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[ शा.बा. समुच्चय स्त०४- श्लो० ३८
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चारात् अभात्रे प्रतियोगितया घटादिवाधानन्तरं 'न' इत्याकारक प्रत्यक्षापत्तेश्व । बदरादौ कुण्डसंयोगादिधीकाले कुण्डाद्यमावधी वदभावे प्रतियोगिता संबन्धावच्छिन्नप्रतियोगितया घटवैशिष्टयश्रीकालेऽपि प्रतियोगितासामान्येन तदभावधी सम्भवात् ।
fastभूत कम्बुग्रीवादिप्रतियोगिताकाभाव का प्रतियोगितावच्छेदक लाघव होने से घटस्थ माना गया है न कि कम्बुग्रीवादिमत्त्व | इस लिये यह प्रत्यक्ष प्रतियोगितावच्छेदक की अज्ञानवशा में ही होता है । तदुपरांत, उक्त कार्यकारण भाव तिमिरप्रत्यक्ष में व्यभिचार होनेसे भी प्रमाणिक नहीं हो सकता। क्योंकि तिमिर का प्रत्यक्ष भी तेजके प्रभाव का प्रत्यक्ष है किन्तु वह तेजस्त्वेन तेजोजान के बिना ही उत्पन होता है । तथा उक्त कार्य कारणभाव मानने पर प्रभाव में प्रतियोगिता सम्बन्ध से घटका मावो न घटीय:' इस प्रकार बाध निश्चय रहने पर घटाभाव के 'न' इत्याकारक प्रत्यक्ष की प्रापत्ति भी होगी क्योंकि यह प्रत्यक्ष किसी को मो इष्ट नहीं है। इस पर यदि यह कहा जाय कि- "अभावो न घटोय:' इस बाधनिश्वय से अभाव में प्रतियोगितासम्बन्ध से घटमान का प्रतिबन्ध होकर 'न' इस प्राकार में घटाभावप्रत्यक्ष को प्रापति नहीं दी जा सकती। क्योंकि 'प्रभावो न घटप:' इस प्रतोति का स्पष्ट रूप है 'प्रभावः प्रतियोगितासम्बन्धावच्छ्ति प्रतियोगिताकघटाभाववान्' । इस प्रकार यह प्ररोति प्रभावयुग्म को स्पर्श करता है । इस प्रतोतिमें, विशेषणभूत प्रभाव में यवि प्रतियोगितासम्बन्धावच्छ्रित्र प्रतियोगिताकघटाभाव का भान प्रभावत्वावच्छेदेन मग्ना जायगा तो विश्वभूत अभाव में प्रतियोगिवसावच्छ्त्रिप्रतियोगिताक घटाभाव श्रवगाहो होनेसे यह बुद्धि श्राहार्य (इच्छानुचारी) हो जायेगी । अतः इस बुद्धि से प्रभाव में प्रतियोगितासम्बन्ध से घटभान का प्रतिवन्य शक्य न होने के कारण 'न' इत्याकार प्रत्यक्ष की प्रापत्ति नहीं हो सकती है । अब यदि यह बुद्धि विशेषण दल में अभावत्वसामानाधिकरण्येन प्रतियोगिता सम्बन्धावचित्र प्रतियोगिताक घटाभाव को स्पर्श करेगी तो भो वह प्रभावत्वामानाधिकरण्येन प्रतियोगितासम्बन्धेन घटप्रकारकबुद्धि का प्रतिबन्ध न कर सकेगो । फलतः इस पक्ष में भी 'न' इत्याकारक प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती" । किन्तु यह पक्ष भी ठीक नहीं है । व्याख्याकार ने इस पक्षको प्रयुक्तता बहुत अच्छे ढंग से बनाई है। उनका कहना यह है कि जैसे बदर में कुण्डसंयोग का ज्ञान होने पर भी संयोगसम्न्याचितियोगिताक कुण्डाभाव का भान होता है. क्योंकि बदरमें कुण्ड संयोग का निश्चय होने पर भी कुण्डसंयोग कुण्डप्रतियोगीक न होने के कारण कुण्डसंयोगवत्ता का नियामक न होने से कुण्डता का विरोध नहीं होता. इसलिये संयोगसम्बन्धावच्छ्रित्रप्रतियोगिताक कुण्डाभाव का ज्ञान होता है, उसी प्रकार 'प्रभावोन घटीय' इस निश्चयमें विशेषणभूत प्रभाव में घट प्रतियोगितासम्न्याचितियोगितासम्बन्ध से रहेने पर भी वह सम्बन्ध प्रतियोगितासामान्यसम्बन्धेन घटवत्ता का निरक नहीं होता । श्रत एव उसके ज्ञानसे प्रतियोगित्वसम्बन्धावच्छ्नि प्रतियोगिताक घटसामान्याभाव का उससे विरोध नहीं होता । इसलिये प्रभाव में प्रतियोगित्वसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिरा से घटकी बुद्धि होने पर भी प्रभावत्वावच्छेदेन प्रतियोगितासामान्यसम्बन्धाव नियोगता घटाभाव का अनाहार्य स्वाभाविक निश्चय हो सकता है। अत एव उस निश्चय के रहने पर प्रभाव में प्रतियोगितासम्बन्धसे घटभान का प्रतिवन्ध सम्भव होने के कारण 'न' इस रूपमें घटाभाव के प्रत्यक्ष की प्रापत्ति हो सकती है ।