कहा जा सकता) धौद्ध की ओर से पुनः यह कहा आय कि-'अनुमान और सविकल्पक प्रत्यक्ष दोनों में साम्य होने पर भी दोनों में मेव यह है कि अनुमान धासमाजन्य न होकर व्यारिसज्ञान और पक्षधर्मताशान जन्य होने से गही तग्राहो नहीं होता, किन्तु सविकल्पक-प्रत्यक्ष वासनाजन्य होने से गृहीतवाही होता है क्योंकि बासना पूर्वगहीत अर्थ को ही प्रस्तुत करती है अतः सविकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकता । तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ग्रहीतग्राही होने से यदि सविकल्पक प्रत्यक्ष को भप्रमाण माना जायगा तो क्षणिकत्वानुमान मी प्रप्रमाण हो जायगा, क्योंकि वह भी मध्यक्ष से ग्रहीत क्षणिकव का प्राहक होता है। यदि उस के उत्तर में यह कहा जाय कि क्षणिका अध्यक्ष से गहोत होने पर मो अनिश्चित रहता है। प्रत: अनिश्चित अनुमेय का निश्चायक होने से अनुमान तो प्रमाण हो सकता है किन्तु सविकल्पक-प्रत्यक्ष वासना से उपस्थापित पूर्वनिश्चित अर्थ का निश्चायक होने से अनिश्चित का निश्चायक न होने के कारण प्रमाण नहीं हो सकता ।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विकल्प भो वासना से अनुपस्थापित, पूर्व में अनिश्चित, नवीन नीलक्षण का निश्चायक होता है अतः जस में मी अनिश्चितनिश्चायकत्व होने से इस के भी प्रामाण्य का अपहरण नहीं किया जा सकता।
इस पर बौद्ध की प्रोर से यदि यह कहा आय कि-'प्रनुमान समारोप यानी भ्रम का मित होने से प्रमाण होता है तो यह कहकर भो सविकल्पप्रत्यक्ष के प्रामाण्य का अपहरण नहीं हो सकता
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२]
[ शा. वा० समुच्चय स्त०५-रलो० ११२
रूप्यानिश्चयेनानुमानस्यत्र न प्रवृत्तिरित्युक्तत्वात् । न च तदपेक्षं दर्शनमेव प्रमाणम् , स्वत एवं तस्याप्रमाणत्वात, विकल्पस्यापि विकल्पान्तरापेक्षया प्रमाणत्वेऽनवस्थाया दुष्परिहरवात्वादिति वाच्यम् , सम्यग्विकल्पस्य स्वत एव प्रमाणत्वात , दर्शनस्याऽगृहीतभाव्यर्थप्रवर्तकत्वेऽतिप्रसङ्गाद , अन्यथा शाब्दमपि सामान्यमात्रविषय विशेषे प्रवृत्ति विधास्यति, इति मीमांसकमतनिषेध्यं स्यात् ।। क्योंकि सविकल्पक प्रत्यक्ष भी भ्रम का निवर्तक होता है । जैसे, यह देखा जाता है कि शुक्ति-रज्जु प्रादि में होने वाले रजत-सर्प आदि भ्रम को निवृत्ति शुक्ति प्रौर रज्जु के सबिकल्पक प्रत्यक्ष से होती है। यदि इस पर बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि विकल्प ज्ञान प्रमाण होने पर भी अनुमान से बह पृथक नहीं है, क्योंकि प्रनभ्यास दशा में अर्थात मावमात्र क्षणिक होता है इस संस्कार की प्रभावदशा में अनुमान माव के क्षणिकत्व में प्रमाण होता है और अभ्यास दशा में यानी 'भावमात्र क्षणिक होता है-इस संस्कार दशा में अर्थ का दशन हो उस के क्षणिकत्व में प्रमाण होता है और उक्त दो दशा से प्रधिक कोई तीसरी दशा नहीं है जिस में विकल्प स्वतन्त्र रूप से प्रमाण हो सके।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि विकल्प को प्रमाण न मानने पर अनुमान के अंगमूत पक्षसत्य सपक्षसस्व और विपक्षाऽसत्त्व का निश्चय न हो सकने से अनुमान को प्रवृत्ति हो नहीं हो सकती है-यह कहा जा चूका है।
[ज्ञानान्तर के संवाद की अपेक्षा नियत नहीं होती] यदि पुन: बौद्ध को और से यह कहा जाय कि-विकल्प-सापेक्ष दर्शन ही प्रमाण है, दर्शन स्वत: प्रमाण नहीं है । किन्तु विकल्प प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि किसी भी ज्ञान के प्रमाण होने के लिये ज्ञानान्तर का संवाद अपेक्षित होता है। दर्शन में विकल्प का संवाद होने से वह प्रमाण हो सकता है, किन्तु विकल्प में ज्ञानान्तर का संवाद न होने से बह प्रमाण नहीं हो सकता। यदि उसे भो प्रत्य विकल्प को अपेक्षा प्रमाण माना जायगा तो मनवस्था का परिहार दुष्कर होगा ।" किन्तु बौद्ध का यह कयन भी ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यक विकल्प को अर्थात् जिस विकल्प में अप्रामाण्य की शका का उदय सम्भावित नहीं होता वह स्वत: हो प्रमाण होता है-उस के प्रामाण्य के लिये संवादी ज्ञानास्तर की अपेक्षा नहीं होती। इस कथन में यहां ध्यान देना जरूरी है कि गहीतार्थ को प्रापकता का प्रयोजक गृहोतार्थ में प्रवकता' ही प्रामाण्य के प्रस्युपगम का बीज है यह पहले कहा जा चुका है। किन्त बौद्ध मत में वर्शन अगहीत यानी अपने प्रविषयभत उत्तरकाल माबो अर्थ में ही प्रवर्तक होगा, क्योंकि प्रवृत्तिकाल में दर्शन का विषयभूत अर्थ नहीं रहता और ऐसा मानने पर दर्शन द्वारा अगहीत उत्तरकाल मावो किसी अर्थविशेष में ही प्रवृत्ति न होकर अर्थसामान्य में प्रवृति का प्रतिप्रसंग होगा, क्योंकि दर्शन द्वारा प्रमहोतस्व उत्तरकाल भावि सभी प्रों में समान है ।
दूसरी बात यह है कि यदि वर्शन को अपने प्रविषय भूत उत्तरकालभावी अर्थ में प्रवर्तक माना जायगा तो मोमांसक का जो यह मत है कि 'शब्द को शक्ति व्यक्तिविशेष में न होकर लाघव से सामान्य मात्र में ही होती है। प्रतः शम्नजन्य ज्ञान सामान्यमाविषयक होता है किन्तु वह अपने प्रविषयभूत विशेष में भी प्रवर्तक होता है' जैसे 'गामानय' इस वाश्य से उत्पन्न बोध मोमांसक मत में लाये जाने वाले गो को विषय नहीं करता क्योंकि 'गो' पद को गोव्यक्ति में शक्ति न होने
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वा० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ २०३
यत्तु - स्मृत्युपनीतेऽपि नामादाविन्द्रियाप्रवृत्तेर्न नामादिविशिष्टार्थग्राहिण्यक्षजा मतिः' इत्युक्तम्-तलामात्रम् अर्थात्मकस्य नामवाच्यतादिधर्मस्य विशिष्टक्षयोपशमसव्यपेक्षयाऽक्षधिया प्रतिपत्त्यभ्युपगमात् । तद्वाच्यताप्रतिपत्तिर्मतिः श्रुतं वा इत्यन्यदेतत् ।
न च 'विशेषणविशेष्यभावस्यानवस्थानाद् न वस्तुनो विशिष्टप्रतीतिः इत्यप्युक्तं युक्तम्, अनेकधर्मकलापाक्रान्तस्य वस्तुनो विशिष्टसामग्रीप्रमवप्रतिपत्या प्रतिनियतधर्मविशिष्टतया ग्रहणात् । न चाग्टग्दर्शनेऽशेषधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपप्रतिभासः कस्यचित् कथंचित् कयाचित्प्रतिपश्या यथाक्षयोपशमं ग्रहणात् । एतेनातीतविशेषणादिग्रहणेऽतिप्रसङ्गः परास्तः, अन्यर्थकस्तम्भ परिणत्या पन्नैक पर भारग्रहणप्रवृत्ताक्षस्याऽपरपरमाणुग्रहणेऽपि सकलपदार्थग्रहणप्रसङ्गस्य दुष्परिहरत्वात् 1
से गो व्यक्ति की उपस्थिति ही नहीं हो सकती। किन्तु फिर मो यह शाब्दबोध श्रोता को लायो जाने वाली गो व्यक्ति को लाने में प्रवर्तक होता है उसका खंडन न हो सकेगा ।
नावाच्यता श्रादि धर्मों का इन्द्रियजन्य ज्ञान से ग्रहण शक्य )
इस सन्दर्भ में जो बौद्ध की ओर से यह कहा गया था कि 'नश्मादि यद्यपि स्मरण द्वारा समिति होता है, किन्तु वह इन्द्रिय के अयोग्य होता है, अत एव उसके ग्रहण में इन्द्रिय की प्रवृत्ति नहीं हो सकती । प्रजः इन्द्रियजन्य ज्ञान नामादि विशिष्ट अयं का ग्राहक नहीं हो सकता - यह कथन भो युक्तिहोन प्रलाप है, क्योंकि नामवाच्यता पादि धर्म अर्थात्मक धर्मो से प्रभिन्न है, अतः अयं इन्द्रिययोग्य होने से वे धर्म भो इन्द्रिययोग्य है, अत एव उस अंश में क्षयोपशम का संविधान होने पर इन्द्रियजन्यज्ञान से उसका ग्रहण हो सकता है। किन्तु इन्द्रिय से जो नामवाच्यता का ज्ञान होता है। वह क्या मतिज्ञान रूप है अथवा श्रुतज्ञान रूप है ? इसका विचार इस सन्दर्भ में उपयोगी नहीं है । [नियत धर्म से विशिष्ट रूप में वस्तु का ग्रहण शक्य है]
बौद्ध की ओर से जो एक बात यह कही गई यी कि 'विशेषरण- विशेष्य भाव अध्यवस्थित होता है प्रोर वस्तु व्यवस्थित होती है । अतः वस्तु की विशिष्ट प्रतीति नहीं हो सकती तो यह कथन मी युक्त नहीं है क्योंकि वस्तुं विभिन्न धर्मो से युक्त है इसलिये विशिष्ट ज्ञान की सामग्री से उत्पन्न होनेवाले बोध से एक एक नियत धर्म से विशिष्ट रूप में उसका ग्रहण होता है। ऐसा मानने पर यह शंका कि-"यदि वस्तु अपने धर्मों से विशिष्ट होती है तो वस्तुप्राही प्रदग्दर्शन यानी सामान्य ज्ञान में सम्पूर्ण धर्मों का प्रतिमास होना चाहिये" उचित नहीं हो सकती, क्योंकि तत्तमंविशिष्ट रूप में वस्तु के ग्रहण के लिये तत्तद्वमांश में ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा होती है । श्रतः किसी वस्तु का किसी विशेषधर्म द्वारा हो किसी प्रतिपत्ति से ग्रहण होता है । सब प्रतिपत्तियों
में
वस्तु के सम्पूर्ण धर्मो का प्रहरण इसलिये नहीं होता कि छद्मस्थ अवस्था यानी संसार दशा में सम्पूर्ण धर्मो के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता । इसीलिये यह शंका भो कि 'वस्तु जब अनेक धर्मों से विशिष्ट होती है तो उसके धर्मो के मध्य में प्रतीत अनागत धर्म भी श्राते हैं । श्रतः बस्तु ज्ञान में उन धर्मों का मो विशेषणविषया ग्रहण होना चाहिये' नहीं हो सकती क्योंकि छपस्थ के वस्तुग्रहणकाल में प्रतीत प्रनागत धर्म रूप विशेषणों के ग्राहक क्षयोपशम का प्रभाव होता है ।
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४ ]
[शा वा समुच्चय स्त०४-श्लोक ११३
यदपि 'मानस्येव विकल्पमतिः' इत्यभिहितम् । तदप्यसत् , स्तम्भादिप्रतिभासस्य मानसत्वे विकल्पान्तरतो निवृत्तिप्रसङ्गात् । न चैवमस्ति, क्षणक्षयित्वमनुमानाद् निश्चिन्यतोऽश्वादिकं वा विकल्पयतस्तदेवास्य प्रतिभासम्य संवेदनात् ।
यदपि 'जात्यादेः स्वरूपानवमासनात् तद्विशिष्टार्थधीरयुक्ता' इति गदितम् तदापि नियुक्तिकम्। स्वसंवेदनवन सदृशपरिणामस्य प्रमीयमाणत्वेन मत्यत्वात् । एकान्तभेदाभेद. पक्षस्यानिष्टः, 'त एव विशेषाः कथञ्चित् परस्पर समानपरिणतिभाजः' इत्यस्मदभ्युपगमे दोषाभावात् , चित्रकविज्ञानवत् समाना ऽसमान परिणत्योरेकत्वाऽविरोधात् । तस्मात , 'सविकल्पकमेव प्रमाणम्' इति व्यवस्थितम् । ततः कथं न बोधान्वयोऽर्थान्वयो बा ? इति परिभाषनीयं रहसि ॥ किसी वस्तु के ग्रहणकाल में उसको समाता का गहण नहीं होता यह सर्वसम्मत है । अत: इस की उपपत्ति के लिये उक्त प्रकार के हेतु की कल्पना सभी को करनी होगी क्योंकि एसा न करने पर एक स्तम्भ के रूप में परिणत परमाणु समष्टि के ग्रहण में प्रवृत्त चक्षु द्वारा सन्निहित दूसरे परमाणु प्रो का ग्रहण होने पर भी जो स्तम्म के सम्पूर्ण माग का ग्रहण नहीं होता है उसकी उपपत्ति नहीं हो सकती । अपितु एक भाग के ग्रहण में प्रवृत्त चक्षु से वस्तु के सम्पूर्ण भाग के ग्रहण की मापत्ति होगी।
(सविकल्प प्रत्यक्ष मानसज्ञान नहीं है) बौद्ध को प्रोर से जो यह कहा गया था कि-'विकल्पमति यानी सविकल्प प्रत्यक्ष इन्द्रियार्थ संनिकर्ष जन्य न होकर मानस होता है-वह भो ठीक नहीं है, क्योंकि स्तम्भादि के विकल्प को यदि मानस माना जायगा तो प्रन्य विकल्प से उसको-निवत्ति हो जायगी कि दो मानस विकल्पों का युगपद् अस्तित्व नहीं होता जैसे मन के मनोग्राह्य विषय सुखदुखादि रूप से ही गृहीत होते हैं, अतः कम से हो वस्तु का ग्रहण करना मन का स्वभाव होता है । 'विकल्पान्तर से स्तम्मादि के विकल्प को नियत्ति हो जाती है। यह माना भी नहीं जा सकता क्योंकि अनुमान से क्षणिकत्व के निश्चयकाल में भी एवं प्रश्नावि के विकल्पकाल में भो स्तम्भ के विकल्प का संवेदन होता है । अत: उस काल में स्तम्मविकल्प का अस्तित्व सिद्ध है।
1 [वे हो विशेष परस्पर कुछ समान परिगतिवाले भी है]
"जास्यादि का व्यक्ति से भिन्न कोई स्वरूप विकल्पात्मकबुद्धि में प्रयभासित नहीं होता, इसलिये विकल्पबुद्धि को जात्यादि विशिष्ट प्रर्य विषयक मानना भी युक्तिसंगत नहीं है ।' यह कथन मी असंगत है क्योंकि जैसे स्य के प्रमात्मक संवेदन से स्व यानी स्वलक्षण बस्तु सत्य होगी उसी प्रकार सहशपरिणाम के प्रमात्मक ज्ञान से सदृश परिणाम रूप जाति का भी सत्यत्व मनिवार्य है। यदि यह कहा आप कि-"स्वके सत्य होने पर मो के सहश परिणामको सत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि स्व का परिणाम स्व से भिन्न है प्रत एव स्व को सत्यता का दृष्टान्त उसको सत्यता का साधक नहीं हो सकता." तो यह ठीक नहीं है क्योंकि परिणाम में परिणामो का एकान्तमेद या एकान्ता:मेव पक्ष अनिष्ट है-हमारा इष्ट यह है कि विशेष व्यक्ति हो कयश्चित् परस्पर में समान परिणाम को
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्था० का टीका- हन्दी विवेचना ]
[२०५
मान्तु वा स्वाये सर्वमश्किल्पप्रामाण्यम् , तथापि नश्वरत्वादिग्राहिणो विकल्पस्य त्वया प्रामाण्यमवश्यमभ्युपेयम् । तस्य च स्याप्त्यादिपर्यालोचनप्रणम्यान्वयित्वमपि स्वसंवेदनमिद्धम् । तदंशे तत्र भ्रान्तत्वे वणिकत्वाशेऽपि तथात्वप्रसाद , एकस्य प्रान्ताऽभ्रान्तोभयरूपवाभावात् , भ्रान्तिबीजसाम्यानचेत्यभ्युच्चयमाह
-. ...........---.-. .. ....... ..... -- -..-.-- धारण करते हैं, जैसे एकान में विद्यमान बिभिन्न घर परस्पर एकबूमरे की अपेक्षा समान परिणाम को धारण करते हैं । हमारे इस पक्ष में भेद और अभेद के एकान्त पक्ष में होने वाले दोष नहीं हो सकते। जो विशेष व्यक्ति परस्पर में समान परिणाम को धारण करते हैं वे विजातीय व्यक्तियों की अपेक्षा प्रसमान परिणाम को धारण करते हैं। जैसे घट चादि में पटादि का प्रसदृश परिणाम भी होता है और उसी से घटादि में पटादि का भेवग्रह होता है इस प्रकार घट प्रादि में जो सहश और प्रसाद परिणाम होते हैं उन परिणामों में भी परिणामी घट की अपेक्षा ऐक्य मानने में उसी प्रकार कोई विरोध नहीं है जैसे चित्राकार एक मान में ज्ञानात्मना उस ज्ञान के विभिन्न प्राकारों के ऐक्य में विरोध नहीं होता । प्रतः सायक युक्ति और बाधकाप्रमाव होने से यह सिद्ध होता है कि सविकल्प ज्ञान हो प्रमाण है। अतःौद्ध को एकान्त में स्वस्थ चित्त से यह विचार करना चाहिये कि विभिन्नाकार ज्ञानों में एक बोध का और विभिन्न परिणामों में एक मूलभूत अर्थ का अन्वय क्यों नहीं हो सकता?
