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स्था. क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
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रूपाऽऽलोकादिकं कार्य स्थम्बसंततिगतम , अनेक च-विभिन्नं च उपजायते । तदेतत् विभिन्नकार्यभवनम् तेभ्या रूपादिभ्यः, तावद्य एवतावत्संख्याकेभ्य एवं कथम् इति चिन्त्यताम् , सर्वेषामेव बुद्धिजननसमर्थत्वात् , रूपादौ जननीयेऽतिरिक्ताऽनागमनात् ॥३८॥ दोषान्तरमाह--
प्रभूतानां च नैकत्र साध्वी सामर्थ्यकल्पना।
तेषां प्रभूतभावेन तदेकत्वविरोधतः ॥६९।। प्रभूनानां च-विभिन्नानां च रूपादीनाम् , एकत्र एकजातीये बुद्धयादिकार्ये सामर्थ्यकल्पना शक्तिममर्थना, साध्वी न-न्याय्या न । कृतःः १ इत्याद-तेषां समर्थाना प्रभूतभावेन विभिन्नत्वेन, तदेकत्वविरोघतः कार्यकत्वविरोधात् ॥६॥
कार्य अपने सन्तान में विभिन्न रूप से उत्पन्न हो सकते हैं क्योंकि रूप-पालोक आदि प्रत्येक रूपप्रालोक प्रादि का भी कारण होता है अत: सामग्रो घरक रूप पालोक प्राबि से रूप पालोक प्रादि की उत्पत्ति, और सामग्री से वृद्धि की उत्पत्ति, ऐसा मानना संमय है।'-इस बौद्धों के प्रतिवाद के उत्तर में ग्रन्थकार का कहना है कि रूप-पालोकादि विभिन्न कार्यों का जनन ज्ञानसामग्री के सन्निधान के पूर्व जसे पालोकादि के प्रसंनिधानक्शा में भी होता है, उसी प्रकार सदा हो।
ना है। तर चिन्तन प्रावश्यक है-ज्ञानसामग्री काल में रूप-ग्रालोक आदि की उत्पत्ति उतनी संख्या में सन्निहित रूप प्रादि से क्यों होती है ? चिन्तन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञानसामग्री दशा में रूप-पालोक प्रावि भिन्न कार्यों की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ज्ञान सामग्री का घटक होने पर रूप पालोकादि समी में झानोत्पादन का ही सामर्थ्य होता है, अतः उनसे ज्ञान की उत्पत्ति तो हो सकती है, किन्तु रूप आदि उत्पत्ति कैसे समवित है ? उनको उत्पति को सम्भावना तब होती जब उनके उत्पादन के लिये अतिरिक्त रूप प्रादि का भी संनिधान होता। क्योंकि जो रूप मावि शान का उत्पादक हो गया उसका ज्ञान से भिन्न रूप प्रावि का उत्पादक होना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि एकजातीय कारण से विभिन्न जातीय कार्यों की उत्पत्ति मानी जायगी तो विभिन्न कारणों की कल्पना हो समाप्त हो जायगो । यह सोचना कि-सामग्री घटक प्रत्येक रूप प्राधि से रूप प्रादि की उत्पत्ति और सामग्री से ज्ञान को उत्पत्ति हो सकती है-ठीक नहीं है क्योंकि सामग्रीघटकों से अतिरिक्त सामग्री का कोई अस्तित्व हो नहीं है ।।६८।।
६६ वी कारिका में सामग्रीपक्ष में एक अन्य दोष का निदर्शन किया गया है जो कारिका की व्याख्या से ज्ञातव्य है
रूप आदि विभिन्न पदार्थों में बुद्धि जैसे एकजातीय कार्य के उत्पादन शक्ति की कल्पना न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि विजातीय कारणों से एफजातीय कार्यको उत्पत्ति विरुद्ध है ॥६६॥
७० वीं कारिका में भी इसी तथ्य की पुष्टि की गई है