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[ १७
स्या० क० टीका - हिन्दीविवेचना ]
स्वकृतस्य = शुभादेः, उपभोगः - विपाकानुभवः दूगेत्सारित एव हि निश्चितम् प्रवृत्ते मादिना कथञ्चिदुपपतावपि स्वकृतोपभोगोपपादने न कोऽप्युपाय इति भावः । कुतः ? इत्याह-यत् = यस्मात् कारणात् यः शीलानुष्टानहेतुः क्षणः स तदैव नश्यति निरन्षनाशभाग् भवति ||७||
पर आहु:
मूलम् - संतानापेक्षयास्मार्क, व्यवहारोऽग्विलो मतः ।
स बैंक एव तस्मिंश्च सति कस्मान्न युज्यते ||८||
( क्षणभंगपक्ष में भोग की अनुपपत्ति)
पूर्व कारिका में भोग्यभाव की क्षणिकता से प्रत्यभिज्ञा और उद्वेगादि की प्रसंगति बताई गई है और प्रस्तुत सातवीं कारिका में भोक्ता को क्षणिकता से भोग को अनुपपत्ति बतायी गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
मामा के क्षत्व पक्ष में भोक्ता को अपने शुभाशुभ कर्म का फलभोग न हो सकेगा । पूर्वकारिका में जो प्रत्यभिज्ञा प्रादि को प्रनुपपत्ति बतायी गई हैं उसका परिहार तो भ्रम प्रावि द्वारा किसी प्रकार हो सकता है । जैसे सभी प्रत्यभिज्ञा को 'संवेयम् गुर्जरी' इस प्रत्यभिज्ञा के समान पूर्वोत्तर भायों में सादृश्य या भेदाज्ञानमूलक भ्रम मान लिया जाय। एवं उद्वेग की उपपत्ति जिस भाव में इच्छा का विच्छेद होता है उसमें सिद्धव का भ्रम मान कर की जाय, एवं जिस विषय में प्रवृत्ति होती है- पूर्ववर्ती ज्ञान को उस विषय का ग्राहक मान लिया जाय एवं जिस विषय की प्राप्ति होती है उस विषय को इष्यमाण मान लिया जाय। किन्तु भोक्ता के क्षणिक होने पर पूर्वोक्स कर्मों के फल भोग को उपपन्न करने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि शील ग्रादि के अनुष्ठान का कर्ता क्षण अपनी उत्पति के उत्तरक्षण में ही इसप्रकार पूर्वरूप से नष्ट हो जाता है कि श्रागे उसका किसी प्रकार का अन्वय-सम्बन्ध अथवा अस्तित्व नहीं रहता । इसलिये भावमात्र को कणिक मानने पर यह श्रापति अनिवार्य होगी कि जो व्यक्ति शुभ अशुभ कर्म करता है- फलभोग काल में उसका अस्तित्व न होने से उसे उसके कर्म का भोग नहीं होता और जिसे फलभोग होता है वह पूर्व में न होने से उन कर्मों का कर्ता नहीं होता, उसे कर्म किये बिना ही फलभोग होता है । इस स्थिति को स्वीकार भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि ऐसा होने पर कोई भी व्यक्ति कोई कर्म ( शुभ शीलानुष्ठान) करना न चाहेगा, जिससे लोक व्यवहार का लोप हो जायगा ॥७॥
( हेतु हेतुमद्भाव के सन्तान - सामग्री पक्षद्वय )
आठवी कारिका में
बौद्धों के पक्ष से पूर्वोक्त दोषों का परिहार प्रस्तुत किया गया है। परिहार को हृदयङ्गम करने के लिये हेतु हेतुमद्भाव के सम्बन्ध में बौद्धों के इस मन्तव्य को दृष्टिगत रखना श्रावश्यक है कि उनके मत में हेतु हेतुमद्भाव के दो पक्ष होते हैं। एक सन्तान पक्ष और दूसरा सामग्री पक्ष । जंसे कोई बीज उत्पन्न होता है तब उसके माध्यम से जब तक प्रकुर की उत्पत्ति नहीं होती इतनी अवधि में बीज का एक सन्तान चलता है जिसके अन्तर्गत बीजक्षणों में पूर्व बीजक्षण उसर बोजक्षण का अकेले कारण होता है। इस उत्पत्ति क्रम में सामग्री की अपेक्षा नहीं होती ।