[च्याप्ति प्रावि ज्ञानों में विकल्प का अन्वय अवश्यमान्य प्रयवा यदि समस्त सविकल्पों को प्रमाण न भी माने तो भो बौद्ध मत में यह एक दोष है नश्वरत्यक्षणिकत्व रूप साध्य और सस्व-प्रक्रियाकारित्व रूप हेतु वाले 'यत सत तत अणिक अनुमान में दृष्टान्त रूप में प्रहण किये जाने वाले विकल्प को प्रमाण मानना हो होगा । बह विकल्प व्याप्ति और पक्षयर्मता के ज्ञान के अनुकूल हैं । अत: उन ज्ञानों में उसका अन्वय मी स्वसवेवन-अनुभवसिद्ध है। अतः विभिन्नाकार ज्ञानों में बोध के अन्वय का प्रतिषेध बौद्ध के लिये प्रावय है। यदि व्याप्तिमादि के ज्ञानों में नश्वरतादि ग्राहक विकल्प के अन्धयांश में तदप्राहक संबेदन को भ्रम माना जायया तो क्षणिकत्व अंस में भी यह ज्ञान भ्रम हो जायगा क्योंकि बौद्धमत में एक ज्ञान में भ्रम और प्रमा उभयरूपता नहीं होती। अत: एक ज्ञान को बोधान्वयांश में भ्रम और भणिकस्वांश में प्रमा नहीं माना जा सकता । दूसरी बात यह है कि जिस निमित्त से उक्त बान को बोषान्वयांश में भ्रम माना जायगा वह हेतु क्षणिकत्वांश में भो प्रमाण है प्रतः उस अंश में भी उसको भ्रम ही मानना होगा । प्राशय यह है कि उक्त ज्ञानको विकल्प के ग्रन्ययांश में इसीलिए भ्रम रूप कहा जायगा कि विकल्प क्षणिक है प्रत एव उत्तरकाल में होने वाले ज्ञानों में उसका प्रत्यय दुर्घट है। यह बात क्षणिकत्व के सम्बन्ध में भी समान है क्योंकि दृष्टान्त में जो क्षरिणकत्व गृहीत होता है वह क्षणिकत्व भी धर्मों से अभिन्न होने के कारण धर्मों के समान हो अस्थिर है। प्रतः वह भी प्रनंतर काल में होने वाले व्याप्स्या नि में विषयावधया प्रन्वित नहीं हो सकता। अतः उक्त ज्ञान क्षणिकत्व अश में भी भ्रम होगा । यहाँ तक जो विचार किये गये हैं उन विचारों का निष्कर्ष अप्रिम कारिका ११४ में कहा गया है
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६]
[शा वा० समुरुचय स्त० ४ श्लो० ११४
प्रदीर्घाध्यवसायेन नश्वरादिविनिश्चयः ।
अस्प च भ्रान्ततायां यत्तत्तथेति न युक्तिमत् ॥११४॥ प्रदोर्याध्यवसायेन- अन्वयिव्याप्त्यादिपर्यालोचनप्रयाहरूपतयाऽनुभूयमानेन लिङ्गादिविकल्पेन नश्वरादिविनिश्चयः भावग्रधाननिर्देशाद् नश्वरत्वादिपरिच्छेदः अभ्युपेयः । अस्य च-प्रकप्रदीर्घाध्यवसायस्य भ्रान्ततायामुच्यमानायाम् यत् यस्मात् तत्-अधिकृतं वस्तु तथा नश्वरम् इति एतत् न युक्तिमत्-न संभवदुक्तिकम् ॥११४॥
तस्मादव श्यमेष्टध्या विकल्पस्यापि कस्पचित् ।
येन तेन प्रकारेण सर्वथाऽभ्रान्तरूपता ॥११५॥ सम्माद् विकल्पस्यापि कस्यचित् नश्वरत्वादिग्राहिणः येन तेन स्वपरिभाषानुमारिणा प्रकारेण सर्वथा-पर्वविषयावच्छेदेन अभ्रान्सरूपता-परमार्थविषयता अवश्यमेटच्या अकामेनाप्यङ्गीकर्तव्या तथा च स्वसाक्षिका स्थायिता सिद्धवेत्यभिप्रायः ॥११५॥ इदमेवाह
सन्पामस्यां स्थितोऽस्माकमुक्तबन्याययोगतः।
पोधान्वयाऽदलोत्पत्यभावाच्चातिप्रसङ्गतः ।११६॥ सत्यामस्यांकम्यचिद् विकल्पस्याभ्रान्ततायाम् स्थितः सिद्धः, अस्माकमुक्तवत= प्रागुक्तीत्या, न्याययोगतः युक्तन्यायात् बोधान्वयाज्ञानाऽविच्छेदः स्वद्रव्यात्मना ।
[ रिणकत्व का ग्रानुमानिक निश्चय भ्रान्त होने को आपत्ति ]
११४ वीं कारिका में पूर्वचचित विचारों का निष्कर्ष इस प्रकार प्रकट किया गया है कि भावमात्र में नश्वरत्व का निश्चय एक प्रदोघं प्रध्यवसाय यानी व्याप्ति-पक्षधर्मता प्रादि के ज्ञान के अन्धयो, प्रवाह रूप में अनुभूय मान लिङ्ग प्रादि के अध्यवसाय-विकल्प ज्ञान से होता है। यदि इस प्रध्यप्रसाय को भ्रम माना जायगा तो इससे प्रादुनूंत होने वाला मा मात्र में नश्वरता का प्रानुमानिक निश्चय भो भ्रम हो जायगा । प्रतः भावमाघ नश्वर--क्षणिक होता है यह मत युक्तिसंगत नहीं हो सकता ॥११४॥
११५ वीं कारिका में विकल्प की प्रमारूपता अवश्य मानने योग्य है यह बनाया है
यतः बौद्ध को भावमात्र का नश्वरत्व सिद्धान्तरूप में स्वीकार्य है अत: भावमात्र में नश्वरत्वपाही विकल्प को भी अपनी परिभाषा के अनुसार किसी न किसी प्रकार से सम्पूर्णाश में प्रभान्सरूप यानी परमार्य विषयक मानना होगा। यह तमो सम्भव है जब भावमात्र में नश्वरस्व की सिद्धि के मूलभून इष्टान्त में नश्वरत्वादि विकल्प को व्याप्ति पक्षधमंता ज्ञाम के प्रवाह में अन्वयी माना जाय। इस प्रकार उत्तरोत्तर भावी विभिन्न शानों में बोध का अन्वय स्वानुभवसिद्ध होता है ॥११॥
१:६ वीं कारिका में इसो विषय का प्रकारान्तर से प्रतिपादन किया गया है
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
2
tro no टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ २०७
युक्त्यन्तरमाह-अवस्योत्पत्यभावाय अत्यामातुकस्योपस्ययोगाच्च, अन्यथा अतिप्र सङ्गन्नः = तद्वत् तदन्यभावापत्तेः ॥ ११६ ॥ न चास्माद् विकल्पादनित्यत्वसिद्धिरित्युपचयमाह - मूलम्-अन्यादृशपदार्थेभ्यः स्वयमन्यादृशोऽप्ययम् ।
यथेष्टस्ततो नास्मात् तत्राऽसंदिग्घनिश्चयः ||११७ || अन्याद्दशपदार्थेभ्यः प्रवित्यादिरूपेभ्य आलम्बनभूतेभ्यः स्वयम् = आत्मना अर्थ= विकल्पः अन्यादृशोऽपि नित्यत्वादिग्रहरूपोऽपि यतश्चेष्टः अङ्गीकृतः, ततो नास्मात् = अधिकृत विकल्पात् अप्रत्ययितात् सत्र - अनित्यत्वादी असंदिग्धनिश्वयः अप्रामाण्यज्ञानास्कन्दितत्वात् ।
अपाली कवियत्ररूपाऽप्रामाण्यज्ञानेऽपि तत्र दृश्य-विकल्प्ययोरर्थयोरेकी करणात् तदभाववति तदवगाहित्वरूपाऽप्रामाण्यज्ञानाभावाद् न दोष इति चेत् ? न, रजतत्वारोपस्यासस्य[ वलनिरपेक्ष उत्पत्ति का असंभव ]
नश्वरत्वग्राही विकल्प को श्रभ्रान्त मानने पर हमने विभिन्न ज्ञानों में बोध के अन्य की ओ बात कही है वह न्याय पूर्वक उक्तरीति से सिद्ध हो जाता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न ज्ञानों में बोध के अन्य को सिद्ध करने वाली एक धौर भो युक्ति है। वह यह है कि मलोत्पत्ति प्रर्थात् कार्यात्मना परिणमनशील हेतु निरपेक्ष उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यदि कार्य की उत्पत्ति परिणमनशील हेतु के बिना भी मानी जायगी सो, अर्थात् ऐसे हेतु से भी मानी जायगी जिसका कार्यात्मना परिणत होने का स्वभाव नहीं है सो हेतु विशेष से कार्य विशेष को उत्पत्ति न होकर समस्त अन्य कार्यों को उत्पत्ति का भी प्रसंग होगा। क्योंकि हेतु को श्रतथाभाविता यानी कार्यात्मना परिणमनस्वभाव शून्यता सभी कार्यों के लिये, प्रर्थात् सभी कार्यों के प्रति समान है।
११७ य कारिका में अनित्यत्वप्राही विकल्प से भी प्रनित्यत्व का निश्चय नहीं हो सकताइस बात का प्रतिपादन किया गया है
=
[ अनित्यत्व का प्रसंदिग्धनिश्चय प्रसंभवित ]
जैसे अनित्यपदार्थरूप प्रालम्बन से अनित्यत्वप्राही विकल्प होता है, उसी प्रकार उन्हों आलम्बनों से बासनावश नित्यत्यग्राही विकल्प भी होता है यह बात बौद्धमत में मान्य है। इसलिये अनिस्वग्राही विकल्प में प्रप्रामाण्यज्ञान हो जाने से उससे अनित्यत्वादि का प्रसंदिग्ध अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दिल निश्रय नहीं हो सकता
यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि - वाशनावश उत्पन्न होने वाला विकल्प निश्यत्ववि विशिष्ट प्रलोक प्रथं विषयक होता है अतः उस में प्रलोकविषयकत्वरूप प्रप्रामाण्य का ज्ञान होने पर श्री तवभाववान में तदवगाहित्वरूप प्रप्रामाण्य का ज्ञान नहीं हो सकता। क्योंकि विकल्प में दृश्य और विकल्प्य अर्थी का अर्थात् वास्तव और प्रवास्तव अर्थों का एकीकरण होता है इस प्रकार अनित्य - नित्यं का अभिनतया ग्रहण होने से धर्मों में अनित्यत्वाभाव का ग्रहण नहीं हो सकता । उसके विना अनित्यत्वाभाववाले में मनित्यत्वावगाहित्व रूप अप्रामाण्य का ज्ञान नहीं हो सकता । श्रतः प्रमित्य
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८ ]
[ शा वा समुरुचय स्त८ ४ श्लोक ११०
।
रजनधीस्थलेऽपि सन्चात् सत्यरजतधीस्थले तत्तल्यतालाभेनार्थसंशयात् । 'एकत्राऽग्जते रजतत्यारोपः, अन्यत्र तु रजते इति न तसौल्यमिति चेत् ? न, रजते रजतत्वारोपः इति वदत एवं व्यायाल, विकापाय विशेषम मात्रविषय यलक्षणाऽसंस्पशाग्युपगमाच्च । 'एकत्र स्वजनकाऽजनकरजतग्रहाभेदग्रहात् सत्यामन्यरजतीविशेष' इति चेत् ? न, बाधेऽपि प्रधृत्यौपयिकरूपान्याघाताद् गृहीतरजतग्रहाभेदग्रहन्वेनैव रजतार्थिप्रवृत्ति हेतुत्वात ।
अथाऽगृहीतरजतग्रह मेदं दर्शनमेव रजतार्थिप्रवृत्तिहेतुः, स्वतो निश्चितप्रामाण्यकत्वात , अमत्यजतधीम्थले च शुक्तिदर्शने रजतग्रह भेदग्रहाद् न प्रवृत्तिः, केवलनिर्विकल्पकादप्रवृत्तेश्च त्य ग्राहो विकल्प से अनित्यत्व के प्रसंदिग्ध निश्चय प्रभाव रूप दोष नहीं हो सकता क्योंकि तदभाववति तदवगाहित्व रूप अप्रामाण्य झान से अनास्कन्दित विकल्प हो विषय का निनायक होता है जो प्रलोकविषयत्वरूप प्रप्रामाण्य ज्ञान होने पर मो सुलभ है
[ सत्य रजतज्ञान भी असत्य होने का संदेह ] कितु यह ठोक नहीं है क्योंकि--बौद्ध मत्त में जहां रजतज्ञान सत्य माना जाता है वहां भी रजतत्य का प्रारोप होता है क्योंकि रजसत्वादि धर्म बौद्धमत में अलीक है, और जहाँ प्रसत्य रजतज्ञान होना है वहाँ भी रजसत्व का मारोप होता है। इसलिये सत्यरजतज्ञान में तुल्यताजान से प्रसस्य रजतविषयकत्व का संदेह हो जायगा । इस प्रकार जब ज्ञान प्रसद्विषयक माना जायगा तो अनित्यत्वयाती विकरूप में भी ज्ञानात्मना प्रसन्नाही ज्ञान का साम्य होने से प्रसद्विषयकश्व का संदेह होगा। प्रतः उससे अनित्यत्व का निश्चय नहीं हो सकेगा। यदि सत्य-असत्य रजतज्ञान के सम्बन्ध में यह कहा जाय कि-असत्यरजतज्ञान स्थल में प्ररजत में रजतत्व का प्रारोप होता है और सत्यरजतज्ञानस्थल में रजत में रजतत्व का आरोप होता है अतः दोनों ज्ञानों में तुल्यता नहीं हो सकती'. तो यह ठोक नहीं, क्योंकि रजत में रजतरब का प्रारोप बताने में वचन व्याघात है। क्योंकि रजतत्व का प्रारोप न होने पर ही रजत को सत्य कहा जायगा । यह भो ख्याल रहे कि बोन मत में विकल्प को विशेषणमात्र विषयक माना गया है। इसलिये स्वलक्षण सत्वरजलग्राही विकल्प में प्रारोपित रजतत्व का सम्बन्ध भी नहीं हो सकता।
[ असन् ज्ञान में भी प्रवर्तकज्ञानाभेवग्रह मान्य ] यदि यह कहा जाय कि-'सत्य रजत का विकल्प सत्य रजत के दर्शन से उत्पन्न होता है प्रत एय उस में कारणीभूतज्ञान का प्रभेदग्रह होता है और असत्य रजतमान रजतविषयकदर्शन से उत्पन्न नहीं होता किन्तु अरजत के दर्शन से उत्पन्न होता है प्रतः उसमें रजतग्रह का प्रभेदग्रह नहीं होता है । प्रतः दोनों में तुल्यता नहीं हैं तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि बायस्थल में प्रसत्यरजतमानस्थल में भो रजतार्यो को प्रवृत्ति होती ही है। प्रत एव असत् रजतज्ञान में भी प्रवृत्त्योपयिक रूप का अध्याघात अस्तित्व मानना होगा और वह रूप यही है कि प्रवर्तक ज्ञान में रजतग्रह के प्रमेद का ग्रह होना । प्रतः रजत ग्रह के अभेद का ग्रह असत्य रजतज्ञान में मो प्रावश्यक है क्योंकि जिस ग्रह में रजतप्रह का अभेद गृहीत हो यह ज्ञान ही रजतार्थों की प्रवृत्ति का हेतु होता है प्रतः असत् रजत ज्ञान में. रजतप के प्रभेव का ज्ञान न मानने पर उस से प्रवृत्ति न हो सकेगी।
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या क० दीका और हिन्दी विवेचना ]
[२०६
रजतविकल्पसाहित्य कारणतापच्छेदमिति न दोष इति चेत् ? न, श्यविषयस्य दर्शनस्य प्राप्यविषयप्रवृत्यहेतुत्वात् , विकल्पाऽविकल्पयोमिन्नकालत्वेनाऽसाहिन्याच्च ।
अथ दर्शनप्रवृत्योरेकसंततिगामित्वेन सामान्यत एव हेतु-हेतुमद्भाषः, समानविपयतया तु रजतत्वविकल्पस्य र रजतार्थि प्रवृत्तिहतुशा, अलीकविषयवन तम्य स्वभावत एवाऽनिः हितप्राप्यविषयन्वात् । इदमेव हि दृश्यप्राध्ययोरेकीकरणं यद् दृश्यविषयतयाध्ययम्यमानस्य प्राप्पविषयन्त्रम् । विशेषणमात्रविषयत्वरचनं च विकल्पम्य संनिहितविशेष्यानवगाहिन्वाभिप्रायात् । शुक्तो रजतधीस्थले बाधावतारे च रजनविशेष्यकरजतत्वप्रकारकत्यामावरूपा:प्रामाण्यग्रहादिति न दोष इति घेत ?
