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[शा. वा. समुरचय स्त-४ श्लोक-४७
मुलं--अनन्तरं च तद्भावस्तत्त्वावेव निरर्थकः ।।
समं च हेतु-फलयो शोत्पादावसंगती ॥४॥ अनन्तर च-कारणाव्यवहितोत्तरसमये च, तद्भावः कार्योत्पादोऽभ्युपगम्यमानः, तत्वादेव-अनन्तरत्वादेव निरर्थकः, दण्डादीनां दण्डत्वादिना घटादिच्याप्यत्वाभावात् , सामग्रीप्रविष्टदण्डत्वादिना तथात्ये गौरवात • कुर्वपत्वेन तथात्वे हि क्षणिकत्यसाधनाशा, सा च न पूर्यते, अव्यवहितोत्तरसमयत्तित्वसंबन्धन व्याप्यत्वे गौरवात् , आनन्तयमात्रस्य च कारणकारण साधारणत्वात् क्षणिकस्याऽनियामकत्वाद, कुर्वपकल्पनापेक्षया कथश्चिद्भिन्नाभिन्नमाममयनुप्रवेशरूपकुचंद्रपत्वेन दण्डादेस्तदेव घटादिध्याप्यत्वोचित्याच्चेत्याशयः । तथा, समं चएककालं च हेतुफल्यो.-कार्यकारलायोः, नागोलायो अशङ्गत अघटमानों ॥४७॥ तथाहि
[क्षणिक वाद में कारगता को अनुपपत्ति ] ४६ वीं कारिकामें भावमात्र को क्षणिकता-पक्षमें एक अन्य दोष भी बताया गया है, जैसे-भाव मात्र को क्षणिक मानने पर कारणभूत भाव भी क्षणिक होगा अतः यह कार्य की उत्पत्ति कालमें नहीं रहेगा । फलतः कार्य की उत्पत्ति के समय न रहने से यह कार्य का कारण नहीं बन सकता । क्योंकि यह नियम है-जो जिस कार्य की उत्पत्ति के समय नहीं रहता वह उसके प्रति कारण नहीं होता जसे द्वितीयक्षरण का कारणीभूत प्रथमक्षण तृतीयक्षण की उत्पत्ति के समय विद्यमान न होनेसे उसका उत्पादक नहीं होता है १४६।।
[क्षणिकवाद में अव्यवहितउत्तरकाल के नियम को असंगति ] ४७ बी कारिका में बौद्धों की बचीची शङ्का का भी परिहार किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-उक्त विचार के संदर्भ में बौद्धों को यह शङ्का हो सकती है कि-"कारणकाल में ही काय की उत्पत्ति होती है यह नियम नहीं है, किन्तु 'कारण के अव्यवहितोत्तर काल में कार्य को उत्पत्ति होती हैं यह नियम है।"-किन्तु यह उचित नहीं है, क्यों कि-कार्य को कारण के प्रत्यक्षति होना-इतना मात्र मानता निरर्थक है. क्योंकि ऐसा मानने पर कार्य-कारण भाव नहीं केन सकता। यतः दण्ड प्रादि दण्डत्वरूप से घटका व्याप्य नहीं होता, अर्थात् जिस कालमें द स्वायवहितोत्सरस्व सम्बन्ध से रहता है उम कालमें कार्य होता ही है-यह नियम नहीं है । क्योंकि, दरातु मात्र के रहने पर घट को उत्पत्ति नहीं होती है। यदि यह नियम माना जाय कि-दण्ड अव्यवहितोसरत्व सम्बन्ध से घटोत्पादक सामग्रो गत यावत्व रूपसे जिस काल में रहता है उस काल में घट होता हैतो इसमें गौरव होगा। क्योंकि घट सामग्रोगत यावत्त्व का दो रूप हो सकता है (१! चकुलालकपालादि विशिष्टदण्डत्व और (२) दण्डच ककुलालकपालाविगत सुसया विशेष, दोनों ही स्थिति में गौरव अनिवार्य है। क्योंकि पहले रूपमें चक्रकुलालकपालादि के विशेषणविशेष्य भाव विनिगमनाविरह होगा, अर्थात् वण्ड को चकविशिष्ट कुलालशिशिष्ट कपालादिविशिष्ट दण्डत्व हपसे व्याप्य माना जाय अथवा कुलालकपालचक्रविशिष्ट दण्डत्व रूप से प्रथवा चऋकुसालकपालादिविशिष्ट दण्डत्व रूपसे व्याप्य माना जाय इसमें कोई विनिगमना न होनेसे सभी रूपों से व्याप्यता का स्वीकार