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स्याः ० टीका-हिन्दी विवेचमा ]
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प्रज्ञाकरस्याभिमतम् , मण्पादिप्राप्य संसर्गिदृश्यमणिप्रभाद्यवच्छेदेनोपप्लवमहिम्ना मण्याचारोपादद्रदेशप्रवृत्तिदर्शनात तथाव्यवहारप्रवृत्तिरिति चेत् ? न,
चन्द्र द्वित्वस्येव चन्द्रस्य मिथ्यात्वेनाऽननुभवात , तस्य परमार्थतोऽमवे मानाभावात् , अध्यक्षेपार नार्थिकरूप्यस्य संबन्धामात् , तव्यवहाराऽयोगात् , अन्यथाऽतिप्रसङ्गात , आरोपिताध्यक्षे आरोपिततद्धरूप्यस्य विकल्पेन विषयीकरणे च पारमार्थिकस्य तस्याऽ. प्रवर्तकत्वात विकल्पस्यैव प्रवर्तकस्य परमार्थतः प्रामाण्यौचित्यात् ।
चन्द्रद्वय दृष्टा को कल्पित चन्द्र का भान-बौद्ध] यदि बौद्ध को प्रोर से यह कहा जाय कि 'बन्द्रद्वय का ज्ञान दोषजन्य होने से उस में पारमाधिक चन्द्र का ज्ञान नहीं होता है, किन्तु प्रातिमासिक सत्ता युक्त-कल्पित चन्द्र का ही मान होता है। इसलिये सारोपित चन्दशनी चन्वयमान कान में चन्द्र के एकत्व का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि चन्द्र का एकत्व वास्तविकचन्द्र का नान्तरोयक है न कि आरोपिस चन्द्र का, तथा अध्यक्ष में अंश भेव से जो प्रामाण्य अप्रामाण्य ये दो रूप माने जाते हैं वे भी व्यवहारिक नहीं है । बौद्ध के इस कथम पर यह शंका नहीं की जा सकती कि 'जब वह चन्द्रयदर्शन को सर्वाश में प्रमाण बताकर एक ज्ञान मप्रामाण्य-प्रप्रामाण्य को प्रस्वीकार करना चाहता है तो प्रध्यक्ष-विकल्पप्रत्यक्ष को उसने क्षणिकत्वांश में अप्रमाण और सर्वश में प्रमाण, इसप्रकार दो रूप में कैसे स्वीकार किया'?-क्योंकि अध्यक्ष में प्रामाण्य अप्रामाण्य यह रूपय बौख मत में केवल ध्यावारिक ही है पारमा पारमायिक तो केवल प्रामाण्य ही है। व्यावहारिक जो हूँ रूप्य कहा गया है वह तो अभ्यास दशा में "माव स्थिर होता है इस प्रनादि प्रवृत्त संस्कार के कारण हाय-प्राप्य में एकत्व का अध्यवसाय होने से प्रामाण्य का व्यवहार और उस अध्यवसाय के प्रभाव में अप्रामाण्य का व्यवहार होने के कारण । प्रामाण्य प्रामाण्य रूप्य व्यवहारमूलक होने से हो प्रज्ञाकर को भी यही अभिमत है कि प्रत्यक्ष परमार्थतःप्र
[मरिणप्रापक मणिप्रभामरिगदर्शन में प्रामाण्य क्यों नहीं ? ] इस पर प्रश्न हो सकता है कि यवि दृश्य और प्राप्य में एकत्व का अध्यवसाय व्यावहारिक प्रामाण्य का मूल हो तो मणिप्रभा में मणि वर्शन होने के बाद मणिों को मरिणकी प्राप्ति होने पर एश्य और प्राप्य में एकत्व का अध्यवसाय होता है अतः मणिप्रभा में होनेवाले मणिदर्शन में भी ध्यावहारिक प्रामाण्य क्यों नहीं मानना चाहिये ?--इस का उसर यह है कि जब मणिनमा में मणिदर्शन के बाद किसी उपप्लववाधक यश मणिप्रभा में मणिदृष्टा की प्रवृत्ति मरिणवेश तक न होकर थोडे ही दूर तक रह जाती है, वहाँ मणि की प्राशि न होने पर दृश्य-प्राप्य में एकत्व का अध्यवसाय नहीं होता है । प्रत एव मणि-प्रमागत मणिदर्शन में प्रप्रामाण्यव्यवहार की प्रवृत्ति होती है और इस निश्चिताप्रामाण्यक मणिप्रभामणिदर्शन में भी अप्रामाण्य का हो ध्यवहार होता है क्योंकि प्रत्रामाण्यव्यवहार का मूल दृश्य प्रौर प्राप्य में एकत्व के प्रध्यवसाय का अभावमात्र ही नहीं है अपितु निश्चिताप्रामाण्यकशान का साधर्म्य भी है । अत: मणिप्रापक-मणिप्रभा-मणिदर्शन में इस दूसरे निमित्त से अप्रामाण्य का व्यवहार होता है।"