( रजतदर्शन से रजतार्थी की प्रवृत्ति का निराकरण ) बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'सत्यरजत के विकल्पस्थल में, विकल्प स्वयं रजतार्थों की प्रवृत्ति का हेतु नहीं होता किन्तु रजतग्रह का मेवज्ञान न होने से रजत का दर्शन हो रजताओं को प्रवृत्ति का हेतु होता है क्योंकि वह स्वतः निश्रित प्रामाण्य वाला होता है। प्रसस्यरजतमानस्थल में शुक्ति का दर्शन होने पर उस में रजतग्रह का भेदप्रह हो जाता है । इसलिये शुक्तिदर्शन के बाद प्रवत्ति नहीं होती । किन्तु शुक्ति दर्शन के पूर्व प्रसत्यरजत ज्ञान में भी रजतग्रह का भेदनान नहीं रहता प्रत एव उस से प्रवृत्ति होती है। दो ों में अन्तर यही है कि सत्यरजत विकल्प रजतार्थो की प्रवृत्ति में रजतदर्शन का सहकारी होता है और असत् रजत ज्ञान किसी ज्ञानान्तर का सहकारी न होकर स्वयं प्रवर्तक होता है किन्तु राघज्ञान हो जाने पर यह प्रप्रवर्तक हो जाता है। केवल निर्विकल्प से प्रवृत्ति नहीं होती है इसलिये रजविकल्पसहकृतदर्शन को प्रवृत्ति का कारण माना जाता है और रमतविकल्पसाहित्य प्रकृति का कारणतावच्छेदक होता है प्रतः सस्यरजत ज्ञान और प्रसत्यरजत जान में तुल्यता न होने से प्रसंशय का पावन रूप दोष नहीं हो सकता-" तो यह ठीक नहीं है क्यों कि दर्शन दृश्य विषयक होता है और प्रवृत्ति प्राप्यविषयक होती हैं और बौद्ध मत में दश्य और प्राप्य में भेव होता है इसलिये दर्शन प्रवत्ति का कारण नहीं हो सकता। एक विकल्प और दर्शन दोनों भिन्न कालिक है अत एव दोनों का साहित्य सम्भव न होने से विकल्प सहित दर्शन को प्रवृत्ति का कारण भी नहीं माना जा सकता।
(दर्शन और प्रवृत्ति में हेतु-हेतुमद्भाव को उपपत्ति का नया तर्क ] यदि यह कहा जाय कि-दर्शन और प्रवृत्ति एक सन्तान का घटक है अत एव उन दोनों में सामा. म्यरूप से विष शेष का प्रवेश किये बिना ही हेतु-हेतुमद्भाव है प्रर्यात् घटितत्व सम्बन्ध से प्रवृत्ति के प्रति घटितत्व सम्बन्ध से वर्शन कारण है । इस कार्य-कारणभाव के बल से दर्शन और प्रवृत्ति दोनों का एकसन्तानगामित्व सिद्ध होता है। प्रवत्तंकज्ञान और प्रवृत्ति में समानविषयत्व की सिद्धि विकल्प-को प्रकृति का कारण मानकर सम्पन्न होती है । अर्थात् विषयता सम्बन्ध से प्रवृत्ति के प्रति विषयता सम्बन्ध से विकल्प कारण होता है इस कार्य कारण माय से प्रवर्तक विकल्प और प्रवृत्ति में समानविषयकत्व की सिद्धि होती है । इस पर यह शंका कि-'प्रवर्तक विकल्प के समान प्राप्य अर्थ असनिहित रहता है इसलिये वह उस का विषय नहीं हो सकता' नहीं की जा सकती क्योंकि विकल्प जब अपने स्वभाव के
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०
[शा. वा. समुच्चय स्त० ४ श्लोक-११७
न, एवं सति विकल्पस्य विशिष्ट विषयत्यावश्यकत्वेऽलीकतदाकारायोगात , सतोऽसदसंस्पर्शित्वात् अन्यथा निर्विकल्पकेऽप्यनाश्वासात निर्विकल्पकप्रामाण्यस्य सविकलो ग्राह्यत्वेन तदप्रामाण्ये तदप्रामाण्यादिति न किञ्चिदेतदिति दिग । एवं तत्तजननस्वभावत्वग्रहो न क्षणिकपक्षे, बोधान्नए इन तराइमवार, गजब रामाननस्वभावत्वसिद्भिरिति प्रघट्टकार्थः । ११७।। बल प्रलोकविषयक होता है तो वह प्रसन्निहितविषयक मो हो सकता है। विकल्प में दृश्य और प्राप्य का जो एकीकरण कहा जाता है उसका मी यही प्रर्थ है कि विकल्प दृश्यविषयक भी होता है और प्राप्यविषयक भी होता है दृश्य और प्राप्य की एकज्ञान विषयता हो उन का एकीकरण है। ऐसा मानने पर यह शंका भी कि-"-विकल्प को बौद्ध मत में विशेषण मात्र विषयक कहा जाता है । अतः उस को दृश्य और प्रोग्यविषयक कहकर विशेष्य विषयक बताना अनुचित हैं."नहीं की जा सकती क्यों कि विकल्प को विशेषणमात्र विधयक कहने का तात्पर्य संनिहित विशेष्य का अग्राहक बताने में ही है। शुक्ति में जहां असत् रजत का ज्ञान होता है वहाँ रजत का बाधग्रह हो जाने पर जो रजतार्थों को प्रवृति नहीं होती है उस का कारण यह है कि उस समय असत्यरजतज्ञान में रजतविशेष्यकरजतत्वप्रकारकत्वामावरूप प्रामाण्यामाच का ज्ञान हो जाने से रजत विशेष्यक रजतत्वप्रकारकत्वरूप प्रामाण्यग्रह नहीं हो पाता। निश्चित प्रामाण्यक रजत ज्ञान हो रजताओं की प्रवृत्ति का हेतु होता है इसलिये सत्यरजतज्ञानस्थल में रजतत्व प्रनारोपित रहता है और असत्यरजतज्ञानस्थल में रजतत्व प्रारोपित रहता है' यह कहकर बौद्ध मत में रजतत्वादि को प्रसत्यता के सिद्धान्त में दोष का उद्धायन नहीं किया जा सकता।'
( विकल्प की अलीकाकारता का असंभव ) तो यह मो ठोक नहीं है क्योंकि उक्त रीति से जब विकल्प को विशिष्ट विषयक मानना प्रायश्यक हो जाता है तो उसे प्रलोक आकार नहीं माना जा सकता क्योंकि विशिष्ट विषयक होने पर वह विशेष्यविषयक होगा हो और विशेष्य अलीक नहीं होता । 'असत् विशेषण के सम्पर्क से विशेष्य मो असत् हो जाता है' यह कहना मी ठीक नहीं है क्योंकि सत् में असत् का सम्बन्ध दुर्घट है। प्रतः विकल्प अलीकाकार नहीं हो सकता। एक ज्ञान को प्रलीकाकार मानने पर ज्ञानात्मना दर्शन में सादृश्य होने से उसके प्रामाण्य में भी अविश्वास हो जायगा । दूसरी बात यह कि निविकल्प का प्रामाण्य सविकल्प से गहीत होता है अतः जब सविकल्प हो अप्रमाण हा तब उससे निर्विकल्प का प्रामाण्य कसे सिद्ध हो सकता है? प्रतः निर्विकल्प के प्रामाण्य और सविकल्प के अप्रामाण्य के विषय में बौद्ध का सम्पूर्ण कथन नियुक्तिक है।
उक्त विचारों से यह निष्कर्ष निकलता है कि ६३ वी कारिका में बौद्ध की ओर से जो यह बात कही गई थी कि-'पद् व्रव्य घटादि का हो जनक इसलिए होता है कि उसमें घटादि जननस्व. भावता है और घटादि मो मदादि से ही इसलिये उत्पन्न होता है कि उसमें मदादिजन्यस्वभावता है। एवं अग्नि व्याप्तिज्ञान पूर्वक धूमज्ञान में ही प्रग्नि-अनुमितिजनन स्वभावता है और अग्नि ध्याप्ति ज्ञानापूर्वक धूमज्ञान में नहीं है...वह बात भी भावमात्र के क्षणिकत्वपक्ष में नहीं बन सकती किन्तु घटावि में मदादि द्रव्य का और अग्निज्ञानादि में बोध का प्रत्यय मानने पर ही सम्भव है।
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
अथ तत्तज्जननभावत्वशब्दार्थ पर्यालोचनयाऽप्यन्त्रयसिद्धिरित्याहमूलं तसज्जननभावस्वे ध्रुवं तद्भावसंगतिः 1 तस्यैव भावो नान्यो यज्जन्याच्च जननं तथा ॥ ११८ ॥ तत्तज्जननभावत्वे-तस्य कारणस्य मृदादेस्तज्जननभावत्वे घटादिकार्यजननस्वभावस्वे उच्यमाने बुधं निश्चितम् तद्भावसङ्गतिः कारणभावपरिणतिः कार्ये उक्ता भवति । क्रुतः ९ इत्याह-यदू=यस्मात् तस्य = जननस्यैव भावो नान्य. - न जननादर्थान्तरभूतः, असंबन्धप्रसंगात् जन्याच्च जननं तथा=न मिनमित्यर्थः ।
[२११
+
अयं भाव: 'मृद् घटजननस्वभावा' इत्यत्र घटस्य जनने निरूपितत्वाख्यस्वरूपसंबन्धेन, तस्य च स्वभावे तादात्म्याख्यस्वरूपसंबन्धेन तस्य च मृदि तेनान्वयाद् घटाभिनजननाभिन्न
?
क्योंकि यदि कारण और कार्य में कोई श्रन्वय न होगा तो उक्तस्वभाव की कल्पना उक्त प्रकार से युक्तिहीन होगी । जब घटादि ब्रव्य में मृव द्रव्य का और प्रतिज्ञानादि में बोध का श्रन्यय उक्त स्वमाको उपपत्ति के लिये प्रावश्यक है तो यह तभी सम्भव हो सकता है जब मुद्दस्य और बोध को क्षणिक न मानकर स्थिर माना जाये ॥११७॥
११८ वीं कारिका में यह बात बतायी गई है कि तज्जननस्वभावस्व शब्द के अर्थ का पर्यालोचन करने से भी कार्य में कारण के अन्वय की सिद्धि होती है ।
मिट्टी आदि में घटादि कार्यों के जनन का स्वभाव मानने पर घटावि कार्य में तद्भाव यानी मिट्टि आदि रूप कारण के श्रन्वय की सिद्धि निश्चित हो जाती है। क्योंकि मिट्टो प्रादि में जो घटादि कार्यजननस्वभाव है यह घटाद्यात्मकत्वरूप ही है अर्थात् मिट्टी आदि घटादिजनन स्वभाव है इसलिए घटाव का उत्पादक होता है । इस कथन का तात्पर्य यह है कि मिट्टो प्रावि कथश्वित् घटाद्यात्मक है इसीलिए घटादि का उत्पादक होता है पटावि का उत्पादक नहीं होता है । इस बात को व्याख्याकार ने कारिका के उत्तराधे की व्याख्या से संकेतित किया है । व्याख्याकार ने 'तस्यैव भावः' का अर्थ किया है 'जननस्यैव भाव जननान्नार्थान्तरभूतः " जिसका श्राशय यह है कि मिट्टि आदि में जो घटादिजननस्वभाव है वह घटादिजननरूप है उससे मिल नहीं है और घटादिजनन का अर्थ है घटादि की उत्पत्ति | यह उत्पत्ति भी घट का धर्म होने से घटक है क्योंकि ऐसा न मानने पर मिट्टी आदि के साथ घटादि का असम्बन्ध होगा । जब मिट्टी ग्रादि को प्रसम्बद्ध का उत्पादक माना जायगा तो सर्वोत्पादकत्व की प्रापत्ति होगी । इस प्रकार मिट्टी आदि घटजननस्वमायात्मक होने का श्रथ है मृदादि का कश्वित् घटाद्यात्मक होना ।
[ मिट्टी और घट के अभेव का उपपादन ]
इस कारिका के अभिप्राय को व्याख्याकारने यह कहते हुये प्रकट किया है कि मिट्टी घटजनन स्वमावाली यह जो व्यवहार होता है उसमें मिट्टी ब्रष्य धर्मी है और घटजननस्वनाथ उसके धर्मरूप में व्यवहार्य है और धर्म-धर्मो में प्रभेद होता है। इसलिये स्वभाव का मिट्टी द्रव्य के साथ प्रमेव सम्बन्ध से प्रत्यय होता है। जनन स्वभाव जनन से भिन्न नहीं हैं इसलिये जनन शब्दार्थ के साथ घट
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२ ]
[ शा. बा. समुच्चय स्त०४ इलो० ११८
स्वभावानित्वेन मृदि घटाभिन्नत्वं स्फुटमेव प्रतीयतेः घटादतिरिक्ते जनने निरूपितत्व संबन्धकल्पने तत्रापि संबन्धान्तरकल्पनेऽनवस्थानात् अभेदे च चित्रप्रतीतेर्भेदानुवेधेन समाधानात्, तथोन्मुखेन प्रतीतेस्तथाक्षयोपशमाधीनत्वात् । न चैवं मृद् घटीभृता' इतिवद् दण्डोऽपि भूतः इति व्यवहारः स्यात् तज्जननस्वभावत्वघटका मेदाऽविशेषादिति वाच्यम्, तस्य तज्जनन स्वभावत्वव्यवहारनियामकत्वेऽप्युपादानत्वघटका मेदस्यैव व्यर्थत्वादिति दिग् ॥ ११८ ॥ शब्दार्थ का निरूपितत्वसंज्ञक स्वरूपसम्बन्ध जिसे तादात्म्य और प्रभेद भी कहा जा सकता है उससे अन्वय होता है । इस प्रकार उक्त व्यवहार से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि घट से भिन्न जनन, जनन
,
अभि स्वभाव और स्वभाव से अभिनय होने से हो ग्रथ्य घट से श्रभिन्न होता है । जनन को घट से अतिरिक्त मान कर यदि उसके साथ घटकर निरूपितत्व सम्बन्ध माना जायगा तो यह निरूपितत्व यदि घट और जनन दोनों से भिन्न होगा तो निरूपितश्व को उन दोनों से जोडने के लिए अन्य सम्बन्ध को कल्पना करनी पड़ेगी। क्योंकि निरूपितत्व यदि घट और जनन दोनों से स्वयं प्रसम्बद्ध रहेगा तो वह दोनों को सम्बद्ध नहीं कर सकेगा। इसी प्रकार निरूपितत्व का जो सम्बन्ध माना जायेगा उसके लिये भो उक्त न्याय से ही सम्बन्धान्तर की कल्पना आवश्यक होने से अनवस्था होगी। प्रतः जनन को घट से भिन्न न मानकर उसमें स्वरूप नामक अथवा तादात्म्यनामक निरूपितत्व सम्बन्ध की कल्पना ही उचित है।
'जनन और घट में प्रभेद मानने पर “घटस्य जननं" इस प्रकार का व्यवहार श्रनुपपन्न होगा' यह शंका करना उचित नहीं है क्योंकि जनन में घट का अभेद भेद से अनुविद्ध हैं प्रर्थात् घट और जनन में कश्चित् भेदाभेद दोनों है । जैसे नीलपीतादिविषयक चित्राकार प्रतीति में विज्ञानवादी के मन में नील और पोत में ज्ञानात्मना श्रभेद और नील-पीताद्यात्मना भेद होता है । प्रतः घट और जनन में अभेद होने पर भी 'घटस्य जननम्' इस व्यवहार में कोई बाधा नहीं हो सकती । घट और जनन में प्रमेद मानने पर 'घटो जननम्' इस प्रकार की जनन में घटाभेद का उल्लेख करने वालो प्रतोति का भी प्रावादन नहीं किया जा सकता क्योंकि जिसे उस प्रतीति के लिये अपेक्षित क्षयोपशम है उसे वह प्रतीति होती ही है और जिसे तदनुलक्षयोपशम नहीं, उसे क्षयोपशम रूप कारण का प्रभाव होने से उस प्रतीति की प्रापत्ति नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि उक्त रोति से घटजनन स्वभाव से प्रभिन्न घट-कारण को यदि घटात्मक माना जायगा तो जैसे 'मुद् घटीभूता मिट्टी घट बन आती है' यह व्यवहार होता है उसी प्रकार 'इण्डोऽपि घटोभूतः दण्ड भी घट बन जाता है' ऐसे व्यबहार को भी प्रापत्ति होगी क्योंकि घटजनन स्वभावत्व के निरुक्त स्वरूप में जो प्रभेव प्रविष्ट है वह घट और मिट्टी द्रव्य तथा घट और दण्ड दोनों में समान है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तज्जननस्वभावत्वघटक प्रमेद और उक्त 'मृद्घटोभूता' व्यवहार का नियामक घटोपादानत्व घटक प्रभेद ये दोनों भिन्न है क्योंकि घटोपादानत्व घटक अभेद घटात्मना परिणामित्व रूप है और वह मिट्टद्रव्य में ही होता है- दण्ड में नहीं होता । व्याख्या में पूर्व प्रतियों में उपलब्ध 'घर्थ' शब्द के स्थान में 'तदर्थ' ऐसा पाठ होना उचित है। उस का अर्थ है कि घटोपादानत्वघटक अभेद ही घटोभूता' इस व्यवहार का तदर्थ है अर्थात् 'घटोभूता' इस व्यवहार का विषय है ॥१४८॥
-
* 'तदर्थ' इति तु योग्यं प्रतिभाति ।
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्या० का टीका और हिन्दी-विवेचना ]
[ २१३
तत तज्जन्यम्वभावमिन्यत्राप्येवमेवान्वयबोध इन्यनिदेशमाह-- मूलं-एवं नजन्यभाषत्वेऽप्येषा भाव्या विचक्षणः ।
नदेव हि यती भाव: स चेतरसमाश्रयः ॥११९॥
एवम् उक्तन्यायेन तज्जन्यभावत्वेऽपि-मृदादिकारण जन्यम्बमावन्वेऽपि घटादिकार्यस्योच्यमाने एषा = तद्भावसंगतिः भाव्या = पर्यालोचनीया विचक्षणै:न्यायझें। कुतः? इत्याह यन: यस्माद् हि-निश्चितम् तदेव - जन्यत्यमेव भावः = घटादेःम्बसनालक्षण:.स चतरसमाश्रयः मृद्रादिकारणम्वरूप इति । एवं च घटेऽभेदेन मृदन्वित जन्यत्वान्वितस्वभाबा. वाद् घटान्वय इति तात्पर्यायः ।।११९॥ उपमहरति
इत्येवमन्वयापत्तिः शब्दार्थादेव जायते ।।
अन्यथाकल्पनं चास्य सर्वथा न्याय बाधितम् ॥१२०॥ इत्येवम उक्नप्रकारेण शब्दार्थादेवउक्तवाश्यतात्पर्यालोचनादेव अन्वयापसि.= अन्वयधीः जायते । 'निरूपितत्वादेरमेदम्य वस्तुनः संमर्गत्वेऽपि साज्यापच्या सांसर्गिकज्ञानम्यानुपनायकत्वात् कथमन्वयापत्तिः' इति चेद ? मनोवाकिया गया जिन्नतियोगिकत्वादेग्विाक्षेपलभ्यत्वात् 'मृद् घटजननस्वभात्रा' इत्यादिवाक्याद् मृदि घटान्वयबोध. दर्शनात् अन्यथाकल्पनं चास्य-शब्दार्थस्य 'तत् तज्जननम्वभावम' इत्यादेः तदनन्तरं नझारः' इत्यादिरेवार्थः, तत्परिणामित्वबोधस्तु नौत्तरकालिकोऽपि, इत्यादिकल्पनं च सर्वधा = मर्य
११६ वीं कारिका में 'तत् तज्जनननस्वभावन-मवादि घटजननस्वभाव होता है-इस व्यवहार में उक्त अन्वय बोध के आधारभूत रीति का "लसज्जन्यस्व मालम् घटादि मुज्जन्य स्वभाब होता है।" इप्त व्यवहार में अतिदेश यानी उसको अवलम्बनीयता बतायी गयी है ।
