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[ शा वा समुरचय स्त०४-श्लोक "
तथा दृष्टकौतुकेऽर्थे उद्वेगा=सिद्धत्वज्ञानकृतेच्छाविच्छेदरूपः असंगतः स्यात् , क्षणिकतन्यक्त्यन्तरदर्शनस्याऽसिद्धत्वात् । तथा, प्रवृत्तिरपि तद्वयक्तित्रिषयिणी असंगता स्यात्, ज्ञाताया व्यक्तेर्नष्टत्वात् , अज्ञातायां चाऽप्रवृत्तेः । तथा, प्राप्तिरेव च इच्छाविषयव्यक्तः, असंगता, अस्याः प्रागेच नाशात् ॥३॥
मूलम्-स्वकृतस्योपभोगम्तु रोत्सारित एच हि।
शीलानुष्ठानहेतुर्यः स नश्यति तदैव यत् ॥७॥
मान नहीं हो सकता । श्रतः विद्यमानस्वरूप से सत्ता का ग्राहक होने के कारण उसे भ्रम नहीं कहा जा सकता।
(उद्वेग, प्रवृत्ति एवं प्राप्ति को क्षणभंग पक्ष में अनुपपत्ति) __ भाव को करिणक मानने पर उसमें उद्वेग, प्रवृत्ति और उसकी प्राप्ति भी संगत नहीं हो सकती। जैसे उद्वेग का अर्थ है 'सिद्धत्वज्ञानमूलकइच्छाविच्छेद। इसका प्राशय यह है कि मनुष्य को जिस वस्तु में सिद्धत्व का ज्ञान होता है उस वस्तु की उसे इच्छा नहीं होती। इसप्रकार किसी वस्तु को इच्छा न होना ही उस वस्तु के विषय में उद्वेग है । यह उच्थेग स्थायी वस्तु में हो सकता है क्योंकि उसी वस्तु में पहले सिद्धत्व का ज्ञान और वाव में इच्छा क विच्छेद संभव हो सकता है किन्तु जो वस्तु क्षणिक होगी उसमें पहले और बाद में उस शब्द का प्रयोग हो नहीं हो सकता क्योंकि वह क्षणिक होने के नाते सिद्धत्वज्ञानकाल और इच्छाविच्छेवकाल में नहीं रह सकती । फलतः जिस क्षणिक व्यक्ति में इच्छाविच्छेद होगा उसमें सिद्धत्व का ज्ञान नहीं होगा और जिस व्यक्ति में सिद्धत्व का ज्ञान होगा उसमें इच्छा का विच्छेय नहीं होगा।
(क्षणिकत्व पक्ष में प्रवृत्ति का उच्छेद) इसीप्रकार भावों को क्षणिक मानने पर प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती क्योंकि प्रवृत्ति उसी विषय में होती है जो स्वस्पेण और इष्टसाधनत्वेन ज्ञात होती है । भाव को क्षणिक मानने पर ज्ञात व्यक्ति प्रयत्तिकाल में नहीं रहेगी प्रत एवं उस विषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती और उस व्यक्ति के अस्तित्वकाल में उसमें प्रवत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उसके पूर्व यह अज्ञात रहती है और प्रवृत्ति प्रज्ञात में कभी नहीं होती। __ माध को क्षणिक मानने पर उसकी प्राप्ति भी नहीं हो सकती क्योंकि प्राप्ति उसी वस्तु को होती है जिसको पहले इच्छा होती है। भाथ के क्षणिकत्व पक्ष में इच्छा के विषयभूत व्यक्ति का प्राप्तिकाल में अस्तित्व ही नहीं होता क्योंकि यह पहले ही नष्ट हो चुकी होती है। अत: क्षणिक भाव की प्राप्ति असंभव है । कारिका में इष्टकौतुके अर्धे शब्द से भाव के उद्धग, उस में प्रवृत्ति और उसकी प्राप्ति के असंगत होने मे दृष्टकौतुकत्व को हेतु कहा गया है। इस दृष्टकोसुकत्व का स्वीकृत क्षरिणकत्व अर्थ होने से यह तथ्य ज्ञात होता है कि अर्थ यानी भाव को क्षणिक स्वीकार करने पर उद्वेग प्रादि की असंगति होगी ।।६।।