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स्या का टीका और हिन्दी विवेचना ]
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ऽपि भेदनिबन्धनधर्म-धर्मिभावव्यवहारानङ्गत्वादिति चेत् ! सर्वथा तदमावतः धर्म-धर्मिभावाभावात् हेतु फलभावो न स्यात् , कारणत्वस्यानन्तर्यघटितत्वात् , तस्य च नाशघटितत्वादिति भावः । ५०|| पराभिप्रायमाह
मुलं-न धर्मी कल्पितो धर्मधर्मभाषस्तु कल्पितः ।
पूर्वो हेतुर्निरंशः स उत्तरः फलमुच्यते ॥५१॥ पारमादिः, न करिपा, स्याध्यक्षावसितत्वात् । धर्म-धर्मिभावस्तु कल्पितः, परापेक्षग्रहत्त्वेन सविकल्पकैकवेधत्वात् । तत्र पूर्वो वस्तुक्षणो निरंशः धर्मान्तराघटितः हेतुः, उत्तरश्च तादृशो वस्तुक्षणः फलमुच्यते । तत्र काल्पनिक कारणत्वं कार्यत्वं च मा भृत, पास्तवं तु धर्मिस्वरूपमन्याऽघटितं भवत्येच, इति भावः ॥५१|| अत्रोत्तरमाह
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इस प्रकार का ओ ध्यवहार होता है उस व्यवहार का विषय वस्तुतः कल्पित है। क्योंकि, नाश बौद्ध मत में पारमार्थिक न हो कर सांवृत-वासनाकल्पित है। जो स्वयं कल्पित है वह किसी का वास्तव धर्म कैसे हो सकता है ? उत्पाद कार्यरूप होने से कार्य के समान ही यद्यपि असांवृत सत्य है फिर भी यह कार्य का धर्म हो कर कायमुत्पत्तिधर्मक' इस धर्मि-धर्ममाव के व्यवहार का उपपादक नहीं हो सकता। क्योंकि, धर्म-धमिभाव का व्यवहार अत्यन्त अभिन्न पदार्थो में न होने के कारण भेदमूलक होता है और बौद्ध को कार्य एवं उसकी उत्पत्ति में भेद अभिमत नहीं है ।
[ कल्पित धर्म-मि भाव से कारणत्व की अनुपपत्ति-उत्तरपक्ष ] इस परिहार के प्रतिकार में जैन का कहना यह है कि कारण और नाश एवं कार्य और उसका उत्पाद इन दोनों में धर्म-धर्म भाव का एकान्त रूपसे सर्वथा परित्याग कर देने पर कार्य-कारण भाव की उपपत्ति न हो सकेगी। क्योंकि कारणता प्रानन्तयं घटित है और प्रानन्तयं नाशघटित है ।
मे. कारणात्य का अर्थ है तत्कायंसमानकालोत्पत्तिक नाशधर्मकत्वे सति तत्कार्यपर्ववत्तित्व। इसी प्रकार तत्कार्यत्व भी तन्नाश समानकालिक उत्पत्ति धर्मकस्व रूप है। यदि नाश कारण का धर्म न होगा तो उसमें उक्त कारणत्व, और उत्पत्ति कार्य का धर्म न होगा तो उसमें उक्त कार्यत्व न होने से कार्य-कारण भाव नहीं हो सकेमा ॥१०॥
[ धर्मों अकल्पित, धर्म-धर्म भाव कल्पित-बौद्ध ] ५१ वी कारिका में उक्त दोष का बौद्ध सम्मत परिहार बताया गया है। कारिका का अर्थ -
बौद्ध का यह कहना है कि उसके मतमें कारण-कार्य प्रादि धर्मो कल्पित नहीं है। क्योंकि, वह स्वलक्षण-सत्य वस्तु को ग्रहण करनेवाले निविकल्पक प्रत्यक्ष से सिद्ध है। कल्पित केवल धर्मधामभाव है . क्योंकि, वह अन्य सापेक्ष ज्ञान का विषय होने से एक मात्र विकल्पक ज्ञान से ही वेद्य है । इसलिये पूर्वभाव अन्यधर्म से प्रघटित होकर के हो कारण होता है और उत्तरमाय भी अन्यधर्मसे अघटित होकर ही कार्य होता है । कारणता और कार्यता अवश्य नाश घटित प्रानन्तयं एवं उत्पत्तिघटित प्रानन्तयं रूप होता है। इसलिये यह वास्तव न हो कर काल्पनिक है और काल्पनिक की उत्पत्ति यदि नहीं