जिस न्याय मे 'कारण में कार्यजननस्वभावत्व' के द्वारा कार्य में कारण के अन्वय की उपपत्ति बतायी गई है उसी प्रकार स्थायज विद्वानों को कार्य कारणजन्यस्वभाव होता है। इस मान्यता के वारा भी कार्य में कारण के अन्वय की उपपत्ति समझनी चाहिये। क्योंकि घटाविकार्य में जो मिट्टी प्राविअन्यत्व स्वभाव है वह स्वभाव भो मिट्रोमादिजन्यत्व रूप ही है। मिट्रो प्रावि जन्यत्व का अर्थ मिट्टोप्रादि में घटादि का सद्भाव । मिट्टी प्रावि में घटादि के सद्भाव का अर्थ है घटादि का मिट्टो प्रादिकारणस्वरूपत्व क्योंकि घटात्मक अवस्था के प्रादुर्भाव के पूर्व घटादि के मिट्टीमादिरूप होने के अतिरिक्त घटादि की कोई दूसरी सत्ता नहीं उपपन्न हो सकती । इस प्रकार 'घट मज्जन्यस्वरूप है। इस व्यवहार से होनेवाली प्रतीति में जन्यत्व में मुद् का अमेव सम्बन्ध से एव जन्यत्व का स्वभाव में प्रमेव सम्बन्ध से और समाव का घट में प्रभेद सम्बन्ध से अवय होने से घट और मब में अभेवान्वय की सिद्धि होती है ॥११६ ।
१२०ी कारिका में पूर्व वो कारिकाओं के उक्त विचार का उपसंहार किया गया है
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४ ]
[ शा० का समुरुपय स्त० ४-श्लो० १२०
प्रकारेण, न्यायथाधितम्-अनुभवविरुद्धम् । तदानन्तर्यस्याऽप्येकान्तभेदे वक्तुमशक्यत्वाद् , युक्तिविरुद्धं च ॥१२०|| किं च
उक्त रीति से 'सत् तज्जननस्वभावम्' अर्थात् 'मद् घट जननस्वमाया' इस शब्दार्थ का पर्यालाचन करने से ही कार्य में कारण के प्रन्वय का बोध हो जाता है ।
यदि यह शंका को जाय कि-'उक्त वाक्य से होने वाले बोध से मिट्टी द्रव्य में घट का निरूपितस्वादिस्वरूप प्रभेद होने से प्रभेदान्वयबोध की उपपत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि यह तभी हो सकता यदि उक्त बोध घट का उपनायक यानी उपनयसंनिकर्ष बन सके। किन्तु वह ऐसा नहीं बन सकता है। आशय यह है कि सांसगिक ज्ञान यानी मुख्य विशेष्यताभिन्न प्रौर मुख्य विशेष्यता से साक्षानिरूपित प्रकारताभिन्न तनिष्ठ विषयतानिरूपकज्ञान तत् का उपनायक नहीं होता । कारण 'घटवभूतलम' इस ज्ञान के बाद संयोग का और 'रजतकालोनो घटः' इस मान के बाद रजत का उपनीत भान नहीं होता, किन्तु 'रजतम्' इसप्रकार रजतत्वप्रकारक रजतविशेष्यक मान के बाद रजतत्व और रजत का उपनीत ज्ञान होता है। इसीलिये रजतस्मृति के बाद समवायसम्बन्धेन रजतत्व प्रकारक अथवा तादात्म्यसम्बन्धेन रजतप्रकारक 'इवं रजतम्' इस प्रकार शुक्ति में रजतत्व का उपनीत भान होता है। यहां यह ज्ञातव्य है कि 'वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है और उन में किसी एक धर्म के प्राधान्य ज्ञान काल में अन्य समस्त धर्मों का भी प्रधानतया ज्ञेय धर्म के सम्बन्धरूप से या पृष्ठलग्न यानी परम्परा घटक रूप से मान होता है । जैसे 'अयं घट:' इस प्रतीति में घटत्व का घट में प्राधयता तथा स्वसमानाधिकरणयावद्धर्माश्रयता सम्बन्ध से भान होता है। अथवा उक्त प्रतीति में घटत्व में स्वसमानाधिकरणयावद्धर्माऽभेद उपलक्षणविधया भासित होता है । उपलक्षण विषया भासमान धर्म में प्रवच्छेदकता नहीं होती, अत एव उक्त प्रतीति में घटत्वनिष्ठ प्रकारता में निरच्छिन्नत्व सुरक्षित रहता है।
अब यदि सांगिक ज्ञान को उपनायक माना आय तो एक धर्म प्रकारेण किसी वस्तका ज्ञान होने पर भी ज्ञाता में सर्वज्ञता को प्रापत्ति होगी क्योंकि उक्तप्रतीति घटत्व के सम्बन्ध रूप में प्रथवा घटत्व के पृष्ठलग्नपरम्परा के घटकरूप में यावद्धर्मों का भान होने पर उक्तज्ञानरूप उपनयसंनिकर्ष मे यावद्धर्मों का प्राधान्येन-संसर्गान्यविषयर्यायधया मी ज्ञान हो जायगा। सर्वज्ञता क्या है ? - स्थनिरूपित, * संसर्गतान्य, केवलायिधर्मनिष्ठप्रकारत्वाऽनिरूपित विष यतासम्बन्धेन सर्वत्र व्यापक ज्ञानवरच ही सर्वज्ञत्व है। उक्त ज्ञान उक्त रीति से एकधर्मप्रकारेण एकवस्तु के ज्ञाता में मो सम्पन्न हो जाता है। अतः उस में सर्वजत्वापत्ति होगी। प्रतः जब उक्त विध सासगिक ज्ञान उपनायक नहीं होता तो 'म घटजननस्वभावा' यह शान भो घट का उपनायक नहीं हो सकता । क्योंकि वह जान भी मनिष्ठमुख्य विशेषता प्रौर उस मुविशेष्यता से भिन्न स्वभावनिष्ठ साक्षात् प्रकारता मिन्न घटनिविषयता है । इसलिये उक्तज्ञान से मृत् में घट के अवयसिद्धि का अभ्युपगम नियुक्तिक है -
ॐ विषयता में केबलान्वयिधर्मनिष्ठ प्रकार वानिरूपितत्व का निवेश प्रमेय स्वेन यतकिञ्चित घट का ज्ञान होने पर प्रमेयत्व सामान्य लक्षण प्रन्यासत्ति से सकल प्रमेयज्ञाता में सर्वज्ञत्व की आपत्ति के बारगाथं किया गया है। संमगतान्यत्व का निवेश एकधर्मप्रकारेण एकवस्तु के बोध में उस वस्तु के सम्पूर्ण धमों को संबन्धविधया जानने बाले छद्मस्थ में सर्वज्ञत्व को आपत्ति को बारणाथ किया गया है
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
मूलं - तपशक्तिशून्यं नरकार्य कार्यान्तरं यथा । व्यापारोऽपि न तस्यापि नापेक्षाऽलस्यतः क्वचित् ॥ १२१ ॥ तदुपशक्तिशून्यं - मृदादिकारणरूपशक्तिशून्यम्, तत् - अधिकृतं घटादि कार्यम्, कार्यान्तरं पठादि यथा तथा विलक्षणं न स्थात्, मृदाद्यन्वयाभावेन तदानन्तर्यमात्र स्प पदादिसाधारण्येनाऽनियामकत्वात् । तथा व्यापारोऽपि न तस्यापि कारणस्यापि कार्य कश्चित् नियामकः, क्षणिकत्वेन निर्व्यापारत्वान् सर्वधर्माणाम् । तथा, स्वतोऽसच्चात् = तुच्छत्वात् कार्यस्य स्वमवप्रतिपत्तिं प्रति नापेक्षाऽपि क्वचित्- कारणे, 'काचिदेवशसति कारणेन सच्चाधानम्, नान्यत्र' इत्यत्र बीजाभावात् । अविशिष्टसत्वस्य विशिष्टता तु दृष्टत्वात् कारणादेया नानुपपन्नेति भावः ॥ १२१ ॥
1
[ २१५
किन्तु यह शंका भी उचित नहीं हैं क्योंकि जैसे 'घटो नास्ति' अर्थात् भूतल में घटाभाव प्रतियोगिता ! यह बुद्धि प्रमाय अंश में घटत्वविशिष्ट घट के प्रतियोगित्वरूप वैशिष्ट्य का अवगाहन करतो हे और घटत्वविशिष्टवैशिष्टचावगाहित्व घटत्व के प्रयच्छिन्न प्रतियोगित्वरूप वैशिष्टच के अवगाहित्य के बिना प्रनुपपन्न होता है। क्योंकि विशिष्टवैशिष्टयावगाहो वही ज्ञान होता है जो विशेषरण और विशेषणतावच्छेदक दोनों के एक वैशिष्ट्य का प्रवगाहन करता है। इसलिये केवल घटरूप विशेषण के ही प्रतियोगिस्वरूप सम्बन्ध का अवगाहन करने से उक्त ज्ञान घटत्व विशिष्ट वैशिष्टच श्रवगाही नहीं हो सकता । तो जिस प्रकार अनुपपत्तिज्ञान रूप श्राक्षेप से उक्त ज्ञान में घटत्वावच्छ्रित्रप्रतियोगिता कथावगाहित्य सिद्ध होता है. उसीप्रकार 'मुद् घटजननस्वभावा' इस वाक्य से उत्पन्न बोधमें मिट्टी में घटामिनजननाभिस्वभावाभेद का भान होता है, किन्तु यह भान मिट्टी में घटाभेद के बिना प्रनुपपत्र है। इस अनुपपत्तिज्ञानरूप प्राक्षेप से उक्तबोध में भी मिट्टी में घटाभेदविषयकत्व सिद्ध होने से जबत बोध से मिट्टी में घट के प्रत्यय की सिद्धि में कोई बाधा नहीं हो सकती ।
यदि ऐसो कल्पना की जाय कि तत् तज्जननस्वभावम्' - मृद् घटजननस्वभावा' इस व्यवहार से उक्त योध नहीं होता । श्रपितु 'तत् के अनंतर यानी मिट्टी द्रव्य के बाद सद्भाव अर्थात् घट का अस्तित्व होता है' यह बोध होता है। छतः इस बोध के उत्तरकाल में भी मिट्टी द्रव्य में घटपरिणामित्व का बोध प्रर्थात् घटान्वय का बोध नहीं हो सकता।" तो यह कल्पना भी ठीक नहीं है क्योंकि उक्तव्यबहार से इस प्रकार का बोध मनुभवविरुद्ध है। दूसरी बात यह है कि कारण और कार्य में एकान्त भेद मानने पर कार्य में कारण के प्रानन्तर्य का निर्वाचन शक्य न होने से उक्त व्यवहारसे उक्त बोध मानना युक्तिविरुद्ध भी है ।। १२०
१२१ वीं कारिका में उक्त विषय को हो प्रकारान्तर से स्फुट किया गया है[ कारखान्वय विना कार्य में वैलक्षण्य की प्रनुपपत्ति ]
aft कार्य कारणरूप शक्ति से शून्य माना जायगा प्रर्थात् कार्य में कारण का प्रत्यय न माना जायगा तो मिट्टी आदि कारणों का घटादिरूप कार्य उसी प्रकार का कार्य हो जाएगा जेसे पटाव कार्य होता है अर्थात् घटादि कार्य पहादि से विलक्षण न हो सकेगा क्योंकि जैसे पटादि में मिट्टी का
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६ ]
[ शा० वा० समुजय स्त० ४ श्लो० १२३
एवमप्यनन्वयाभ्युपगमो न युक्त इत्याह
मूलं - तथापि तु तयोरेव तम्स्वभावस्वकल्पनम् । अन्यत्रापि समानत्वात् केवलं स्वान्ध्यसूचकम् ||१२२|| तथापि तु कार्यस्य तद्रूपशक्त्या दिवैकल्ये नातिप्रमङ्गनेऽपि स्वदर्शनानुरागेण तयोरेव अधिकृतहेतु-फलयोः, तत्स्वभावस्वकल्पनं तनज्जननस्वभावत्वसमर्थनम् अन्यत्रापि = अनभिप्रेतहेतुफलमावेऽपि समानत्वात् वाङ्मात्रेण सुत्रचत्वात् केवलं स्वान्ध्यसूचकं = वक्तुरज्ञानव्यञ्जकम् || १२२|| क्षणिकत्वे परेषामागमविरोधमप्याह
मूलं किंचान्यत् क्षणिकत्वेव आर्षार्थोऽपि विरुध्यते ।
विरोधापादनं चास्य नारूपस्य तमसः फलम् ॥ १२३ ॥
श्रन्वय नहीं है उसी प्रकार घट में मो मिट्टी का प्रन्वय आपने नहीं माना और मिट्टी द्रव्य का मानस्तर्य मात्र तो जैसे घट प्रावि में है वैसे पटादि में भी है। अतः एव मिट्टी के प्रन्यय से निरपेक्ष मिट्टी का श्रानन्तयं मात्र पटादि वलक्षण्य का नियामक नहीं हो सकता । इसी प्रकार मिट्टी आदि रूप कारण से घटादि रूप कार्य के जनन का नियमन करने के लिये कोई व्यापार भी नहीं हो सकता । क्योंकि बौद्ध मल में सभी धर्म क्षणिक होते हैं प्रतः क्षणिक कारण का घटादि के उत्पावनार्थ कोई व्यापार नहीं बन सकता । इसी प्रकार घटाविरूप कार्य जब मिट्टी श्रादि में सर्वथा श्रसत् होगा तब उसे श्रपनी सत्ता को सिद्धि के लिये मृदाविरूप कारण की अपेक्षा भी नहीं बन सकेगी। क्योंकि मिट्टी प्रावि में जैसे घटादि असत् है उसी प्रकार पटादि भी असत् है । अतः 'मिट्टी आदि कारण से प्रसत् घटादि में ही सत्व का प्राधान हो और असत् पटादि में न हो' इस बात का कोई बीज नहीं हो सकता और जब मदादि कारणों में घटादि कार्यों की प्रविशिष्ट सता मानी जायगी तो मृदादि रूप कारणों से घटादिरूप कार्यों में विशिष्ट सला का प्राधान मानने में कोई आपत्ति न होगी क्योंकि अविशिष्ट सत् में कारण द्वारा विशिष्टता का आाधान लोक में दृष्ट है जैसे पाक के पूर्व रक्तत्व से अविशिष्ट घट में पाक से रक्तत्वविशिष्टता का प्रधान सर्वविदित है ।। १२१ ॥
१२२ वीं कारिका में कार्य में कारण के अनन्वयपक्ष को नियुक्तिकता एक और अन्य प्रकार से बताई गई हैं
कार्य में कारणरूप शक्ति का प्रन्वय न मानने पर सभी कारणों से सभी कार्यों के जन्म का अतिप्रसंग होने पर भी यदि अपने दर्शन के प्रति विशेष प्रनुरागवश, कारणविशेष और कार्यविशेषके मध्य ही कारण में कार्यविशेष जननस्वभावस्य श्रौर कार्य में कारणविशेष जन्यस्वभावत्व के सम र्थन का श्राग्रह किया जायेगा तो जिन पदार्थों में कार्य काररणमाद नहीं है उनमें भी तज्जननस्वभाव
आदि को कल्पनाको प्रसक्ति होगी क्योंकि कल्पना यदि नियुक्तिक वचन मात्र से ही करनी है बा ऐसा वचन जिन पदार्थों के बीच कार्यकारणभाव मान्य नहीं है उन पदार्थों में भी समान है । अतः इस प्रकार का समर्थन वक्ता के अज्ञानमात्र का ही सूचन कर सकता है, उसके प्रभिमत को सिद्धि उससे नहीं हो सकती ।। १३२ ।।
१२३ वीं कारिका में क्षणिकत्व पक्ष में बौद्ध श्रागम के विशेष का भी प्रदर्शन किया है
1
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वा० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ २१७
किश्च अन्यद् दूषणान्तरम्, यतः क्षणिकत्वेऽभ्युपगम्यमाने वः = युष्माकम् आर्षार्थोपि आगमार्थोऽपि विरुध्यते असंगतो भवति । अस्य च आर्षार्थस्य विरोधापादनं नाल्पस्य तमस अज्ञानस्य फलम् किन्तु महत एव तदप्रामाण्यापत्तौ तन्मूलकामुष्मिक प्रवृत्तिमात्रविच्छेदादिति भावः || १२३|| किं तदा यस्य विरोधः क्षणिकत्व आपद्यते १ इति जिज्ञासायामाह
मूलं हत एकनवते कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः ।
तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ॥ १२४॥
इतः अस्माद् वर्त्तमानात् कालात् अतीते काले मे= मया शक्त्या = स्वव्यापारेण पुरुषो हतः व्यापादित। तेन कर्मविपाकेन - पुरुषव्यापादनजनितकर्मभोगकालाभिमुख्येन 'रोगेण वेदनावान्' इत्यादी पुरुषान्वितवेदनायां रोगजन्यत्वान्वयवद् विपाकान्विते कर्मणि तज्जन्यत्वान्वयात्, भिक्षत्रः ] अहं पादे विद्धोऽस्मि कण्टकेन । तेन सर्वज्ञत्वात् पश्यतोऽपि कण्टकं कथं पादे कण्टकवेधः ? इत्याशङ्का निवर्ततां भवताम्, नियमवेदनीयत्वात् प्रागर्जितकर्मणः । न हृत ममापि फलमदत्वा निवर्तते इति मा कार्षीत् कोऽपीदृशं कर्म- इति शिष्यान् बोधयितु बुद्धस्यैवमुक्तः ११२४||
[ क्षणिकवाद में बौद्धशास्त्र वचन का विरोध ]
मावमात्र को क्षरिक मानने पर एवं कार्य-कारण में अन्वय न मानने पर बौद्ध मत में एक अन्य दोष भी है वह यह कि ऐसा मानने पर उनके ऋषि वचन का प्रतिपाद्य अर्थ भी असंगत हो जाता हैं और अपने हो ऋषिवचन का विरोधापादक कथन वक्ता के साधारण प्रज्ञान का नहीं किन्तु महान प्रज्ञान का सूचक है क्योंकि यदि ऋषिवचन श्रप्रमाण हो जायगा तो उसके प्राधार पर पार offee फल के उद्देश्य से उपविष्ट सम्पूर्ण प्रवृत्तियों का लोप हो जायगा ।। १२३॥
१२४ व कारिका में उस प्रार्थवचन का उल्लेख किया गया है - भावमात्र को क्षणिक मानने पर जिसका विरोध प्रसक्त होता है -
[ प्रतीतकाल में पुरुष हत्या से बुद्ध के पैर में काँटा चुभा ]
प्रस्तुत कारिका द्वारा निर्दिष्ट बौद्ध मत के प्रार्थवचन का अर्थ इस प्रकार है- बुद्धने अपने fort को बोध कराने के लिये यह वचन कहा था कि भाज से पूर्व ६१ वे कल्प में मैंने अपनी चेष्टा से एक मनुष्य का वध किया था उस वधात्मक कार्य से जो पश्यात्मक कर्म उस समय उत्पन्न हुआ उस का भोगकाल उपस्थित होने पर हे भिक्षुत्रों ! मेरे पैर में कांटा चुभ गया है। इससे तुम्हें यह संका नहीं करनी चाहिये कि मैं सर्वज्ञ हूं अतः कांटे को भी देखता हूं इसलिए उससे बचना मेरे लिए प्रत्यन्त सरल है फिर भी मेरे परमे कांटा कैसे चुमे ? क्योंकि पूर्वोपार्जित कर्म का फलयोग नियम से होता है अतः जो कर्म पूर्व में मैंने श्रजित किया है वह विना फल दिये हुये समाप्त नहीं हो सकता । तो तुम्हें मी प्रवश्य हो इस प्रकार का बुरा कर्म नहीं ही करना चाहिये ।
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८ ]
[ शा.वा समुच्चय स्त० ४-लो० १२५
अत्र च यथा विरोध आपद्यते तथा..
