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[शा० वा० समुच्चय स्त. ४-श्नोक ३६
'अस्तु तर्हि अभावाभावोऽप्यतिरिक्त एव, तृतीयाभावादेः प्रथभाभावादिरूपत्वेनानवस्थापरिहाराद्' इति चेत् ? तो नन्ताभावाना तपाभावत्वस्य कल्पनामपेक्ष्य क्लप्साधिकरणे. वेब पोको भावस्तारिमापोऽनुमानः श्रीगनाम् । नहि 'अयमभावः' इति स्वातन्येण कम्शाऽपि अनुभवोऽस्ति, किन्त्यधिकरणस्वरूपमेव तचदारोपतत्तत्प्रतियोगिग्रहादिमहिम्ना तत्तदभावत्वेनानुभूयते इति ।
अथ तदभावलौकिकप्रत्यक्षे तज्ज्ञानस्य हेतुत्वाद् न स्वातन्त्ररेणाभावभानम् , अन्यप्रतियोगिकत्वेनान्याभावभानं तु नेष्यते, 'प्रमेयत्वं नास्ति, प्रमेयो न' इत्यादी संयोगाद्यवच्छिप्रत्यक्ष में प्रभावत्व का निविकल्पक प्रापाध हो तो भी यह नापत्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह प्रत्यक्ष प्रभावत्व अंश में घटाभावा भावविशिष्ट वैशिष्टयावगाहो है । प्रत एव उसके पूर्व में घटाभावत्वेन घटाभाव ज्ञान को सत्ता अनिवार्य होनेसे प्रभावत्व अंशमें विशेषपारूप से घटाभाव का ज्ञान अवश्य होगा। अत: उस प्रत्यक्ष द्वारा प्रभावत्व में निर्विकल्पकज्ञानविषयत्व का पापाबान नहीं हो सकता। तथा यदि यह कहा जाय कि-"घटामावाभावत्व और घटत्व एक है तो जसे घटत्व में शुद्ध निर्षिकरूपक को विषयता होती है उसी प्रकार प्रभावत्व में मी शुद्ध निविकल्पकीयविषयता की प्रापत्ति होगी।"-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि विशेष्यतानवच्छिन्न निर्विकल्पकीय विषयतासम्बन्ध से प्रत्यक्ष के उद्भव में प्रभावत्वमेव को कारण मानने से इस प्रापसि का परिहार हो सकता है।"-किन्तु यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकार कार्यकारणभाव मानने पर विशेष्यतानवच्छिन्ननिधिकल्पकीयविषयतासम्बन्ध से घटत्व का भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा, क्योंकि घटत्व और घटाभावामावस्व में ऐक्य होने से घटत्व में प्रभावत्व भेव नहीं है । यदि इस दोष का परिहार करने के लिए विशेष्यतानचिन्ननिविकल्पकाविषयता में भावाऽवृत्तित्व विशेषण दिया जाये तो अप्रसिद्धि दोष हो जायेगा क्योंकि उक्त प्रकार को सभी विषयता भावमें ही वृत्ति होती है। प्रभाव और प्रभावत्व में रहनेवाली समस्तविषयतार्य प्रतियोगिनिष्ठप्रकारतानिरूपितविषयता से प्रवछिन्न ही होती है। इसलिये माव में प्रवृत्ति हो ऐसी विशेष्यतानवच्छिन्ननिर्विकल्पकीयविषयता प्रसिद्ध नहीं हो सकती।
(अभाव का प्रभाव प्रतियोगो से भिन्न मानने पर भी गौरव) यदि इसके उत्तर में नैयायिक की और से यह कहा आय कि-"अभावामाव भी भावात्मकप्रतियोगी स्वरूप न मानकर अतिरिक्त प्रभावरूप ही मानेगे क्योंकि अमावाभाव को प्रतियोगी से भिन्न मानने पर विभिन्न प्रभाव की कल्पना में जो प्रनवस्था का प्रसङ्ग होता है उसका परिहार तृतीय प्रभाव को प्रथम अमाध रूप मानकर हो सकता है तो यह कथन भी ठोक नहीं है। क्योंकि अनंतप्रभाव की कल्पना और उनमें प्रभावत्व को कल्पना में अधिक गौरव है । उसकी अपेक्षा अवश्यस्वीकार्य प्रधिकरणों में प्रभावारमक एक परिणाम मानने में लाघव है। क्योंकि अधिकरणो में प्रभावास्मक पर्याय अनुभव सिद्ध है । यदि अधिकरण को छोड़कर स्वतन्त्र रूपसे 'अयमभावः' ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध हो तब तो अधिकरण से मिन्न प्रभाव की कल्पना को अवसर मीलता। किन्तु अनुभव यह है कि जिन अधिकरणों में प्रभाव की प्रतीति होती है जन प्रधिकरणों का स्वरूप ही प्रतियोगीसत्ता के प्रारोप से तथा प्रतियोगी ज्ञान प्रादि कारणों के सन्निधान से प्रभावत्व रूपसे मासमान होता है।