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स्वा०क० टीका - हिन्दी विवेचना 1
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अप्रमेयत्वाभावः स्वरूपसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन तत्तत्प्रमेयभेद एव च प्रमेयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन भासते । न च तथापि तदाज्ञानेऽपि घटान्तग्ज्ञानाद घटाभावप्रत्यक्षे समनियताभावस्यैक्ये एकधर्मावच्छिन्नाज्ञानेऽन्यधर्मावच्छिन्नज्ञानेऽपि तदवच्छिन्नाभावप्रत्यक्षं व्यभिचारः, तदभावप्रत्यक्षे तदभावज्ञानत्वेन हेतुखादिति न दोष इति चेत् न, द्रव्यत्वादिना तदभावाभावज्ञानेऽपि तदभावाप्रत्यक्षात् ।
तदभावप्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकज्ञानत्वेन हेतुत्वे तु कम्बुग्रीवादिमश्वस्य गुरुधर्मतया प्रतियोगितानवच्छेदकत्वेन 'कम्बुग्रीवादिमान् न' इति प्रत्यक्षानापत्तेः, तमः प्रत्यक्षे व्यभि
( प्रभाव का स्वतन्त्रबोध न होने में तर्क- पूर्वपक्ष)
नैयायिक की ओर से इस पर यह पूर्वपक्ष उपस्थापित किया जाय कि 'घटाभावाभाव को घटस्वरूप मानने पर घटाभाव की प्रज्ञानदशा में जैसे घटका लौकिक प्रत्यक्ष होता है उसी प्रकार घटा भावाभाव के भी लौकिक प्रत्यक्ष होने की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि तत्प्रतियोगिकामाच के प्रत्यक्ष में तवस्तु का ज्ञान कारण होता है । स एव स्वतन्त्ररूपसे घटाभाव का श्रवगाहन न कर के घटाभावाभाव का भान नहीं हो सकता । उक्त कार्यकारणभाव को स्वीकार करने में व्यभिचार आदि की प्रसक्ति भी नहीं है, क्योंकि अन्य प्रतियोगिकत्वरूप से अन्य प्रभाव का मान मान्य नहीं है। उक्त प्रकार का कार्यकारणभाव मानने पर 'प्रमेयत्वं नास्ति' और 'प्रमेयं न' इस वृद्धि की अनुपपत्ति' होने की प्राशङ्का भी नहीं की जा सकती। क्योंकि प्रभेयत्वं नास्ति' इस बुद्धि में संयोगसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक प्रमेयत्वाभाव का स्वरूपसम्बन्धावच्छ्ति प्रतियोगीताकत्वरूप से भान हो सकता है । एवं 'प्रमेयो न' इस बुद्धिमें तत्तत्प्रमेयभेव का प्रमेयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वरूप से भान हो सकता है । यदि यह कहा जाय कि 'घटाभाव का प्रत्यक्ष भी तद्धटप्रतियोगिकाभाव का प्रत्यक्ष है और वह तद्भट का मान न होने पर भी घटान्तर के ज्ञान से उत्पन्न होता है । इसलिये पूर्वोक्त कार्यकारण भाव में व्यभिचार होगा । एवं समनियताभाव के ऐक्य पक्ष में गुरुत्वाभाव और रसाभाव एक होता है अतः गुरुत्व को अज्ञानदशामें भी रसत्वावच्छिन के ज्ञान से गुरुत्व प्रतियोगिक रसाभाव का प्रत्यक्ष होता है । ग्रतः इस प्रत्यक्ष में व्यभिचार होगा' तो नैयायिक उस के निवारण में कह सकते हैं कि तवभावज्ञानत्वरूपसे तदभाव के प्रत्यक्ष में तज्ज्ञान को कररण मानने पर कोई दोष नहीं हो सकता, क्योंकि तद्धट की प्रज्ञानदशा में घटाभाव का प्रत्यक्ष घटाभावत्वेन होता है, तटाभावस्थेन नहीं होता, इसी प्रकार गुरुत्व की ज्ञानदशा में रसाभाव का प्रत्यक्ष रसाभावत्वेन होता है, गुरुत्वाभावत्वेन नहीं, अतः उद्भावित व्यभिचार को अवकाश नहीं है'
[नयायिक प्रोक्त कार्यकारणभाव में आपत्ति धारा ]
किन्तु नैयायिक का यह पूर्वपक्ष प्रयुक्त है क्योंकि इस कार्यकारण भाव में भी प्रत्यय व्यभिचार स्पष्ट है, जैसे, द्रव्याभावाभाव का द्रव्यत्वेन ज्ञान होने पर भी द्रव्याभावाभावत्वेन प्रत्यक्ष नहीं होता ।
यदि इस दोष के परिहार के लिये कहा जाय कि तदभाव प्रत्यक्ष में तदभावप्रतियोगितावच्छेदकप्रकारक ज्ञान को कारण माना जाय तो कम्बुग्रीवादिमत्त्वप्रकारक ज्ञान से 'कम्बुग्रीवादिनामास्ति' इस प्रत्यक्ष की ओ उत्पत्ति होती है वह नहीं होगी । क्योंकि 'कम्बुग्रीवादिमान्नास्ति' इस प्रोति के