मे-मयेत्यात्मनिर्देशस्तद्गतोक्ता वधकिया ।
स्वयमाप्तेन यत्नद वः कोऽयं क्षणिकताग्रहः ? ॥१२॥ अत्र 'मेन्मया' इत्यात्मनिर्देशः अस्मच्छब्दस्य स्वतन्त्रोच्चारयितरि शक्तत्वात् । षष्ठयन्तास्मच्छन्दस्य 'में' इति रूपभ्रमवारणाय 'मया' इति विवरणम् । तद्गता=आत्मगता
[ प्रवृत्ति के एक देश में वृत्ति अघटक पदार्थ का अन्वय कैसे ? ] व्याख्याकार ने कारिका के तेन विपाकेन' इस भाग की व्याख्या करते हुये यह बताया है कि से 'रोगेण वेरनावान् = यह पुरुष रोग से दुखी है'- इस प्रतीति में वेदनावान् इस तद्धितान्त वृत्ति सद के घटक पेवना शब्दार्थ का अन्वय पुरुष में होता है और उस पुरुषान्वित बेदना में रागेण इस तृतोपान्त पद के रोगबन्यत्व रूप प्रथं का अन्वय होता है उसी प्रकार कर्मविपाक इस समस्त वृत्ति पद के घटक कर्मपदार्थ का विपाकपदार्थ में अन्वय होता है और उस बिपाकावित कर्म में तेन शब्द के तज्जन्यत्वप्रतोतकालकृतपुरुषवधजन्यत्व का मो अन्दय हो सकता है। अत: 'वृत्ति शब्द के एकदेशार्थ वृत्ति के प्रमटक शश्वार्थ का मन्वय व्युत्पत्ति विरुद्ध होने से 'तेन कमविषाकेन' इस शब्द का पुरुष वधजन्य कर्म का विपाक रूप अर्थ नहीं हो सकता, यह शंका निर्मूल हो जाती है क्योंकि उक्त प्रामाणिक प्रयोगों के अनुरोध से उक्त ध्युत्पत्ति को इस परिवर्तित रूप में स्वीकार करना प्रारश्यक होता है कि वति के प्रघटक जिस जिस पद के अर्थ का बत्ति शब्द के एकदेशार्थ के साथ अन्य अभियुक्त सम्मत है उन पदों से मिन्न वृत्ति प्रघटक पदार्थ का वृत्ति घटकशब्दार्थ के साथ प्रत्यय नहीं होता । वृत्तिघटक जिन पदों के अर्थ का वृत्ति शब्द के एकवेशार्थ के साथ अन्वय अभियुनत सम्मत हैं उन पदों में कारक विभक्ति भी आती है । अतः जैसे 'रोगेण वेदनावान्' इस स्थल में तृतीया रूप कारक विमत्यर्थ जन्यत्व का वृत्तिशब्दार्थ एक देश वेदना में प्रत्यय होता है उसी प्रकार तेन शब्द में तत् शब्द के उतर श्रयमाण तृतीया विभक्ति भी कारक विभक्ति है अत. उसके अर्थ का भो कर्मविपाक इस समासात्मक वृत्ति शब्द के एकदेशार्थ कर्मशब्दार्थ के साथ अन्वय निष्कंटक है । व्युत्पत्ति का यह परिवर्तित रूप जगदीश सालङ्कार के शब्दशक्तिप्रकाशिका अन्य में 'प्रतियोगिपदादन्यद् यदन्यद् कारकादपि वृत्तिशब्दै कदेशार्थे न तस्यान्वय इष्यते' इस प्रकार प्रति है । १२४।
१२५ वी कारिका में मायमात्र को क्षणिक मानने पर उक्त प्रार्ष वचन का विरोध कैसे होता है इस बात का प्रतिपादन किया गया है--
[ 'मे' शब्द से कर्ता-भोक्ता का अभेद निर्देश ] उक्त ऋषि वचन में बुद्ध द्वारा में शब्द से अपनी आत्मा का निर्देश किया गया है क्योंकि मे' शब्द प्रस्मद् शब्द का रूप है और प्रस्मन् शब्द की स्वतन्त्र उच्चारणकर्ता में शक्ति होती है। उक्त वचन में में' शब्द के स्वतन्त्र उच्चारण कर्ता बुद्ध है अतः 'मे' शब्द से निश्चित रूप से बुद्ध का
'कृत्तद्धितसमासैकशेषसनाधन्तधातवः पञ्च वृत्तयः' इस शब्द शास्त्रीय वचनानुसार 'कृन्प्रत्ययान्त तद्धित प्रत्ययान्त. समस्तवाक्य एक शेषवाक्य और सनादिप्रत्ययान्त धातु, इन पांच प्रकार के शब्द वत्ति शब्द से संज्ञात होते है।
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्पा० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ २१६
वधक्रिया स्वयमाप्तेनोक्ता यद्यस्मात् तृतीयाया आधेयत्वार्थत्वात् हन्तेः प्राणवियोगानुकुत्र्यापारार्थत्वात् क्तप्रत्ययस्य च तज्जन्यफलशालित्वरूपकर्मत्वार्थत्वात् तत् तस्मात् कारणात् कोऽयम् अप्रामाणिकः वः = युष्माकं क्षणिकताऽऽग्रहः १ बुद्धेन कर्तृ-भोक्त्रोरभेदे प्रतिपादिते तदवगणनेन तद्भेदाभ्युपगमानौचित्यादिति भावः । १२५ ।।
अवाक्षेप परिहारावाद्द
,
सनानापेक्षयैतच्चेदुक्तं भगवता ननु ।
स हेतुफलभावो यत्तद् 'मे' इति न संगतम् ॥ १२६॥
'ननु'
J
७
2
एतत् इत एकनवते • [का० १२४] इत्यादि, चेद् भगवता संतानापेक्षयोक्तम्, इत्याक्षेपे, सः- संतानः, यद्यस्मात् हेतु फलभावः, तत् तस्मात् 'मे' इति न संगतम्, हन्तृक्षनिष्ठाया व क्रियाया उच्चारयितृणवृत्तित्वाभावादिति मात्रः ॥ १२६ ॥
हो निर्देश मान्य हैं ग्रन्थकार ने प्रस्तुत कारिका में 'में' शब्द का 'मया' इस रूप में विवरण कर दिया
1
है जिस से उसे श्रम शब्द का षष्ठयन्त रूप समझकर और उस के प्रथ का पुरुष शब्दार्थ के साथ अव होने का न हो और 'मम पुरुषो हत:' इस प्रकार के अर्थ को कल्पना का प्रसङ्ग न हो । इस प्रकार 'मे' शब्द द्वारा बौद्ध मत के प्राप्त पुरुष स्वयं बुद्ध ने प्रतोत काल में की हुई बघ किया को उस के मल-मांग काल में श्रात्मगत बतायी है । क्योंकि में' का जो मया ऐसा विवरण दिया गया है उन विवरण पद में तृतीया का श्राधेयत्व प्रर्थ है और 'हत' शब्द में हुन् धातु का प्राणवियोगानुकूल व्यापार अर्थ है | शब्द के उत्तर श्रूयमाण तृतीया विभक्ति के यत्व अर्थ का उस में अन्वय है । 'हतः ' इस शब्व में हुन् धातु के उत्तर श्रवमाण प्रत्यय का व्यापारजन्यफलशालित्वरूप कर्मस्व प्रथं है । उस के एक देश व्यापार में हुन् धात्वथ व्यापार का प्रभेद सम्बन्ध से अन्वय है । 'घटो रक्तघट.' इस प्रकार के वाक्यों के प्रामाणिक होने से उद्देश्य-विधेष में ऐषय होने पर भी विषेयांश में अधिकावरही बोध मान्य होता है अतः क्तप्रत्ययार्थ के एक देश व्यापार में प्राणवियोगानुकूलव्यापार रूप अधिकार्थ का प्रभेद सम्बन्ध से अन्यम हो सकता है । 'मया हतः' इतने भाग के उक्त अर्थ का पुरुष में धन्वय होने से पुरुष में 'प्रत्मनिष्ठप्राणवियोगानुकूलव्यापाराऽभिव्यापारजन्य प्राणवियोग पपलाश्रयः पुरुषः यह बोध होता है। इस प्रकार के 'भवा पुरुषो हतः इस बुद्ध वचन से यह ज्ञात होता हैं कि पूर्वकाल में किये गये पुरुषवधजन्य पाप के फलभाग के समय वही बुद्ध विद्यमान है जिन्हों ने पूर्वकाल में अपने व्यापार से पुरुष को प्राणों से विद्युक्त किया था। तो इस प्रकार जब बुद्ध के प्राप्त पुरुष में हो कि कर्ता और भोक्ता में प्रभेद का प्रतिपादन किया है तो उस को अवमानना कर के कर्त्ता और भोला में मेव मानना अनुचित है। अतः भावमात्र को क्षणिकता में बौद्धों का प्रप्रामाणिक शाह 'किम्मूलक हैं' कहना कठीन है । १२५ ।।
१२६वीं कारिका में बौद्ध मत की उक्त मालोचना पर बौद्धों के आक्षेप और उस के परिहार का वर्णन किया गया है
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२० ]
[ शा० वा० समुच्चय स्त० ४-श्लोक १२७
अभिप्रायान्तरं निराकुरते__ मर्मत हेतुशक्त्या चेत्तस्यार्थोऽयं विषक्षितः।
नाऽत्र प्रमाणमत्यक्षा तद्विवक्ष यतो मता ॥१२७॥ तस्य = 'शक्त्या मे' इत्यस्य, ममैव हेतुशक्त्या' इत्ययमों विवक्षितः, शक्तिपदस्य हेतुशक्त्यर्थत्वात , 'मेहत्यस्य च 'मम' इत्यर्थात , 'मे' इत्यस्यैव लक्षणया 'मदीयहन्तक्षणेन' इत्यर्थात् वेति चेत् ? नाऽत्र = ईदृशेऽर्थे प्रमाणम् किश्चित् । यतस्तिद्विवक्षा-बुद्धविवक्षा, अत्यक्षा = अतीन्द्रिया मता, अतस्तादृशबुद्धविवक्षाय नाध्यक्षम् , न वा तन्मूलमनुमानमिति भावः ॥१२७॥
[संतान की अपेक्षा 'मे' यह निर्देश असंगत ] .यदि उक्त प्रालोचना के सम्बन्ध में बौद्धों की पोर से यह बचाव किया जाय कि-"भगवान बुद्ध ने जो चिरपूर्वकाल में पुरुष के वधकर्ता रूप में और थिर उत्तरफाल में उस कर्म के फल भोक्तारूप में अपना ऐक्य बताया है, उन का वह कथन व्यक्ति को अपेक्षा से नहीं किन्तु सन्तान को अपेक्षा से है। जिस का प्राशय यह है कि जिप्त सन्तान का घटक होते हुये मैंने इतने लम्बे पूर्वकाल में पुरुष का वध किया था उसी सन्तान का घटक होने से मुझे इतने लम्बे काल के व्यवधान के बाद उस कर्म का फल प्राप्त हो रहा है।" तो यह बचाव संगत नहीं है क्योंकि सन्तान तो हेतु. फल भावरूप है, अर्थात् पूर्वोत्तर क्षणों का निरन्तर घटित होनेवाला हेतुफलात्मक प्रवाह रूप है। किन्तु उस प्रवाह के मध्य प्राने वाले पूर्वोत्तर भाव नापन्न क्षण भिन्न भिन्न है। पुरुष को बध किया हन्ताक्षण में रहती है, उच्चारयिताक्षण में नहीं रहतो, क्योंकि अस्मत् शब्द को उच्चारयिताक्षण हन्सा क्ष से भिन्न है । प्रतः 'मया' शब्द से उसकी एक संतान निष्ठता का कथन प्रवाह की अपेक्षा युक्ति संगत नहीं हो सकता ॥१६॥
१२७ वी कारिका में इस सम्बन्ध में बौद्ध के एक अन्य अभिप्राय का निराकरण किया गया है['शक्त्या मे' इस को 'मेरे हेतक्षरण की शक्ति से' इस अर्थ में विवक्षा अप्रमारण]
उपयुक्त कथन के विरुद्ध बौद्ध की ओर से यदि यह अभिप्राय प्रकट किया जाय कि उक्त आर्षवचन में जो 'मे' शब्द पाया है उस का भ्रम अर्थ है और शक्ति शब्द का अर्थ हेतु शक्ति है। इसप्रकार उस बबन से बुद्ध का यह तात्पर्य उपलब्ध होता है कि मैं सन्तान-प्रवाहरूप हूं, मेरा ही घटक एकक्षरण हन्ताक्षण है वही हेतुशक्तिरूप है । इस प्रकार मेरे हन्ताक्षण में चिरपूर्व काल में पुरुष का वध किया था और मेरा सन्तानीय वर्तमान क्षण उस कर्म का फल भोग रहा है । अत बुद्ध के वचन से कर्तृत्व और भोक्तृत्व की एफव्यक्तिनिष्ठता प्रतीत नहीं होती किन्तु एक सन्ताननिष्ठता प्रतीत होती है। प्रतः समस्तभाव की क्षणिकता का अभ्युपगम करने से उक्त वचन का कोई विरोध नहीं होता ।"
किन्तु बुद्ध के उक्त वचन का ऐसा अर्थ मानने में कोई प्रमाण नहीं है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि बुद्ध को ऐसी हो अर्थविवक्षा है क्योंकि उनकी ऐसी विवक्षा प्रतोनिय है अतः बुद्ध को उक्तार्थ विवक्षा में न तो प्रत्यक्ष प्रमाण है और न तरमूलक अनुमान प्रमाण भी है। १२७।।
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० का टीका-हिन्दी विवेचना ]
[२२१
तदीयक्षणिकत्वदेशनान्यथानुपपन्या तादृशी बुद्धविवक्षाऽनुमास्यत इत्यत्राहमूल-तद्देशना प्रमाणं चेन्न सान्यार्थी भविष्यति ।
अत्रापि कि प्रमाणं विदं पूर्वोक्तमार्षकम् ||१२८॥ तद्देशना 'क्षणिकाः सर्वसंस्काराः' इत्याद्या बुद्धदेशना प्रमाणं चेत् तादृशबुद्धवित्रक्षायाम् ? ननैवम् यतःसा उक्तदेशनाअन्यार्था=संसाराऽऽस्थानिवृत्यर्था भविष्यति । तथा च तस्यास्तात्पर्य प्रामाण्यम् न तु यथाश्रतार्थ इति भावः। तत्रापि तद्देशनाया अन्यार्थतायामपि किं प्रमाणम् ? इति चेत् ? इदं पूर्वोक्तम् 'इत एकनवते' [का. १२४] इत्यादिकम् आर्षम् । न घ 'मणिकत्वदेशनान्यथानुपपत्त्या उक्तदेशनाया अन्यार्थस्त्रम्, एतदन्यथानुपपत्या वा क्षणिकत्वदेशनाया, इत्यत्र विनिगमकाभावः, क्षणिकवपक्ष उक्तदोषोपनिपातस्य तद्देशनाया अन्यार्थत्वे विनिगमकत्वादिति भावः ॥१२८ आन्तिरविरोधमाह
मूलं-तथान्यदपि यत्कल्पस्थायिनी पृथिवी क्वचित् ।
उक्ता भगवता भिक्षनामध्य स्वयमेव तु ।।१२९॥ तथा अन्यदपि विरुद्धम् यत् क्वचित सूत्रान्तरे भगवता बुद्धेन मिचूनामन्व्य स्वयमेव कल्पस्थायिनी पृथिव्युक्ता 'कप्पट्ठाइ पुहह भिक्खयो। इति वचनात् । पृथिवीसंततेः कल्प
१२८ वीं कारिका में बौद्ध के इस कथन का कि भगवान ने जो भावमात्र को क्षणिकता का उपदेश किया है वह बुद्ध के उक्त वचन से उक्त अर्थ की विवक्षा न मानने पर अनुपपन्न होगी इसलिए इस प्रन्यथानुपपत्ति से ही बुद्ध की उक्त विवक्षा का अनुमान होगा' निराकरण किया गया है -
बद को देशना कि 'सम्पूर्ण संस्कार भाव क्षणिक है, युद्ध के उक्त वचन के उक्त प्रर्थ की विवक्षा में प्रमाण है यह मान्य नहीं हो सकता क्योंकि उक्त देशना का प्रयोजन अन्य है और वह प्रयोजन है संसार से प्रास्था को नियत्ति यानी संसार में प्रासक्ति का परित्याग । बद्धको उक्तवेशना का यही तात्पर्य मानना उचित है । बुद्ध सम्पूर्ण संसार को क्षणिक बताकर मनुष्य को संसार में अनासक्त बनाना चाहते हैं इस प्रकार उक्त देशना बद्ध के इस तात्पर्य में प्रमाण है न कि अपने यथाश्रुत अर्थ मनी शब्द सुनने से प्रापाततः प्रतीयमान होने वाले अयं सम्पूर्ण मावों की क्षणिकता में । यदि इस प्रकार शंका की जाय कि उक्त देशना अन्यार्थ में अर्थात् उक्त तात्पर्य में प्रमाण है-इसमें क्या प्रमाण हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि इसमें युद्ध का इत एकनवते' यह वचन ही प्रमाण हैं। यदि यह शका की जाय कि क्षणिकरव देशना की अन्यथा उपपत्ति न होने से उक्त देशना प्रन्यार्थक= सन्तानामिप्र अथवा उक्नबुद्ध वचन की अन्यथानुत्पत्ति से क्षणिकत्व देशना अन्यार्थकः= संसार के प्रति प्रास्थानित्यर्थक है इसमें कोई विनिगमक नहीं हैं तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि भावमात्र क्षणिकता पक्षमें पूर्वोक्त दोषों को प्रसक्ति ही क्षणिकस्वदेशना के अन्यार्थकत्व में विनिगमक है ॥१२॥
१२६ वो कारिका में बद्ध मत के अन्य पार्ष वचन का विरोध बताया गया हैकल्पस्थायिनी पृथीबी भिक्षवः !
