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[ शा. वा. समुच्चय रह० ४-श्लो० ६८ सर्वेषां रूपादीनां बुन्हिजनने-चुद्धिलक्षणेकजातीयकार्योत्पादने, यदि सामथ्य शक्तिः, इष्यते-अङ्गीक्रियते । एक कार्य तु सौत्रान्तिक-वैभाषिकमते रूपादिजन्यमप्रसिद्धम् , तन्मते संचितेभ्यः परमाणुभ्यः संचितानां परमारनामेवोत्पादात , संवृत्तिसत एकस्य घटादे. ऽस्तदजन्यत्वात् , ज्ञानस्यापि ग्राह्य-ग्राहकाऽऽकारद्वयप्रतिभामनादिति बोध्यम् । ततः तेषामेकाजिनकत्वात् तेभ्यः सकाशात् कायभेदा-रूपादिकार्यविशेषः न घटते, किन्तु बुद्धिरेवैका स्यात् ।।६।।
न चैवमेवास्तु, इत्याह-- मूलं--- रूपालोकादिक कार्यमनेक चोपजायते ।
तेभ्यस्ताचय एवेति तदेतच्चिन्त्यतां कथम् १ ॥६८॥
मत में सामग्रो से बुद्धि और विषय दोनों की उत्पत्ति मानी जाती है। इतना ही नहीं किन्तु यह भी ध्यान में रखने की बात है कि बाहह्मार्थवादी बौद्धों के मत में जो बाह्यार्य उत्पन्न होता है वह मी एक व्यक्ति रूप नहीं होता किन्तु क्षणिक परमाणुओं के समूह रूप होता है । क्योंकि उनका यह सिद्धान्त है कि 'पुङजात् पुजोत्पत्ति:' अर्थात् पूर्वक्षरण में सन्निहित क्षणिक परमाणुसमूह से उत्तरक्षण में नये क्षणिक परमाणु समूह की उत्पत्ति होती है, क्योंकि वे निराकार ज्ञान को ही पारमार्थिकसत्ता मानने वाले योगाचार, अथवा शून्यता ही पारमार्थिक मानने वाले बौद्धों के अनुसार-संवृति अविद्या अथवा वासनामूलक एक घटादि को उत्पत्ति नहीं मानते हैं । अत: उनके मतानुसार सामग्रो से विभिन्न कार्यो का उदय होता ही है । किन्तु सामग्री में अथवा सामग्री घटक रूप प्रादि में ज्ञान जैसे एकजातीय कार्य के उत्पादन का सामर्थ्य मानने पर अनेक कार्यों का उत्पादन जो उन्हें अभिमत है-वह कभो भो न हो सकेगा, इतना ही नहीं जान को भी उत्पत्ति संकटग्रस्त हो जायगी क्योंकि ज्ञान का भी ग्राह्य और ग्राहक दो प्राकारों में प्रतिभास होता है । अतः सामग्री को किसी एक प्राकार के प्रति समर्थ मानने पर अन्य प्रकार का उलय न हो सकेगा और ऐसा कोई ज्ञान प्रानुभविक नहीं है जो ग्राहा और ग्राहक दो प्राकारों में प्रतिभासित न होता हो । फलतः, सामग्री से कोई कार्य का सम्भव न होने के कारण उस को निरर्थकता अनिवार्य होमी । यदि बुद्धि के माकारद्वय म भेद न मान कर दोनों को बखिजातीय हो माना जाय तो बाद्धको तो उत्पत्ति हो सकती है किन्तु बाह्यार्थवादी बौद्धों को अभिमत बुद्धिभिन्न वस्तु को उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, अतः उन कार्यों के प्रति सामग्री का नरर्थक्ष्य अपरिहाय है ।। ६७॥
(सामग्री और उसके घटक से विभिन्न कार्यों का असंभव) ६८ वीं कारिका में बौद्ध द्वारा प्राशकित उक्त दोष के परिहार की चर्चा कर उसका खण्डन किया गया है
'लपादिघटितसामग्रो को ज्ञान के उत्पादन में समर्थ मानने पर विभिन्न कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती।' इसके प्रतियाद में बौद्धों को प्रोर से यह कहा जा सकता है कि-'रूप पालोक प्रादि