________________
स्या कन्टीका-हिन्दीविवेचना ]
] ६९
खविलयेऽपसिद्धान्तात् । 'तत्र तदभावाभावत्वमेकमेव' इति चेत् । किं तत् ? घटस्वादिकमिति चेत् , कधमस्य तत्त्वम् ? तेन रूपेण घटादिमत्ताप्रतीतो घटायभावाभावव्यवहारादिति चेत् । कथं तर्हि तदसाधारणधर्मान्तराणामपि न तथाल्वम् ।।
किञ्च, एवं घटत्वादिज्ञान प्रतियोगिज्ञानं विना न स्यात् , अभावत्वप्रत्यक्षे योग्यधर्मावच्छिन्नबानत्वेन हेतुत्वात् , अन्यथा तम्मिर्विकल्पकप्रसङ्गाद । यदि च निर्विकल्पकीयविषयतया घटवादिनाऽभावस्य प्रत्यक्षस्याभावत्वाश निर्विकल्पकस्य स्वीकारे विशेष्यत्तानवच्छिन्ननिर्विल्पकीयविषयतया वा प्रत्यक्षेऽभावत्वमेदस्य कारणत्वात् तन्निर्विकल्पकं वार्यते, तदा घटत्वादेरपि निर्विकल्पकाऽप्रसङ्गात , भावावृत्तितयोक्तविषयतया विशेषणे चाऽप्रसिद्धः। होगी" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर घटाभावाभावादि को घटादि स्वरूप मानना भी उचित न होगा। क्योंकि, अनेक घटों में घटामावामावत्व को कल्पना को मापत्ति होगी। यदि इस पक्ष का भी परित्याग कर दिया जायगा तो नैयायिक के सिद्धान्त को हानि होगी क्योंकि प्रभाव का प्रभाव प्रतियोगो स्वरूप होता है यह उनका सिद्धान्त है। यदि यह कहा जाय कि "विभिन्न घट में जो घटाभावाभावस्व माना जाता है वह एक ही है। प्रतः प्रभावाभाव को प्रतियोगी स्वरूप मानने में प्रननुगम की प्रसक्ति नहीं होगी" तो इस कथन का उपपावन शक्य नहीं है, क्योंकि घट में माने जाने वाले घटाभावाभावत्व को घटस्वरूप मानने पर हो यह कहा जा सकता है, किन्तु उसकी घटत्वरूपता में कोई युक्ति नहीं है। यदि इस मान्यता के समर्थन में यह कहा जाय कि "घटत्व रूप से भूतल में 'भूतल घटवत' इस प्रकार की प्रतीति होने पर 'मृतले घटामावो नास्ति' यह व्यवहार होता है इसलिए घटत्व और घटाभावामावस्व में ऐक्य माना जा सकता है-" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने का आधार घट और घटाभावामाव इन दोनों का समनियत भाव हो हो सकता है, अब यवि घटामावाभाव में घट के समनियतभाव से ही घटाभावाभाव को घटरूप मानना है तो घटाभावाभाव में घर के समनियत अन्य अनेक धर्मों का भी समनियतभाव है प्रसः टाभाथाभाव को केवल घटस्वरूप न मानकर सन्यप्रनेक घम स्वरूप भी मानना होगा, प्रतः घटाभावाभावत्व को केवल घटत्व रूप मानना सम्भव न होने से प्रभाव के प्रभाव को प्रतियोगी स्वरूप मानने के पक्ष में भी अननुगम दोष को प्रसक्ति अनिवार्य रहेगी।
(घटाभावाभावत्व को घटत्यादिरूप मानने में अनुपपत्ति) इस संदर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि घटाभावाभाव को घट स्वरूप मानने पर लाघव की दृष्टि से सम्पूर्ण घटों में घटाभावाभावत्व को एक मानना होगा और वह भी लाघववश घटत्व रूप होगा। ऐसी स्थिति में घटाभाव रूप प्रतियोगी के ज्ञान विना घटाभावाभावत्वरूप घटत्व का ज्ञान न हो सकेगा। क्योंकि प्रभावत्व के प्रत्यक्ष में योग्यधर्मावच्छिन्न प्रतियोगी का ज्ञान कारण होता है । यदि यह कार्यकारण भाव न माना जायगा तो प्रभावस्व के निविकल्पक ज्ञान की पापत्ति होगी, जब को प्रभावत्व का निविफल्पक ज्ञान अनुभव और सिद्धान्त दोनों से विरुद्ध है। यदि यह कहा जाय कि'घटरव रूप से जो घटाभावाभाव का प्रत्यक्ष प्रा उसमें घटत्वरूप से प्रभावव का निर्विकल्पक ज्ञान इष्ट है अतः यह आपत्ति नहीं हो सकती है। तथा यदि घटाभावाभावस्व रूप से घटाभावाभाव के