________________
१६४ ]
[ शा० वा समुख्य स्त० ४ श्लो० ११३
-
-
यस्य तु मतम्-दृश्य-प्राप्ययोरेकत्वेऽविमंरादाभिमानिनः प्रत्यक्षं प्रमाणम् , इतरस्य तयोविवेके सत्यनुभृतेऽपि न प्रमाणम् , तस्य चन्द्रप्राप्यमिमानिनः किमिति चन्द्रमाने तद् न प्रमाणम् ? अथ दोषजन्ये द्विचन्द्रादिझाने चन्द्रम्यापि न परमार्थसतो भानम् , किन्तु प्रातिभासिकसत्तावलीढस्यारोपितम्यैव, इति न तद्ग्रहात्तदेकत्वग्रहः । अध्यक्षस्याशे प्रामाण्याऽप्रामाण्यद्वरूप्यमपि व्यावहारिकमेव, पामार्थतस्तु तत्र सद्विषयन्वरूपं प्रामाण्यमेव । अभ्यासदशाय दृश्य-प्राप्ययोरेकत्वाभ्यवसायात 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्' इत्यपि व्यवहारादेव यत्रालरोयकं तत् तदनुभवकालीनानुभव विषयतावत् पथा रूप-रूपाभयो=क्षणिकत्व सत्त्व के अनुभव काल में अनुभूयमान होता है क्योंकि वह सत्त्व का नान्तरोयक है। जो जिस का नान्तरीयक होता है वह उस के अनुभवकाल में अतुभूयमान होता है जैसे रूप अपने प्राश्रय द्रव्य के अनुमयकाल में अनुभूयमान रहता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि तमिरिक तिमिररोगग्रस्त नेवाले मनुष्य को चन्द्र द्वय का दर्शन होता है किन्तु उस काल में चन्द्रनान्तरीयक चन्द्र के एकस्व का अनुभव नहीं होता इसलिये उक्त नियम में व्यभिचार है। यदि इस के विरुद्ध, जो जिस का नास्तरीयक होता है वह उस के अभ्रान्त अनुभवकाल में अनुसूयमान होता है-यह नियम मानकर इस दोष का समाधान किया जाय-तो यह भी ठीक नहीं हो सकता क्योंकि चन्द्रद्वय का दर्शन द्वित्वअंश में भ्रान्त होने पर भी चन्द्रांश में अभ्रान्त होता है । एक ही ज्ञान में प्रमाण और प्रमाणेसर प्रर्थात् एकज्ञान में प्रामाण्यप्रप्रामाण्य की व्यवस्था को दुर्घट भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जिस व्यवहा पुरुष को चन्द्रद्वय वशन का ज्ञान और चन्द्र में द्वित्व का बाध ज्ञान है वह चन्नद्वयदर्शन में द्वित्वांश में प्रप्रामाण्य और चन्द्रांश में प्रामाण्य की व्यवस्था कर सकता है, क्योंकि बौद्ध का हो यह कथन है कि 'प्रामाण्य व्यवहार प्राधीन होता हैं (जसे भावस्थयवादो माव स्थर्य बुद्धि में प्रामाण्य का व्यवहार करता है) पौर शास्त्र से मोह को व्यवहारमात्र मूलक निवृत्त होती है। यदि एक ज्ञान में अंशभेद से प्रामाण्यअप्रामाण्य न माना जायगा तो एक चन्द्र का दर्शन पन्नांश में प्रमाण होता है और क्षणिकत्व अंश में प्रमाण नहीं होता है कि क्षणिकत्व प्रत्यक्ष से अनिर्णीत रहता है इस प्रकार एक ही शान में प्रामाष्य-अप्रामाण्य इन वो रूपों के बौद्ध प्रभ्युपगम का विरोध होगा।
[विसंवादाभिमानी को चन्द्रद्वय दर्शन चन्द्रांश में प्रमाण हो है] इस सम्बन्ध में किसी का यह मत है कि-'दृश्य और प्राप्य के एकस्व में जिसे प्रयि संवादअविरोध का अभिमान होता है जसो की दृष्टि से दर्शन प्राप्त अर्थ में प्रमाण होता है और जिसको इस प्रकार प्रविसंवाव का अभिमान नहीं होता उसे दृश्य और प्राप्य में विवेक=भेदज्ञान होने से उस की दृष्टि से अनुभूत प्रर्थ में मो प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होता क्योंकि उसे वशन में गहोतार्थ के प्रापकत्वरूप प्रामाण्य का ग्रह नहीं होता प्रतःचन्द्रद्वय का दर्शन चन्द्रश में भी प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि चन्द्रद्वय रूप दृश्य और एकश्चन्द्ररूप प्राप्य इन दोनों के ऐक्य में उष्टा को अविसंवाद अभिमान नहीं है इसलिये यह मान चन्द्रश में भी अप्रमाण हो है-किन्तु यह ठोक महीं क्योंकि चन्द्रदय के दर्शन के बाद जिसे चन्द्रप्राप्ति का अभिमान होता है उसे दृश्यचन्द्र और प्राप्यचन्द्र के एकत्व में अविसंवार का प्रमिमान होने से उस की दृष्टि में चन्द्रवय का दर्शन चन्द्रमात्र में प्रमाण क्यों नहीं होगा?