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[ शा० वा. समुच्चय स्व०४-श्लो०७०
एतदेव भावयभाह---
तानशेषान प्रतीत्येह भवदेकं कथं भवेत् । ।
एकस्वभावमेकं यतन्तु मामेकमावताः ॥७॥ तान् समर्थान् प्रतीत्य आश्रित्य, इह-लोके भवत् कार्यम् एकं कथं भवेत् ! नैव भवेदित्यर्थः । अत्रोपपत्तिमाह-यद्य स्मात् , एकस्वभावमेकम् 'उच्यते' इतिशेषः, 'तत्त एकस्वभावं तु अनेकभावत: अनेकेभ्यो रूपादिम्यो हेतुभ्य उत्पत्तेः न घटते ||७|| कथम् ? इत्याह
यतो भिन्नस्वभावत्वे सति तेषामनेकता ।
तापत्सामर्थ्यजत्वे च कुतस्तस्यैकरूपता? ७१॥ यतः यस्मात् , भिन्नस्वभावत्वे-नानास्वभावत्वे सति, तेषां रूपादीनाम् अनेकता नान्यथा; तावत्सामर्थ्यजत्वे च तावत्कारणशक्तिजन्यत्वे च, तस्य बुद्धयादेः, कथमेकरूपता-एकस्वभावता, रूपादिशक्तिजन्यत्वस्वभावमेदात् ? ॥७१।। एतदेव समर्थयमाह
यज्जायते प्रतीत्येकसामर्थ्य नान्यतो हि तत् ।
तयोरभिन्नतापत्ते दे भेदस्तयोरपि ॥७२॥ विजातीय अनेक कारणों को पाकर उत्पन्न होने वाला कार्य एकजातीय कैसे हो सकता है ! क्योंकि जो वस्तु एकस्वमाय होती है उसको उत्पत्ति अनेक स्वभाव धारण करने वाले कारणों से नहीं हो सकती ॥७॥
७१ वीं कारिका में इस कथन की युक्तता प्रतिपादित की गई है--
रूप-प्रालोक प्रादि में जो भिन्नता है यह उनके स्वभावभेद के कारण भिन्नता है अन्यथा नहीं और जब वे सब मिन्नस्वभाव वाले हैं तब उन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान रूप कार्य में एक. स्वभावता नहीं हो सकती क्योंकि रूप प्रादि पदार्थ भिन्न स्वभाव सामर्थ्य से जन्य होने पर बुद्धि में स्वभाव भेद प्रावश्यक है । ७१॥ ७२ वौं कारिका में भी इस का समर्थन किया गया है
[कारणगत सामर्थ्य में स्वभावभेद कल्पना प्रयुक्त] ___ जो कार्य कारणगत एकसामर्थ्य को प्राप्त कर उत्पन्न होता है वही कार्य कारणगत अन्य सामर्थ्य से उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि एक कार्य के उत्पावक सामन्यों में भेद नहीं हो सकता। यदि यो समझे जाने वाले सामर्थ्य एक ही कार्य को उत्पन्न करेंगे तो वास्तव में उन में भिन्नता ही होगी भले वे दो समझे जाते हों । क्योंकि, एक कार्य के जनक में एक स्वभाव मानना ही उचित है। यदि यह कहा