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[ सा. वा. ममुन्चय स्त० ४-श्लो०६
नघक्षणिकत्वानुमानेनाऽस्या बाध इति शङ्कनोगम् , निश्चितप्रामाण्यकत्वेनाऽनयैव तद्बाधात् ,
[प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य में विरोध को प्राशंका ] यदि यह कहा जाय कि-'प्रत्यभिज्ञा को भाव के क्षणिकत्व में बाधक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षात्मक ज्ञान है अत: उस में इदन्ताय शिष्ट में तत्ताविशिष्ट अभेद का भान नहीं हो सकता क्योंकि तत्ताविशिष्ट के प्रभेद का भान होने के लिए तत्ता का भो भान अपेक्षित है और तत्ता पूर्वकालसम्बन्धिता रूप है। अत: प्रत्यभिज्ञा के समय उस के संनिहित न होने से प्रत्यभिज्ञा में उसका भान असंभव है, क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान में संनिहित वस्तु के हो भान होने का नियम है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कम से उत्पन्न होनेवाली सौ वस्तुओं में जब शतत्व संख्या का प्रत्यक्षा होता है उस समय केवल अन्तिम वस्तही सन्निहित होती है पूर्ववस्त संनिहित नहीं होता है, फिर भी शतत्व के प्रत्यक्ष में उस समय शतत्व के प्राधार रूप पूर्व वस्तुत्रों का ही भान होता है। तो उन्न वस्तुनों का मान जैसे उन वस्तुओं के पूर्ष अनुभवाधीन संस्कार द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान में होता है उसी प्रकार पूर्वकालसम्बन्धिता-तत्ता का भी पूर्वानुभवाधीन संस्कार द्वारा प्रत्यभिज्ञात्मक प्रत्यक्ष में भान हो सकता है।
[भनेविसमा में विली प्रत्यापत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'वर्तमानस्वरूप इदन्ता और अवर्तमानत्वरूप तत्ता में नील और पोत के समान परस्पर में विरोध है अतः एक वस्तु में उन विरुद्ध धर्मों का ग्राहक होने से प्रत्यभिज्ञा भ्रम है । और वह पूर्वदृष्ट वस्तु के सहश वस्तु के निधान रूप दोष से उत्पन्न होता है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वर्तमानत्व और प्रवर्तमानत्व वर्तमानकालसम्बन्ध और प्रवर्तमानकालसम्बाधरूप है । और एक वस्तु में अनेककाल का सम्बन्ध होने में विरोध नहीं है । और यदि एक वस्तु में अनेककाल का सम्बन्ध विरुद्ध माना जायगा और उस से वस्तु में भेद की कल्पना की जायगी तो "वदं नोलं स्थलाकारम् - यह वस्तु नील और स्थल है" इस प्रकार के ज्ञान में जो वस्तु का अनेक दिकसम्बन्धहप प्रकार भासित होता है वह भी विरुद्ध होगा और उस से श्वस्त में प्रवयवमेव से मेद की प्रसक्ति होगी और उसी प्रकार अवयवों में भी छ दिशाओं के विरुद्ध सम्बन्धों द्वारा भेद की प्रापत्ति होगी । प्रतः अनवस्थित भेद की कल्पना प्रसक्त होगी इसलिए जसे एक वस्तु में अनेक दिशाओं का सम्बन्ध होने पर भी उस वस्तु में भेद नहीं होता उसी प्रकार अनेक काल सम्बन्ध से भी वस्तु में भेद सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए इदं और तत् में ऐक्य सभव होने के कारण 'सोऽयं इस प्रत्यभिज्ञा को भ्रम नहीं कहा जा सकता, और जब प्रत्यभिज्ञा भ्रम नहीं है तब इस के द्वारा पूर्वोसर भावों में प्रभेद की सिद्धि होने के कारण भावों में क्षणिकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती।
[क्षरिणकत्व अनुमान प्रत्यभिज्ञा का बाधक नहीं ] यदि यह कहा जाय कि 'सर्व क्षणिक सत्यात्-सत यानी अर्थक्रियाकारी होने से समस्त भाव क्षणिक है' इस अनुमान से उक्त प्रत्यभिज्ञा का घाध हो आयगा तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यभिशा में प्रामाण्य निश्चित है और क्षणिकत्वानुमान में प्रामाण्य निश्चित नहीं है, इसलिये प्रत्यभिज्ञा