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स्या का टीका-हिन्दीविवेचना ]
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कुर्वद्रूपत्व सिद्धावुपस्थितवाहित्यादिकं विहाय वहन्यादेविंजातीयविवादिना हेतुत्यवद् विजातीयधृमत्वादिना धृमादेः कार्यत्वमभावनयोपस्थितधमत्वावच्छेदन कार्यस्वाऽग्रहात , तदनुकूलतर्काभावेन व्याप्तेग्ग्रहात , प्रमिद्धानुमानस्याप्युकछेदेन क्षणिकत्वानुमानस्यैवाऽनवताराच्च । 'घटे रूपादेरियोक्तप्रत्यभिज्ञायां पूर्वताया वर्तमान माना समबनिस्पनि नाच्या सानिहित एवं विशेषणे विद्यमानतायाः संपादिना भानादिति दिक |
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अनुमान को अपेक्षा बलवतो है और अनुमान उस की अपेक्षा दुर्बल है। इसलिए प्रत्यभिज्ञा से ही इस क्षणिकत्व के अनुमान का बाध न्यायप्राप्त है ।
और मुख्य बात यह है कि समस्त मात्रों को क्षणिक मानने पर घूम से मह्नि के प्रसिद्ध अनुमान का ही भंग हो जाता है, इसलिए क्षणिकत्व के अनुमान की प्राशा ही नहीं की जा सकती। क्योंकि जब धूम में वह्नि का व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता तब सत्व में क्षणिकत्व के व्याप्तिज्ञान की प्राशा कैसे हो सकेगी? कहने का प्राशय यह है कि बौद्ध मत में सत्ता प्रक्रियाकारित्वरूप है। अर्थक्रियाकारित्व का अर्थ है कार्योत्पादकत्व और कार्योत्पादकत्व कम अथवा म किसी भी प्रकार स्थायी भाव में नहीं हो सकता, किन्तु तत्तत् कार्य की उत्पादकता तत्सत्कार्यानुकूल कुर्वन पत्व विशिष्ट में ही होती है । तत्तत्कार्यानुफुल कुर्वत पत्व स्थायीभाषपदाथ में नहीं होता । इस के अनुसार यहि धूम के प्रति वह्नित्वरूप से कारण न होकर धूमकुर्वत पत्वविशिष्ट वह्निरवरूप से ही कारण होता है । इसो प्रकार यह भी संभावना हो सकती है कि धूम धमत्वरूप से वह्नि का काय भी नहीं है किन्तु धूम जिस कार्य का कारण होता है तत्तत्कार्य कुर्वद्र पत्व धूम में भी रहेगा इसलिए उसी रूप से घूम बलि का कार्य होगा फलत: धूमत्व और वह्नित्व रूप से धूम और वह्नि में कार्य कारण भाव न हो सकने से धूमत्व रूप से धूम में वह्नित्वरूप से बलि का व्याप्तिज्ञान न हो सकेगा। इसलिए धूम से वह्नि का अनुमान असंभव होगा। तो जसे धूम और वह्नि में लत्तत् कार्य कुर्वत पत्व रूप से कार्यकारणभाव की सिद्धि न होने के कारण अनुकूल तर्क के अभाव में धूम में वह्निध्याप्ति का ज्ञान नहीं होता-उसी प्रकार सहकारी कारणों के समवधान से स्थायी भाव में भी प्रक्रियाकारित्व की संभावना से 'जो जो अर्थक्रियाकारी होता है वह क्षणिक होता है इस व्याप्ति का ज्ञान भी नहीं हो सकता प्रतः प्रक्रियाकारित्व से क्षणिकत्व का अनुमान असंभव है।
(प्रत्यभिज्ञा को भ्रमात्मकता का निराकरण) यदि यह कहा जाय कि घद के प्रत्यक्षात्मक ज्ञान में घटगत रूपादि का जैसे वर्तमानस्वरूप से भान होता है उसीप्रकार 'सोऽयं घट:' इस प्रत्यभिज्ञा में पूर्वकालसम्बन्धित्वरूप से ही मान होता है। प्रसः प्रवर्तमान सत्ता का वर्तमानस्य रूप से ग्राहक होने के कारण उक्त प्रत्यभिज्ञा भ्रम है-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो विषय संनिहित होता है उसी में इन्द्रिय से युक्त संसर्ग से विधमानता का भान होता है। घटप्रत्यक्षकाल में उसमें घटगत रूप प्रादि संनिहित रहता है इसलिए उसमें इन्द्रियसंयुक्त घट का संसर्ग होने से विद्यमानता का भान होता है किन्तु तत्ता उक्त प्रत्यभिज्ञा काल मैं संनिहित नहीं रहती है प्रत एवं उसमें इन्द्रियसंयुक्तत्व संसर्ग न होने के कारण विद्यमानता का