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२ ]
[शा वा० समुकचय स्त० ४ श्लोक १३०
स्थायित्वोक्तेन दोष इति चेत ! न, एकवचनतानुपपत्तेः । मावृतमकत्वमिति चेत् ! कल्पस्थायित्वाद्यपि तथास्तु । इति स विलुप्त । नरमाद् यथा श्रुतार्थ एवं ज्यायान् ॥१२९।। तथा
'पश्च याह्या विविज्ञेया' इत्यन्यदपि चार्षकम् ।
प्रमाणमवगन्तव्य प्रकान्तार्थपसाधकम् ॥१३०॥ पञ्च बाह्या रूपादयः, विविज्ञयाः इन्द्रिय-मनोविज्ञानग्राह्याः,' इत्यन्यदपि चाप प्रका. न्तार्थप्रसाधकम्-अक्षणिकत्वप्रसाधकं परापेक्षया प्रमाणमवगन्तव्यम् ।।१३०॥ । कथमेतेदेवमित्याह
क्षणिकत्वे यतोऽमीषां न हिविज्ञेयता भवेत् । भिन्नकालग्रहे ह्याभ्यां तच्छब्दार्थोपपत्तितः ॥१३॥
------ --- [ यह पथिवी कल्पस्थायिनी है. इस वचन का विरोध क्षणिकवादमें ]
बुद्ध का दूसरा वचन मी भाबमात्र को क्षणिक मानने पर विरुद्ध होता है इस सूत्र कापट्टाई पुहई मिक्खयो !' से बुद्ध ने भिक्षुत्रों को सम्बोधन कर स्वयं ही पदवी को कल्पपर्यन्त स्थिर बतायो
यदि यह कहा जाय कि उसका तात्पर्य पायवी संतान को कल्पपयन्त स्थायी बताने में है त भावमात्र को क्षणिकता पक्ष में उक्तवचन का विरोधरूप दोष नहीं हो सकतातो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि पृथ्वी सतान मनत पृथ्वीक्षणों का समुदाय रूप होने से अनेक है अतः उसकी विवक्षा होने पर एकवचनान्तपृथ्वो शब्द का प्रयोग उपपन्न नहीं हो सकता । पृथ्वोसन्तानगत एकत्व को सांवृत वासनामूनक मानकर भी एकवचनान्तता को उपपत्ति नहीं की जा सकती क्योंकि यदि एकरम को सांवृत-प्राविधक माना जायगा तो कल्पस्थायिश्वादि मी प्राविद्यक हो जायगा और उसी प्रकार सारा बाह्य पदार्थ हो प्राविधक हो जायगा तो सर्वलोप- सबंशून्यता की आपत्ति होगी। प्रत: उक्तसूत्र का ययाश्रत अर्थ में भावमात्र को क्षणिक मानने पर उक्त बचन का विरोध अनिवार्य है।।१२६॥ १३० वीं कारिका में बुद्ध के एक बचन को भावपात्र को स्थसिद्धि में अनुकूल बताया गया है।
[विविज्ञयाः' वचन को अनुपपत्ति ] रूप-रस-गन्ध-स्पर्श शब्द ये पांच बाह्य पदार्थ इन्द्रियजाय और मनोजन्य इन दो ज्ञानों से ग्राह्य है-यह भी एक बुद्ध का वचन है । यह वचन भी प्रस्तुत यानी भावों के प्रक्षणिकत्व की सिद्धि के साधन में बुद्ध के प्रति बुद्ध मतानुयाधियों की प्रास्था के अनुसार भी प्रमाण हो जाता है ।।१३।। १३१ वी कारिका में पूर्वोक्त कारिका के प्रतिपाद्य का उपपादन किया गया है- .
[क्षणिकवाद में एक विषय विज्ञानद्वयगृहीत नहीं होता] बद्ध ने रूपादि विषयों को इन्द्रिय और मन से उत्पन्न दो विज्ञानों से ग्राह्य कहा है किन्तु रूपादिविषय यदि क्षणिक होंगे-अपने जन्मक्षण के निरन्तर उत्तरकाल में नष्ट होंगे तो दो विज्ञानों से ग्राह्य
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्या० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ २२३
यतो मां रूपादीनाम् क्षणिकत्वे = क्षणानन्तरं नाशशीलत्वे, द्विविज्ञेयता न भवेत, हि यतः आभ्यां इन्द्रियमनोभ्यां भिन्नकालग्रहे कालभेदेन ज्ञानद्वपचनने तच्छब्दार्थोंपतितः- द्विविज्ञेयत्वशब्दार्थस्य घटमानत्वात् ।। १३१ ।।
=
एकदापि ताभ्यां ज्ञानद्वयजननाद् द्विविज्ञेयन्त्रमुपपत्स्यत इत्याह-एककालग्रहे तु स्यात्तत्रैकस्याप्रमाणता 1 गृहोत ग्रहणादेव मिश्रया ताथागतं वचः ॥१३२॥
एककालग्रहे तु = एकेन्द्रियमनोभ्यां ज्ञानद्वयजनने तु तत्र = तयोर्मध्ये एकस्व = अभिमतकस्य गृहीतग्रहणादप्रमाणता स्यात् । एवं सति ताथागतं = बौद्धं वचः 'पश्च बाह्या द्विविज्ञेयाः' इति सिध्या= अप्रमाणं स्यात् ॥ १३२॥ पराभिप्रायमाह
इन्द्रियेण परिचिन्ने रूपादी
तदनन्तरम् 1
यद् रूपादि ततस्तत्र मनोज्ञानं प्रवर्त्तते ॥१३३॥ इन्द्रियेण = इन्द्रियज्ञानेन परिच्छिन्ने गृहीत रूपादौ विषये सदनन्तरम् इन्द्रियपरिच्छेद्यरूपाद्यनन्तरम् यद्रयादि तज्ज्ञानसभानकालभावि ततः इन्द्रियपरिच्छेदात् समनन्तशत्, तत्र = तज्ज्ञानसमानकाल भाविनि रूपादों मनोविज्ञानं प्रवर्त्तते = ग्रहणण्यापू
नहीं हो सकते, क्योंकि इन्द्रिय और फन द्वारा भिन्न काल में दो ज्ञानों का जन्म होने पर ही रूप दि विषय द्विविज्ञेय है' इसके शब्दार्थ की उपपत्ति हो सकती है । किन्तु यदि रूप प्रादि एक हो क्षण रहेंगे तो विमिश दो क्षणों में उनके ज्ञान द्वय का जन्म नहीं हो सकता ।।१३१।।
१३२ व कारिका में एककाल में इन्द्रिय और मन से ज्ञान द्वय की उत्पत्ति मान कर रूपादि विषयों में द्विविज्ञयता के समर्थन का निराकरण किया गया है
यदि एक काल में इन्द्रिय और मन से होनेवाले दो ज्ञानों से रूपादिविषय प्राह्य होते हैं इस अर्थ में रूपादि को द्विविज्ञेय माना जायगा तो उन दोनों में प्रत्येक एक दूसरे से गहोत का ग्राहक होने से दोनों हो श्रप्रमाण हो जायेंगे । श्रत एव तयागत का उक्तबचन रूपादि पाँच पदार्थ हिदिज्ञेय-दो प्रमाणों से जंग होते हैं' अप्रमाण हो जायगा ।। १३२ ।।
१३३ व कारिका में इस सम्बन्ध में बौद्ध अभिप्राय को प्रकारान्तर से प्रस्तुत किया है.
[ द्विविज्ञेयता के उपपादनार्थ बौद्ध प्रयास ]
कारिका का अर्थ इस प्रकार है- रूपादि की द्विविज्ञेयता के सम्बन्ध में बौद्धों का यह कथन है किरूपादि विषय का इन्द्रिय से ज्ञान होने पर इन्द्रिय से ज्ञेय रूपादि के प्रनन्तर इन्द्रियजन्य ज्ञानकाल में जो रूपादि उत्पन्न होता है उस हरावि को मनोविज्ञान ग्रहण करता है और वह मनोविज्ञान निरंतर पूर्ववर्ती इन्द्रियजन्य रूसविज्ञान स्वरूप समनन्तर प्रत्यर्थ से उत्पन्न होता है। इस प्रकार इन्द्रियजन्य
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४ ]
[ शापा समुचय स्त०४-रलो. १३४
भवति । तदाह न्यायवादी-"स्वविषयानन्तरविषयसहकारिणेन्द्रियज्ञानेन समनन्तरप्रत्ययेन जनितं मनोविज्ञानम्" इति ॥१३३।। निगमयति
एवं ध न विरोधोऽस्ति द्रिविज्ञेयस्वभावतः ।
शालामणि मे पापादेयपसलसम् ॥१३४॥ एवं च न्यायात् उक्तयुक्तेः, पश्चानामपि रूपादीनाम् द्विविजेयत्वभावत: इन्द्रिय-मनोविज्ञेयत्वोपपत्तेः, न विरोधोऽस्त्युक्तवचनस्य इति चेत् १ अत्रोत्तरम् एतदपि उक्तम् असमजसम्-अयुक्तिमन् ।।१३४। कुतः ? इत्याह
नकोऽपि यद विविज्ञेय एककेनव वेदनात्।
सामान्यापेक्षयेतच्धेन तत्सत्त्वप्रसगतः ॥१३५॥ यद यस्मात् कारणात् एकोऽपि पश्चानां मध्य एवं न द्विविज्ञेयः, ऐककेन-इन्द्रियज्ञानादिना 'एतदुत्तरं एकैकस्य इति शेपः, एककस्यैव वेदनात् । तथा च न केचिद् द्विविझेपत्तमित्यर्थः । परः शङ्कते-सामान्यापेक्षया रूपादिसामान्यापेक्षया एतत् द्विविज्ञेयत्वम् चेत-यदि उपपद्यते 'तदा को दोपः, इत्युषस्कारः । अत्रोत्तरम-नैतदेवम् तरसत्व प्रसगत सामान्यसत्त्वप्रसंगात् ॥१३५॥ सत्वेऽपि दोषमाह
ज्ञानरूप समनन्तर प्रत्यय से उत्पन्न होनेवाले मनोविज्ञान से जय होने में ही बुद्धोक्त 'द्विविय' वचन का तात्पर्य है। जैसा कि न्यायवादी धर्मकोति ने कहा है मनोविज्ञान अपने विषयभूत रूपादि के अनंतर प्रत्यवहितपूर्वरूपादि विषय से सहकृत इन्द्रि यजन्य ज्ञान रूप समनन्तर प्रत्यय से उत्पन्न होता है ।।१३॥ १३७ वीं कारिका में उक्त प्रर्थ का उपसंहार बताया गया है
उक्त युक्ति से रूपादि में द्विविजेयत्व को उपपत्ति होने से भाव के क्षणिकता पक्ष में बुद्ध के उक्त वचन का विरोध नहीं हो सकता है । ग्रन्थकार का कहना है कि यह कथनयुक्तिहीन है। १३॥ १३५ वो क.रिजा में पूर्व कारिका सकेतित युक्तिवैकल्य को स्फुट किया गया है
[विविधेयता उपपादक बौद्ध प्रयास को निष्फलता ] उक्तरूप से रूपादिविषयों में द्विविज्ञेयता का उपपादन असंगत है क्योंकि रूपादि पांचों विषयों के मध्य में कोई भी विधा उक्त रोनि से द्विविज्ञेय सिद्ध नहीं होता क्योंकि एक ही रूपादि व्यक्ति का एक हो इन्द्रिय से ज्ञान सिद्ध होता है । यदि यह कहा जाय कि पूर्वोत्पन्न धाषाविज्ञान से रूप ही गृहीत होता है प्रोर पवाद उत्पन्न मनोविज्ञान से भी रूप हो गहीत होता है प्रतः प्रातिस्विक यानी व्यक्तिगत रूप से रूप व्यास दोन्द्रिय विनय न होने पर भी रूप सामान्य की अपेक्षा द्वोन्द्रियविज्ञेयता सिद्ध हो सकती है क्योंकि रूपादि के द्वोन्द्रियविज्ञेयता का तात्पर्य रूप सामान्य की द्वीन्द्रियविज्ञेयता में है। तो यह बौद्ध को ष्टि से ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर सामान्य का अस्तित्व स्वीकार करना प्रयरिहार्य है क्योंकि पूर्वोत्तर रूप व्यक्ति में स्थायिरूपसामान्य माने विना सामान्य को अपेक्षा रूपारि में द्विविजेमता का समर्थन नहीं हो सकता ॥१३५।।
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ २२५
सत्वेऽपि नेन्द्रियज्ञानं हन्त ! तदुगोचरं मतम् ।
दिविज्ञयत्वमित्येवं क्षणभेदे न तत्वतः ॥१३६।। सत्वेऽपि सामान्यस्य नेन्द्रियज्ञानम् , मनोज्ञानोपलक्षणमेतत्, हन्त ! तद्गोचरंसामान्यगोचरं मतम् अङ्गीकृतम् स्वलक्षणविषयत्वेन तदभ्युपगमात् । उपसंहरमाह-इत्येवं उक्तप्रकारेण क्षणभेदे तत्वतः परमार्थतः द्विवियत्वं न शोभत ।
ननु शोभत एव, 'घट-पटयो रूपम् इत्यादौ नैयायिकादीनां रूपे प्रत्येकमुभयवृत्तित्वान्धयवत् प्रत्येक द्विविज्ञेयत्वान्वयोपपत्तेः, न हि तेषां रूपत्वे घट पटोभयवृत्तित्वान्वयः, रूपस्वस्य द्रव्याऽवृत्तित्वादिति चेत् १ न, तेषामपि सामान्यविशेषरूपवस्त्वनभ्युपगमे एतदन्वयानुपपत्तेः । संग्रहनयाश्रयणेन घट-पटोभयरूपसामान्योद्भूतत्वविवक्षयैव तदुपपत्तेः । अन्यथोद्भूतैकद्वित्वक्रोडीकरणेनेकतापमयोर्घट-पटयोवृत्तित्वान्वयाऽयोगात् द्वित्वाद् द्वयोर्भेदविवक्षणेन प्रत्येकान्वयस्य तु तदाधेयद्वित्वनिरूपक्रधर्मयावच्छिभवाचकपदोपसंदानस्थल एव व्युत्पन्नत्वात् , यथा 'घटपटयोः घटपटरूपे' इति ।
१३६ वी कारिका में रूपादि में सामान्य की अपेक्षा भो द्विविज्ञेयता नहीं बन सकती इस तथ्य का प्रतिपावन किया गया है
[सामान्यविषयक ज्ञान का बौद्धमत में प्रसंभव ] सामान्य का स्वीकार कर लेने पर मो सामान्य के अभिप्राय से भी रूपादि में द्वीन्द्रियविज्ञेयता का कथन संगत नहीं हो सकता । क्योंकि बौद्धमतानुसार इन्द्रियजन्य, प्रौर मनोजन्य जान सामान्यविषयक नहीं हो सकता क्योंकि इन्द्रिय और मन को बौद्धमत में स्वलक्षण बस्तुका ग्राहक ही स्वीकार किया गया है। प्रतः उक्त प्रकार से पूर्वोत्तर रूप क्षरसों का भेद होने से रूपावि सस्थ अर्थ में द्विविजेयता नहीं संगत हो सकतो । .
