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स्था का टीका-हिन्दी विवेचना ]
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यत् कार्यम् एकसामर्थ्य कारणगतं प्रतीत्य जायते तडितदेव, अन्यतः कारणासामर्थ्यान्तरात् न जायते । कुतः १ इत्याह-तयोः कारणसामर्थ्ययोः, अभिनतापत्तेःएकत्यप्रसङ्गात् , एककार्यजनकत्वेनै कस्वभावत्वौचित्यात् । भेदे तयोः-सामर्थ्ययोः कुतश्चिदन्यतो निमित्तात् स्वभावभेदेऽभ्युपगम्यमाने, तयोरपि तदुभयजन्यबुद्धथादेरपि भेदः स्यात् , *प्रत्येकजन्यत्वस्वभावभेदात् ॥७२॥
पराभिप्रायमाशय परिहरतिमूलं-न प्रतीत्यैकसामर्थ्य जायते तत्र किंचन ।
__ सर्वसामर्थ्यभूप्तिस्वभावत्यात्तस्य चेन्न तत् ।।७३॥ एकसामर्थ्य प्रतीत्य आश्रित्य, तत्र कार्ये न किश्चन-तज्जन्यतानियतं रूपं (जायते), कुतः ? इत्याह तस्य अधिकृतकार्यस्य सर्वसामध्यभृतिस्वभावत्वात् अधिकृतसकल हेतुशक्त्यपेश्नोत्पत्येकस्वभावत्वात , इति चेत् ? न तत्त दुक्तं युक्तम् ॥७३॥ जाय-कारणगत सामों में किसी निमित्त विशेष से स्वभाव भेव माना जायगा, असे रूपादिस्वरूप कार्य के अनुरोध से तथा बुद्धिरूप कार्य के अनुरोध से कारणमत सामर्थ्य में भेद की कल्पना हो सकती है अर्थात यह कहा जा सकता है कि रूपावि में वो सामर्थ्य है, एक रूपादिकार्यों का उत्पादक स्वभाव है और दूसरे में बुद्धि का उत्पादक स्वभाव है। किन्तु यह कथन उचित नहीं हो सकता क्योंकि भिन्नस्वभाव सम्पन्न भिन्न सामर्थ्यशाली एक रूपादि से जन्य होने के कारण बुद्धि में भी स्वमायभेद हो जायगा । आशय यह है कि यदि रूपात्मककारण में बुद्धधनुगुण स्वभाव से उपेत सामर्थ्य और रूप के अनुगुण स्वभाव से उपेत सामर्थ्य बोनों हो रहेगा तो एक सामय से उत्पन्न होने वाले कार्य के प्रति दूसरे सामर्थ्य के तटस्थ रहने में कोई युक्ति न होने के कारण दोनों सामयों से भिन्न स्वभावोपेत एक कार्य को ही उत्पत्ति होगी। फलतः रूप भी बुद्धिस्वभावोपेत होगा और बुद्धि भी रूपस्वभावोपेत होगी, अतः बुद्धि में शुद्धबुद्धि-विषयाऽनात्मकबुद्धि का भेद हो जायगा जब कि बुद्धि का विषयानात्मक स्वरूप ही सौत्रान्तिक प्रादि धौद्धों को मान्य है । बुद्धि में इस आपशि के उत्पादक स्वमावभेद का होना इसलिये अपरिहार्य है कि वह कारणगत विमिनस्वभावोपेत प्रत्येक सामथ्र्य से उत्पन्न होगी भौर मिन्नस्व मावोपेत प्रत्येक सामथ्र्य से जन्य होने पर स्वभावभेद का होना आवश्यक होता है ।।७२।।
७३ वीं कारिका में उक्त दोष के सम्बन्ध में बौब के परिहाराभिप्राय को उपस्थित कर इस के निराकरण का संकेत किया गया है
बौद्धों का उक्त वोष के परिहार के सम्बन्ध में यह अभिप्राय हो कि जिस सामग्री से जो कार्य उत्पन्न होता है उस कार्य में उस सामग्री के घटक किसी एक सामर्थ्य से अन्य होने के कारण उस में कोई स्वभावभेद नहीं होता, किन्तु कार्य का केवल इतना ही स्वभाव होता है कि वह सामग्रीषटक
* 'प्रत्येकजन्यत्वस्वभावभेदात्' इस पाठ के स्थान में 'प्रत्येकजन्यत्वे स्वभावभेदात्' यह पाठ उचित प्रतीत होता है।