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[शा. वा. समुच्चय स्तः ४-श्लो०३८
भेदेऽभ्युपगम्यमाने तयोः हेतु-फलयोः, नाशोत्पादौ कुतः, संबन्धाभावात् , नाशस्य निर्हेतु कन्याभ्यापगमेनोपादस्य चोदापानाजन्यन्वेन तदुत्पत्तिसंवन्धस्याप्यभावात् अभेदे त्वभ्युपगम्यमाने, तयोः कार्य-कारणयोः, वैननिश्चितम् , तुल्यकालता, हेतुनाश-फलोत्पादयोरभिन्नकालत्वात् ॥४८॥ ततः किमित्याह--
मृलं-न हेतु-फलभावश्च तस्यां सत्यां हि युज्यते ।
तनिषन्धनभावस्य योरपि वियोगतः ॥४९।। नस्यां च-कार्य-कारण योग्तुल्यकालतायां च सत्या. हि निश्चितम् , हेतु-फलभावो न घुज्यते । कुतः १ इत्याह सन्निधन्धनभावस्य-कार्यकारणभावनियामकतद्भावभाविवादिसद्भावस्य द्वयोरपि तयोरभिम्नकालयोनिरूपकयोः वियोगता अभावात् ।।४९।। पराभिप्रायमाशय परिहामाहमुलं- कल्पितश्चेदयं धर्म-धर्मिभाषो हि भावतः ।
न हेतुफलभाषः स्यान्सर्वथा तदभाषतः ॥५०॥ अयं-'कारणं धर्मि, नाशो धर्मः, कार्य धर्मि उत्पादश्च धर्मः' इत्याकारो धर्मधर्मिभावः, हि-निश्रितं, भावतः परमार्थतः कल्पितः, नाशस्य सांवृतत्वात् , उत्पादम्य च कार्यरूपन्वेअभिन्न है। यदि भेद माना जायेगा तो नाश के साथ कारण का और उत्पत्ति के साथ कार्य का सम्बन्ध नहीं हो सकेगा । क्योंकि भिन्न पदार्थों में सम्बन्ध प्रष्ट है । इसलिये कारण का नाश, कार्य का उत्पाद इस प्रकार नाश और उत्पाद के साथ सम्बन्ध का व्यवहार न हो सकेगा। एवं 'तत्पत्तिसम्बन्ध' भी नहीं बन सकेगा। नाशमें कारण का, और उत्पाद में काय का उत्पत्ति सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता । क्योंकि बौद्धमतमें नाश निहतुक माना गया है अतः उसकी उत्पत्ति बाधित है ।
र उत्पत्ति को उत्पद्यमान से प्रजन्य माना गया है, इसलिये उत्पत्ति के साथ उत्पद्यमान का उत्पत्ति सम्बन्ध मो असम्भव है । उन दोनो में दूसरा पक्ष अर्थात् अभेद भी नहीं माना जा सकता। क्योंकि, प्रभेव मानने पर हेतुनाश और कात्पिाद के एककालीन होनेसे हेतु और फल में एककालीनत्व की प्रसक्ति होगी ।।४।।
४६ वीं कारिका में हेतु प्रौर फल में एककालीनत्व होने से प्राप्त दोष का प्रदर्शन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है:
कार्य-और कारण यदि समानकालीन होंगे तो उनमें कार्य-कारणभाव न हो सकेगा। क्योंकि, कार्य-कारण भाव का नियामक होता है 'तत्सत्त्वे तत्सत्त्व प्रौर तदमावे तदभाव:' इस प्रकार के अन्वय-व्यतिरेक का नियम; और यह नियम समानकालीन पक्षाओं में उपपन्न नहीं हो सकता ॥४६॥
[नाश और कारण का धर्मविभाव कल्पित है-पूर्वपक्ष ] ५० वीं कारिकामें, पूर्वोक्त आपत्ति के बौद्ध द्वारा प्राशंकित परिहार को उपस्थित करके उसका निराकरण किया गया है। कारिका का प्रथं इस प्रकार है-कारण और नाश में एवं कार्य और उत्पत्ति में जो धर्म-मिभाव का व्यवहार होता है अर्थात् 'कारणं नाशधर्मक' कार्य उत्पत्तिधमक'