[ 'घट-पदयो रूपं इस की नैयायिक मत में भी अनुपपत्ति यदि बौद्ध की ओर से नयायिकों का हस्तावलम्ब प्राप्तकर यह कहा जाय कि 'प्रत्येक रूपावि में द्वीन्द्रियविशेषत्वान्वय उसीप्रकार संगत हो सकता है, जैसे न्यायमतमें 'घटपटयो रूपम्' इस वाक्यजन्य बोध में रूप में घटपटोभयान्तर्गत प्रत्येकात्तित्व का अन्वय होता है, क्योंकि रूपत्व में द्रश्यत्तित्व न होने से रूपत्व में घट पटोभयत्तित्व का अन्वय नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि नैयायिक के मत में भी सामान्य विशेषोभयात्मक वस्तु का स्वीकार न करने के कारण 'घटपटयो रूपम्' इस स्थल में अन्वय की अनुपपत्ति अपरिहार्य है। उस को उपपत्ति संग्रहनय के प्राश्य से रूप शब्द से घटरूप पटरूप इस उमयरूपसाधारण रूपसामान्य को प्रधान रूप से विवक्षा करने से ही हो सकती है। प्राशय यह है कि प्रत्येक वस्तु सामान्यविशेष उमयात्मक होती है किन्तु सामान्यात्मक रूप से अन्य व्यक्ति के साथ भी उस का सम्बन्ध होता है। अत: घररूप पटरूप अपने विशेष रूप से सो घट पट में प्रसग प्रलग ही वृत्ति होते हैं। किन्तु अपने सामान्य रूप से पट और घट उमय में वृत्ति भी होते हैं । अतः 'घटपटयोः रूपम्' इस स्थल में रूप शब्द से प्राधान्येन रूप स.मान्य को विवक्षा करने
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६]
[ शा. पा. समुघय स्व-४ श्लोक-१३६
व्यवहाराश्रयणात्तु प्रकृतप्रयोगोऽनुपपन्न एव, रूपपदादेकरूपेणोपस्थितियोग्यस्यापि रूपस्य भिन्नाश्रयवाचकपदसमभिव्याहारेण भेदविवक्षावश्यकत्वात , उभयत्र मिलितवृत्तित्वान्वयाऽयोगात् । अत एव न तन्मते 'पश्चानां प्रदेशः' किन्तु 'पञ्चविधः एव' इति व्युत्पादितं नयरहस्ये । अत एव च 'स्थाद् घट-पटयोन रूपं, स्याद् घट पटयो रूपम्' इति वाक्यात् तात्पयज्ञस्य क्रमिकविधि-नियेधान्वयानुभवः सुघटः, भिननयजन्यान्बयोधे भिननयजन्यबोधधियोऽप्रतिबन्धकत्वात् ; प्रत्युत महावाक्यार्थयोघेऽवान्तरवाक्यार्थज्ञानस्य हेतुत्वेनाऽनुगुणत्वात् ।
पर रूप शब्द के रूपसामान्य रूप अर्थ में घट-पटोभयवृत्तित्व का अन्वय हो सकता है। किन्तु यदि धस्तु को सामान्यविशेषोभयात्मक माने तो उमा मन में बस जाना में चोभयत्तित्व का अन्वय नहीं हो सकता । क्योंकि रूप शब्द से रूपत्व धर्म द्वारा रूपति शेष ही उपस्थित होगा। कोई भी रूपविशेष घटपटोमयत्ति नहीं होता।
(घटपट उभय में वृत्ति साधारण रूप का प्रभाव) व्याख्याकार ने इस तथ्य को 'उद्भतक से 'अन्वयायोगात् वाक्यपर्यन्त से प्रतिपादित किया है। उन्हों ने घट-पट को उद्भूत एक द्वित्व द्वारा कोडोकरण होने से एकतापन्न कहा है। द्वित्व द्वारा कोडीकरण का अर्थ है द्वित्वरूप से भासित होना और एकतापन्न का अर्थ है एकप्रकारता निरूपिल विशेष्यता युक्त होना अर्थात् 'घटपटयो रूपम्' इस वाक्यजन्य बोध में द्वित्वनिष्ठ एकप्रकारता निरूपित विशेष्यता घट-पट उमय में होती है। प्रतः नित्वनिष्ठ प्रकारता निरूपित विशेष्यतापन घट पट वत्तित्व उसी में हो सकता है जो घट-पटद्वयवृत्ति हो। कोई भी रूप द्वयवृत्ति नहीं होता, प्रतः 'घट-पटयो रूपम्' इस स्थल में नैयायिकमत में प्रवयानुपपत्ति ध्रुव है । यदि यह कहा जाय कि-'घर और पट का रूप वस्तुत दो है अत: 'घट-पटयो रूपम्' इस स्थल में उन दोनों का हो मेव विवक्षित है। प्रात् रूप शब्द से घट रूप और पटरूप दोनों पार्थक्येन विवक्षित है प्रतः एककरूप में द्वित्वरूपेण भासमान घटपट में से प्रत्येक का प्रस्त्रय हो सकता है । अतः उक्त स्थल में न्यायमत में भी प्रावयानुपपत्ति नहीं हैकिन्तु यह कहना सम्मव नहीं है क्योंकि द्वित्वरूप से मासमान प्राधार का पार्थक्येन विभिन्न प्राधेय में अन्यय उसी स्थल में होता है जहां प्राधेयगत द्वित्व के निरूपक धर्मद्वय से विशिष्ट प्रर्थ के बाचकपन का सममियाहार होता हो। जैसे 'घटपटयोर्धटपटरूपे इस स्थल में द्वित्वरूप से भासमान घटपट के वत्तित्व का पार्यक्पेन प्रन्यय घटपटरूप में होता है क्योंकि यहाँ घरपटात्मक प्राधार का प्राधेय घटपट के रूप में जो द्वित्व विद्यमान है उसके निरूपक घटरूपत्व और पटरूपरव इस धर्म द्वय से विशिष्ट घटरूप पोर पट रूप के वाचक घटपटरूप शब्द का सममिव्याहार है ।
(व्यवहारनय से उक्त प्रयोग का अनौचित्य) ज्यवहारनय कामाश्रय होने पर तो 'घटपटयो रूपम्' यह प्रयोग उपपन्न नहीं हो सकता । यह भी नहीं कहा जा सकता कि- घटपटयो रूपम्' यहां रूप पब से रूपत्वात्मक एकरूपेरण उपस्थित रूप में सामान्य रूप से घट-पट उभयत्तिश्व का अन्वय हो सकता है क्योंकि भिन्नाश्रयों के वाचक पर का समभिव्याहार होने पर सामान्यरूप से उपस्थित प्रर्य में भी मेक को विषक्षा प्रावश्यक होती है।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या० का टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ २२७
यत्सु-'घट-पटयोर्न रूपम्' इति वाक्यं तात्पर्यभेदेन योग्याऽयोग्यम् , घट पटयो रूपत्वावच्छिन्नाभावान्ययतात्पर्गेऽयोग्यमेव, रूपत्वावच्छेदेन घट-पटोमयवृश्चित्वाभावान्वयतात्पर्य च योग्यमेव । 'घट-घटयो रूपम्' इत्यादौ च (द्ववृत्तित्वस्यापि रूपस्वादिसामानाधिकरण्येनाऽन्वयबोध एव साकांक्षत्वे तु एतयोघंटरूपम्' , इत्यपि स्यात्-इति परेषां वासनाविजम्भितम्, तदसत, उमयरूपसामान्यस्य प्रत्येकरूपविशेषात् कथञ्चिद् भेदानभ्युपगमे व्युत्पत्तिभ्रमात् 'घटपठयोघंटरूपम्' इति जायमानस्य बोधस्य प्रामाण्यापत्तेः, मम तु स्यादंशबाधेन तदभावात् । प्रत: जब रूपद से विभिन्न रूप विवक्षित होगा तो उमय रूप में मिलितवत्तिस्थ यानी घट पटोभयवृत्तित्व न होने से घटपटयोरूपम्' इस स्थल में अन्वयानुपपत्ति का परिहार नहीं हो सकता।
( व्यवहार नय में 'पञ्चविधः' प्रदेशःप्रयोग मान्य ) इसीलिये व्याख्याकार के अपने 'नयरहस्य' ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि व्यवहारनय के मत में 'पञ्चानां प्रदेशः' यह वाक्यप्रयोग नहीं हो सकता क्योंकि 'पञ्च पक्ष से प्रदेश के विभिन्न पाँच प्राश्रयों का बोध होता है प्रत एवं प्रवेश शब्द से भी पांच प्रवेश की विवक्षा प्रावश्यक होती है और पांचों प्रदेशों में पांचों प्रदेशीयों का सम्बन्ध नहीं होता, अत: व्यवहार नब में पञ्चामा प्रवेस: ऐसा व्यवहार न होकर 'पञ्चविधः प्रदेश: ऐसा व्यवहार होगा। इसीलिये स्वाद घटपटयोन रूपम्' और 'स्याद् घटपटयो रूपम्' इस वाक्य में प्रथम बाक्य संग्रहनय तात्पर्यक है. तथा दूसरा वाक्य व्यवहारनयतात्पर्य है, इस प्रकार तात्पर्यभेव के जान से कम से दोनों वाक्यों से विधिनिषेध का अन्वय अनुभव उपपन्न होता है । यह ध्यान रहे कि भिन्नतय से उत्पन्न होनेवाले बोध में भिन्न नय जन्य बोध प्रतिबन्धक नहीं होता। प्रतः उन दोनों वाक्यों से उत्पन्न होनेवाले बोष के परस्पर विधिनिषधविषयक होने पर भी पूर्व से उत्तर का प्रतिबन्ध न होने के कारण कम से उन दोनों के होने में कोई बाधा नहीं होती । प्रपितु उन दोनों से जो महावाक्यार्थबोध होता है उसमें प्रत्येक वाक्यजन्यबोध सहायक ही होता है क्योंकि महावाक्यार्थ बोध में प्रवान्तर वाक्यार्थज्ञान कारण होता है। उक्त वाक्य से उत्पन्न होनेवाले महावाक्यार्थ बोध का प्राकार यह होगा कि-कश्चित् घटपटोमयनिरूपित वृत्तिता बाला रूप कथंचित घटपटोभयनिरूपित वृत्तिताऽभाववाला है।
[ तात्पर्यभेद से योग्याऽयोग्यता का उपपादनप्रयास ] इस सन्दर्भ में यदि यह कहा जाय कि 'घटपटयोन रुपम्' यह वाक्य तात्पर्य मेष से अयोग्य यानी अप्रमाण और योग्य यानी प्रमाण भी होता है। जैसे घटपटोमय में रूपसामाग्याभाव के प्रन्यय में तात्पर्य होने पर यह वाक्य अयोग्य ही है। क्योंकि घट-पटोमय में किसी एक ही रूपविशेष को प्रधिकरणता न होने पर भी रूपसामान्य की अधिकरणता होती है और पसामान्य की अधिकरणता रूपत्वावच्छिन्नामावरूष सामान्यामाव का विरोधी है प्रतः पटपटप में माभित रूप सामान्यामाव के प्रत्यय में तात्पर्य होने पर 'घटपटयोन रूपम्' इस वाक्य का मप्रामाण्य कम है। तथा रूपत्वावच्छिन्न में घटपटोभयसिश्वाभाव के अन्य में तात्पर्य मानमे पर उक्त साम्य योग्य हो
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८ ]
[ शा. वा० समुचय स्त० ४ श्लो० १२३
किश्च, एवं 'द्वयोर्गुरुत्वं न गन्धः' इत्यादी का गतिः, गुरुत्वसामानाधिकरण्येनेव गन्धत्वसामानाधिकरण्येनापि पृथिवी-जलोभयत्वाश्रयवृतित्वसाम्यात् , विधिनिषेधविषयार्थाsनिरुक्तेः ? । अत्र सप्तम्याः स्वार्थान्वयितावच्छेदकस्वरूपा तत्समव्याप्यातिरिक्तव वाऽऽधेयताऽर्थः, तत्र च प्रकृत्यर्थस्य तनिष्ठनिरूपिनत्वविशेषणान्वयात् , पृथिवीजलोभयविशिष्टाधेयताखेन गुरुत्वं विधेयतया, गन्धश्च निषेध्यतया प्रतीयत इत्यक्तौ च नामान्तरेण गुरुत्वसामान्यस्यैव विधेयत्वम् , गन्धसामान्यस्यैव च निषेध्यत्वमुक्तमायुष्मता अतिरिक्ताधेयताऽनिरूपणात् ।
है-क्योंकि रूपविशेष से अतिरिक्त रूपसामान्य अप्रामाणिक है। अतः जब रूपविशेष में घटपटोभय कृत्तिस्वाभाव है तो रूपसामान्य में भी घट-पटोभयवृत्तित्वाभाव निर्वाध है।
इस के विरुद्ध यह कहना कि-'घटपटयो रूपम्' यह धाक्य रूपत्वसामानाधिकरप्येन घटपट. गतउभयत्ववत्तित्व के हो अन्वयबोध में साकांक्ष है, प्रत एव 'घटपटयोर्न रूपम्' इस वाक्य से रूपत्वावच्छेदेन घटपटोमयत्तित्वाभाव का बोध नहीं माना आ सकता। अतः उक्त बोध में तात्पर्य मान कर उक्त वाक्य को योग्य कहना असंगत है-ठीक नहीं है क्योंकि 'घटपटयो रूपम्' इस वाक्य को रूपत्वसामानाधिकरण्येन घटपदोभयरवववत्तित्व के अन्वय बोध में साकांक्ष मानने पर 'घटपटयो घटरूपम्' यह वाक्य भी प्रमाण हो जायगा, क्योंकि घटरूप में घटपटोमयत्ववटवृत्तित्व अबाधित है।
तो यह कथन व्याख्याकार के प्रनुसार बासनामात्रमूलक होने से प्रसत है क्योकि घटपट उभयानुगत रूपसामान्य में घटपट के प्रत्येक रूप का कश्चित् भेद न मानते हुये प्रत्यन्ताभव मानने पर 'घटपटयोघंटरूपम्' इस वाक्यजन्य बोध में भी प्रामाण्य की प्रापत्ति होगी। क्योंकि जब रूप सामान्य और रूपविशेष में अत्यन्ताभेद है तो रूपसामान्य में घटपट उभयत्तित्व होने से रूप सामान्य से भभिन्न घटरूप में भी घटपटोमयत्तित्व का अन्वय अबाधित है । व्याख्याकार ने 'घटपरयोघररूपम्' इस वाक्यजन्यबोध में प्रामाण्यापत्ति का मूल व्युत्पत्तिभ्रम को बताया है और व्युत्पत्तिभ्रम का अर्थ है 'रूपसामान्य में रूपविशेष का प्रत्यन्ताभेद है अतः रूप सामान्य में घटपटोमयत्तित्य होने से रूपविशेष में भी घटपटोभयत्तित्व का अन्वय निर्बाध है-ऐसा जान । यह जान इसलिये भ्रम है कि यह रूप सामान्य में रूप विशेष के बाधितात्यन्तामेव को ग्रहण करता है। व्याख्याकार ने साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जैन मत में उक्तबोध के प्रामाण्य की प्रापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उक्तबोध रूपसामान्य में रूपविशेष के कश्चित् भेद के विरोधी रूपसामान्य में रूपविशेष के प्रत्यन्तामेव पर निर्भर है। अतः स्यावंश कश्चिभेद का बाघ होने से बाधितार्थमूलक होने के कारण प्रमाण नहीं हो सकता।
[ द्वयोगुरुत्वं न गन्धः' इस के प्रामाण्य को अनुपपत्ति ] - इस सन्दर्भ में यह भी विचारणीय है कि 'घटपटयोरूपम्' यह वाक्य यदि रूपत्वसामानाधिकरज्येन घटपटोमयत्वाश्रयत्तित्व के प्रन्वय बोध में साकांक्ष माना जायगा तो 'द्वयोरुत्वं न गन्धः' इस वाक्य के प्रामाण्य का समर्थन नहीं हो सकता। क्योंकि इस वाक्य का अर्थ है कि गुरुत्व पृथिवीजल उमय में वृत्ति है और गन्ध पृथ्वोजलोभप्रवृत्ति नहीं है । इसका समर्थन इसलिये नहीं हो सकता कि 'घटपटयोरूपम्' यह वाक्य रूपत्वसामानाधिकरण्येन घटपटोभयत्वववृत्तित्व के प्रत्यय बोध में
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्या० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
i २२९
अन्यथा 'घट-पटपोर्न घटरूपम्' इत्यादौ सप्तम्यर्थान्वयितावच्छेदक घटरूपत्वादिस्वरूपाया आधेयताया वट-पटोभयनिरूपिताया अप्रसिद्धत्वेनाऽनिषेध्यत्वेऽपि 'जाति-घटयोर्न सत्ता' इत्यादाविव 'घट-पटोभयनिरूपितत्वाभाववदाधेयतावद्वरूपम्' इत्यन्ययोपपादनेऽपि 'घट-पटयोर्घट
जैसे साकांक्ष नहीं होगा उसी प्रकार 'द्वयोर्गुरुत्वं' यह वाक्य भी गुरुत्वसामानाधिकरण्येन पृथिवीजलोभरवत्तित्व के प्रन्यय बोध में साकांक्ष नहीं होगा और गुरुत्याबद्देदेन उक्त वृत्तित्व का अन्वय बोध मानते में प्रमाण नहीं हो सकेगा क्योंकि समग्रगुरुत्व में पृथिवीजलोभयवृत्तित्व नहीं है। यदि इस वाक्य के प्रामाण्य के अनुरोध से इसे गुरुत्वत्व सामानाधिकरण्येन पृथ्वीजलो भयत्वाश्रय वृत्तित्व के बोध में साकांक्ष माना जायगा तो 'द्वयोन गन्ध:' इस अंश में प्रमाण न हो सकेगा क्योंकि जसे yees के प्रश्रयमूत भिन्न भिन्न गुरुत्व में पृथ्वीजलवृत्तित्व होने से गुरुत्वत्व सामानाधिकरण्येन पृथ्वी जलोभयत्वा श्रयनिरूपितवृत्तिश्व प्रर्थात् पृथोवीजलगतोभयत्व के श्राश्रय को वृत्तित्व में गुरुत्वत्य का सामानाधिकरण्य है उसी प्रकार पृथ्वीजलोभयत्व के श्राश्रय पृथिवी में गन्ध के विद्यमान होने से के ratजलोभयत्व के प्रश्रयनिरूपितवृत्तिश्व में गन्धत्व का भी सामानाधिकरण्य है । प्रतः गुरुश्व समान गन्ध में भी पृथ्वी-जलोभयत्वाश्रय वृत्तित्व का प्रभाष बाधित है। अत एव 'द्वयोः गुरुत्वं' इस विधि के विषयभूत अर्थ का और द्वयोनं गन्धः इस निषेधविषयीभूतमर्थ का निर्वाचन निरूपण नहीं हो सकता ।
यदि यह कहा जाय कि 'योग' रुत्वं न गन्ध:' इस स्थल में द्विशब्दोत्तर सप्तमी विभक्ति का श्रर्थ प्राधेषता है और वह श्रावेपता अपने अन्दयितावच्छेदक गुरुव से अभिन्न है। प्रथवा गुरुत्वत्व से प्रतिरिक्त एवं गुरुत्वश्व की समनियत है और उस में सप्तमी विभक्ति के प्रकृतिभूत द्विशब्द से श्रभिप्रेत पृथ्वी- जलोमय रूप अर्थ का उक्तायता निष्ठ निरूपितत्व सम्बन्ध से अन्यय होता है । इस प्रकार पृथिवीजलो भयविशिष्टाधेय से गुरुत्व की विधेय रूप में और गन्ध की निषेध्यरूप में प्रतीति हो सकती है क्योंकि गुरुत्वत्वरूपापता अथवा गुरुत्वत्वसमनियताधेयता निरूपितत्वसम्बन्ध से
अलोम विशिष्ट होती है और वह गुरुत्व में विद्यमान है किन्तु गन्धरवस्वरूप अथवा गन्धश्वस्वसनियताधेयता केवल पृथ्वी से विशिष्ट होती है पृथ्वीजलोभय से विशिष्ट नहीं होती. प्रत: श्राधेयता पृथ्वी जलोमय से विशिष्ट होती है उस का गन्ध में प्रभाव है किन्तु इस कथन से मी प्रतिवादी का मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने पर शब्दान्तर से गुरुत्व सामान्य की निषेध्यता बोधित होतो है. जिस से वस्तु को सामान्यविशेषात्मकता का फलित होना अनिवार्य है, क्योंकि पुरुत्वसामान्य से अतिरिक्त गुरुत्वनिष्ठाधेयता का स्वतन्त्र निरूपण नहीं हो सकता । प्रतः प्रारूप से गुरुत्व को विधेय कहना गुरुत्वसामान्यको ही विधेय कहने में पर्यदसित होता है ।
[ प्राधेयता विधि-निषेध का विषय नहीं है ]
aft द्वयोर्गुरुत्वं न गन्ध:' इस वाक्यजन्यबोध में विभिन्न गुरुत्व व्यक्तियों से कथञ्चित् भिन्नाfreeसामान्य को विधेय और विभिन्न गन्धव्यक्ति से कथञ्चित् मिन्नाभिन्न गन्ध सामान्य को निषेध्य न मानकर पृथ्वी जलोमय विशिष्ट प्राधेयता को या तादृशाधेयत्वरूप से गुरुस्व को विधेय और गन्ध में तराता को निषेध्य माना जायगा तो 'घटपदयोर्न घटरूपम्' इस वाक्य से घटरूप में घटपटोमय विशिष्ट सप्तम्यर्थ के अन्वयितावच्छेदक स्वरूप प्राधेयता का निषेध नहीं हो सकेगा।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
[शा. बा. समुच्चय स्त. ४ श्लोक ११.
