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स्या का टीका और हिन्दी विवेचना ]
'सोऽयमन्तेवासी' - 'सोऽयं गुरुः' इति प्रत्यभिज्ञापि अणिकत्वपक्षेऽसंगता, तत्ताविशिष्टाउभेदस्येदंना विशिष्टेऽनुपपत्तेः।
न च प्रत्यभिन्ना न प्रमाणम् , 'संवेयं गूर्जरी' इत्यादी विषयबाधदर्शनादिति वाच्यम्। एवं मति हेत्वाभासादिदर्शनात सहनुमानादीनामप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात । न चाध्यक्ष पूर्वकालसंबधिताया अमंनिहितत्वात पगमानुपपत्तिः, अन्त्यसंख्येयग्रहणकाले 'शतम्' इति प्रतीते क्रमगृहीतसंख्येयाध्यवसायतत्संस्कारवशादुपपत्तेः । न च नीलपीतयोरिव वर्तमाना-ऽवर्तमानत्वयोविरुद्धत्वादेकत्र तत्परिच्छेदरूपत्वादयं भ्रमः, अत एव तस्य तादृशापरापरविषयसंनिधानदोषजन्यस्वमिति वाच्यम् , एकत्र नानाकालसंबन्धम्याऽविरुदत्वात् । अन्यथा नीलसंवेदनस्यापि स्थूराकारावभासिनो विरुददिकमंबन्धात् प्रतिपरमाणु भेदप्रसक्तैस्तदवयवानामपि पट्कयोगाद् मेदापत्तितोऽनवस्थाप्रसक्तेः।
[ 'सोऽयं' प्रत्यभिज्ञा क्षरिणकत्वपक्ष में बाधक ] कारिका-६-लोक में इस प्रकार का व्यवहार देखा जाता है कि 'यह बही अन्तेवासी है-और 'यह वही गुरु हैं । व्यवहार व्यवहर्तव्य के ज्ञान से होता है । इस व्यवहार के अनुरोध से इस प्रकार का ज्ञान भी सिद्ध होता है । यह ज्ञान पूर्वष्ट अन्तेवासी और गुरु में कम से वर्तमान में दृश्यमान अन्तेवासी और गुरु के अभेद को विषय करता है, इस ज्ञान को प्रत्यभिज्ञा कहा जाता है।
यह प्रत्यभिज्ञा भावमात्र को क्षणिक मानने पर नहीं उपपन्न हो सकती क्योंकि इस के लिए इवताविशिष्ट में अर्थात् दृश्यमान वस्तु में तप्ताविशिष्ट का अर्थात् पूर्वदृष्ट का अभेव अपेक्षित है और वह क्षणिकश्व पक्ष में पूर्वदष्ट और दृश्यमान में भेद होने के कारण प्रसंभव है, अत: विषय के असत् होने से यह प्रत्यभिज्ञा उपपन्न नहीं हो सकती।
[प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य की उपपत्ति । इस प्रसङ्ग में बौद्ध की ओर से यह बात कही जाती है कि प्रत्यभिज्ञा प्रमाण मूतज्ञान नहीं, यथार्थ ज्ञान नहीं है । प्रत एव इस के लिए विषय को वास्तविकता अपेक्षित नहीं है, वास्तविक विषय यथार्थ ज्ञान के लिए अपेक्षित होता है। और यथार्थ ज्ञान विषय का बाध होने पर भी होता है, जैसे किसी सम्मुख प्रायी हुमो नई गुर्जरी में पूर्वदृष्ट गुर्जरी का ऐक्य न होने पर भी उस के अतिशय सादृश्य के कारण 'यह वही पूर्वदृष्ट गुर्जरी है-संवेयम् गुर्जरी' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा होती है। अतः मावमात्र को क्षणिक मानने पर भी प्रत्यभिज्ञा को अनुपपत्ति नहीं हो सकती-किन्तु यह बात ठीक नहीं है क्योंकि किसी एक प्रत्यभिज्ञा के अयथार्थ होने से सभी प्रत्यभिज्ञा को अयथार्थ मानना उचित नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रसद्हेतुमूलक अनुमानों के प्रप्रमाण होने से उसी दृष्टांत से सद् हेतुमूलक अनुमान पावि में भो अप्रामाण्य की अपत्ति होगी । जब सभी अनुमान अप्रमाण हो जायगा तो भावमात्र में क्षणिकत्व सिद्ध करने की कामना भी सफल न हो सकेगी, क्योंकि भावमात्र में क्षणिकरव को सिद्धि अनुमान से हो की जाती है और जब अनुमान अप्रमाण हो जायगा तो उस से उक्तसिद्धि कैसे हो सकेगी?