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स्वा० क० टीका-हिन्दी विवेचन ]
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मूलं -- स्तस्तौ भिन्नाभिन्नों वा ताभ्यां भेदे तयोः कुतः ? नाशोत्पादकभेदे तु तयोर्वै तुल्यकालना ॥४८॥
लौ = नाशोत्पाद, लाभ्यां हेतु-फलाभ्यां भिन्नो अभिन्नों वा स्त इति पक्षद्वयम् । तत्र
करना होगा । तथा सङ्ख्यारूप मानने पर पेक्षा बुद्धि के भेदसे दण्ड-चक्क कुलाल श्रादि में विभिन्न सङ्ख्या की उत्पत्ति होनेसे उन सङ्ख्याम्रो में किस सङ्ख्य रूप से दण्डमें व्याप्यत्ता का स्वीकार किया जाय उसमें कोई विनिगमना न होगी । फलतः, अनन्तयावस्वात्मकसंख्या रूपसे व्याप्यता मानने में गौरव होगा । और यदि दण्ड को घटकुरूपत्वेन घटका व्याप्य माना जाय तो भी भावके क्षणिकत्व के साधन की आशा पूर्ण नहीं हो सकती, क्योंकि इस आशा की पूर्ति तत्तत्कार्य कुर्व द्रूपत्व व शिष्ट दण्ड को व्यवहितोत्तर समय वृतित्व सम्बन्धसे तत्तत्कार्य का व्याप्य मानने पर ही हो सकेगो, क्योंकि, यदि तत्तरकार्य कुरूपत्वविशिष्ट स्थायी होगा तो, अर्थात् तत्तत्कार्योत्पत्ति के व्यवहित पूर्वक्षणो में एवं उत्तर क्षणो में भी विद्यमान होगा तो, तत्कार्योत्पत्ति का स्वरूप समय की अपेक्षा उसका अव्यवहितोसरसमय नहीं होगा किन्तु जब कभी उसका नाश होगा तभी उसका श्रव्यवहित उत्तर समय होगा. और उस समय तत्तत्कार्य-उत्पत्ति होती नहीं है । यदि उसके क्षण की अपेक्षा श्रव्यवहितोतरख लिया जायेगा तो तत्कार्योत्पत्ति के व्यवहित पूर्वक्षणों में भी उसके विद्यमान होने पर तत्कार्योत्पत्ति के यति पूर्व क्षण में भी स्वाव्यय हितोसरत्व रहेगा किन्तु उस समय तत्कार्योत्पत्ति होती नहीं है। फलतः, तत्कार्य को क्षणिक मानने पर ही स्वाऽव्ययहित उत्तर समयवृत्तित्व सम्बन्ध से वह तत्कार्य काव्याप्य हो सकेगा। किन्तु स्वाऽव्यवहितो तर समय वृत्तित्वसम्बन्धसे तत्कायं कुद्रपत्य विशिष्ट को तत्कार्य का व्याप्य मानने में व्याप्यतावच्छेदकसम्बन्ध गुरु बन जायेगा । यदि केवल 'मनन्तयं (उतरवत्तित्व) को ही व्याप्यतावच्छेदक सम्बन्ध माना जायेगा तो तत्कार्यकुवंप का आनन्तर्य तत्कार्य द्रूप तत्कार्थकारण के कारण क्षण में भी प्रा जायेगा। क्योंकि उसमें भी उसका अव्यवहितस्यरूप श्रानन्तर्य है | अतः ग्रानन्तर्य सम्बन्ध से तत्कार्यकुद्वप में तत्कार्य की व्याप्ति उपपन्न करने के लिये सत्कार्य कुर्वद्रूप के प्रव्यवहित पूर्वक्षण में भी तत्कार्य की उत्पत्ति माननी होगी और उसके लिये तत्कार्यकुर्यद्रूप की सत्ता उसके पूर्व मो माननी होगी । फलतः तत्कार्य कुर्यद्रूप के क्षणिकत्व की सिद्धि न हो गी । श्रतः नियत समय में हो तत्तत्कार्य को उत्पत्ति को नियन्त्रित करने के लिये कार्यकुद्रपक्षणिक कारण की कल्पना करने की अपेक्षा यह कल्पना करना उचित है कि जिस काल में कालिक सम्बन्ध से घटादि सामग्री - श्रनुप्रवेशरूप कुर्वद्रपत्य से विशिष्टदण्डादि रहता है उस काल में कालिक सम्बन्धसे घटादि को उत्पत्ति होती है । इस व्याप्य व्यापक भाव में कोई बाधा नहीं है फलतः घटादि के उत्पादक सामग्री में कुर्वद्रूपत्वरूप से विद्यमान घटादि का कपवित्वामेव होनेसे सामग्री काल में घटादि का सद्भाव अस्तित्व निर्बाध है। इस से स्पष्ट है कि कारण और कार्यका नाश और उत्पाद एक काल में प्रसङ्गत है ॥ ४७ ॥
[ उत्पत्ति-नाश कार्य-कारण से भिन्न या श्रभिन्न ? ]
पूर्व कारिका में उपसंहार करते हुऐ कारणनाश और कार्योत्पाद के एककालीनत्व को प्रसङ्गति बतायी गई थी। उसी की पुष्टि ४८ वीं कारिकामें की गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैनाश और उत्पत्ति के सम्बन्ध में दो पक्ष हो सकते हैं। पहला यह कि कारण और उसका नाश एवं काय और उसकी उत्पत्ति दोनों परस्पर मित्र है । तथा दूसरा पक्ष यह कि दोनों परस्पर में