रूपपटरूपे' इत्यस्यानुपपादनात , घटरूपत्वादिस्वरूपाया आथेयताया उभयानिरूपितत्वात् । 'तत्र तद्वित्यादिस्वरूपैयाधेयते' ति चेत् ? द्वयोः प्रत्येकरूपावच्छेदेन द्वित्वाभावाद् निषेधस्यापि प्रवृत्तिः म्यात् । 'अनुयोगितावच्छेदकावच्छेदेनैव सप्तम्यर्थाधेयत्वान्वयव्युत्पत्ते यं दोष' इति चेत ? तथापि 'घट-फ्टयोर्न घटरूपा-ऽऽकाशे' इत्यादिकं कथम् ! एतद्वित्वादिस्वरूपाया आधेयताया उभयानिरूपितत्वात् , तात्पर्यवशात् द्वेधान्दयुभयस्यानार्थयस्वाभावात् ? अनुभवविरुद्धं च सर्वमेतत् कल्पनमिति न क्रिश्चिदेतत् । क्योंकि वह प्राधेयता इस स्थल में घटरूपत्वस्थप होगी प्रत: यह केवल घट से ही निमपित होगी, पट से निरूपित न होगी, अत: घटपटोभयविशिष्ट पदपादस्वस्वरूप प्राधेयता अप्रसिस होने से उस का निषेध नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-'जैसे 'जातिघटयोन ससा' इस स्थल में सप्तमी विमक्ति के समवायसम्बन्धविच्छिनायता पथ में जाति-निरूपितत्व न होने से जाति-घट विशिष्ट समवायसम्बन्धावच्छिन्नाधेयता के प्रसिद्ध होने के कारण ससा में उक्त प्राधेयता के प्रभाव का बोधन मान कर प्राधेयता में ही निरूपितत्व सम्बन्ध से जातिघटोमयाभाव का प्रन्यय मानकर 'जातिघटयोनं सत्ता' यह वाक्य 'सत्ता निरूपितत्वसम्बन्धेन जातिघटोभयाभाववती प्राधेयता की प्राश्रय है' इस अर्थ में प्रमाण होता है, उसी प्रकार 'घटपट्योन घटरूपम्' यह वाक्य मी निरूपितत्व सम्बन्ध से घटपटोमयाभाववती घटरूपत्वस्वरूपाधेयता का प्राश्रय घटरूप है' इस अर्थ में प्रमाण हो सकता है।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'घटपटयोन घटपम्' इस वाक्य के प्रामाण्य का उक्त रीति से उपपावन सम्मय होने पर भो 'घट पटयोघटरूप पटरपे' इस वाक्य के प्रामाण्य का उपपादन प्रशक्य होगा क्यों कि सप्तमी विभक्ति का अन्वयितावच्छे करूपाययता अयं मानने पर इस स्थल में सप्तमी विभक्ति का अर्थ होगा घटरूपत्व और पटरूपत्व स्वरूप प्रार्थयता और वे दोनों ही प्राघयता घटपटो. भय से निरूपित नहीं है।
यदि यह कहा जाय कि-' उक्त स्थल में सप्तमी विभक्ति के प्रर्य का प्रचयिताक घररूपत्व और पटरूपस्व नहीं है किन्तु घर-रूप पटरूपगत द्वित्य है अत: वहाँ उक्त द्वित्वस्वरूपाधेयता ही सप्तम्यर्थ है। उसमें घटपटोमयनिरूपितत्व विद्यमान है। अतः उक्तवाक्य के प्रामाध्य में कोई बाधा नहीं है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि घटपटोभयनिरूपित द्विस्वस्वरूप प्राधेयक्षा दित्वावच्छेदेन रहेगो । प्रत्येकलप-घटरूपत्व, पटरूपत्व प्रवरछेदेन घटरूप पटरूप में रहेमा । अत: उस प्रभाव के तारपर्य से 'धटपटयोन घटरूपपट रूपे' इस निषेधवाक्य के भी प्रामाग्य को प्रापति होगी।
इस के समाधान में यदि यह कहा जाय कि-"सप्तमी विमक्ति के प्रथमस प्राधेयता का प्रन्वय प्रन्योगितावच्छेदकावच्छेदे नव होता है। इतः उस के प्रमाव का भी अन्वय अनुयोगिता वच्छेदकावच्छेदेनैव होगा क्योंकि न पद से अघटितवाक्य से जैसा बोध होता है-मअपद का सममि ध्याहार होने पर भी नार्थ के सम्बन्ध से प्रतिरिक्तांश में बसा ही बोष होता है प्रतः घटपटरूप पत द्वित्वावच्छेदेन घटरूप प्रौर पटरूप में घटपटोभयनिरूपित द्वित्वस्वरूप प्राधेयता के बाधित प्रमाणका बोधक होने से 'घटपटयोन घटरूपपटरू' इस वाक्य के प्रामाण्य की धापत्ति नहीं हो सकती'-तो ऐसा कहने पर भी दोष से मुक्ति नहीं मिल सकती क्योंकि 'घटपरयोमं घटरूपाकाशे' इस वापयरे
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्या का टीका भौर हिन्दी-विवेचना ]
शबलात्मकमेव हि वस्तु कदाचिदनुगतम् , कदाचिच्च च्यावृत्तमनुभूयमानं शोभते, भेदाभेदशक्तिचित्र्यात् , आर्थन्यायेन यथाशयोपशमं ग्रहणादिति परिभावनीयम् ।
संरम्भमस्मासु वित्तत्य सत्पथातो बत्तोलसर्मियता सौगा
अनेन शोच्यां तु वशां सहायोकृतोऽपि योगो यदसौ जगाम ॥१॥ १३॥ यथाथ बोध को अनुपपत्ति होगी. क्योंकि घटरूपाकाशगत वित्वरूप प्राधेयता में घटपटोभय निरूपितत्व न होने से घटपटोभय विशिष्ठ ताइशाधेयता के प्रभाव का बोध नहीं हो सकता और घटपटोमय से अनिरूपित तादशाधेयता का भी घटरूपाकाागत द्विस्वायर छेदेन बोध नहीं हो सकता। यदि इस वाक्य का तात्पर्य नार्थ प्रभाव का द्विधा यानी दो ब.र मान मान कर घट रूप और प्राकाश इन दोनों में घटपटोभय से अनिरूपित प्रादेयता के प्रभाव का बोध माना जाय तो यह भी संभव नहीं है क्योंकि जैसे घटपटोभय से निरूपित प्राधेयता घटरूप और प्राकाश इन दोनों में नहीं है उसीत्रकार ताश प्राधेषता का प्रभाष मी उमय में नहीं है. क्योंकि घट रूप में तादृश प्राषयता विद्यमान है । अत: यह सब कल्पना अनुभव विरुद्ध होने से प्रकिचित्कर है अनावरणीय है।
किन्तु यही मानना ही उचित है कि प्रत्येक वस्तु शबलात्मक सामान्यविशेषोभयात्मक एव वस्तु कमी सामान्यरूप से प्रतुगत आकार में और कमी विशेषरूप से व्यावृत्त प्राकार में भनुभूत होती है। पयोंकि वस्तु में सामान्य विशेष का भेदाभेद होने से विशेषग्राहिका शक्ति और सामान्यग्राहिका शक्ति में वंचिश्य होने से सामान्य प्राकार से ग्रहणकाल में विशेषाकार में और विशेषाकार से ग्रहणकाल में सामान्याकार से ग्रहण का प्रतिप्रसंग नहीं हो सकता। किन्तु वस्तु के जिस अंश का जब क्षयोपशम होता है तब उस अंश में ही वस्तु का ग्रहण होता है । व्याख्याकार ने क्षयोपशम के कम से वस्तु के सामान्यविशेषादि विभिन्न अशों के प्रहण का समर्थन प्रार्थन्याय से किया है। यहां प्राथन्याय का अर्थ है भनेकार्थक पद से भिन्न भिन्न प्रर्थों का क्रम से बोध होने का न्याय । प्राराय यह है कि जैसे कोई एक पद अनेक प्रयों का बोधक होता है फिर भी वह एक अर्थों का बोधक नहीं होता किन्तु जब जिस मथं में उस का विवक्षित तात्पर्य ज्ञात होता है तब उस प्रर्थ का बोध होता है । उसो प्रकार वस्तु को अनेकान्तरूपता के मत में वस्तु के ग्राहक से भी उसके समी अंशों का एकसाथ ज्ञान न होकर क्षयोपशम के कम से, विभिन्न अंशों का क्रम से ही ज्ञान होताहै।
व्याख्याकार ने बौद्ध के साथ अब तक के सम्पूर्ण विचार के परिणाम के सम्बन्ध में एक पद्य से और प्रौर नैयायिक दोनों के प्रति व्यङात्मक खेद प्रकट किया है उस पयका प्रर्पस प्रकार है
सत्य है कि बौद्ध ने जैन विद्वानों के साथ उच्चकोटि का वखारिक संग्राम किया. बडे विस्तार से किया और पराजित हुमा । किन्तु खेव इस बात का है कि उसने अपनी सहायता के लिये जिस* नंयायिक का हस्तावसम्म किया वह बेचारा बौद्ध से भी अधिक शोचनीय अवस्था में गिर पड़ा। १३६।।
१३७वों कारिका में सौत्रान्तिक मत के निराकरण की वर्धा का उपसंहार किया गया है
* यहाँ नैयायिक का योग शब्द से ग्रहण किया गया है क्योंकि अत्यन्त प्राचीन समय में योग शब्द न्यायदर्शन के लिये प्रयुक्त होता था इसलिये 'योगं न्यायशास्त्रमध.ते इस व्युत्पत्ति से योग शब्द का प्रयोग किया गया है। न्यायशास्त्र अर्थ में योग पद के प्रयोग का सकेत न्यायसूर के वात्स्यापन भाष्य प्रथम पाहिक में प्राप्त होता है।
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२ ]
[ शा. या समुच्चय स्व० ४ श्लो० ११८
सौत्रान्तिकनिराकरणयाता उपसंहरति
सर्वमेतेन विक्षिप्तं क्षणिकत्वप्रसाधनम् ।
तथाप्यूर्व विशेषेण किश्चित्तत्रापि वक्ष्यते ॥१३७॥ एतेन-उक्तदोषजालेन सर्व क्षणिकत्वप्रसाधनं नाशहेत्वयोगादि पूर्व नाममात्रेणोक्तम् विक्षिप्त निराकृतम् , बाधकतर्कप्राबल्यात । तथाप्यूव योगाचारमतनिराकरणानन्तरं तत्रापि नाशहेत्वयोगादीनामुमयसाधारणत्वेनाभयनिराकरणानन्तरमवसरमाप्ते तनिराकरणग्रन्थेऽपि किंचित उपपादनस्थानानुरोधेन वश्यते, विशेषेण अतिस्वं तदाशयोद्भावनेन ॥१३७॥
ताथागतानां समयं समुद्र तर्कोऽयमौर्वानलवद् पदाह । पश्चन्तु नश्यन्ति जवेन भीता दीना न मीना इव किं तदेते? ॥१॥ रक्सः प्रतक्तः क्षणिकत्व सिहौ यदुक्तसूत्रं हतवान् स्वकीयम् । सूत्रान्तकोऽप्येष लिपिभ्रमेण सौत्रान्तिको लोक इति प्रसिहः ॥२॥
(सौत्रान्तिक मत का अंतिम उपसंहार) सौत्रान्तिक को प्रोर से, भावमात्र के क्षारणकत्व को सिद्ध करने के लिये 'नाश में हेतु का प्रयोग याती नाश नितुक होता है। इत्यादि जो नाममात्र की महत्त्वहीन बातें कही गयी थी उन सब का प्रबल वाधक तर्कों द्वारा पूर्व प्रदशित दोषों से निराकरण किया गया। प्रागे मी योगाचार मत के निराकरण करने के बाद नाश के निर्हेतुकत्वादि की जो बातें सौत्रान्तिक और योगाचार उभय साधारण है उस सम्बन्ध में दोनों मतों का निराकरण करने के बाद उस प्रकरण स्तिबक ६] में भी वायसर उपपादन को प्रायश्यकतानुसार प्रत्येक के प्राशय का उद्भावन कर कुछ और कहा जायगा।
सौत्रान्तिक ने भावमात्र में क्षणिकत्व का साधन करने के लिये नाश में हेतु का प्रयोग 'नाग नितुक होता है' इत्यादि युक्तियां संक्षेप से कही है, उन सब का निराकरण यद्यपि बाधक तर्कों को सहायता से पूर्वोक्त दोषों द्वारा किया गया। तो भो उनके सम्बन्ध में योगाचार मत का निरूपण करने के बाद एवं नाश निहतुक होता है इत्यादि उभय साधारण मतों का निराकरण करने के पश्चात पुन: उन हेतुनों के विशेष रूप से निराकरण का अवसर प्राप्त होने पर उनके उपपावन के प्रसंग से कुछ विशेष बात कही जायगो। और उन प्रत्येक के सम्बन्ध में बौद्ध के अभिप्राय का उद्भाधन किया जायगा ॥१३७॥ .
व्याख्याकार ने अपने तीन पद्यों द्वारा इस स्तबक के.. पूरे विचार का परिणाम अत्यन्त सुदर ढंग से प्रस्तुत किया है । उन का कहना है-बौद्धों का सिद्धान्त एक विस्तृत समृन जैसा है और जैन मत की प्रौर से प्रस्तुत किये गये तर्क समूह रूप वडवानल जब उसे दग्ध करने लगता है तो समुदानित मोन के समान उस सिद्धान्त के प्राश्रित बेचारे बौद्ध भी त्रस्त होकर वेग से इधर उधर पलायन करने लगते है , उन के उस पलायन का दृश्य कुछ दर्शनीय होता है ।।१।।
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ २३५
क्षणक्षयक्षेपकरी सकाः कर्णामतं वाचमिमा निपीय ।
जैनेश्वरं सिलिकृते प्रवाविप्रशासन शासनमाश्रयन्तु ॥३॥ इति पपिद्धतश्रीपञ्चविजयसोवरन्यायविशारदपण्डितयशोविजयविरचितायां स्याबावकल्पलाताभिधानायां शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकायां चतुर्थः स्तषकः। ___ अभिप्रायः सूरेरिह हि गहनो दर्शनततिनिरस्या दुर्धर्षा निजमतसमाधानविधिना । तथाप्यन्तः श्रीमन्मयविजयविज्ञाहिमजने, न भग्ना घेद् भयितन नियतमसाध्यं किमपि मे ॥१॥ यस्यासन गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशया भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः। प्रेम्णां यस्य च सम पविजयो जातः सुधीः सोदरः, तेन न्यायविशारदेन रचिते ग्रन्थे मति
दीयताम् ॥शा सौत्रान्तिक ने रागवश भावमात्र के क्षणिकस्व साधन में प्रसक्त होकर जो अपने उक्त सिद्धान्त सूत्र 'कप्पठिमा पुहई' को हिमा कर दी यानी उस के वास्तवार्थका परित्याग कर दिया उस के कारण वस्तुतः वह सूत्रान्तक है। किन्तु सूत्रान्तक शब्द लिपि लेखक की मूल होने से लोक में सौत्रान्तिक नाम से प्रसिद्ध हो गया । वस्तुत: इस प्रकार सूत्रान्तकही लिपिभ्रम से सौत्रान्तिक हो गया। क्योंकि सौत्रान्तिक शब्द का वास्तव प्रर्थ सूत्रों के यथाधुत प्रर्थ को सिद्धान्तरूप में प्रभ्युपगम करने वाला होता है जो उक्त सूत्रार्थ का त्याग कर देने से सौत्रान्तिक नाम से प्रसिद्ध बौद्ध में संगत नहीं है ।।२॥
व्याख्याकार ने तीसरे पद्य में मनुष्य को 'सकर्ण' शब्द से सम्बोधित करते हुये यह संकेत दिया है कि जिसे करर्ण है उसे कर्ण के लिये प्रमृत के समान सुख देने वाली उस जन वाणी का प्रावर पूर्वक श्रवण करना चाहिये जिस से भावमात्र के क्षणिकत्व पक्ष का निराकरण होता है और सिद्धि जीवन का सर्वोत्तमलक्ष्य प्राप्त करने के लिये जिनेश्वर के उस शासन का प्राश्रय लेना चाहिये जिस में प्रकृष्ट बादपद्धति से प्रामाणिक तत्वों का वर्णन प्राप्य है ॥३॥
अभिप्रायः सूरेः .........इत्यादि पद्यों का विवरण प्रथम स्तबक में प्रा गया है । पंडित श्रीपनबिजय के सहोदर न्यायविशारद पंडित भी यशोविजय विचित स्याद्वादकल्पलतानामक शास्त्रयातासमुच्चयग्रन्थ को टोका का हिन्दी वितरण समाप्त ।
चौथा-स्तबक-सम्पूर्ण
® সুিিহঙ্গা पृ/पं अशुद्ध शुद्ध प.प. अशुद्ध शुद्ध
पृ/पं. अशुद्ध शुद्ध ५/१ क्षणिक क्षणिक
३२/२ स्वभावापि स्वभावोऽपि (२७ बक्ष, वृक्षः, ११/५ सभवात् सम्भवात /११ तम्मात् तस्मात्
४३/२२ होकार हो कर १७/२६ दष्ट्रिगत दृष्टिगत
११६ ईयत्वा झेयत्व
४५/४ च्छदेक च्छेदक १८/२५ उह उन । ३५/१८ दान में दन में २१/८ प्याप्यत्वा-व्याप्यरवा- ३६/१७ संस्कार, संस्कार:,
/२३ प्रतियोगगि प्रतियोगि २३/३२ लिने लिये ३७/३ पूवमिदं पूर्वमिदं
५१/२३ श्रयत्ववान् श्रयत्वा२४/२ सगते संगतेः १२ कसष्टि कुष्टि
भाववान् २८/६ तन्निवृत्ते तन्निवृत्तः ४०.१६ होती की होती कि ५२/२३ नयायिक नैयायिक
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________ प्रशुद्ध स्थानन्तरम् स्थान्तरम् दिशेषण विशेषण का का बुद्धय, पानि भेदानुग क फलानु नतदेवम् तिकमः शुद्धिशिका पृष्ठ/पंक्ति अशुद्ध / शुद्ध १०/पं. गर-मनने पा, मनालेघट 107/26 को बाहर ले जाने 116/12 पर मी.भवने | 120/1 53 सूचना-हिन्दी में जो (जाति में -) | 120/27 यह शिर्षक है वह द्वितीय पेरेग्राफ का | 26 समझना, प्रथम का नहीं 136/ 53/21-22 वृत्तितास्वा वृत्तितात्वाब 54/8 में ही रहता है का अभाव | 16 सत्ता में नहीं / 144/8 रहता है / 148/2 प्रवृत्ति घद / 146/6 56/2 गले हीतो जाति न स्तः' जातीन स्तः 152/6 बद्धि बुद्धि ज्ञान-साध्य ज्ञानसाध्य जन जन 154/30 एवं भूत मद्रया मुद्रौव घटभाव घटाभाव 164/17 भावेयत्रा भाव भावे यत्राऽभाव 168/20 सावधान नैयायिक को | 171/24 सावधान 174/11 नामास्ति मान्नास्ति 174/7 प्रतिप्रन्थि प्रतिपन्थि 83/8-11 भूतल ज्ञान भूतन्त्रज्ञान ज्ञान सामान्य ज्ञानसामान्य 174/12 84/10 'पारोप 'प्रारोप्य 86/18 का रूप कार्य रूप 178/4 63/3 तसत्त्व तत्सत्त्व 182/14 तत्कारगा तत्कारणं 64/3 अनन्तर अनन्तरं 185/1 नन्तर नन्तरं 10012 अप्यक्त अप्यक्त 104/24 कार्य कि कार्य की सत्ता में सत् में बवैशिष्ट स्वत्र शिष्ट्य निर्वाच निगेचन वद्धयादि बुद्धयादि कृत:? कुतः? समवित सम्भबित विकल्यों विकल्पों यु बुद्धच भेदानुमचक्षरादयः कार्मफलानु नैतदेवम् तिक्रम इस 'सोऽन्वयः' इस जनम जनन न्याय्य न्याय्य यह कि यह है कि अनिवाय अनिवार्य एक ही की एक ही वस्तु को गुरग और गुरण कारण होता है। फलतः योग्यविभुविशेष गुण और विभु सामान्य सामान्यतः घम धम याच्यम् वाच्यम् प्रमाण भाव प्रमाणाभाव प्रबमास अवभास ते नैवेदा तेनैवेदा पश्यती पश्यती होंने से न होने से अब मानस्य- मान - IM तब