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[ शा०स०] समुचय हत० ४ श्लो०३८
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न चात्रापि मत्वर्थसम्बन्धानुयोगः, तत्रापि तादृशयोग्यतावच्छेदका नुमरणात् । न चैवमनवस्था, वस्तुनस्तथास्यात् । प्रत्ययानवस्था तु नास्त्येव, उक्तावच्छेदकवत्रस्य स्वरूपपरिचायकत्वात् । एवं च तादृशस्वरूपाभावेयत्रा भावधीस्तत्र भ्रमत्त्वम् इति किमनुपपन्नम् ! भाव ४ अन्योन्याभाव हैं। इनमें प्रथम की योग्यता है प्रतियोगिदेशान्यदेशत्व अर्थात् स्वप्रतियोग्यधिक रणभित्राधिकरणवृत्तित्व । तथा प्रागभाव एवं ध्वंस की योग्यता का प्रवच्छेदक है प्रतियोगिम देश में वृत्ति होते हुऐ प्रतियोगिमत्काल से भिन्न काल में रहना । तथा श्रन्योन्याभाव की योग्यता का प्रवच्छेदक है प्रतियोगितावच्छेदकाभाववस्य । इनमें पहले दो योग्यतावच्छेदक अभावगत है स एव उन योग्यतावच्छेदक से विशिष्ट प्रभाव का स्वरूप क्रम से श्रत्यन्ताभाव तथा प्रागभाव-ध्वंस का सम्बन्ध है। तृतीय योग्यता- प्रवच्छेदक अधिकरणगत है । अत एव तृतीय योग्यतावच्छेदक से विशिष्ट अधिकरण का स्वरूप अन्योन्याभाव का सम्बन्ध है । यह योग्यतावच्छेदक अतीन्द्रिय प्रभाव के स्वरूप एवं अधिकरण में भी है । जैसे, प्रतीन्द्रियमनस्स्व का प्रभाव अपने प्रतियोगी मनस्त्व के अधिकरणभूत देश से भिन्न देश में रहता है । एवं पार्थिव परमाणुगत श्यामरूपादि का प्रागभाव और ध्वंस अपने प्रतियोगी के अधिकरण पार्थिव परमाणु में रहते हुए भी अपने प्रतियोगी के काल में न रहकर श्रन्यकाल में रहता है । एवं मन आदि प्रतीन्द्रिय पदार्थ के प्रत्योन्याभाव के प्रतियोगितावच्छेदक मनस्त्वादि का प्रभाव मनोभिन्न देशमें रहता है । इस प्रकार योग्यतावच्छेदकावच्छिन्न प्रभाव श्रौर ग्रधिकरण के स्वरूप को सम्बन्ध मानने में कोई बाधा नहीं है । भ्रन प्रमा का विभाग तो जैसा बताया गया है- प्रतियोगी श्रथवा प्रतियोगितावच्छेदक के वस्तुतः श्रधिकरण के अथवा उसके प्रभावाधिकरण के अवगाहन से, उपपन्न होता है । अतः अभाव को अधिकररण से भिन्न मानने पर श्रधिकरण के साथ प्रभाव का सम्बन्ध मानने में कोई श्रनुपपत्ति नहीं हो सकती ।
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( मत्वर्थ सम्बन्ध के बारे में शंकानिवारण )
इस पर यदि यह शङ्का की जाय कि "भूतलं घटाभाववत् घटः पदमेदवान्' इत्यादि प्रतीतिनों में 'मतुप् प्रत्यय से प्रभाव का सम्बन्ध भी विशेषणरूप से भासित होता है अतः उसके सम्बन्ध के विषय में भी प्रश्न होता स्वाभाविक है।" तो इस शङ्का के समाधान में कोई कठिनाई नहीं है क्योंकि मत्यर्थ सम्बन्ध का भी जो उक्त योग्यतावच्छेदक विशिष्टस्वरूप है उस को सम्बन्ध माना जा सकता है। इसमें अनवस्था की शङ्का नहीं हो सकती, क्योंकि प्रभाव का स्वरूप और प्रभावबोधक शब्द के उत्तर में लगे हुए 'म' प्रत्यय के अर्थ का स्वरूप इन दोनों में भेद न होने से अनन्त सम्बन्धों की व्यर्थ कल्पनारूप आपत्ति नहीं हो सकती। यह श्रनवस्था तब होती यदि, जसे प्रभाव की प्रतीति का मतुप् प्रत्ययान्तशब्दघटितवाक्य से ग्रभिलाप होता है, उसी प्रकार मत्वर्थ सम्बन्ध की प्रतीति का मो मतुप् प्रत्ययातघटित शब्द से अभिलाप होता । किन्तु ऐसा नहीं होता. प्रतः प्रतीति की अनवस्था के श्रापादान की सम्भावना नहीं है, क्योंकि यही वस्तुस्थिति हैं अतः वस्तु में अनवस्था प्रसक्त ही नहीं है ।
यह ज्ञातव्य है कि उक्त योग्यतावच्छेदकावलि स्वरूप को प्रभाव का सम्बन्ध मानने पर मी प्रभाव के सम्बन्ध को बुद्धि में उक्त योग्यतावच्छेदक का मान नहीं होता । किन्तु उक्त योग्यतावछेदक से उपलक्षित स्वरूप का ही भान होता है, क्योंकि उक्त योग्यतावच्छेदक प्रभाव के स्वरूप का विशेषण न होकर उपलक्षणरूप से परिचायक मात्र होता है । यही कारण है- उक्त योग्यतावच्छेदक के भान के लिये अनवस्था का सर्जन नहीं होता । निष्कर्ष यह फलित हुआ तादृश स्वरूपसम्बन्ध का